मंगलवार, 17 अगस्त 2010

इस बार ज्‍यादा लाचार दिखे प्रधानमंत्री

लाचार प्रधानमंत्री का उबाउ उद्बोधन!

भारत गणराज्य में आजादी के उपरांत यह परंपरा चल पड़ी है कि स्वाधीनता दिवस के रोज वजीरे आजम द्वारा स्वायत्त सत्ता के प्रतीक लाल किले में तिरंगा फहराया जाएगा और उसके बाद वे उसी लाल किले की प्राचीर से आवाम ए हिन्द को संबोधित करेंगे। अब तक के प्रधानमंत्रियों में डॉ. मनमोहन सिंह के इस साल के उद्बोधन को देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि देश के लाचार प्रधानमंत्री का यह उबाउ उद्बोधन था। नक्सल, माओवाद आतंक और कमर तोड़ मंहगाई की समस्या पर उनके विचारों को सुनकर हमारे कुछ मीडिया के मित्र उनका सारगर्भित उद्बोधन अवश्य कह रहे हों, किन्तु सच्चाई इस सबसे जुदा है।

(लिमटी खरे)

एतिहासिक लाल किले की प्राचीर से भारत के गणराज्य के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने सातवीं बार झंडा वंदन कर देश में नेहरू गांधी परिवार से इतर पहले व्यक्ति होने का खिताब अवश्य पा लिया हो पर उनका उद्बोधन राष्ट्र को क्या संदेश दे गया इस बारे में देश व्यापी बहस की आवश्यक्ता महसूस की जाने लगी है। देश के सबसे ताकतवर पद पर विराजमान राजनेता ही जब जनता द्वारा सीधे चुना न गया हो, वह पिछले दरवाजे यानी राज्य सभा से आया हो तब उसकी मजबूरी समझी जा सकती है। कैसी विडम्बना है कि देश का प्रधानमंत्री लोगों के द्वारा चुने जाने वाले सांसदों और देश की सबसे बड़ी पंचायत में अपना वोट तक नहीं डाल सकता है!

देश के प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह एक योग्य, काबिल, शालीन, समझदार, शांत और सौम्य व्यक्तित्व के धनी हैं इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु देश के वर्तमान हालातों को देखकर बतौर प्रधानमंत्री उनकी कार्यप्रणाली और प्रशासनिक क्षमताओं पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है। देश में मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है। हजारों टन अनाज भण्डारण के अभाव में सड़ रहा है। गरीब गुरबे दो वक्त की रोटी के लिए मारा मारी कर रहे हैं। जनसेवक एक रात में ही लाखों की पार्टियां उड़ा रहे हैं। देश में चुने गए सांसद और विधायकों के वेतन भत्ते आसमान छू रहे हैं। इन सबके बाद भी मनमोहन सिंह फरमा रहे हैं कि मंहगाई कम होने वाली है। सदन में मंहगाई पर चर्चा के दौरान नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज का वक्तव्य बहुत प्रासंगिक है कि मंहगाई है तो पर इतने अधिक दिन टिकी कैसे है? अगर किसी कारण विशेष से मंहगाई बढ़ रही थी तो निश्चित तौर पर वे कारण स्थाई तो कतई नहीं रहे होंगे, तब मंहगाई का ग्राफ नीचे आना चाहिए था, वस्तुतः एसा हुआ नहीं।

बहरहाल प्रधानमंत्री ने माओवादियों और नक्सलवादियों को हिंसा का रास्ता छोड़कर सरकार के साथ बातचीत का आव्हान किया है, जो दर्शाता है कि उच्च स्तर पर इस समस्या को लेकर लोग संजीदा हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं कि कानून और व्यवस्था के तहत हर नागरिक को सुरक्षा देना सरकार का कर्तव्य है, वहीं दूसरी ओर माओवाद और नक्सलवाद प्रभावित इलाकों में आम निरीह नागरिक और सुरक्षा बलों के जवानों के मारे जाने से सरकार असहाय ही दिखाई पड़ती है। प्रधानमंत्री को इस बात को भी याद रखना चाहिए कि पूर्व में देश में चाहे किसी भी दल की सरकार रही हो, उसने आतंकवादियों के सामने घुटने टेककर उन्हें छोड़ा भी है। एक समय जब आतंकवादी चेहरे ढांककर सरकार से बात करने आए थे, तब आज नक्सलवादियों या माओवादियों से बिना शर्त बात क्यों नही हो सकती है।

क्या भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री यह नहीं जानते हैं कि नक्सलवाद के पीछे मूल समस्या क्या है? अनजान परदेसी नक्सलवादी गावों के लोगों के साथ आखिर हिल मिल कैसे जाते हैं। उनका निशाना मुख्यतः कौन लोग होते हैं? जाहिर है कि जो गांव के लोगों को उनके अधिकारों के साथ छेड़छाड़ कर अत्याचार और जुल्म करता है, उसे ही नक्सलवादी अपना निशाना बनाते हैं। आंकड़े गवाह हैं कि नक्सलवादियों के निशाने पर मुख्यतः पुलिस, वन और राजस्व विभाग के कर्मचारी ही होते हैं। ये तीन विभाग ही हैं, जिनसे ग्रामीणों का रोज रोज वास्ता पड़ता है। भ्रष्टाचार की सड़ांध मारते हिन्दुस्तान के हर एक सरकारी कर्मचारी और जनसेवक की रग रग में बस चुका है भ्रष्टाचार का कैंसर। यही कारण है कि नक्सलवाद जैसी समस्या को पैदा होने के लिए उपजाउ माहौल मिल रहा है।

इस पंगु व्यवस्था के बीच प्रधानमंत्री का कहना है कि सरकार योजना आयोग के माध्यम से आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए नई योजनाएं बनाई जाएंगी। प्रधानमंत्री ने यह बात तो बड़ी सफाई से कह दी कि योजना बनाई जाएगी, किन्तु यह योजना कब बनेगी?, इसे अमली जामा कब पहनाया जाएगा? इस बारे में वे पूरी तरह से मौन ही रहे। मान लिया जाए कि आदिवासी क्षेत्र के लिए विकास की नई योजनाएं बनाई जाएंगी, किन्तु इस बात की गारंटी कौन लेगा कि जमीनी स्तर पर इस तरह की योजनाए एक बार फिर जनसेवकों, नौकरशाहों और ठेकेदारों का ग्रास नहीं बन पाएंगी।

प्रधानमंत्री को इस तरह की बात करने के पहले आत्मावलोकन करना चाहिए था। सबसे पहले उन्हें आदिवासी मामलों के मंत्री कांति लाल भूरिया को बुलाकर उनसे चर्चा करनी चाहिए थी कि देश भर में केंद्र पोषित कितनी योजनाएं अस्तित्व में हैं और उनकी जमीनी हकीकत क्या है? अगर प्रधानमंत्री एक दिन का समय निकालकर इन योजनाओं में केंद्रीय आवंटन और जमीनी हकीकत के ब्योरे पर नजर डालेंगे तो निश्चित तौर पर उनकी आंखे फटी की फटी रह जाएंगी।

मामला महज आदिवासी विकास विभाग का ही नहीं है। भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से ही स्वीकार किया है कि केंद्र सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून बनाया पर आज देश के 45 लाख बच्चे स्कूल जाने से वंचित हैं। अगर हालात इस कदर हैं तो कानून बनाने का फायदा ही क्या है? केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही सारी योजनाओं मंे धांधलियों की खबरों से मीडिया अटा पड़ा है। सत्तर के दशक तक किसी के खिलाफ भ्रष्टाचार की खबर छपना सामाजिक तिरस्कार का कारण बन जाता था। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज के जनसेवकों के खिलाफ मीडिया चाहे जितना चिल्ला ले उनकी मोटी चमड़ी पर इसका कतई असर नहीं होता है।

आदिवासी बाहुल्य जिलों में सूबों के आदिवासी विकास विभाग, जिला, जनपद, ग्राम पंचायतें और राजस्व के अधिकारी मिलकर इन योजनाओं में आने वाले धन का बंदर बांट करते हैं। कागजों पर आदिवासियों की हालत अमेरिका या ब्रिटेन के नागरिकों से ज्यादा बेहतर है, किन्तु वास्तविकता कुछ और ही कहानी कहत नजर आती है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को कांग्रेस के ही पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी द्वारा दो दशक पहले कही गई बात को याद रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि वे जानते हैं कि केंद्र से भेजा जाने वाला एक रूपया गांव तक पहुंचते पहुंचते 15 पैसे में तब्दील हो जाता है।

वैसे भी केंद्र से मिलने वाली इमदाद बर्फ के मानिंद ही होती है। वह जितने हाथों में जाती है हाथ की गर्मी उसका कुछ अंश पिघला देती है, जिससे कुछ पानी हाथ में ही रह जाता है, फिर जब वह अंत में गंतव्य तक पहुंचती है, बर्फ का छोटा से टुकड़ा ही बचता है। समस्या कहीं और नहीं समस्या भारत के अपने सिस्टम में है। देश की लगभग सवा सौ करोड़ की आबादी में पच्चीस करोड़ लोगों के पास पैसा है, किन्तु अस्सी करोड़ से ज्यादा लोग बस किसी तरह दिन काटने पर मजबूर हैं।

कुल मिलाकर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा लाल किले की प्राचीर से जो संदेश देने का प्रयास किया है, वह एकदम अस्पष्ट है। देश पर राज करते हुए प्रधानमंत्री सिंह को यह सातवां साल है, फिर भी नक्सलवाद, माओवाद, अलगाववाद, के साथ ही साथ काश्मीर समस्या जस की तस खड़ी हुई है, क्या यह उनकी असफलता की दुहाई नहीं दे रही है? क्या देश की जनता लालकिले से यह सुनने के लिए ही जाती है कि अभी हम बातचीत करेंगे? यक्ष प्रश्न तो यह है कि आखिर देश के और कितने सपूत सुरक्षा बालों के जवान और निरीह लोगों की बली के बाद सरकार द्वारा कोई कदम उठाया जाना सुनिश्चित किया जाएगा?

पैरासिटामाल है खतरनाक

बिना डाक्टरी सलाह न लें पैरासिटामाल टेबलेट

शोध बताता है इससे हो सकता है अस्थमा

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली 17 अगस्त। हल्का बुखार, थकान या दर्द की शिकायत होने पर युवाओं द्वारा अक्सर ही पैरासिटामाल टेबलेट का प्रयोग डाक्टरी सलाह के बिना ही कर लिया जाता है। ताजा शोध से पता चला है कि इस तरह का कृत्य नीम हकीम खतरे जान वाली कहावत को चरितार्थ कर सकता है। शोध बताता है कि अगर युवा नियमित तौर पर पैरासिटामाल का प्रयोग करते हैं तो उनमें अस्थमा होनी की आशंका बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। इससे एलर्जी भी हो सकती है।

13 से 14 साल के लगभग तीन लाख किशोरों के उपर किए गए शोध से नतीजा चौंकाने वाला सामने आया है। अध्ययन में पता चला है कि जो किशोर महीने में कम से कम एक बार पैरासिटामाल गोली का प्रयोग करते थे उनमें अस्थमा होने की आशंका ढाई गुना ज्यादा हो जाती है। इतना ही नहीं शोधकर्ताओं का दावा है कि साल में एक बार पैरासिटामाल का प्रयोग करने वाले युवाओं को अस्थमा का खतरा पचास फीसदी ज्यादा हो जाता है।

‘‘अमेरिकी जर्नल ऑफ रेस्परेटरी एंड क्रिटिकल केयर मेडीसिन‘‘ में प्रकाशित इस सर्वे में रिसर्च स्कालर्स का कहना है कि अमूमन हल्के बुखार और दर्द के होने पर दर्दनाशक यह दवा प्रतिरोधक तंत्र में सीधे सीधे दखल दे देती है, जिससे श्वास नली में सूजल और जलन जैसी शिकायतें होने लगती हैं। इनका कहना है कि पैरासिटामाल का सेवन दुनिया भर में धडल्ले से किया जा रहा है।

0 फोरलेन विवाद का सच --------- 10

तत्कालीन कलेक्टर के आदेश के बाद उमड़ा था सिवनी वासियों में आक्रोश

सड़क बंद होने और छिंदवाड़ा से जाने की चर्चाओं का गर्मा गया था बाजार

पिछले साल जून में अचानक अवतरित हुआ था तत्कालीन कलेक्टर का आदेश

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली 17 अगस्त। मध्य प्रदेश के सिवनी जिले का यह सौभाग्य ही माना जाएगा कि बड़े बड़े राजनेताओं के अथक प्रयासों के बावजूद भी उत्तर दक्षिण फोरलेन सड़क परियोजना के नक्शे से इस जिले का नामोनिशान नहीं मिट सका था। नेताओं ने एडी चोटी लगा दी कि इस परियोजना का एलाईंमेंट बदल दिया जाए किन्तु केंद्र सरकार ने एक न सुनी और इसका निर्माण आरंभ करवा दिया। सिवनी जिले में भी लखनादौन तहसील से नरसिंहपुर जिले की सीमा से लेकर जिला मुख्यालय सिवनी होकर महाराष्ट्र की सीमा तक इस सडत्रक का निर्माण करवाया जा रहा था।

अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार की महात्वाकाक्षी योजना बन गई थी स्वर्णिम चतुर्भज फोरलेन परियोजना, जिसके तहत देश के चारों महानगरों को आपस में जोड़ा जाना प्रस्तावित था। इसी के साथ मुंबई को कोलकता और चेन्नई को नई दिल्ली से जोड़ने की गरज से उत्तर दक्षिण और पूर्व पश्चिम गलियारा बनाया जाना प्रस्तावित हुआ था। इस परियोजना में काम बहुत ही मंथर गति से चल रहा है। सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायस्वाल ने संसद में लिखित उत्तर में कहा है कि 30 हजार करोड़ रूपए की लागत से बनने वाली स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना का काम छः साल पीछे चल रहा है।

बहरहाल पूर्व में इस मार्ग के निर्माण का काम युद्ध स्तर पर जारी भी किया गया है। वर्ष 2008 में दिसंबर माह में सिवनी जिले में एक नाटकीय मोड के तहत तत्कालीन जिला कलेक्टर सिवनी पिरकीपण्डला नरहरि ने आदेश क्रमांक 3266/फोले/2008 दिनांक 18 दिसंबर 2008 को जारी कर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित केंद्रीय साधिकार समिति (सीईसी) के सदस्य सचिव के पत्र क्रमांक 1-26/सीईसी/एससी/2008 - पी 1 दिनांक 15 दिसंबर 2008 जिसे सीईसी ने मुख्य सचिव मध्य प्रदेश शासन को लिखा था के हवाले से काम रूकवा दिया था।

जिला कलेक्टर के उक्त पत्र में सीईसी ने नेशनल हाईवे नंबर सात के चोडीकरण कार्य (न कि उत्तर दक्षिण फोरलेन गलियारा) में ग्राम मोहगांव से खवासा तक पेंच टाईगर रिजर्व से लगे वन क्षेत्र और गैर वन क्षेत्रों में की जारी वृक्षों की कटाई पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के अगामी आदेश तक रोक लगाने का अनुरोध करना भी उल्लेखित किया गया है। जिला कलेक्टर सिवनी ने अपने उक्त आदेश में इस प्रत्याशा के साथ कि राज्य शासन द्वारा इस मामले में अभी निर्देश प्राप्त होना है, उन समस्त आदेशों को जो कलेक्टर कार्यालय सिवनी द्वारा इस संबंध में पूर्व में जारी किए गए थे, को स्थगित कर दिया था। इसके उपरांत क्या राज्य शासन द्वारा इस मामले में कोई निर्देश दिए हैं या फिर नहीं इस मामले में जिला प्रशासन सिवनी ने अपना मुंह सिल रखा है।

मजे की बात तो यह है कि कलेक्टर सिवनी का दिसंबर 2008 का यह आदेश जुलाई 2009 में प्रायोजित तरीके से सिवनी की फिजां में तैराया गया। दिसंबर 2008 से जुलाई 2009 तक यह आदेश कैसे दबा रह गया यह बात आज भी यक्ष प्रश्न की भांति ही खडी हुई है। जुलाई 2009 में यह आदेश क्यों सामने लाया गया, यह भी एक पहेली ही बना हुआ है। आश्चर्यजनक तथ्य तो यह उभरकर सामने आया है कि जिला कलेक्टर के 18 दिसंबर 2008 के इस आदेश की प्रतिलिपि मुख्य सचिव म.प्र.शासन, मुख्य वन संरक्षक सिवनी, प्रोजेक्ट डायरेक्टर एनएचएआई, सिवनी, संबंधित विभागों के साथ ही साथ जिला जनसंपर्क अधिकारी कार्यालय सिवनी को सभी स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशन के लिए प्रेषित किया गया था।

जब यह बात सिवनी की फिजां में तैरी वैसे ही लोगों के अंदर रोष और असंतोष पनपना आरंभ हो गया। अफवाहें तबियत से गरमा चुकी थीं उस वक्त। कोई कहता सड़क बंद हो जाएगी तो कोई इसे कमल नाथ का षणयंत्र बताकर अपनी राग अलाप देता। लोगों का गुस्सा किस दिशा में जा रहा था, इस बात को कोई भी नहीं समझ पा रहा था। इसी बीच शहर के कुछ उत्साही युवाओं ने लोगों को एक सूत्र में पिरोने की ठानी।

(क्रमशः जारी)