रविवार, 2 अगस्त 2009

आम आदमी की थाली से गायब होती दाल!

(लिमटी खरे)


इस साल मानसून के बिगड़े मिजाज ने देश के बाजार पर बदनसीबी की जो इबारत लिखी थी उसका आम आदमी की जिंदगी पर असर अब साफ दिखाई पड़ने लगा है। सरकारेें मंहगाई को लेकर चाहे जो भी दावे कर किन्तु यह सच है कि तेजी से बढ़ती मंहगाई के ग्राफ ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है।
इस साल के आरंभ से ही देश में दाल के संकट की गूंज सुनाई पड़ने लगी थी। इस साल के आरंभ में ही सेंटर फार साईंस एंड एनवायरमेंट की रिपोर्ट आने के बाद हड़कम्प सा मच गया था, इसमेें सबसे ज्यादा मिलावट दाल और खाद्य तेलों में होना बताया गया था।
दाल की उछाल मारती कीमतों से निजात के लिए दिल्ली सहित कुछ सरकारों ने सस्ती दरों पर दाल मुहैया कराने की सराहनीय पहल की है। वैसे देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली की जनसंख्या के हिसाब से महज अस्सी केंद्र बनाकर उनके माध्यम से दाल वितरण कराना अपर्याप्त ही माना जा रहा है। कम वितरण केंद्रों के होने से इनमें अफरातफरी मचना स्वाभाविक ही है।
राज्य सरकारों को इस पहलू पर भी विचार करना आवश्यक होगा कि जिन कें्रद्रों पर दाल नहीं मिल पाएगी उन केंद्रों पर पहले से ही मंहगाई से त्रस्त रियाया का गुस्सा भड़कना स्वाभाविक ही होगा। सरकारों को अपनी जनलुभावनी घोषणा को अमली जामा पहनाते समय इस पहलू पर विचार अत्यावश्यक होगा। साथ ही सरकारी स्टाल पर दाल बेचना या दाल की राशनिंग करना इस समस्या का स्थाई इलाज नहीं माना जा सकता है।
यह सच है कि आसमान छूते दाल के भावों ने आम निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के खाने का न केवल जायका बिगाड़ा है, वरन इससे उनका बजट भी बिगड़ चुका है। खाने पीने की चीजों से लेकर रोजमर्रा के उपयोग वस्तुओं के दामों में आया उछाल आम आदमी को हलाकान करने के लिए पर्याप्त कहा जा सकता है।
वैसे एक सच यह भी है कि दालों में कीमतों की बढ़ोत्तरी असमान्य ही मानी जा रही है। पिछले लगभग दो माहों के अंदर ही दालों की कीमतें लगभग पचास फीसदी बढ़ गई हैं। इन परिस्थितियों में सरकारों को यह भी जानना जरूरी हो गया है, कि आखिर कौन सी अदृश्य ताकतें बाजार को अपने हिसाब से संचालित करने का उपक्रम कर रही हैं।
दाल की कीमतों में अचानक आया उछाल दाल में काले की ओर साफ तौर पर इशारा कर रहा है। इसकी वजह अभी साफ नहीं हो सकी है। विशेषज्ञ इसे कृत्रिम संकट बताकर इसके लिए जमाखोरों, सटोरियों और मिलावटखोरों को जिम्मेदार बता रहे हैं।
हमारा कहना महज इतना ही है, कि अगर सरकार किन्ही कारणों के चलते इस लाबी के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने का साहस नहीं जुटा पा रही है, तो कम से कम उसे चाहिए कि वह उस दाल के भंडार को सुरक्षित कर ले जो बंदरगाहों पर पड़ी सड़ रही है।
विडम्बना ही कही जाएगी कि एक ओर गरीब गुरबों के साथ ही साथ निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की खाने की थाली से दाल पूरी तरह गायब सी हो रही है, वहीं दूसरी ओर उन्ही की गाढ़े पसीने की कमाई से सरकारी उपक्रमों द्वारा आयतित दाल बंदरगाहों पर पड़ी सड़ रही है। सरकारी प्रयासों से साफ हो गया है कि दाल की कीमतों पर काबू पाने के सरकार के प्रयास और हस्ताक्षेप पूरे मन से नहीं किए जा रहे हैं, तभी देश में दाल की कीमतों में जबर्दस्त उछाल आ गया है।
अनेक सर्वेक्षणों की रिपोर्ट साफ इशारा करती है कि भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा भाग कुपोषण का शिकार है। भारत में हर साल साढ़े दस लाख बच्चे कुपोषण के चलते ही असमय ही काल के गाल में समाने पर मजबूर हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक प्रतिवेदन पर अगर नजर डाली जाए तो भारत के 63 फीसदी बच्चे भोजन के अभाव में भूखे सोने को मजबूरह हैं।
तिस पर आसमान छूती कीमतों के चलते आम आदमी की थाली से दाल की कटोरी गायब होती जा रही है। सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि पिछले दस सालों में भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में 10 लाख टन अनाज को या तो चूहे खा गए या वह सड़ गया।
बताते हैं कि 1997 से 2007 के बीच ही देश में भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में 83 लाख टन टन गेंहूं, 3.95 लाख टन चावल, 22 हजार टन धान, 110 टन मक्का ही सड़ा चुका है। देश में शीतगृहों के अभाव में हर साल 58 हजार करोड़ रूपयों की सब्जियां और फल सड़ जाते हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि एफसीआई के गोेदामों में जितना अनाज सड़ा है वह देश के एक करोड़ लोगों के खाने के लिए एक साल तक पर्याप्त राशन कहा जा सकता है।
इसके बावजूद भी कांग्रेसनीत डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार का काम तो देखिए। उसने 1.2 करोड़ टन अनाज जिस दर पर निर्यात किया है, उसी दर पर केंद्र सरकार देश के गरीबों को उसे सौंपने तैयार नहीं थी। इस तरह देश की सरकार अपनी रियाया का ध्यान रख रही है।

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. . . तो इस तरह बचाया लालू ने अपना सिंहासन

(लिमटी खरे)


नई दिल्ली। आम चुनावों के एन पहले अपने घुर विरोधी राम विलास पासवान से गलबहिंया कर कांग्रेस को आंखे दिखाने वाले लालू प्रसाद यादव ने लोकसभा में अगली पंक्ति का अपना सिंहासन बचा ही लिया। लालू यादव की यह सीट किस कीमत पर बची इसको लेकर तरह तरह की चर्चाओं के बाजार गर्मा गए हैं।
पिछले दो महीनों से यही कयास लगाया जा रहा था कि महज चार सीटों पर विजय पताका फहराने वाले राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव को लोकसभा के सदन में पीछे की सीट मिलेगी। अंत में जब बंटवारा हुआ तो लालू यादव को पुराना आगे वाला आसन ही मिल गया।
लालू प्रसाद के इस कथित ``मेनेजमेंट`` पर लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली। कभी घाटे में जा रही भारतीय रेल को मुनाफे में लाकर लालू यादव ने ढेर सारी वाहवाही बटोरी थी। इसके बाद आम चुनावों में बिहार मे कांग्रेस का पल्ला झटक राम विलास पासवान से गठजोड़ कर चुनाव लड़ने के बाद लालू यादव के खिलाफ कांग्रेस में असंतोष के स्वर बुलंद हो गए थे।
इसके बाद सदन में यदुवंशियों अथाZत लालू प्रसाद यादव, शरद यादव और मुलायम सिंह यादव के नए त्रिफला गठबंधन ने कांग्रेस के कान खड़े कर दिए थे। बताते हैं कि राहुल गांधी के करीबी एक ताकतवर महासचिव ने कूटनीतिक चालें चलकर लालू यादव को इस यदुवंशी त्रिफला से बाहर कर दिया।
कांग्रेस के उच्च पदस्थ सूत्र बताते हैं कि प्रधानमंत्री डॉ. मन मोहन सिंह द्वारा ``शर्म अल शेख`` में दिया गया बयान कांग्रेस के लिए गले की फांस बन गया था। इस पर सदन में चर्चा के दौरान कांग्रेस को आशंका थी कि यादव त्रय द्वारा इस मामले में सरकार की खाल उतारी जाएगी।
बलूचिस्तान मामले में शरद यादव और मुलायम ने तो जमकर भड़ास निकाली पर जब लालू प्रसाद यादव की बारी आई तो उन्होंन बड़ी ही चतुराई से अपने आप को इस मामले से बचाते हुए कहा कि वे पहले सूखे पर चर्चा करना चाहेंगे। लालू यादव की इस हरकत से एक ओर जहां यदुवंशियों के कुनबे में दरार पड़ गई वहीं दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव ने सदन में अपनी अगली पंक्ति की सीट पर कब्जा बरकरार रख लिया।

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. . . . तो कुरई घाट में क्या आपत्ति है?

0 उत्तराखण्ड सरकार ने राजाजी नेशनल पार्क से मांगी बायपास के लिए जमीन!

(लिमटी खरे)


नई दिल्ली। उत्तराखण्ड सरकार ने राजाजी नेशनल पार्क की दो हेक्टेयर जमीन का उपयोग बायपास निर्माण के लिए करने हेतु देश के सर्वोच्च न्यायालय से मांग की है। जब जब हिल बाईपास के लिए राष्ट्रीय उद्यान के लिए जमीन मांगी जा सकती है, जहां कि अभी कोई मार्ग ही नहीं है तो मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में कुरई घाट पर देश के सबसे पुराने राष्ट्रीय राजमार्ग के निर्माण में पेंच क्यों फंसाए जा रहे हैं।
प्राप्त जानकारी के अनुसार कुंभ मेले के दौरान यातायात के दबाव को कम करने के उद्देश्य से उत्तराखण्ड सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर राजाजी नेशनल पार्क की दो हेक्टेयर जमीन की मांग की है। उत्तराखण्ड सरकार की ओर से अधिवक्ता रचना श्रीवास्तव द्वारा दायर याचिका में अनुरोध किया गया है कि इसकी अनुमति शीघ्र ही प्रदान की जाए अन्यथा परियोजना में विलंब हो जाएगा।
बताया जाता है कि सर्वोच्च न्यायलय ने उक्त याचिका को जांच के लिए केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) को भेज दिया है, और कहा है कि सीईसी के प्रतिवेदन के उपरांत ही इस पर कोई फैसला लिया जा सकेगा। दायर याचिका में राज्य सरकार ने कहा है कि प्रस्तावित मार्ग खरखरी और मोतीचूर रेल्वे स्टेशन के बीच बनेगा। इस मार्ग के लिए चीफ वाईल्ड लाईफ वार्डन पूर्व में ही कुछ शर्तों के साथ अनुमति दे चुके हैंं।
जब इस तरह के मार्ग के लिए प्रयास किए जा रहे हों जो कि अभी अस्तित्व में ही नहीं हैं, तो शेर शाह सूरी के जमाने से मुख्य मार्ग रहे राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात के सिवनी जिले के महज 9 किलोमीटर के हिस्से में पेड़ों की कटाई और फोरलेन के निर्माण में तत्कालीन जिला कलेक्टर पिरकीपण्डला नरहरि का स्थगनादेश समझ से परे ही नजर आ रहा है।
गौरतलब होगा कि तत्कालीन जिला कलेक्टर पी.नरहरि ने 18 दिसंबर 2008 को एक आदेश जारी कर साफ कहा था कि वन और गैर वन क्षेत्रों की कटाई के बारे में पूर्व कलेक्टरों के आदेश इस आदेश के बाद निरस्त हो जाएंगे। इससे मोहगांव से खवासा (कुरई घाटी) में मार्ग निर्माण बाधित हो गया है।