गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

कांग्रेस के चाणक्‍य चला सकते हैं जहर बुझे तीर

अमेरिका के पेटर्न पर क्यों नहीं चलती भारत सरकार

वाराणसी हादसा: आस्था और विश्वास पर हमला
(लिमटी खरे)

आस्था के केंद्र वाराणसी में मंगलवार को हुए बम हादसे ने कुछ दिनों की खामोशी को तोड़ दिया है। बनारस में जो कुछ भी हुआ वह इस बात को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है कि रियाया की सुरक्षा के लिए केंद्र और राज्यों की सरकारें कितनी संजीदा हैं। 24 सितम्बर को जब अयोध्या का फैसला आया तब समूचे देश में रेड अलर्ट था और सुरक्षा एजेंसियों की चाक चोबंद कवायद के चलते सब कुछ शांति के साथ ही बीत गया। इसके उपरांत 06 दिसंबर को भी पुलिस ने पूरी मुस्तैदी दिखाई। लगता है कि इस तरह सब कुछ शांति पूर्वक होने के कारण हमारी सुरक्षा एजेंसियां पूरी तरह बेफिक्र हो गई थीं।
 
पुलिस, सुरक्षा एजेंसियां, खुफिया एजेंसियां सोती रहीं और इंडियन मुजाहिदीन नाम के एक आतंकवादी संगठन ने वाराणसी के शीतला घाट पर अपने कुकृत्य को अंजाम दे दिया गया। पिछले पांच सालों में आस्था की नगरी वाराणसी में यह चौथा हमला है। पांच बरस में तीन बार अगर कोई नराधम आकर इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे जाए तो समझ लेना चाहिए कि खामी हमारे तंत्र में ही है। सरकार इस बात को लेकर संतोष जता सकती है कि इस बार के हादसे में मरने वालों की तादाद ज्यादा नहीं है, पर सरकार में बैठे जनता के चुने हुए नुमाईंदो को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस परिवार का एक भी सदस्य जाता है, उसकी दुनिया तो तहस नहस ही हो जाती है।
 
यह तो बनारस की गंगा जमुनी तहबीज का असर रहा कि इस सबके बाद भी आपसी वेमनस्यता नहीं फैल सकी, वरना आतंकवादियों का तो यही प्रयास रहा है कि हिन्दु मुस्लिम आपस में रक्त रंजित क्रांति का आगाज कर दें। इस बार भी मंगलवार का दिन चुना गया। सतातनपंथियों में मंगलवार का विशेष महत्व होता है। इसके पहले बनारस में मंगलवार 07 मार्च 2006 और जयपुर में मंगलवार 13 मई 2008 को हनुमान मंदिर में धमाके हुए थे। वैसे भी इस तरह के नापाका कामों को जब भी अंजाम दिया गया है, इतिहास साक्षी है कि मंगलवार को मंदिर, जुम्मे के दिन मस्जिद और शनिवार को बाजारों को अपना निशाना बनाया गया है। इसके पीछे आपसी वेमनस्य को ही बढ़ाना प्रमुख कारण हो सकता है। हैदराबाद की मक्का मस्जिद, अजमेर की दरगाह, दिल्ली की जामा मस्जिद, मालेगांव की नूरानी मस्जिद में आतंकवादियों ने हमले के लिए शुक्रवार का दिन चुना था। इसी प्रकार पुणे की जर्मन बेकरी, दिल्ली के पहाड़गंज, महरोली, सरोजनी नगर मार्केट आदि में हुए धमाकों का दिन शनिवार रहा।
 
इस तरह के हमलों से रियाया और शासकों के बीच के विश्वास की पतली डोर टूटने लगती है। आम जनता को लगने लगता है कि शासक उसके अमन चैन के प्रति बहुत ज्यादा फिकरमंद नहीं हैं। गृहमंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम खुद भी घटनास्थल पर गए, जिससे इस मामले में केंद्र की गंभीरता उजागर होती है, किन्तु वहां उनके द्वारा दिए गए बयान गैरजरूरी थे। चिदम्बरम के बयानों से सभी का ध्यान आतंकवाद के बजाए केंद्र और राज्य के बीच चल रही रस्साकशी की ओर चला गया। इस तरह की हरकत करके चिदम्बरम ने बनारस जाने के अपने मूल मंसूबे पर पानी ही फेर दिया।
 
इस घटना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र के बीच जिस तरह का जबानी जमाखर्च आरंभ हुआ है, वह निंदनीय ही कहा जाएगा। खुफिया जानकारी को लेकर दोनों ही सरकारें एक दूसरे को कटघरे में खडा करने से नहीं चूक रही हैं। राज्य और केंद्र के बीच समन्वय का अभाव जिस तरह से मीडिया के द्वारा परोसा जा रहा है, उससे तो आतंकवादियों के हौसले और अधिक बुलंदियों पर पहुंच सकते हैं। एक दूसरे पर दोषारोपण से हिन्दुस्तान की जगहसाई ही हो रही है।
 
कितने आश्चर्य की बात है कि आतंक के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने का आव्हान करने वाले जनसेवक जब सत्ता की मलाई चखते हैं तब वे आतंक के खिलाफ एकजुटता का प्रदर्शन करने के बजाए एक दूसरे पर ही कीचड़ उछालने में व्यस्त रहते हैं। देश के आखिरी आदमी को सुरक्षा मुहैया कराना, ताकि वह निर्भय होकर आजादी के साथ सांसे ले सके, भारत गणराज्य और सूबों की सरकारों की पहली प्राथमिकता है। वस्तुतः सत्ता या विपक्ष में बैठे जनसेवक अपने और अपने परिजनों के लिए तो चाक चौबंद सुरक्षा तंत्र का आवरण ओढ़ लेते हैं, किन्तु जब आम जनता की बारी आती है तो इन जनसेवकों की प्राथमिकता बदल जाती है।
 
देखा जाए तो भारत गणराज्य में केंद्र हो या राज्य, हर मामले में पुलिस पूरी तरह से अप्रशिक्षित और अपर्याप्त मात्रा में है। पुलिस हो या अर्धसैनिक बल, इन सभी के लिए अलग अलग पैमाने गढ़े गए हैं। यही कारण है चाहे सीमा पर जवान लड़ते हों या फिर देश के अंदर आतंकवादी अलगाववादी आदि से, हर मोर्चे पर इनको विजय पताका फहराने में संदेह ही रहता है। गुप्तचर सेवाओं में भी अहं की लड़ाई साफ परिलक्षित होती है, यही कारण है कि गुप्तचर सेवाओं में तालमेल का अभाव बना रहता है।
 
भारत की न्यायिक व्यवस्था में आतंकवादियों को सजा दिलवाने में भी काफी लंबा अरसा लग ही जाता है। हर मसले मंे आंख बंद करके दुनिया के चौधरी अमेरिका का अनुसरण करने को अपना गौरव समझने वाले देश के जनसेवक आतंकवाद के मामले में अमेरिका का तरीका अपनाने से क्यों बचते हैं, यह बात समझ से परे ही है। हमें सोचना ही होगा कि आखिर क्या कारण है कि 09/11 के उपरांत अमेरिका में किसी ने आतंक बरपाने का दुस्साहस नहीं किया? क्या कारण है कि अमेरिका जाने वाले पर्याटक या अन्य लोगों को कड़ी जांच से गुजरना होता है? वहीं देश में एक के बाद एक आतंकवादी हमलों को इस तरह की नापाक ताकतें अंजाम देती जा रही हैं और देश में अमन चैन बरकरार रखने का वादा करने वाली सरकारें आंख बंद कर चुपचाप एक के बाद एक हादसों के लिए उपजाउ माहौल तैयार ही करवाती जा रहीं हैं।

बिहार के नतीजों ने उड़ाई आलाकमान की नींद

फिसल रहा है कांग्रेस के हाथों से अल्पसंख्यक वोट बैंक 
मोदी कार्ड खेलकर भाजपा ने अपनी झोली में डाले मुस्लिम वोट
 
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। बिहार के नतीजों पर मनन के बाद कांग्रेस के आला नेताओं की नींद बुरी तरह उड़ी हुई है। नेताओं का मानना है कि एक समय से कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक रहा ‘‘अल्पसंख्यक‘‘ अब उससे विमुख होता जा रहा है। अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय के फैसले से भी मुस्लिम कांग्रेस से खासे नाराज ही बताए जा रहे हैं। कांग्रेस को यह बात भली भांति समझ में आ गई है कि बिहार में कांग्रेस के औंधे मुंह गिरने का एक बड़ा कारण मुसलमानों द्वारा कांग्रेस को वोट न देना ही है।
गौरतलब होगा कि बिहार में कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों को लुभाने की गरज से 47 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, बिहार में जीते चार में से तीन विधायक मुस्लिम हैं। कांग्रेस के अल्पसंख्यक नेता भी दबे स्वर से कांग्रेस आलाकमान की कार्यप्रणाली पर उंगलियां उठाने लगे हैं। एक वरिष्ठ नेता ने नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा कि अयोध्या मामले में फैसला आने पर कांग्रेस का रूख और रवैया अल्पसंख्यकों को कतई नहीं भाया।
उन्होंने कहा कि कांग्रेस के रणनीतिकारों को इस बारे में सोचना आवश्यक है कि आखिर क्या वजह है कि मुसलमान कांग्रेस से दूर होकर अन्य क्षेत्रीय दलों की ओर बढ रहे हैं। उन्होने आगे कहा कि आत्म मुग्ध कांग्रेस अध्यक्ष को चाहिए कि इस बारे में चिंतन अवश्य ही करें कि अल्पसंख्यक वर्ग के मेहबूब अली केसर को बिहार का अध्यक्ष बनाने और सबसे अधिक मुसलमानों को टिकिट देने के बावजूद भी कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक क्यों रहा?
 
राहुल को लेकर चिंता

कांग्रेस के राजनैतिक प्रबंधक इस बात को लेकर खासे चिंतित नजर आ रहे हैं कि अगर यही आलम रहा तो आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल और तमिलनाडू में होने वाले चुनावों में कांग्रेस को शिकस्त का सामना करना पड़ सकता है। राहुल गांधी को महिमा मण्डित कर यूथ आईकान के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कांग्रेस की योजना पर मध्य प्रदेश और बिहार के नतीजों के बाद पानी फिरता लग रहा है। ज्ञातव्य है कि राहुल गांधी इन दोनों ही सूबों में जहां जहां चुनाव प्रचार को गए अधिकांश स्थानों पर कांग्रेस को पराजय का ही सामना करना पड़ा।
 
अहमद पटेल की पूछ परख बढेगी
 
कांग्रेस की मुट्ठी से मुस्लिम वोट बैंक रेत के मानिंद फिसलने से कांग्रेस के प्रबंधक सकते में हैं। कांग्रेस को भय सता रहा है कि अगर जल्द ही कोई ठोस कार्ययोजना को अंजाम नहीं दिया गया तो आने वाले समय में कांग्रेस का नामलेवा भी नहीं बचेगा। एसी परिस्थिति में अब कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल की पूछ परख बढ़ने की संभावनाएं भी जताई जा रही हैं।

 मोदी कार्ड खेला राजग ने
 
बिहार चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने नरेंद्र मोदी के नाम का बखूबी इस्तेमाल किया है। कट्टर हिन्दूवादी छवि बना चुके गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भाजपा और जनता दल यूनाईटेड ने न केवल बिहार में घुसने से रोका वरन् इसका प्रोपोगंडा भी तबियत से किया। मुख्यमंत्री नितिश कुमार द्वारा नरेंद्र मोदी का घोर विरोध जताकर मीडिया के माध्यम से मोदी को बिहार की घरती में न घुसने की बात सार्वजनिक तौर पर कही गई थी। कांग्रेस का मानना है कि राजग के इस कदम से जदयू को खासा फायदा हुआ और बिहार में पिछली बार से अधिक संख्या में उसके विधायक चुनकर आए हैं।

अर्जुन सिंह कर सकते हैं धमाका