गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

कब होगा कम थुरूर का गुरूर


कब होगा कम थुरूर का गुरूर

थुरूर के बडबोलेपन को क्यों सह रही है कांग्रेस

भारत सरकार के बजाए सोशल नेटविर्कंग वेवसाईट है थुरूर की प्राथमिकता

(लिमटी खरे)

नौकरशाह से जनसेवक बने शशि थुरूर पहली मर्तबा केंद्र में मंत्री बने हैं। मंत्री बनने के बाद भी उनके चाल चलन आचार विचार में कोई परिवर्तन परिलक्षित नही हो रहा है। पहले की ही तरह वे सोशल नेटवकिंZग वेव साईट पर ही अपनी टिप्पणी देने का क्रम जारी रखे हुए हैं।


हालात देखकर लगने लगा है मानो भारत सरकार का विदेश राज्यमंत्री का कार्यालय कागजों पर नहीं वरन् इंटरनेट की एक विशेष सोशल नेटविर्कंग वेव साईट पर ही चल रहा हो। लगता है कि शशि थुरूर के विभाग के कार्यालय में अगर किसी को किसी नस्ती (फाईल) को थुरूर से ओके करवाना हो तो उसे भी इस नेटविर्कंग वेव साईट पर ही डालकर उनका अनुमोदन लेना होगा। माना कि इक्कीसवीं सदी में भारत का नया चेहरा इंटरनेट की टेक्नालाजी से लवरेज होगा, किन्तु थुरूर मामले में भारत सरकार की चुप्पी ने साफ जता दिया है कि प्रधानमंत्री भी चाहते हैं कि भारत सरकार के मंत्री टि्वटर, ऑरकुट, फेसबुक या दूसरी सोशल नेटवििर्कंग वेवसाईट के माध्यम से अपना कामकाज निष्पादित करें।

मंत्री पद संभालने के बाद ही शशि थुरूर ने मंत्री जैसे बर्ताव के बजाए वालीवुड की सेलीब्रिटीज की तरह ही इंटरनेट पर अपने प्रशंसकों से सवाल जवाब का कभी न रूकने वाला सिलसिला आरंभ कर दिया। पहले कांग्रेस अध्यक्ष के हवाई जहाज में इकानामी क्लास में यात्रा करने के उपरांत इकानामी क्लास को केटल क्लास (मवेशी का बाडा) फिर काम के बोझ का हवाला देकर अपनी व्यस्तताएं उजागर करने पर उन्हें कांग्रेस की राजमाता और प्रधानमंत्री ने तगडी नसीहत दी थी। बावजूद इसके थुरूर का इंटरनेट का गुरूर कम होता नहीं दिखता।

अबकी बार थुरूर ने सोशल नेटविर्कंग वेवसाईट पर भारत सरकार के ही वीजा संबंधी नियम कायदों के निर्णय के खिलाफत में अपने स्वर मुखर कर दिए हैं। अमूमन सरकार द्वारा जो निर्णय लिए जाते हैं उससे मंत्रीमण्डल के हर सदस्य को इत्तेफाक रखना ही होता है। सरकार के निर्णय के खिलाफ किसी भी मंत्री का सार्वजनिक बयान क्षम्य श्रेणी में कतई नहीं आता है।


जब हेडली और राणा जैसे सरगना देश में बेखौफ आ जा रहे हों तब वीजा नियमों का कडाई से पालन सुनिश्चित किया जाना भारत सरकार की पहली प्राथमिकता ही बनती है। विदेश राज्य मंत्री शशि थुरूर इन नियम कायदों में पता नहीं क्यों शिथिलता की हिमायत करते नजर आ रहे हैं। थुरूर का यह कथन भी बचकाना ही कहा जाएगा जिसमें उन्होंने कहा है कि 26 / 11 को अंजाम देने वाले आतंकियों के पास वीजा नहीं था, फिर भी हमला नहीं रोका जा सका।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने थुरूर के बचपने पर मोहर लगाते हुए कह ही दिया कि थुरूर धीरे धीरे राजनीतिक संस्कृति को समझ जाएंगे। थुरूर के बडबोलेपन पर परोक्ष तौर पर कटाक्ष करते हुए चतुर्वेदी कहते हैं कि पुरानी आदतों के बदलने में समय लगता ही है। वैसे थुरूर की दूसरी गल्ती पर प्रधानमंत्री उनसे नाखुश ही प्रतीत हो रहे हैं। पहली मर्तबा थुरूर के बडबोलेपन के बारे में प्रधानमंत्री ने स्वयं आगे आकर प्रकरण को शांत करवा दिया था, पर अब लगता है कि थुरूर को दूसरी गिल्त भारी पड सकती है।


राजनयिक से जनसेवक बने शशि थुरूर के अंदाजे बयां को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि थुरूर के पास राजनैतिक सोच समझ का जबर्दस्त अभाव है। वे इतना भी नहीं जानते हैं कि किस बात को किस मंच पर उठाया जाना चाहिए। सोशल नेटविर्कंग वेव साईट के दीवाने थुरूर हर किसी बात को ट्वीटर पर ही शेयर करते हैं। इससे एक तो वे विवादों में रहते हैं दूसरे टि्वटर की बिना मोल पब्लिसिटी भारत सरकार के माध्यम से ही हो रही है।

शशि थुरूर के टि्वटर के गुरूर ने विदेश मंत्री एम.एस.कृष्णा को भी कडे तेवर अपनाने पर मजबूर ही कर दिया। अंतत: कृष्णा को कहना ही पडा कि मैं हूं विभाग का बास और शशि थुरूर को करना होगा उनका अनुसरण। उनके अनुसार विदेश मंत्री नीतियां तय करते हैं और हर एक को उस नीति पर चलना ही होता है। अगर किसी को इसमें कोई खोट दिखे तो उसे सरकार के अंदर ही उठाया जाना चाहिए। कृष्णा का सीधा इशारा थुरूर के इंटरनेट प्रेम की ओर ही था।


वीजा नियमों के बारे में विदेश मंत्री शशि थुरूर की हायतौबा गलत नही मानी जा सकती है। दरअसल कोई भी विदेशी अगर भारत यात्रा पर आकर अगर 180 दिनों से ज्यादा का वक्त गुजारता है, तो उसे दुबारा भारत आने के लिए साठ दिनों का अंतराल जरूरी होता है। इसके बाद ही उसे वीजा मुहैया हो सकता है।

शशि थुरूर की पित्न कनाडा मूल की नागरिक हैं और दुनिया के चौधरी अमेरिका के न्यूयार्क शहर में कार्यरत हैं। नए नियमों के अनुसार अगर उन्हें भारत आना होगा तो उन्हें दो माह का समय इंतेजार में बिताना होगा। थुरूर की वीजा मामले में हायतौबा वाकई इस मसले पर उनकी चिंता को जाहिर करती है या वे अपनी पित्न को लुभाने का जतन कर रहे हैं, यह तो वे ही जाने पर थुरूर साहेब को पता होना चाहिए कि भारत गणराज्य का गृह मंत्रालय विशेष और वाजिब मामलों में इन नियमों को शिथिल भी कर देता है।

बहरहाल वीजा मामले में थुरूर को सोशल नेटविर्कंग वेवसाईट पर भारी समर्थन मिला है, जिससे वे गदगद हैं और उन्होंने अपने शुभचिंतकों को धन्यवाद भी दिया है। अगर सत्तर के जमाने में थुरूर को मंत्री बना दिया जाता तो कव्वाली में मिली तालियों के बाद कव्वाल की तरह वे भी कह उठते -``पार्टी आपका तहेदिल से शुक्रिया अदा करती है।``

भारत ने वीजा के नियम कायदों में कडाई बरतने की मंशा बनाई। दुनिया के चौधरी अमेरिका ने इस पर स्पष्टीकरण मांग लिया। पहली मर्तबा कठोर हुई भारत सरकार ने साफ लहजे में अपना जवाब दे दिया। फिर बीच में ही बोल उठे थुरूर। थुरूर की इस तरह की बचकानी हरकतों से दुनिया भर में भारत सरकार की एकजुटता में ही कमी का गलत संदेश गया है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि अब इस तरह के प्रयोग बंद कर बडबोले शशि थुरूर को सोशल नेटविर्कंग वेवसाईट के लिए पूरा समय निकालने के लिए मुक्त करें, क्योंकि थुरूर की प्रथमिकता भारत सरकार के बजाए इंटरनेट जो ठहरी।



बुधवार, 30 दिसंबर 2009

कब तक कराहती रहेगी देश की निरीह जनता

कब तक कराहती रहेगी देश की निरीह जनता

``रोजनामचा`` के बदल गए हैं मायने

(लिमटी खरे)


देश को आजाद हुए छ: दशक से अधिक का समय बीत चुका है। आम आदमी को मिलने वाली सुविधाएं आज भी नगण्य ही हैं। मंहगाई ने देश के आखिरी आदमी की कमर तोड रखी है, वहीं दूसरी ओर धनपति और अधिक संपत्ति के मालिक बनते जा रहे हैं। बाहुबली, अपराधी और धनाड्य वर्ग शासक की भूमिका में आ गया है। पिस रही है तो केवल निरीह रियाया। आज देश में पुलिस पर यह संगीन आरोप आम हो गया है कि उसे गरीबों की चीत्कार सुनने की रत्ती भर भी फुर्सत नहीं है। यह है आजादी के दीवाने सच्चे भारतीयों के समनों के भारत की वर्तमान तस्वीर।

यह बात आईने के मानिंद साफ है कि आजादी के उपरांत भारत गणराज्य की पुलिस को जिस तरह की कार्यप्रणाली को अंगीकार करना चाहिए था, वह उसने किया नहीं। सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में जब देश में आपात काल (ईमरजेंसी) लगाई गई थी, तब से अब तक यह बात उभरकर सामने आई है कि भारत देश में प्रजातंत्र नहीं वरन पुलिस के बल पर हिटलरशाही चल रही है।


अमूमन पुलिस थाने में जाकर शिकायत करने पर पुलिस उसे तफ्तीश में ले लेती है। पुलिस जिन मामलों को अदालत की देहरी तक ले जाने की मंशा रखती है, उन्हें छोडकर अन्य मामलात में पुलिस भी प्रथम सूचना प्रतिवेदन (एफआईआर) दर्ज करना मुनासिब नहीं समझती है। जिलों में भी पुलिस कप्तान जब क्राईम मीटिंग लेते हैं तो इन्हीं एफआईआर की संख्या के हिसाब से ही कोतवाली या थानों में अपराधों के घटित होने की संख्या का अनुमान लगाया जाता है।

वर्तमान में फस्र्ट इंफरमेशन रिपोर्ट दर्ज करना या न करना पुलिस के विवेक पर ही माना जाता है। नई व्यवस्था में पुलिस के विवेक पर इसे नहीं छोडा जाएगा। अगर पुलिस ने अपने विवेक का इस्तेमाल भी किया तो उसे इसका पर्याप्त कारण देना होगा कि उसने एफआईआर दर्ज नहीं की तो क्यों और यह काम पुलिस के लिए काफी कठिन होगा।


प्रभावशाली व्यक्ति इन शिकायतों को ठण्डे बस्ते के हवाले करने या ठिकाने लगाने में कोई कोर कसर नहीं रख छोडते हैं। यही कारण है कि रूचिका गिरहोत्रा के मामले में एक पुलिस महानिरीक्षक स्तर के अधिकारी एसपीएस राठौर के खिलाफ शिकायत को एफआईआर में बदलने में एक दो माह नहीं वरन् पूरे नौ साल लग जाते हैं। पुलिस तो फिर भी एफआईआर दर्ज नहीं करती अगर उच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान न लिया होता तो।

इन परिस्थितियों में देश के अनूठे गृह मंत्री पलनिअप्पन चिदम्बरम की पहल का खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए जिसमें उन्होंने हर संगीन अपराध में शिकायत को ही एफआईआर मानने की मंशा जताई है। निश्चित तौर पर इसके लिए सीआरपीसी में आवश्यक संशोधन किया जाना होगा। यक्ष प्रश्न तब भी वहीं खडा होगा कि क्या चिदम्बरम की मंशा को देश की पुलिस ईमानदारी से अमली जामा पहना सकेगी।

देश में जहां अनेक सूबों में थानों से लेकर जिलों की बोली लगाई जाती हो वहां चिदम्बरम की मंशा लागू हो सके इसमें संदेह ही नजर आता है, और अगर धोखे से पुलिस ईमानदारी से अपना काम भी करना चाहे तो हमारे देश के ``जनसेवक`` उन्हें यह करने नहीं देंगे।

वैसे गृहमंत्री चिदम्बरम की सोच को देश की पुलिस अंगीकार करे इसमें संशय ही लगता है। इसका कारण इसके लागू करने में होने वाली व्यवहारिक कठिनाईयां हैं। एक तो देश में पुलिस के पास पर्याप्त पुलिस बल का अभाव है दूसरे इसे अगर लागू किया जाता है तो देश के पुलिस थानों में अपराधों की तादाद में रिकार्ड उछाल आने की आशंका है। फिर इन केसों के निष्पादन के लिए अदालतों की संख्या वैसे भी कम है। वर्तमान में देश में तीन करोड से ज्यादा मुकदमे पहले सही लंबित हैं।


देखा जाए तो पुलिस का दायित्व आम जनता की जान माल की हिफाजत के साथ समाज में भयमुक्त वातावरण निर्मित करना है। एसा नहीं कि देश की पुलिस ही भ्रष्ट, नाकारा, बेईमान है, दरअसल पुलिस के चंद मुलाजिमों के कारण देश में खाकी बदनाम हो रही है। पुलिस की साख गिराने के लिए एक अदद सिपाही (कांस्टेबल) से लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसरान भी जिम्मेदार हैं।

पुलिस के रोजनामचा के मायने दिनों दिन बदल गए हैं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। कल तक दिन भर की घटनाओं को अपने आप में समाहित करने वाले रोजनामचा में अब तो प्रभावशाली लोगों और पुलिस की मर्जी के प्रकरणों की सूची बनकर रह गया है यह रोजनामचा। कोई गरीब अगर किसी संगीन अपराध की एफआईआर दर्ज कराना भी चाहे तो पुलिस के अनगिनत सवालों के सामने वह टूट जाता है। फिर पुलिस के कारिंदे उसे डरा धमका कर वापस जाने पर मजबूर कर देते हैं। इसके बाद भी अगर वह जिद पर अडा रहा तो पुलिस उसे ही उल्टे मामले में फंसाने से नहीं चूकती है। एसे एक नहीं अनेकों उदहारण हमारे सामने हैं जिनमें पुलिस ने फरियादी को ही आरोपी बना दिया हो।


गृह मंत्री पी.चिदम्बरम काफी धीर गंभीर और नब्ज पर हाथ रखकर चलने वाले नेताओं में से हैं। इस बार उन्होंने अगर कोई बात सोची है तो इसके दूरगामी परिणाम निश्चित तौर पर राहत देने वाले होंगे। सरकार का आपराधिक दण्ड संहिता में संशोधन का प्रस्ताव स्वागत योग्य है, जिसमें दरोगा से यह स्पष्टीकरण मांगा जा सके कि उसने एफआईआर दर्ज नहीं की तो इसके पीछे क्या कारण थे।

सरकार को चाहिए कि इस तरह के जनता से सीधे जुडे मसले को लागू करने के पूर्व इसके अच्छे और बुरे दोनों प्रभावों के बारे में भली भांति विचार कर ले। यह सच है कि आज देश में दो तिहाई से ज्यादा लोग किसी न किसी तरह से न्याय के लिए भटकने पर मजबूर हैं।

भारत सरकार का गृह मंत्रालय अगर एक परिपत्र जारी कर दे और रातों रात देश की व्यवस्था सुधर जाए एसा प्रतीत नहीं होता है। सिर्फ आदेश जारी करने की रस्मअदायगी से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उसके आदेश की तामीली किस तरह हो रही है, वरना हुक्मरानों के फरमानों को देश के सरकारी मुलाजिम किस कदर हवा में उडाते आए हैं यह बात किसी से छिपी नहीं है।

अगर इसे लागू कर दिया जाता है तो आवश्यक्ता होगी इसकी समय समय पर समीक्षा की। इसके अलावा इससे जुडे हर पहलू जैसे न्यायालय, अभियोजन आदि के मामलों में भी ध्यान देना आवश्यक होगा। कुल मिलाकर सरकार को इस मसले से जुडे हर पहलू को चाक चौबंद बनाने के लिए त्वरित कार्यवाही की दरकार होगी।

आजादी मिलने के साठ सालों बाद भी देश की रियाया ब्रितानी हुकूमत से बुरी जिंदगी गुजर बसर करने पर मजबूर है। राजनेताओं ने पुलिस को अपने हाथों की लौंडी बनाकर रखा है, जिसका उपयोग वह अपने विरोधियों के शमन के लिए ज्यादा कर रहे हैं। देश में पुलिस की कार्यप्रणाली में व्यापक सुधार की दरकार काफी समय से महसूस भी की जा रही थी।

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मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

मीडिया से मीडिया में भेद करना छोडना होगा

मीडिया से मीडिया में भेद करना छोडना होगा

एक दूसरे को नीचा दिखाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला

आधुनिक युग में बदलेगा ही मीडिया का स्वरूप

(लिमटी खरे)


इलेक्ट्रानिक मीडिया के एक पत्रकार का एक प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्र (प्रिंट मीडिया) में 28 दिसंबर को एक आलेख ``अपने अंदर के हस्तिनापुर को माराना होगा`` पढकर बडा ही आश्चर्य हुआ। उक्त ईमीडिया के उक्त पत्रकार ने अपनी बात की शुरूआत यहीं से की है, ``जिन्हें टेलीवीजन पर नाज नहीं है वो आजकल कहां हैं। ये सवाल मेरे दिल में पिछले एक हफ्ते से घूम रहा है। मन उन टिप्पणीकारों को खोज रहा है जाक अकसर टीवी को अपने कालम में कोसते रहते हैं। इसके बाद उक्त पत्रकार ने टीवी द्वारा रूचिका केस को मुकाम तक पहुचाने के लिए जवाबदेह ठहराया है।

देश में पहले प्रिंट मीडिया का एकाधिकार था, यह बात किसी से छिपी नही है। समय के साथ जब टीवी ने हिन्दुस्तान में कदम रखा तब देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अपनी आमद दर्ज करवाई। एशियाड के दौरान 1982 में हिन्दुस्तान में कलर टीवी आया। इसके बाद एक के बाद एक मनोरंजन चेनल्स फिर समाचार चेनल्स ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। नब्बे के दशक के आरंभ में ही समाचार चेनल्स काफी हद तक लोकप्रिय हो चुके थे।

इसके बाद प्रगति के सौपान तय करते हुए मीडिया तीसरी स्टेज अर्थात ``वेव मीडिया`` की ओर बढ गया है। आज न्यूज वेव पोर्टल्स की तादाद में एकाएक इजाफा साफ दिखाई पड रहा है। आज इंटनेट पर न्यूज बेस्ड वेव पोर्टल्स की बाढ सी आई हुई है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों ने भी वेब मीडिया को अपने रथ के पहियों के समान जोड लिया है।


उन्नीस साल पहले जब रूचिका और एसपीएस राठौर का केस हुआ था तब देश में प्रिंट मीडिया का बोलबाला था, किन्तु इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज न कराई हो एसा नहीं था। उन्नीस साल तक घिसटने के बाद इस मामले में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने चीख चीख कर राठौर के खिलाफ सबूत दर सबूत पेश कर रूचिका के परिजनों को न्याय दिलवाने की सराहनीय पहल की है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।

आज निश्चित तौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया की चीत्कार के कारण ही सरकारों को न केवल कटघरे में खडा किया गया है, वरन इस मामले में न्याय होने की उम्मीद जागी है। इलेक्ट्रानिक मीडिया आज जो कुछ भी दिखा रहा है वह आज कल में गढा हुआ नहीं है। यह सब कम से कम नौ साल पुराने तथ्य ही हैं जिन्हें अब नए स्वरूप में पेश किया जा रहा है।

हमारा कहना महज इतना ही है कि अगर उक्त पत्रकार को टीवी पत्रकारिता पर इतना ही नाज है तो उन्हें अपने इस आलेख को बजाए प्रिंट मीडिया के किसी इलेक्ट्रानिक मीडिया में ही स्थान दे देना चाहिए था। प्रिंट के टिप्पणीकार अगर टीवी को कोसते होंगे तो निस्संदेह उसमें कहीं न कहीं कोई खामी होगी तभी टीवी के बारे में कुछ तल्ख टिप्पणियां स्थान पाती होंगी, वरना पत्रकार को क्या पडी है कि वह अपनी बिरादरी (छोटे भाई इलेक्ट्रानिक मीडिया) के बारे में ही उल्टा सीधा लिखे।


उक्त लेखक को यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी पहले प्रिंट मीडिया में ही कार्यरत रहे होंगे। इसके साथ ही साथ जब इलेक्ट्रानिक मीडिया अस्तित्व में नहीं था तब प्रिंट के माध्यम से ही आंदोलन खडे हो जाते थे। प्रिंट भी जब शैशवकाल में था तब आजादी के मतवाले हिन्दुस्तानियों ने हाथ से अखबार लिख लिख कर न केवल जन जागृति पैदा की वरन् उन ब्रितानियों के दांत भी खट्टे किए जिनके बारे में यह कहा जाता था कि उनके राज में सूरज डूबता ही नहीं है।

आज इलेक्ट्रानिक मीडिया का जादू लोगों के सर चढकर बोल रहा है, इस बात में कोई संदेह नहीं। कल प्रिंट का जमाना था, आज इलेक्ट्रानिक का और आने वाले समय में हो सकता है दोनो को पीछे छोडते हुए वेब मीडिया कोसों दूर निकल जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

वैसे भी प्रिंट मीडिया में अगर नजरों से कोई खबर छूट जाए तो बाद में उसकी सहेजी हुई प्रति से ढूंढकर पढी जा सकती है। वेब मीडिया में भी इस तरह की व्यवस्थाएं सहज सुलभ हैं किन्तु जहां तक रही इलेक्ट्रानिक मीडिया की बात अगर आपसे कोई खबर छूट गई और वह तीन चार बार चल चुकी है तो उसे देखने के लिए कोई सहज सुलभ व्यवस्था नहीं है। इस लिहाज से आने वाले समय में प्रिंट और वेब मीडिया का महत्व बढने की ही उम्मीद है। यह अलहदा बात है कि इन दोनों मीडिया से ज्यादा ग्लेमर आज इलेक्ट्रानिक मीडिया का इसलिए है क्योंकि इसमें दृश्य एवं श्रृव्य (आडियो विज्जुअल) दोनों ही बातें एक साथ मिल जाती हैं।


रूचिका जैसे एक नहीं अनेक मामले हैं जिनमें इलेक्ट्रानिक मीडिया ने संज्ञान लेकर सरकारों को कदम उठाने पर मजबूर किया है। आगे भी इसका यह सफर जारी रहना चाहिए। वैसे भी मीडिया को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। चूंकि प्रिंट पहले था अत: वह घर के बुजुर्ग और मार्गदर्शक की भूमिका में है। इसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया आया सो वह जवान है जिसके कांधों पर बहुत भार है रही बात वेब मीडिया की सो वह अभी शैशव काल में है, और आने वाले दिनों में मीडिया का भविष्य बनेगा। कुल मिलाकर आधुनिक युग में मीडिया का स्वरूप बदलेगा ही किन्तु इस बदलते स्वरूप में अगर घर के अंदर ही एक दूसरे पर लानत मलानत भेजने का काम आरंभ कर दिया गया तो मीडिया के पैर जमीन के बजाए छत से लगने में समय नहीं लगेगा।

बोरवेल में गिरे बच्चे, निठारी कांड, रूचिका या आरूषी प्रकरण के साथ और न जाने कितने एसे मामले हैं जिन पर से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ही पर्दा उठाया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अगर यह किया है तो यह किसी पर कोई अहसान नहीं किया है। उसने मीडिया के एक अंग होने का महज फर्ज ही अदा किया है। देश की बिगडैल व्यवस्थाओं पर चोट कर उन्हें सुधारने के मार्ग प्रशस्त करना ही मीडिया का प्रथम दायित्व है।

प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और वेब मीडिया में एक दूसरे को ही नीचा दिखाने का जतन आरंभ हो जाएगा तो घर की इस फूट का फायदा कोई उठाए या न उठाए राजनेता अवश्य ही उठा लेंगें। हमारा सुझाव है कि मीडिया चाहे जैसा भी हो अब तक एक जुट रहा है, इसे एकजुट ही रहने दिया जाए, भागों में न बांटा जाए। वैसे भी आज मीडिया के ग्लेमर में फंसकर न जाने कितने युवक युवतियों ने मीडिया की ओर रूख कर लिया है।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज अनेक मीडिया पर्सन्स ने प्रजातंत्र के इस चौथे स्तंभ को ढहाने के लिए निहित स्वार्थों को प्राथमिकता देकर मीडिया के विरोधियों से हाथ मिला लिए हैं। कल तक मीडिया के मालिक संपादक स्वयं पत्रकार ही हुआ करते थे, किन्तु आज मीडिया की कमान कार्पोरेट सेक्टर के धनाड्यों के हाथों में आ गई है, जो अपने हिसाब से देश को हांकने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। विडम्बना ही कही जाएगी कि हमारे देश के बुद्धिजीवि पत्रकार भी अपने आप को इन्ही के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं।

जिलों में कवरेज और नान कवरेज के साथ ही साथ प्रिंट और इलेक्ट्रानिक के बीच में वर्गभेद देखना आम बात हो गई है। जिलों के साथ ही साथ प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रेस कांफ्रेंस आदि में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए अलग अलग व्यवस्थाएं बनवा दी गईं हैं।

हमारा कहना महज इतना ही है कि प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और वेब मीडिया तीनों ही भारतीय मीडिया घराने के ही अंग हैं, इन तीनों के बीच में फर्क करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। हो सकता है कल तक कोई बुलंदियों पर रहा हो आज कोई हो और आने वाले समय में और कोई सरमौर बन सकता है। आपस में ही भेद करके हम प्रजातंत्र के इस चौथे स्तंभ को मजबूत करने के बजाए उस बट वृक्ष के आसपास की मिट्टी ही खोदकर उसकी जडें कमजोर करेंगे।

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

कांग्रेस में सफाई की दरकार


कांग्रेस में सफाई की दरकार

खानदानी परचून की दुकान बन गई है कांग्रेस

(लिमटी खरे)


सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस संभवत: अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। मोती लाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी के बाद सोनिया गांधी ने भी दस साल तक निष्कंटक कांग्रेस पर राज कर लिया है। अब सत्ता के हस्तांतरण की तैयारियां गुपचुप और खुले दोनों ही तौर पर जारी हैं। खानदानी परचून की दुकान की तरह ही अब कांग्रेस की बागडोर राहुल गांधी के हाथ में कभी भी सौंपी जा सकती है।


इटली मूल की भारतीय बहू श्रीमति सोनिया गांधी जिन्हें हिन्दी बोलने में काफी तकलीफ होती थी, आज भी साफ सुथरी हिन्दी नहीं बोल पातीं हैं। वैसे भी सत्ता की उचाईयों पर बैठे लोग हिन्दी भाषा को कम समझते और कम ही इसका प्रयोग करते हैं। कहने को हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा जरूर है पर हिन्दी का उपयोग जमीनी लोग ही ज्यादा किया करते हैं।


कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष और ताकतवर केंद्र 10 जनपथ (श्रीमति सोनिया गांधी का सरकारी आवास) की किचिन केबनेट ही पिछले दस सालों में कांग्रेस की सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी के रथ के सारथी रहे हैं। इन नेताओं के निहित स्वार्थों के चलते कांग्रेस की लोकप्रियता का ग्राफ दिनों दिन नीचे ही आता गया है।


अगर कांग्रेस को बचाना है तो अपने आप को महिमा मण्डित करने में माहिर पदाधिकारियों को अब अंतिम पंक्ति में ढकेलने की महती आवश्यक्ता है। इसके साथ ही साथ मणिशंकर अय्यर, माखनलाल फौतेदार, कुंवर अर्जुन सिंह, गिरिजा व्यास, सत्यवृत चतुर्वेदी आदि के जहर बुझे तीरों को रोकने के लिए मजबूत ढाल की जरूरत है। उधर सोनिया गांधी की राजनैतिक सचिव रह चुकीं सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी को सीढी बनाकर उद्योगपति राजनेता कमल नाथ, आस्कर फर्नाडिस जैसे दिग्गज दस जनपथ के मजबूत दरवाजों में सेंध लगाने की जुगत लगा रहे हैं।

पिछले एक साल में देश में विभिन्न प्रदेशों में हुए विधानसभा चुनावों, उपचुनावों पर गौर फरमाना बहुत आवश्यक है। इस आलोच्य अवधि में कांग्रेस ने महज दिल्ली और आंध्र प्रदेश में ही पूर्ण बहुमत प्राप्त किया है। इसमें से आंध्र प्रदेश एक बार फिर तेलंगाना और नारायण दत्त तिवारी के सेक्स स्केंडल में उलझकर रह गया है।


कांग्रेस ने मजबूरी में अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर महाराष्ट्र और जम्मू काश्मीर मे अपनी सरकार बनाई है। राजस्थान, हरियाणा और असम में कांग्रेस ने तलवार की धार पर सरकार का गठन किया है। उडीसा में तीसरी बार कांग्रेस ने मुंह की खाई है। उधर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ में कांग्रेस लगातार दूसरी बार सत्ता से दूर ही रही है। कर्नाटक में कांग्रेस का शर्मनाक प्रदर्शन भी विचारणीय कहा जा सकता है।

हाल ही में संपन्न हुए झारखण्ड के चुनावों में 81 में से महज 14 सीटें अपनी झोली में डालकर कांग्रेस ने अपनी भद्द ही पिटवाई है। कांग्रेस के लिए संजीवनी साबित होने वाले युवराज राहुल गांधी का करिश्मा उत्तर प्रदेश में भी कोई खास असर नहीं दिखा सका।

कांग्रेस के रणनीतिकारों में अनुभवहीन लोगों की फौज के चलते कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी को कई बार अप्रिय स्थिति का सामना करना पडा है। हाल ही में रणनीतिकारों ने तेलंगाना राज्य की नींव रखने का दुस्साहसिक कदम बिना सोचे समझे ही उठा दिया। परिणाम स्वरूप आंध्र प्रदेश बुरी तरह सुलग उठा है। इतना ही नहीं देश में अब नए 21 राज्यों के गठन की मांग जोर पकडने लगी है।

कांग्रेस आज भी विभिन्न खेमों में बंटी हुई हैं। एक दूसरे की टांग खिचाई के चलते कांग्रेस के नेता अपनी विपक्षी दलों के बजाए अपनों से ही सावधान रहने में अपनी पूरी उर्जा नष्ट कर देते हैं। कांग्रेस के अलग अलग खेमों के सूबेदार चूंकि सरकार में मलाईदार पदों पर रह चुके हैं अत: मीडिया के बीच अपने विपक्षी धडे के बारे में ``छुर्रा`` छोडने में उन्हें मास्टरी हासिल है।

वन एवं पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण महकमे की जवाबदारी संभालने वाले जयराम रमेश ने सरकार को कई दफा मुश्किल में डाला है। जयराम रमेश ने वन एवं पर्यावरण मंत्री के रूप में हाल ही में एक बयान देकर कहा था कि वे मध्य प्रदेश के पेंच और कान्हा के बीच के कारीडोर में से सडक नहीं गुजरने देंगे, जिसका काफी विरोध हुआ था। दरअसल शेरशाह सूरी के जमाने की सडक को जो उत्तर और दक्षिण भारत के बीच ``जीवन रेखा`` मानी जाती है, को अगर बंद कर दिया गया तो उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच सडक संपर्क में कई गुना अधिक किलोमीटर जुड जाएंगे।

इतना ही नहीं जयराम रमेश पर राजग के पीएम इन वेटिंग एल.के.आडवणी से साठगांठ, भाजपा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तथा भाजपा के घोषणा पत्र के बनवाने के आरोपों के साथ ही साथ सबसे बडा आरोप यह लगा था कि उन्होंने कहा था कि विदेशी मूल की श्रीमति सोनिया गांधी के रहते कांग्रेस पचास साल सत्ता में नहीं आ सकती जैसे संगीन आरोप भी लगे थे, बावजूद इसके कांग्रेस द्वारा उन्हें महत्वपूर्ण मंत्री पद दिया हुआ है।


कांग्रेस सुप्रीमो की कोटरी में जहां अहमद पटेल, विसेंट जार्ज, श्रीमति शीला दीक्षित, डॉ.अर्जुन सेनगुप्ता, गुलाम नवी आजाद, आदि हैं वहीं कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री के अघोषित राजनैतिक गुरू राजा दिग्विजय सिंह के अलावा उनकी किचिन केबनेट में कनिष्का सिंह, विश्वजीत सिंह, सांसद मीनाक्षी नटराजन, सांसद जितेंद्र सिंह, मंत्री जतिन प्रसाद, सचिन पायलट, डॉ.सी.पी.जोशी, पवन जैन, आर.पी.एन.सिंह का शुमार है। कांग्रेस अध्यक्ष के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल की ब्रांच के तौर पर मुकुल वासनिक, विलासराव देशमुख, पवन बंसल, वीरप्पा माईली, मुरली देवडा, तुषार अहमद अलग ताल ठोक रहे हैं।

कुछ दिनों पूर्व लगा था कि कांग्रेस द्वारा सही कदम उठाया जा रहा है। दरअसल प्रधानमंत्री डॉ.मन मोहन सिंह द्वारा अपनी सरकार के मंत्रियों से उन सभी की परफारर्मेंस रिपोर्ट 30 सितंबर तक मांगी थी। प्रधानमंत्री के इस कदम को उनके ही सहयोगियों ने हवा में उडा दिया। जिस मंत्रीमण्डल में प्रधानमंत्री की बात को ही हवा में उडाया जा रहा हो, उसमें उच्चश्रंखलता की हदों का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।


कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के लिए अब गहन मंथन का समय आ गया है। कांग्रेस में चापलूसों ने नेतृत्व को इस कदर घेर रखा है कि आलाकमान दूर की जमीनी हरकतें देखने में अपने आप को अक्षम ही पा रहा है। आदि अनादि काल से होता आया है कि रियाया के दुख दर्द को देखने के लिए निजामों ने भेष बदलकर अपने सूबे के जमीनी हालातों का जायजा लिया है।

राहुल गांधी भारत दर्शन पर अवश्य हैं किन्तु उनकी सलाहकार मण्डली ने भी उनकी आंखों पर पट्टी बांध रखी है। भाजपा के नए अध्यक्ष राहुल गांधी के काम की प्रशंसा इसलिए नहीं कर रहे हैं कि वे राहुल गांधी के काम से दिली तौर पर खुश हैं। भाजपाध्यक्ष नितिन गडकरी जानते हैं कि राहुल गांधी के दलित प्रेम के प्रहसन पर जल्द ही पर्दा गिर जाएगा, इसलिए वे राहुल गांधी का हौसला बढाकर इस स्वांग को जारी रखने का प्रयास कर रहे हैं।

अब सोचना सिर्फ और सिर्फ सोनिया गांधी को ही है कि इन दस सालों में उनके नेतृत्व में कांग्रेस कहां पहुंची है और कांग्रेस के चाटुकार, रणनीतिकार और मंत्री कहां। वे जब अपना राजपाट अपने पुत्र राहुल गांधी को सौंपेंगी तो उसमें कितने प्रदेशों की रियासतें और कितने आलंबरदार, झंडाबरदार राहुल गांधी के नेतृत्व में सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस के झंडे को उठाने को तत्पर होंगे।

घर में ही विद्रोह का समाना करना पडा युवराज को!

ये है दिल्ली मेरी जान

(लिमटी खरे)

घर में ही विद्रोह का समाना करना पडा युवराज को!

कांग्रेस में राहुल गांधी एक एसा नाम है जिस पर समूचे देश के कांग्रेसी अपनी सियासत की रोटियां सेंक रहे हैं, मगर राहुल गांधी की अपने संसदीय क्षेत्र में क्या इज्जत है यह बात कुछ दिनों पहले ही सामने आई है। उत्तर प्रदेश के विधानपरिषद के चुनावों में उनके संसदीय क्षेत्र अमेठी के सुल्तानपुर क्षेत्र से पार्टी उम्मीदवार का नाम तय करने में कांंग्रेस महासचिव राहुल गांधी को पसीना आ गया। अनुशासन का पाठ सिखाने और युवाओं को अपने साथ लेने के लिए मिशन 2012 पर निकले राहुल गांधी के सामने उनके संसदीय क्षेत्र में ही अनुशासन तार तार हो गया। पार्टी ने जैसे ही जगदीश सिंह का नाम सामने किया वैसे ही असंतोष का लावा बह गया। नाराज कांग्रेसियों ने जगन्नाथ यादव को अपना प्रत्याशी घोषित कर गाजे बाजे के साथ उनका पर्चा दाखिल करवा दिया। राहुल गांधी अमेठी दौरे पर गए और सभी गुटों के साथ सर जोडकर बैठे। नतीजा सिफर रहा। इस विधानपरिषद के कुल वोटर 2860 हैं और अमेठी संसदीय क्षेत्र में 1034 मतदाता हैं। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी पशोपेश में हैं कि वे इस विवाद को कैसे शांत करें, नहीं तो अगर यह चिंगारी अमेठी से निकलकर देश में फैली तो उनकी सब जगह आसानी से स्वीकार्यता पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा।

हाईटेक हो रहा है संघ

समय की मांग को देखते हुए अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी आधुनिक जमाने से कदम से कदम मिलाने आरंभ कर दिए हैं। कम्पयूटर इंटरनेट के तेज जमाने में बाबा आदम के तौर तरीकों को अपनाने वाले संघ के आला नेताओं को मशविरा दिया गया है कि वे समय के साथ नहीं चले तो पिछड जाएंगे। फिर क्या था संघ ने भी अपना चोला बदलने की तैयारी कर ली है। संध की शाखाओं में कम हाजिरी से आजिज संघ के आला नेताओं ने साप्ताहिक मिलन समारोह चलाया पर कामयाब नहीं रहा। संघ ने अब इसका इलाज खोज लिया है। संघ अब इंटरनेट पर शाखाएं लगाने की कार्ययोजना पर काम कर रहा है। प्रयोग के तोर पर इसको आरंभ कर दिया गया है। सूत्रों का कहना है जल्द ही समय निर्धारित कर संघ के प्रचारक नेट पर उपलब्ध होंगे। स्वयंसेवकों को शारीरिक तौर पर भले ही न हिला सकें पर संघ के प्रचारक उन्हें बौद्धिक तौर पर तो हिला ही देंगे। संघ ने इंफरमेशन टेक्नालाजी से जुडे लोगों पर केंद्रित कार्ययोजना को अंजाम देने का मानस बना लिया है।

मंत्री के बंगले में पेडों की अवैध कटाई

यूं तो जंगल विभाग की शह पर लकडी माफिया ने देश के जंगलों का सफाया कर दिया है, किन्तु जब बात देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में पेडों की कटाई की हो तो वन विभाग के कान खडे होना स्वाभाविक ही है, और खासकर जब मामला केंदीय मंत्री से जुडा हो तब तो विभागीय अधिकारियों की चुप्पी देखते ही बनती है। दरअसल केंद्रीय श्रम और रोजगार राज्यमंत्री हरीश रावत को तीन मूर्ति रोड स्थित 9 नंबर की कोठी आवंटित की गई है। इस कोठी में मंत्री महोदय अभी शिफ्ट नहीं हुए हैं। इसकी साफ सफाई और रंग रोगन का काम अभी जारी है। दरअसल मंत्री की कोठी के बाजू में रहने वाले एक जज की नजर मंत्री की कोठी पर गलत तरीके से कांटे छांटे गए पेडों पर पडी। उन्होने वनाधिकारियों को तलब कर मामला बताया। चूंकि जज साहेब ने वनाधिकारियों को बुलाया था, सो जांच आना पाई से की गई। पाया गया कि पेडों की छटाई गलत तरीके से की गई है। फिर क्या था, आनन फानन सीपीडब्लूडी के हॉर्टिकल्चर विभाग के खिलाफ केस दर्ज कर लिया गया।

गडकरी भी वसुंधरा के आगे बौने
भाजपा के नए निजाम के सामने भी राजस्थान में तलवार पजा रहीं वसुंधरा राजे ने अपने तवर नहीं बदले हैं। नेतृत्व पशोपेश में है कि आखिर वसुंधरा प्रकरण से निजात कैसे पाई जाए। केंद्रीय नेतृत्व को सीधी टक्कर दे रहीं वसुंधरा के आगे झुककर केंद्रीय नेतृत्व ने राजस्थान भाजपा के चुनाव फिलहाल टाल दिए हैं। यद्यपि आधिकारिक तौर पर चुनावों को टालने का कारण पंचायत के प्रदेश में होने वाले चुनाव बताए जा रहे हैं किन्तु अंदरखाने से जो खबरें छन छन कर बाहर आ रहीं हैं, उनके अनुसार भाजपा के अंदर अंदरूनी मतभेद के चलते चुनाव टाले गए हैं। 24 दिसंबर को हाने वाले चुनावों को आम सहमति की मुहर के साथ टाल दिया गया है। वसुंधरा दिल्ली यात्रा पर आईं और आला नेताओं के साथ मिलकर उन्होंने प्रदेश में संगठनात्मक चुनाव में हो रही धांधलियों का कच्चा चिट्ठा रखा। पूछे जाने पर हौले से मुस्कुराकर वे इशारे ही इशारे में यह बोल गईं कि वे तो महज नए अध्यक्ष को हैलो बोलने आईं हैं। भाजपाई हल्कों में खबर है कि वे भाजपा के नए निजाम को हैलो बोलने नहीं अपनी ताकत दिखाकर हिलाने आईं थीं।


अब अहमद पटेल की बारी

कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ (सोनिया गांधी का सरकारी आवास) के विश्वस्त अहमद पटेल को कई बार शिकस्त दे चुके कांग्रेस के ताकतवर महासचिव और राहुल गांधी के अघोषित राजनैतिक गुरू राजा दिग्विजय सिंह और कांग्रेसाध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के बीच इन दिनों उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर कुछ तनातनी चल रही है। दरअसल दिग्गी राजा चाहते हैं कि यूपी में रीता बहुगुणा को हटाकर विधायक दल के नेता प्रमोद तिवारी को काबिज करवा दिया जाए। यूपी में कांग्रेस की साख सुधरने से तिवारी के मन में मुख्यमंत्री बनने की चाहत जागना स्वाभाविक ही है। उधर राजमाता को तिवारी की छवि और उनके मुलायम तथा मायावती से रिश्तों के बारे में भी आवगत करवा दिया गया है। कुछ दिन पहले राहुल गांधी के हेलीकाप्टर प्रकरण में रीता बहुगुणा का बडबोलापन राजा को नागवार गुजरा था, तब से राजा इसी जुगत में हैं कि रीता को कैसे भी करके हटाया जाए। रीता भी शायद राजा की मंशा जान चुकी हैं, सो उन्होंने भी अब अपना मुंह सिल लिया है। अब बाजी अहमद पटेल के हाथ में हैं। कहते हैं कि अहमद अब दिग्गी और यूपी के बारे में जैसी भी चाभी भरेंगे सोनिया वैसा ही कदम उठाएंगी।

कमल नाथ ने मारी बाजी
कमल नाथ के पास चाहे वस्त्र मंत्रालय रहा हो या वन एवं पर्यावरण अथवा वाणिज्य एवं उद्योग हर बार उन्होंने अपनी कार्यप्रणाली के चलते विभाग को चर्चित बनाया है। वन एवं पर्यावरण रहते हुए पृथ्वी सम्मेलन में भारत की जोरदार उपस्थिति के चलते वे चर्चाओं में रहे तो वाणिज्य और उद्योग मंत्री रहते हुए विदेशों के लगातार दौरे ने उन्हें चर्चा में रखा। अब भूतल परिवहन मंत्री बनने के बाद स्विर्णम चतुभुZज के उत्तर दक्षिण गलियारे को अपने संसदीय क्षेत्र जिला छिंदवाडा से होकर गुजारने के मामले में वे सुर्खियों में हैं। अपनी कार्यप्रणाली के कारण चर्चाओं में रहने वाले भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ ने अंतत: एक मामले में बाजी मार ही ली। उन्होंने हाल ही में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया को परास्त करते हुए निविदा नियमों को बहुत सरल बनवाने में सफलता हासिल कर ली है। योजना आयोग के एक सदस्य और पूर्व कैबनेट सचिव बी.के.चतुर्वेदी ने नियमों के सरलीकरण के मामले में कमल नाथ के पक्ष में रिपोर्ट दे दी है।

चोर पर पडे मोर
पुरानी कहावत चोर पर पडे मोर रूपहले पर्दे के थ्री खान्स में से एक आमिर खान के साथ चरितार्थ हो ही गई। अपनी नई फिल्म थ्री ईडियट्स के प्रमोशन के लिए वे तरह तरह के स्वांग कर देश भर में घूम रहे थे। लंबे समय से फिल्मी दुनिया में पहचाना चेहरा रहे खान को गुमान भी न होगा कि भारत देश में एसा कोई है जो उन्हें ही पहचानने से इंकार कर देगा। देश भर में घूमने के बाद जब आमिर महाबलीपुरम पहुचे तो वहां एक टूरिस्ट गाईड से उनकी मुलाकात हुई। काफी गुफ्तगू के बाद आमिर ने उस गाईड को बताया कि वे आमिर खान हैं, फिल्मी जगत के माने हुए अभिनेता। छूटते ही गाईड ने आमिर से ही पूछ लिया कि यह आमिर खान कौन है। आमिर भी कहां हार मानने वाले थे, उन्होने अपनी किरकरी होती देख उससे पूछा कि क्या वे शाहरूख खान को जानते हैं, उसने नकारात्मक ही सर हिलाया। हारकर आमिर ने आखिरी प्रश्न दागा कि वह हिन्दी फिल्म देखता है कि नहीं। उसने बडी ही शालीनता से जवाब दिया कि उसने शालीमार देखी थी और फििल्मस्तान में वह सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र को ही जानता है। फिर क्या था आमिर अपना सा मुंह लिए लौट गए।

फिर हाई अलर्ट में राजधानी
देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली साल में दस महीने हाई अलर्ट पर ही रहा करती है। जब चाहे तब केंद्रीय गृह विभाग दिल्ली में हाई अलर्ट जारी कर देता है। 15 अगस्त, 26 जनवरी, नया साल, ईद, बकरीद, दीपावली, दशहरा, क्रिसमस आदि न जाने कितने पर्व हैं जबकि दिल्ली में आतंकी वारदात होने की आशंका बनी ही रहती है। दरअसल इन त्योहारों के दौरान बाजारों में भीडभाड चरम पर ही रहा करती है, इसलिए वारदात की आशंका ज्यादा ही हुआ करती है। हर बार हाई अलर्ट पर पुलिस द्वारा सडकों पर महज रस्मअदायगी के लिए चेकिंग की जाती है, पर इस बार नजारा कुछ और ही नजर आ रहा है। इस बार शराब पीकर गाडी चलाने वालों के खिलाफ पुलिस ने कुछ ज्यादा ही सख्ती अपना रखी है। साल के आखिरी पखवाडे में जगह जगह मयखाने बनाने वालों की शामत आ गई है। इस बार पुलिस किसी की कोई दलील सुनती नहीं दिखाई दे रही है। क्रिसमस और न्यू ईयर पार्टीज पर भी पुलिस की चौकस निगाहें हैं।

गडकरी का राहुल पे्रम
लगता है भाजपा के नए निजाम नितिन गडकरी आरंभ से ही कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के फैन हो गए हैं। भाजपाध्यक्ष का कार्यभार संभालने के बाद अपनी पहली ही प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कहा कि वे राहुल गांधी के काम से संतुष्ट हैं। राहुल गांधी के दलित प्रेम पर गडकरी ने राहुल की उन्मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुए कहा कि राहुल गांधी अच्छा काम कर रहे हैं। भाजपा का एक धडा गडकरी के इस कथन से खफा नजर आ रहा है, क्योंकि गडकरी ने प्रत्यक्ष तौर पर अपने विरोधी के उन क्रिया कलापों की तारीफ कर दी जिसे भाजपा अब तक ढोंग बता रही थी। भाजपा के नेताओं का कहना है कि जहां तक राहुल गांधी को शुभकामना देने की बात है तो वह तो औपचारिकतावश समझ में आता है किन्तु किसी दूसरे के काम की सराहना करने का क्या मतलब निकाला जाए। गौरतलब होगा कि मध्य प्रदेश के टीकमगढ जिले में एक महिला की बच्ची के विवाह के लिए राहुल गांधी ने 20 हजार रूपए देने का आश्वासन दिया था, राहुल तो भूल गए किन्तु सूबे के भाजपाई निजाम शिवराज सिंह चौहान ने उसे बीस हजार की मदद पहुचाकर राहुल के पांखंड के मुंह पर करारा तमाचा मारा था।

पूर्व गृहमंत्री के दामाद को बचा रही है पुलिस!
मध्य प्रदेश के पूर्व गृहमंत्री के दामाद को ढूंढने में मध्य प्रदेश पुलिस पूरी तरह सुस्त ही नजर आ रही है। गृहमंत्री के दामाद अतुल सिंह के खिलाफ राजधानी भोपाल के कमला नगर में प्रकरण पंजीबद्ध है। बताते हैं कि कोतवाली थाने में पदस्थ आरक्षक मुकेश पाठक जब अपने घर लौट रहा था तभी उसकी मोटर साईकिल अतुल सिंह की कार से टकरा गई। इससे नाराज होकर अतुल सिंह ने अपने साथियों सोनू सिंह और विजय कुमार श्रीवास्तव के साथ मिलकर मुकेश का अपहरण कर लिया। इसके बाद टीटी नगर थाना प्रभारी उमेश तिवारी ने आरक्षक को माता मंदिर के पास मुक्त करवाया, जहां विजय तो पुलिस की पकड में आ गया, बाकी फरार हो गए। इसका प्रकरण कमला नेहरू नगर थाने में पंजीबद्ध है। पुलिस ने अब तक पुलिस के ही आरक्षक के अपहरणकर्ताओं को नहीं पकडा है, जिससे सियासी हल्कों में यह बात तैर गई है कि कांग्रेस के शासन काल में पूर्व गृह मंत्री के दामाद होने के बावजूद भी भाजपा के शासनकाल में उसे पकडा नहीं जा सका है।
शहीदों के परिजनों को बेघर करने की तैयारी
मुंबई में अब तक के सबसे बडे आतंकी हमले के उपरांत शहीदों के परिजनों के साथ सरकार कैसा रवैया अपना रही है, इस बात को नेशनल मीडिया ने बखूबी उठा दिया है, किन्तु सूबों में छोटी छोटी घटनाओं में शहीद हुए कर्मचारियों के परिजनों को क्या भोगना पडता है इस बात से सरकार और मीडिया दोनों ही इत्तेफाक नहीं रखते हैं। महाराश्ट्र सूबे के ही गढचिरोली में नक्सलवादियों के साथ लोहा लेते हुए शहीद हुए पुलिस कर्मियों के परिजनों को सरकारी आवास से बेघर करने का मामला प्रकाश में आया है। चंद्रपुर में हुए विदर्भ साहित्य सत्कार सम्मेलन में जब शहीद उपनिरीक्षक चंद्रशेखर की बेवा हेमलता को बोलने बुलाया गया तो उसका गुस्सा फट पडा। हेमलता का आरोप था कि मुंबई में तो शहीद पुलिस कर्मियों के परिजनों को सरकार सर आंखों पर बिठाती है पर गढचिरोली में अब तक शहीद हुए 152 पुलिस कर्मियों के परिवारों की ओर सरकार ने नजर उठाकर भी नहीं देखा है। सच ही है गढचिरोली में अगर सरकार इन शहीदों के परिजनों के लिए कुछ कर भी दे तो भला प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर की खबर थोडे बनेगी और पब्लिसिटी के भूखे नेता फिर भूखे ही रह जाएंगे।

अबूझ पहेली बना करकरे का जैकेट
मुंबई में हुए अब तक के सबसे बडे आतंकी हमले में शहीद एटीएस चीफ हेमंत करकरे की बुलेट प्रूफ जैकेट की गुत्थी सुलझती नहीं दिखती। जेजे अस्पताल के वार्ड ब्वाय के बयान ने मामले को और अधिक उलझा दिया है कि उसने जैकेट कूडे में फेंक दी थी। यहां पुलिसिया कार्यवाही पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है। एक ओर जहां पुलिस किसी भी घायल या शव के आसपास के हर साक्ष्य को सहेजकर रखती है, वहीं दूसरी ओर उसे कूडे में फेंकने से अनेक प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही हैंं। मजे की बात तो यह है कि करकरे के बुलेट प्रूफ जैकेट से संबंधित फाईल तो मिल गई है पर उससे जरूरी कागज गायब हैं। क्या जैकेट बुलेट प्रूफ नहीं थी, क्या करकरे के खिलाफ यह किसी के इशारे पर यह कोई सुनियोजित षणयंत्र था, जैसे प्रश्नों के उत्तर उनके परिजनों और देशवासियों को कब मिलेंगे, मिलेंगे भी या नहीं यह नहीं कहा जा सकता है।

अब राजमाता के नाम पर फरेब
कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के नाम से रकम एंठने का एक मामला प्रकाश में आने से कांग्रेसी हल्कों में सनसनी मचना स्वाभाविक ही है। दिल्ली में एक व्यक्ति ने राज्यसभा में मनोनयन के नाम पर दस करोड रूपए की राशि बतौर रिश्वत लेने का मामला पुलिस में पंजीबद्ध करवाया है। अब तक सियासी दलों पर लोकसभा और विधानसभाओं में पैसे देकर टिकिट मिलने के मामले प्रकाश में आते रहे हैं। यह पहला मौका है जबकि किसी ने राज्यसभा में मनोनयन के नाम पर रिश्वत मांगने और देने की बात कही हो। इस मामले में किसी मध्यस्थ ने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी और उनके राजनैतिक सचिव अहमद पटेल के नाम पर उक्त राशि वसूली है। वैसे कहा जाता है कि राज्यसभा यानी पिछले दरवाजे से संसद में प्रवेश करने के लिए लोगों की अंटी में माल होना बहुत जरूरी है। हालत देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि अब योग्यता के बजाए पैसा ही पैमाना बन चुका है।


पुच्छल तारा

इस बार पुच्छल तारा कुछ अलग ही है। हमारे ब्लाग पर जब हमने महामहिम के सुखोई में यात्रा करने और महिलाओं को एयर फोर्स में फाईटर पायलट न बनने के निर्देशोें के सबंध में टिप्पणी की तो मुंबई की मनीषा नारायण ने उस पर टिप्पणी की। जब हमने मनीषा का ब्लाग देखा तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। मनीषा किन्नर है। इस देश में हमें पहली बार किसी किन्नर का ब्लाग पढने को मिला। मनीषा का ब्लाग पढकर सुखद आश्चर्य हुआ कि मनीषा को लेखन का शौक है। वह अपने बारे में लिखतीं हैं ``मैं ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य हूं, और स्त्री पुरूष दायरे से मुक्त, मेरे भीतर गुण दोनों के हैं, लेकिन अवगुण एक के भी नहीं, मुझे बस प्यार चाहिए और आपको देना भी है प्यार . . . . ।`` मनीषा ने अपने ब्लाग का नाम हिज(डा) हाईनेस मनीषा रखा हुआ है। मनीषा के ब्लाग में राहुल गांधी की कारसेवा करने वाली तस्वीर को भी बेहद करीने से चित्रित किया है, जिसमें महिला चप्पल पहने लोहे के तसले में मिट्टी फेंक रही है तो युवराज राहुल गांधी श्वेत धवल मंहगे जूते पहनकर साफ सुथरी प्लास्टिक के तसले में।

रविवार, 27 दिसंबर 2009

दागी कंपनी को प्रश्रय दिया कमल नाथ ने


दागी कंपनी को प्रश्रय दिया कमल नाथ ने





कोटा हादसा : गेमन इंडिया कर रही थी निर्माण




मरने वालों की संख्या ने पार किया आधा सैकडा




(लिमटी खरे)




नई दिल्ली। राजस्थान में कोटा से करीब बीस किलोमीटर दूर कुन्हाडी थाना क्षेत्र में डाबी इलाके में बीती शाम ढहे पुल का मलबा एक के बाद एक लाशें उगलता ही जा रहा है। मरने वालों की संख्या ने हाफ सेंचुरी पार कर लिया बताया जा रहा है। निर्माणाधीन इस पुल के गिरने के हादसे में मारे गए लोगों के आश्रितों को दस दस लाख और घायलों को दो दो लाख रूपए देने की घोषणा भूतल परिवहन मंत्रालय द्वारा की गई है।

बताया जाता है कि पुल का निर्माण कर रही गेमन इंडिया लिमिटेड और हुंडई के तेरह लोगों के खिलाफ मामला पंजीबद्ध कर दो लोगों को पुलिस अभिरक्षा में ले लिया गया है। कोटा के पास चंबल नदी पर बनने वाले इस पुल के रात में ढह जाने से अनेक मजदूर इसके नीचे दब गए थे।


इस हेंगिग पुल के गिरने से नेशनल हाईवे अर्थारिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) के लचर प्रबंधन की पोल खोल कर रख दी है। एनएचएआई के सूत्रों का दावा है कि हादसे वाले पुल का निर्माण वही गेमन इंडिया कंपनी कर रही है, जिसे छ: माह पूर्व देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में डीएमआरसी (दिल्ली मेट्रो) के एक पुल के ढहने के कारण डीएमआरसी ने काली सूची में डाल दिया गया था।

केंद्रीय मंत्री कमल नाथ जैसे संवेदनशील जनसेवक जिन्हें वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के बाद जहाजरानी और भूतल परिवहन मंत्रालय में से भूतल परिवहन मंत्रालय की अहम जिम्मेवारी सौंपी गई है, के विभाग ने उन्हीं की आंख में धूल झोंककर गेमन इंडिया कंपनी को पूरा पूरा प्रश्रय प्रदान किया।

सूत्रों का कहना है कि डीएमआरसी की कार्यवाही के बावजूद भी एनएचएआई के अफसरों ने गेमन इंडिया लिमिटेड के काम के मूल्यांकन की आवश्यक्ता नहीं समझी। सूत्र कहते हैं कि अगर किसी निर्माण कंपनी को ब्लेक लिस्टिड कर दिया जाता है तो अन्य सरकारी महकमे उस कंपनी से कार्य कराने के पहले उसके कार्य का पुर्नमूल्यांकन इसलिए करती है, ताकि वह कंपनी दुबारा गल्ती न दोहरा सके। विडम्बना ही कही जाएगी कि एनएचएआई द्वारा एसा नहीं किया गया, परिणामस्वरूप पचास से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पडा और अनेक घायल हो गए हैं।

सावधान! कोहरा आ रहा है


सावधान! कोहरा आ रहा है



(लिमटी खरे)


दिसंबर की हाड गलाने वाली ठण्ड के आते ही आवागमन ठहर सा जाता है। वैसे तो समूचे भारत में कोहरे की मार इन दिनों में जबर्दस्त होती है, किन्तु उत्तर भारत विशेषकर आगरा के आगे के इलाकों में कोहरा शनै: शनै: बढता ही जाता है। कोहरे के कारण जन जीवन थम सा जाता है।

आंकडों के अनुसार सडक दुघZटनाओं में साल दर साल मरने वालों की संख्या में बढोत्तरी के लिए कोहरा एक प्रमुख कारक के तौर पर सामने आया है। अमूमन नवंबर के अंतिम सप्ताह से फरवरी के पहले सप्ताह तक उत्तर भारत के अधिकांश क्षेत्र काहरे की चादर लपेटे हुए रहते हैं।

कोहरे के चलते कहीं कहीं तो दृश्यता (विजीबिलटी) शून्य तक हो जाती है। रात हो या दिन वाहनों की तेज लाईट भी बहुत करीब आने पर चिमनी की तरह ही प्रतीत होती है। यही कारण है कि घने कोहरे के कारण सदीZ के मौसम में सडक दुघZटनाओं में तेजी से इजाफा होता है।
कोहरे के बारे में प्रचलित तथ्यों के अनुसार सापेक्षिक आद्रता सौ फीसदी होने पर हवा में जलवाष्प की मात्रा एकदम स्थिर हो जाती है। इसमें अतिरिक्त जलवाष्प के शामिल होने अथवा तापमान में और अधिक कमी होने से संघनन आरंभ हो जाता है। इस तरह जलवाष्प की संघनित सूक्ष्म सूक्ष्म पानी की बूंदें इकट्ठी होकर कोहरे के रूप में फैल जातीं हैं।

पानी की एक छोटी सी बूंद के सौंवे हिस्से को संघनन न्यूिक्लयाई अथवा क्लाउड सीड भी कहा जाता है। धूल मिट्टी के साथ तमाम प्रदूषण फैलाने वाले तत्व क्क्लाउड सीड की सतह पर आकर एकत्र होते हैं, और इस तरह होता है कोहरे का निर्माण। वैज्ञानिकों के अनुसार यदि वायूमण्डल में इन सूक्ष्म कणों की संख्या बहुत ज्यादा हो तो सापेक्षिक आद्रता शत प्रतिशत से कम होने के बावजूद भी जलवाष्प का संघनन आरंभ हो जाता है।
दरअसल बूंदों के रूप में संघनित जलवाष्प के बादल रूपी झुंड को कोहरे की संज्ञा दी गई है। कोहरा वायूमण्डल में भूमि की सतह से कुछ उपर उठकर फैला होता है। कोहरे में आसपास की चीजें बहुत ही कम दिखाई पडती हैं, कहीं कहीं तो विजिबिलटी शून्य तक हो जाती है।

देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में दिसंबर से फरवरी तक आवागमन के साधन निर्धारित समय से देरी से ही या तो आरंभ होते हैं अथवा पहुंचते हैं। इसका प्रमुख कारण कोहरा ही है। कोहरे के चलते सडक और रेल मार्ग से आवागमन बहुत धीमा हो जता है। रही बात हवाई मार्ग की तो एयरस्ट्रिप ही कोहरे के कारण नहीं दिखाई देगी तो भला पायलट अपना विमान कहां उतारेगा। अनेकों बार पुअर विजिबिलटी के चलते या तो हवाई जहाज या चौपर घंटों हवा में लटके रहते हैं या फिर आसपास के किसी अन्य एयरापोर्ट पर उतरने पर मजबूर होते हैं।

दरअसल प्रदूषण भी कोहरे के बढने के लिए उपजाउ माहौल पैदा कर रहा है। आंकडे बताते हैं कि 1980 के दशक में देश में घने कोहरे का औसत समय आधे घंटे था, जो बढकर 1995 में एक घंटा और फिर गुणोत्तर तरीके से बढते हुए 2 से 4 घंटे तक पहुंच गया है। जानकारों का मानना है कि साठ के दशक के उपरांत आज घने कोहरे का समय लगभग बीस गुना बढ चुका है।
पिछले साल के आंकडे काफी भयावह ही लगते हैं। दिसंबर 2008 से जनवरी 2009 के बीच दिल्ली में ही साढे सोलह सौ गाडियां विलंब से चलीं। इतना ही नहीं इन दो माहों में 71 उडाने रद्द करनी पडी, साढे सात सौ का समय और लगभग डेढ सौ उडानों का मार्ग बदलना पडा। अनेक बार तो उडान भरने के लिए धूप निकलने का इंतजार करना होता है। धूप में कोहरा धीरे धीरे छटना आरंभ हो जाता है।
कोहरे के कारण रेलगाडियों का विलंब से चलना कोई नई बात नहीं है। रेल चालक को सिग्नल अस्पष्ट दिखाई देने से दनादन चलने वाली रेल गाडियां भी चीटिंयों की तरह रेंगने को मजबूर हो जाती हैं। उत्तर भारत में कोहरे में रेल चालन के लिए पटरी पर पटाके बांधे जाते हैं, जो रेल के इंजन जितना भार पडने पर ही फटते हैं। इनमें पटाखों की संख्या रेल चालक के लिए संकेत का काम करती है।
उत्तर भारत में विशेषक दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखण्ड, बिहार, आदि में कोहरे का कहर सबसे अधिक होता है। दिल्ली जैसे शहर में एक ओर जहां प्रदूषण कोहरे को बढाने में सहायक होता है, वहीं दूसरी ओर खुले इलाकों में सदीZ के मौसम में खेतों में होने वाली सिचाई कोहरे को पनपने के मार्ग प्रशस्त करती है।
विडम्बना ही कही जाएगी कि इक्कीसवीं सदी में भी भारत ने कोहरे से निपटने के लिए कोई ठोस कार्ययोजना अब नहीं बना सकी है। माना जाता है कि सरकार इस समस्या को साल भर में एक से डेढ माह की समस्या मानकर ही छोड देती है, जबकि वास्तविकता यह है कि कोहरे के चलते देश में हर साल आवागमन के दौरान होने वाली मौतों में से 4 फीसदी मौतें पुअर विजिबिलटी के कारण होती हैं।

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

जरूरत बांग्लादेशी घुसपैठियों पर नजर रखने की


जरूरत बांग्लादेशी घुसपैठियों पर नजर रखने की


(लिमटी खरे)


आने वाले दिनों में बांग्लादेश से भारत में घुसपैठ तेज हो सकती है। इस तरह की आशंकाएं देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में फैलने लगीं हैं। इसके पीछी ठोस कारण भी दिए जा रहे हैं। मीडिया के अनुसार बांग्लादेश से कारोडों लोगों के पलायन की आशंका है। बंग्लादेश में तेजी से होते जलवायू परिवर्तन और भविष्य के संभावित कहर ने वहां के लोगों के मन में भय पैदा कर दिया है।
1971 में भारत पाक युद्ध के दरम्यान अस्तित्व में आए बांग्लादेश ने दुनियाभर के देशों से अपील की है कि वह बांग्लादेशी शरणार्थियों को अपने यहां पनाह देने देकर उनके पुनर्वास की दिशा में ठोस कदम उठाए। एक अनुमान के अनुसार बांग्लादेश के कोस्टल एरिया (तटीय क्षेत्र) में रहने वाले करोडों लोगों को वहां से पलायन करना होगा। यद्यपि बांग्लादेश ने भारत से सीधे तौर पर कोई गुजारिश नहीं की है किन्तु इन परिस्थितियों में बांग्लादेशी शरणार्थियों के लिए भारत में पनाह लेना सबसे मुफीद होगा।
वैसे भी कोपेनहेगन में ग्लोबल वार्मिंग पर चिंता अवश्य जताई गई किन्तु इसका कोई कारगर हल निकलता नहीं प्रतीत हो रहा है। जलवायु परिवर्तन पर शोध करने वालों का दावा है कि आने वाले समय में एशिया और आफ्रीका का एक बहुत बडा भूभाग मानव जाति के रहने के लिए अयोग्य हो जाएगा। विशेषज्ञों का दावा है कि तब मानव आबादी का इतना बडा पलायन या विस्थापन होगा जो अब तक कभी भी नहीं हुआ है।
कहा तो यहां तक भी जा रहा है कि आने वाले समय में भारत के तटीय क्षेत्रों में समुद्र जमकर तबाही बरपाएगा। इस तबाही में सुनामी या केटरीना से ज्यादा तेज और भयावह मंजर सामने आ सकता है। सुनामी और केटरीना जैसे तूफान आने के कुछ समय के उपरांत शांत हो गए थे, पर इस तबाही की सुबह होने की उम्मीद न के बराबर ही है। हिन्दुस्तान में मुंबई, मालद्वीव, कोलकता, गुजरात, उडीसा के तटीय इलाके, गोवा आदि के इसकी चपेट में आने की संभावनाएं प्रबल ही बताई जा रही हैं।
दुनिया में सबसे घनी आबादी वाले देश बांग्लादेश में लोगों में भय इसलिए भी व्याप्त है क्योंकि वहां के बसाहट वाले तटीय इलाक समुद्रतल से महज छ: से सात मीटर (तरकीबन 20 फीट) ही उपर हैं। विशेषज्ञों की मानें तो बांग्लादेश के तटीय इलाकों में निवास करने वाले लगभग दस करोड लोगों को अगले सत्तर सालों में अपनी सरजमीं छोडकर अन्यत्र ठिकाना बनाना ही पडेगा। वैसे भी बांग्लादेश में सबसे घनी आबादी बाले ढाका शहर की दूरी समुद्री सीमा से बहुत ज्यादा नहीं है।
जैसे ही भविष्य का रोडमेप बांग्लादेश के लोगों के सामने आता जा रहा है, वहां के लोगो के मानस पटल पर पलायन की बात कौंधना स्वाभाविक ही है। विशेषज्ञ यह भी बता रहे हैं कि आने वाले कुछ वषोZं में बांग्लादेश में अनाज की पैदावार में भी दस से तीस फीसदी की कमी होने की उम्मीद है।
गौरतलब होगा कि पहले से ही भारत अपनी कैंसर की तरह बढती आबादी को लेकर चिंतित है। आज भारत की आबादी ही भारत की प्रगति में सबसे बडी बाधा के तौर पर सामने है। न लोगों को खाने को रोटी है, न तन ढकने को कपडा और न सर छुपाने को जगह।
इसके साथ ही साथ पाकिस्तान और बांग्लादेश के घुसपैठियों ने हिन्दुस्तान में आकर न केवल अपने आशियाने बनाए हैं, बल्कि देश में भ्रष्टाचार की जंग वाले सरकारी तंत्र में रिश्वत की दवा से अपने अपने राशन कार्ड, वोटर आईडी, चालक अनुज्ञा (ड्राईविंग लाईसेंस) आदि भी बनवा लिए हैं।
भारत को वैसे भी घनी आबादी वाले देशों में गिना जाता है। अगर बांग्लादेश से पलायन का आगाज होता है तो उनके लिए बेरोकटोक सीमा पार कर भारत आने के मार्ग प्रशस्त हो जाएंगे। तब इन अघोषित अनचाहे शरणार्थियों के रहने खाने की व्यवस्था बहुत ही बडा सरदर्द बनकर उभर सकता है।
यहां यह उल्लेखनीय होगा कि हिन्दुस्तान में आतंक बरपाने के लिए जिम्मेदार एक संगठन हूजी की जडें बांग्लादेश में गहरी जमी हुईं हैं। अगर बांग्लादेश से बडी तादाद में विस्थापित भारत आते हैं तो हूजी को भारत में जडें जमाने में देर नहीं लगेगी। उस वक्त भारत सरकार के सामने इस आंतरिक चुनौति से निपटना टेडी खीर ही साबित होगा।
ज्ञातव्य है कि कोपेनहेगन सम्मेलन में शिरकत करने पहुंचे बांग्लादेश के सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमण्डल के नेता सबेर हुसैन चौधरी ने वहां इस समस्या पर वजनदारी से प्रकाश डाला था। चौधरी ने मीडिया से मुखातिब होते हुए इशारों ही इशारों में कह दिया था कि कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन में जलवायू परिवर्तन से होने वाले आंतरिक और अंतर्राष्ट्रीय विस्थापन तथा पलायन पर भी गौर फरमाया जाना चाहिए।
भारत सरकार को चाहिए कि समय रहते अपने घनी बसाहट, अपर्याप्त खान पान के स्त्रोत, पाकिस्तान की नापक हरकतें और हूजी और सिमी जैसे संगठनों के साथ आंतरिक हालातों से समूचे विश्व को आवगत कराते हुए ऐसे तरीके खोजना चाहिए कि बांग्लादेश से विस्थापित होने वाले लोगों को दुनिया के अन्य देशों में बसाया जा सके।

किसकी सुने एचएम की या सीएच की!

किसकी सुने एचएम की या सीएच की!



0 कांग्रेसी सांसदों को रहना होगा आखिरी सप्ताह में दिल्ली


0 नेताओं के बडे दिन की छुट्टी पर फिरा पानी


(लिमटी खरे)


नई दिल्ली 26 नवंबर। देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में सियासी दलों के वरिष्ठ सदस्यों के सर पर साल के आखिरी सप्ताह में एक नई आफत आन खडी हो गई है। नेताओं के सामने मुश्किल यह है कि वे एचएम (गृह मंत्री अर्थात अपनी पित्न) की बात सुनें या सीएच (पार्टी के चेयरमेन) की। स्कूलों की छुट्टी के चलते नेताओं पर घर से दबाव है कि बडे दिनों की सात दिन की छुट्टी में उन्हें घुमाने ले जाया जाए, दूसरी ओर पार्टी के आलाकमान ने उन्हें हलाकान कर रखा है। घरवाली, बाहरवाली के चक्कर में उलझकर नेताओं की रात की नींद और दिन का चैन हराम हो गया है।
दिल्ली में आजकल प्रमुख पाटियां कांग्रेस और भाजपा दोनों ही संगठन चुनाव में व्यस्त हैं। पार्टी आलाकमान ने साफ कर दिया है कि संगठन का सदस्यता अभियान हर हाल में 31 दिसंबर तक ही चलाया जाएगा। आलाकमान किसी भी कीमत पर इसे बढाने के मूड में नहीं दिख रहा है।
नेताओं को डर है कि कहीं सदस्यता अभियान में हेराफेरी कर उनके प्रतिद्वंदी अपनी जमीन मजबूत न कर लें। यही कारण है कि बाल बच्चों को छोडकर नेता जोर शोर से सदस्यता अभियान में जुट गए हैं। जिला अध्यक्ष बनाने की जोडतोड में कांग्रेस के उम्मीदवार हर संभव प्रयास कर रहे हैं, वहीं भाजपा में मण्डल से जिला स्तर तक मची गलाकाट स्पर्धा के चलते वे एक घंटे के लिए भी दिल्ली छोडने की स्थिति में नहीं हैं।

वहीं दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी द्वारा वजीरे आजम डॉ. मन मोहन सिंह की उपस्थिति में आईटीओ पर कांग्रेस के नए केंद्रीय कार्यालय का शिलान्यस 28 दिसंबर को किया जा रहा है। चूंकि कांग्रेस सुप्रीमो और प्रधानमंत्री दोनों ही इस कार्यक्रम में शिरकत करेंगे सो कांग्रेस के देश भर के सांसद केंद्रीय कार्यालय के इस प्रोग्राम में भाग लेंगे ही।
``हुई गति सांप छछूंदर केरी, उगलत निगलत पीर घनेरी`` की स्थिति में फंसे नेता न तो बीबी बच्चों को ही तरीके से मना पा रहे हैं और न ही संगठन के स्तर पर अपने मोहरे फिट करने का काम पूरी ईमानदारी से कर पा रहे हैं। हाड गलाने वाली ठंड के बावजूद सियासी हल्कों की फिजां काफी गरम नजर आ रही है। अब नेता अपने मतदाताओं की तरह अपने परिवार को ही आश्वासन देते नजर आ रहे हैं कि जैसे ही तीन दिन की छुट्टी एक साथ पडेगी सबको हवाई जहाज से घुमाने अवश्य ले जाएंगे।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

अनूठे गृहमंत्री हैं पलानिअप्पम चिदम्बरम


अनूठे गृहमंत्री हैं पलानिअप्पम चिदम्बरम


(लिमटी खरे)


भारत के गृह मंत्रियों में सरदार वल्लभ भाई पटेल का नाम बडे ही आदर के साथ लिया जाता है। उसके बाद के गृहमंत्रियों ने कोई खास करिश्मा नहीं किया है। शिवराज पाटिल जैसे गृहमंत्रियों ने देशवासियों का भरोसा तोडने में कोई कोर कसर नही रख छोडी। वर्तमान गृहमंत्री पलानिअप्पम चिदम्बरम ने कुछ नया करने की ठानी है, जिससे भारतवासी उन्हें अनूठे गृहमंत्री के तौर पर सालों तक याद रख सकेंगे।

अमूमन किसी भी सूबे या केंद्र के मंत्री का सपना होता है कि वह अपने मंत्रालय में ज्यादा से ज्यादा अधिकार अपने पास रखे। इसके लिए वह देश की अिस्मता के साथ समझौता करने से भी नहीं चूकता। पी.चिमदम्बरम ने अपने ही गृह मंत्रालय को तोडकर दो भागों में विभाजित करने की वकालत की है। यह निश्चित तौर पर उनकी एक अनूठी पहल मानी जा सकती है।
देश की व्यवसायिक राजधानी मुंबई में पिछले साल हुए अब तक के सबसे बडे आतंकी हमले के बाद शिवराज पाटिल से गृहमंत्री का प्रभार लेने वाले पी.चिदम्बरम के सर पर वाकई कांटों भरा ताज रखा गया था। उस दौरान देश के गृह मंत्रालय के सामने चुनौतियों का अंबार लगा हुआ था। यह चिदम्बरम की सबसे बडी कामयाबी कही जाएगी कि उनके कार्यकाल में बीते एक साल में देश कम से कम आतंकी हमलों से तो महफूज रहा है। इतना ही नहीं उनके कार्यकाल में 12 बडे आतंकी हमलों की साजिश से पर्दा भी उठ सका है।

चिदम्बरम का एक साल का कार्यकाल तारीफेकाबिल इसलिए भी माना जा सकता है, क्योंकि उनके अंदर समन्वय बनाने की बेजोड क्षमता है। देश में गुप्तचर सूचनाएं देने के काम में लगी विभिन्न एजेंसिया प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाकार और स्वयं गृहमंत्री को सीधे रिपोर्ट करतीं हैं। विभिन्न महकमों के मंत्रियों और देश भर के सूबों की सरकारों के बीच तालमेल बनाना कोई आसान बात नहीं है। चिदम्बरम ने अब यह किया है, यही कारण है कि आतंकियों के हर मंसूबों पर पानी फिरा है।

चिदम्बरम की सोच सही है कि 11 सितम्बर 2001 के बाद दुनिया के चौधरी अमेरिका पर कोई आतंकी हमला नहीं हो सका है। अपने आप को चुस्त दुरूस्त बनाने में अमेरिका जैसे विकसित देश को 36 माह का समय लग गया था। इस हमले के तुरंत बाद अमेरिका ने होमलैंड सिक्यूरिटी महकमे का गठन कर लिया था, जिसकी प्रमुख जवाबदारी आतंकी हमलों से निपटना और आंतरिक सुरक्षा मजबूत करना था।
चिदम्बरम चाहते हैं कि 2010 में भारत राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र (एनसीटीएस) का गठन कर ले। दरअसल गृहमंत्री चिदम्बरम चाहते हैं कि गृह मंत्रालय के दो फाड कर दिए जाएं। एक मंत्रालय आंतरिक सुरक्षा से इतर की जवाबदारी का निर्वाहन करे तो दूसरा आंतरिक सुरक्षा की कमान संभाले।

चिदम्बरम के बजान को राजनैतिक चश्मे से देखने की आवश्यक्ता नहीं है। आज से लगभग दस साल पहले कमोबेश यही समय था जबकि पाक प्रशिक्षित आतंकवादी इंडियन एयरलाईंस के विमान को हाईजेक कर बरास्ता अमृतसर उसे कंधार ले गए थे। यात्रियों की रिहाई के बदले भारत सरकार को लश्कर ए तैयबा के प्रमुख सरगना हाफिज मोहम्मद सईद को छोडना पडा था। यह वही सईद है जो पिछले साल मायानगरी मुंबई में हुए आतंकी हमलों का मास्टर माईंड माना जा रहा है।
वैसे पिछले साल गृह मंत्रालय का कामकाज संभालने वाले पी. चिदम्बरम का मानना था कि गुप्तचर सेवाओं को और अधिक चाक चौबंद किया जाए। इन एजेंसियों से प्राप्त सूचनाओं के लिए एक नेशनल िग्रड की सिफारिश और 21 सूचना केंद्रों को इससे जोडने की बात भी कह चुके हैं गृहमंत्री। विडम्बना ही कही जाएगी कि अफसरशाही के बेलगाम घोडों ने चिदम्बरम की मंशाओं को अब तक परवान नहीं चढने दिया है।
देशवासियों के लिए सुखद आश्चर्य यह है कि इक्कीसवीं सदी में राजनीति की काली कोठरी में पलियानिअप्पम चिदम्बरम जेसा व्यक्तित्व भी है जो अपने काम काज और उपलब्धियों का िढंढोरा नहीं पीटते हैं। चिदम्बरम की कार्यशैली से साफ हो जाता है कि गृहमंत्री के तौर पर वे आतंकी या दुश्मन की ताकत को कम करके नहीं आंकते। रही बात समाधान की तो वे अपने तरीके से हर समस्या के समाधान को सभी के सामने रखने का माद्दा भी रखते हैं।
आशा की जानी चाहिए कि गृहमंत्री पी.चिदम्बरम के गृह मंत्रालय को बांटने, एनसीटीएस के गठन और गुप्तचर एजेंसियों के लिए नेशनल िग्रड के सुझावों का सरकार में बैठे समस्त सहयोगी और सभी दलों के संसद सदस्य स्वागत करें। इस पर समय सीमा तय कर जल्द ही राष्ट्रव्यापी बहस कराई जाकर चिदम्बरम की मंशा के अनुसार इसे अगले साल के अंत तक अस्तित्व में ले आया जाए, वरना कहीं देर न हो जाए और सांप निकलने के बाद हम लकीर न पीटते रह जाएं।

बढ सकतीं हैं कांग्रेस और राजमाता के बीच दूरियां


बढ सकतीं हैं कांग्रेस और राजमाता के बीच दूरियां



राजमाता का दरबार अब सजेगा 9,ए कोटला रोड पर!


बदल जाएगा 24 अकबर रोड का पता


(लिमटी खरे)


नई दिल्ली। सवा सौ साल पुरानी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का केंद्रीय कार्यालय अब सोनिया गांधी के निवास के पीछे वाले मार्ग अकबर रोड से उठकर राम नारायण अग्रवाल चौक (पुराना आईटीओ चौराहा) स्थानांतरित होने वाला है। इस साल के अंत में कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी 9, ए कोटला रोड पर नए भवन का शिलान्यास करेंगीं।
गौरतलब होगा कि पूर्व प्रधानमंत्री प्रियदर्शनी स्व.श्रीमति इंदिरा गांधी के समय में 1978 पार्टी का कार्यालय 24 अकबर रोड में स्थापित किया गया था। लगभग तीन दशक तक सत्ता के उतार चढाव का साक्षी रहा यह दफ्तर भविष्य में किस उपयोग में लाया जाएगा यह बात अभी तय नहीं की गई है।

आईटीओ क्षेत्र में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कार्यालय के ठीक सामने एवं हिन्दी भवन के पीछे कांग्रेस के केंद्रीय कार्यालय का निर्माण लगभग दो एकड क्षेत्र में किया जाएगा। आश्चर्यजनक तथ्य तो यह उभरकर सामने आया है कि अनेक सूबों और जिलों में कांग्रेस ने अपने निजी कार्यालयों का निर्माण करा लिया है किन्तु आधी सदी से ज्यादा देश पर राज करने वाली कांग्रेस ने एक अदद निजी केंद्रीय कार्यालय बनाने की जुगत कभी नहीं लगाई है।

बहरहाल, आईटीओ के इलाके में ही दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के आलवा राष्ट्रीय जनता दल और भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी, के कार्यालय स्थापित हैं। अन्य सियासी दलों को भी इसी इलाके में जमीने आवंटित हैं, अथवा होंगी। आने वाले समय में प्रेस काम्पलेक्स के तौर पर पहचाने जाने वाला आईटीओ क्षेत्र सियासी गतिविधियों का गवाह बन जाएगा।
सूत्रों के अनुसार कांग्रेस के केंद्रीय कार्यालय के लिए अनेक वास्तुविदों, अिर्कटेक्ट, इंजीनियर्स से रायशुमारी हो चुकी है। इसके निर्माण का ठेका किसे दिया गया है, एवं इसकी लागत कितनी आएगी यह बात अभी गुप्त ही रखी गई है। सूत्रों ने आगे कहा कि बहुमंजिला प्रस्तावित इमारत में लिफ्ट, सेंट्रल एसी सिस्टम के साथ ही साथ पािर्कंग का विशेष ध्यान रखा गया है।
एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने 24 अकबर रोड से कांग्रेस के केंद्रीय मुख्यालय के 9,ए कोटला रोड जाने की बात पर नाम न उजगर करने की शर्त पर चुटकी लेते हुए कहा कि वर्तमान में 24 अकबर रोड और सोनिया गांधी का आवास 10 जनपथ दोनों के दरवाजे अगल बगल में हैं, किन्तु अगर यह 9,ए कोटला रोड चला गया तो कांग्रेस और कांग्रेस अध्यक्ष के बीच दूरियां बढ जाएंगीं।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

सिम्पलिसिटी इज ओवर, नाउ ओरिजनालटी स्टार्टस!

सिम्पलिसिटी इज ओवर, नाउ ओरिजनालटी स्टार्टस!

क्या मंत्री दिल्ली प्रदेश के नागरिक नहीं हैं शीला जी!


सवा दस करोड रूपए के बंगले में रहेंगे दिल्ली के महज छ: मंत्री


इक बंगला बने नयारा . . . .


(लिमटी खरे)


कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी और उनके साहेबजादे कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी के मितव्ययता का संदेश देने के मामले अभी ठंडे भी नहीं हुए कि उनकी नाक के नीचे ही कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार ने देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में अपने मंत्रियों के लिए छ: बंगलों के निर्माण के लिए महज दस करोड 17 लाख रूपए की राशि की स्वीकृति प्रदान कर सभी को चौंका दिया है। मंत्रियों के नए सरकारी आवास 23 हजार नौ सौ 42 वर्गफीट पर बनने जा रहे हैं, अर्थात हर एक बंग्ला लगभग चार हजार वर्गमीटर के विशाल क्षेत्र में बनेगा। और तो ओर शीला सरकार इस मसले में कितनी जल्दी में है, इस बात का अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि इन बंगलों के निर्माण की समयसीमा महज पंद्रह माह ही रखी गई है।
अगले साल दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमण्डल खेलों में धन की कमी का रोना रोने वाली दिल्ली सरकार का यह कदम आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। कहने को तो राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए तीसरी बार सत्तारूढ हुईं शीला दीक्षित ने इस बार अपनी जीत के तोहफे के तौर पर दिल्लीवासियों को मेट्रो या डीटीसी अथवा ब्लू लाईन में सफर करने पर ज्यादा राशि देने, वेट की दरें बढाने, बिजली पानी मंहगा करने जैसे उपक्रम किए हैं।

विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के चलते हिन्दुस्तान की कमर भी टूटी हुई है। एसी विषम परिस्थिति में शीला सरकार ने आम नागरिकों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष करों का बोझ लादकर उन्हें अधमरा कर दिया है। वहीं दूसरी ओर शीला दीक्षित ने अपने लाडले मंत्रियों के एशोआराम का पूरा ख्याल रखते हुए छ: मंत्रियों के सरकारी आशियाने के लिए सवा दस करोड रूपए का प्रावधान किया है।
यहां गौरतलब बात यह है कि वर्तमान में शीला दीक्षित सरकार के महज दो मंत्रियों को छोडकर शेष के पास सरकारी आवास उपलब्ध हैं। सरकारी आवास विहीन केवल दो मंत्रियों के लिए बंगला बनाने के बजाए शीला सरकार ने आधा दर्जन मंत्रियों के लिए एक करोड 69 लाख रूपए प्रति बंगले के मान से राशि मुहैया करवाई है। इनमें से चार आवास राजनिवास मार्ग तो दो अतउर रहमान लेन में बनने प्रस्तावित हैं।

आसमान छूती मंहगाई के इस दौर में जहां आम नागरिक के सर पर छत ही मयस्सर नही हैं, वहां अगर शीला दीक्षित चाहतीं तो बडे सरकारी आवासों में रह रहे दिल्ली सरकार के बडे अफसरान को कुछ छोटे आवासों में स्थानांतरित कर दो मंत्रियों के लिए बडे आवास की व्यवस्था कर सकतीं थीं। वस्तुत: उन्होंने एसा किया नहीं। हो सकता है कि ``जन सेवकों`` के चहेते ठेकेदारों को लाभ पहुंचाने की गरज से जनता के गाढे पसीने की कमाई को शीला दीक्षित ने इस तरह पानी में बहाने की बात सोची हो। और तो ओर जिस सूबे में विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और उपाध्यक्ष नई विधानसभा के गठन के एक साल बाद भी अपने अपने बंगलों पर काबिज हों तब तो नई आलीशान सरकारी अट्टालिकाओं के निर्माण की दरकार होगी ही।
वित्त मंत्री के अशोक कुमार वालिया के अनुसार मंत्रियों को पुरानी कोठियों में काम करने में कठिनाई महसूस हो रही है, इसलिए लोक निर्माण विभाग के नए बंगलों के दो प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया गया है। पुराने आवासों में मंत्रियों को किस तरह की परेशानी से दो चार होना पड रहा है, यह बात वित्त मंत्री साफ नहीं कर सके। मजे की बात तो यह है कि जिन बंगलों के निर्माण को पहले दिल्ली अर्बन आर्ट कमीशन के पहले इंकार कर दिया था, उन्हें दुबारा फिर बिना किसी अपत्ति के पास भी कर दिया है।
देखा जाए तो दिल्ली सरकार के स्वामित्व वाले पुराने बदहाल छोटे छोटे आवासों में दिल्ली सरकार के अनेक कर्मचारी किस तरह गुजर बसर कर रहे हैं, यह बात वे ही भली भांति जानते हैं पर उनके उपर सत्तारूढ जनसेवकों ने कभी नजरें इनायत नहीं की। भला इस तरफ सरकार ध्यान दे भी तो क्यों, इन आवासों में उन्हें थोडे ही रहना है।

बात चाहे लोकसभा की हो या विधानसभा की हर जगह फिजूलखर्ची का एक अघोषित मद होता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। मंत्री बने एम.एस.कृष्णा, शशि थुरूर और ममता के सहयोगी सुल्तान अहमद ने लाखों रूपए होटलों में रूककर बहा दिए। इतना ही नहीं इस साल सांसदों के बंगलों के रंगरोगन और जरूरी चीजों में केवल एक सौ करोड रूपए ही खर्च हुए हैं। उत्तर प्रदेश की निजाम मायावती ने अपने सरकारी आवास और बसपा के मुख्यालय को बुलट प्रूफ करवाने में भी साढे चार करोड रूपए का प्रावधान किया है। सवाल यह उठता है कि यह सारा का सारा धन कहां से आएगा, जाहिर सी बात है कि करों के माध्यम से जनता के जेब पर डाका डालकर ही जनसेवकों को विलसिता का जीवन मुहैया करवाया जाएगा।

एक नहीं अनेकों उदहारण हैं, जबकि नए निर्माण के बिना ही पुराने भवनों या कक्षों में जरूरी रद्दोबदल कर उनसे काम चलाया गया हो। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में जब मंत्रियों की तादाद बढी तो राज्य सचिवालय वल्लभ भवन में प्रमुख सचिवों के कक्षों को खाली करवाकर मंत्रियों को दिया गया था। प्रमुख सचिवों को सचिवों का तो सचिवों को उप सचिवों का कक्ष आवंटित किया गया था। उपसचिव जो अकेले ही एक कक्ष पर अधिकार जमाए रहते थे, उन्हें अन्य उपसचिवों के साथ अपना कमरा शेयर करना पडा था। यह सब तब हुआ जब मुख्यमंत्री के तौर पर दिग्विजय सिंह ने दृढ इच्छाशक्ति का परिचय दिया था।
हमारे मतानुसार तो जिस तरह विधायकों या सांसदों को आवास उपलब्ध कराए जाते हैं, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या राज्यपाल के `ईयर मार्क` आवास होते हैं, ठीक उसी तरह मंत्रियों के लिए भी आवास ईयर मार्क कर देना चाहिए। वैसे भी मंत्री विधायकों या सांसदों को पिन से लेकर प्लेन तक सारी जरूरत की सामग्री सरकार द्वारा मुहैया करवाई जाती है।
जब भी नया मंत्रीमण्डल गठित हो अथवा किसी मंत्री का विभाग बदले उसे महज अपने कपडे, स्मृतिचिन्ह और तोहफे उठाकर ही नए बंगले में जाना होगा। शेष पलंग, गद्दे, तकिए, सोफा, कुर्सी कंप्यूटर, फोन, परदे आदि सभी चीजें तो सरकारी ही होती हैं। अगर सरकार यह व्यवस्था लागू कर देती है तो फिर जनता को विभागीय मंत्री के घर को ढूंढने के लिए दर दर नहीं भटकना पडेगा। वैसे भी मंत्रियों को अपने विभाग के हिसाब से ही निर्धारित कार्यालय में जाना होता है। विभाग बदले जाने पर उनका कार्यालय भी बदल जाता है, और उस समय उन्हें अपना पुराना कार्यालय छोडना ही पडता है, फिर सरकारी घर से लगाव कैसा, आखिर एक न एक दिन तो उन्हें उस बंगले को छोडना ही होगा।
बहरहाल अगर शीला सरकार वर्तमान सरकारी आवासों में ही रद्दोबदल कर उनमें रहने के लिए मंत्रियों को मना लेतीं तो दिल्ली की गरीब जनता के गाढे पसीने की कमाई से सवा दस करोड रूपए बच जाते, और अगर किसी ठेकेदार विशेष को उपकृत करना ही था तो बेहतर होता कि झुग्गी झोपडी में रहने वाले गरीबों के लिए इस राशि से अधिक से अधिक मकान बनाने का ठेका ही उस ठेकेदार को देकर कम से कम ``जनसेवा`` तो कर ही ली जाती।