मंगलवार, 19 जुलाई 2011

इंडिया यंग, लीडरशिप ओल्ड!

इंडिया यंग, लीडरशिप ओल्ड!

कांग्रेस में प्रजातांत्रिक राजशाही

(लिमटी खरे)

कांग्रेस में भविष्यदृष्टा रहे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इक्कीसवीं सदी को युवाओं की सदी घोषित किया था। उनका मानना था कि इक्कीसवीं सदी में युवाओं के मजबूत कांधों पर भारत गणराज्य उत्तरोत्तर प्रगति कर सकता है। आज सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र की बागडोर उनकी अर्धांग्नी श्रीमति सोनिया गांधी के हाथों में है। राजीव पुत्र राहुल भी चालीस को टच कर रहे हैं। इक्कीसवीं सदी का पहला दशक बीत चुका है, पर फिर भी युवा आज भी पार्श्व में ही रहने पर मजबूर हैं। कमोबेश यही आलम भाजपा सहित अन्य राजनैतिक दलों का है। भारत गणराज्य में प्रजातंत्र की सरेआम शवयात्रा निकाली जा रही है। आम जनता प्रजातंत्र के शव पर सर रखकर गगनभेदी करूण रूदन कर रहा है, किन्तु नीति निर्धारकों और विपक्ष में बैठे नेताओं को इसकी आवाज नहीं सुनाई दे रही है। कांग्रेस में युवाओं को आगे लाने के हिमायती सबसे ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह ने तो मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दो साल पहले ही अपने पुत्र जयवर्धन को राघोगढ़ से कांग्रेस का प्रत्याशी तय कर दिया है। अपने आप में यह ‘‘प्रजातांत्रिक राजशाही‘‘ का नायाब उदहारण माना जाएगा।

भारत देश दिनों दिन जवान होता जा रहा है, किन्तु आज भी सियासत की बागड़ोर उमरदराज नेताओं के हाथों में ही खेल रही है। यंगिस्तान की राह इन पुराने नेताओं के हाथों से होकर ही गुजर रही है, किन्तु साठ पार कर चुके नेता आज भी युवाओं को देश की बागडोर सौंपने आतुर नहीं दिख रहे हैं। मनमोहन सिंह के हालिया फेरबदल के बाद जो परिदृश्य उभरकर सामाने आया है उसके अनुसार कैबनेट मंत्रियों की उमर पैंसठ तो मंत्रीमण्डल की औसत आयु साठ साल है। वजीरे आजम सहित 14 मंत्रियों ने सत्तर से ज्यादा सावन देख लिए हैं। अधिकतर मंत्रियों का जन्म गुलाम भारत में हुआ था। सचिन पायलट, अगाथा संगमा और मिलिंद देवड़ा की आयु 35 से कम तो कुमारी सैलजा चालीस के पेटे में हैं।

पिछले कुछ महीनों में यंगिस्तान को तवज्जो मिलने की उम्मीदें बंधी थीं। युवाओं को यह भाव इसलिए नहीं मिला है, कि देश का उमरदराज नेतृत्व उन पर दांव लगाना चाह रहा है, इसके पीछे सीधा कारण दिखाई पड़ रहा है कि देश में 18 से 30 साल तक के करोड़ों मतदाताओं को लुभाने की गरज से साठ की उमर पार कर चुके नेताओं ने यह प्रयोग किया है कि युवाओं को आगे कर युवा मतदाताओं को अपने से जोड़ा जाए। जब लाल बत्ती की बात आती है तो कमान युवाओं के हाथों से खिसलकर फिर साठ की उमर के कांधों पर चली जाती है।

कहने को तो सभी सियासी पार्टियों द्वारा युवाओं को आगे लाने और उनके हाथ में कमान देने की बातें जोरदार तरीके से की जाती हैं, किन्तु विडम्बना ही कही जाएगी कि सियासी दल युवाओं को आगे लाने में कतराती ही हैं। कांग्रेस में नेहरू गांधी परिवार की पांचवी पीढ़ी राहुल गांधी को आगे लाया जा रहा है, वह भी इसलिए कि उनके नाम को भुनाकर राजनेता सत्ता की मलाई काट सकें। वरना अन्य राजनैतिक दल तो इस मामले में लगभग मौन ही साधे हुए हैं।

जितने भी युवा चेहरे आज राजनैतिक परिदृश्य में दिखाई पड़ रहे हैं उनमें से अधिक को अनुकंपा नियुक्तिमिली हुई है। अपने पिता की सींची राजनैतिक जमीन को सिंपेथीवोट के जरिए ये युवा काट रहे हैं, वरना कम ही एसे युवा होंगे जिन पर पार्टी ने दांव लगाया हो और वे जीतकर संसद या विधानसभा पहुंचे हों। राजनीति में स्थापित घरानांेके वारिसान को ही पार्टी चुनाव में उतारती है और फिर आगे जाकर अपने पिताओं की उंगली पकड़कर ये देश की दशा और दिशा निर्धारित करते हैं। कांग्रेस में युवाओं को आगे लाने के हिमायती सबसे ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह ने तो मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दो साल पहले ही अपने पुत्र जयवर्धन को राघोगढ़ से कांग्रेस का प्रत्याशी तय कर दिया है। यह प्रजातांत्रिक राजशाही का नायाब उदहारण माना जाएगा।

कांग्रेस में सोनिया गांधी (65), मनमोहन सिंह (79), प्रणव मुखर्जी (77), ए.के.अंटोनी (71) के साथ पार्टी में नेताओं की औसत उमर 74 साल है। भाजपा भी इससे पीछे नहीं है अटल बिहारी बाजपेयी (87), एल.के.आड़वाणी (84), राजनाथ सिंह (60), एम.एम.जोशी (77) तो सुषमा स्वराज (59) के साथ यहां औसत उमर 73 दर्ज की गई है। वामदलों में सीपीआईएम में प्रकाश करात (64), सीताराम येचुरी (59), बुद्धदेव भट्टाचार्य (67), अच्युतानंदन (88) के साथ यहां राजनेताओं की औसत उमर 72 तो समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव (71), अमर सिंह (55), जनेश्वर मिश्र (77), रामगोपाल यादव (65) के साथ यह सबसे यंग पार्टी अर्थात यहां औसत उमर 61 है।

सियासी पार्टियों में एक बात और गौरतलब होगी कि जितने भी युवाओं को पार्टियों ने तरजीह दी है, वे सभी जमीनी नहीं कहे जा सकते हैं। ये सभी पार्टियों में पैदा होने के स्थान पर अवतरित हुए हैं। इनमें से हर नेता किसी न किसी का केयर ऑफही है, अर्थात यंगस्तान के नेताओं को उनके पहले वाली पीढ़ी के कारण ही जाना जाता है। ग्रास रूट लेबिल से उठकर कोई भी शीर्ष पर नहीं पहुंचा है।

पिछली बार संपन्न हुए आम चुनावों के पहले रायशुमारी के दौरान एक राजनेता ने जब अपने संसदीय क्षेत्र में अपने कार्यकर्ताओं के सामने युवाओं की हिमायत की तो एक प्रौढ़ कार्यकर्ता ने अपनी पीड़ा का इजहार करते हुए कहा कि जब मैं 29 साल पूर्व आपसे जुड़ा था तब युवा था, आज मेरा बच्चा 25 साल का हो गया है, वह पूछता है कि आप तब भी आम कार्यकर्ता थे, आज भी हैं, इन 29 सालों में आपको क्या मिला, आज मैं जवान हो गया हूं, तो किस आधार पर नेताजी युवाओं को आगे लाने की बात करते हैं।

दुनिया के चौधरी अमेरिका में युवाओं और बुजुर्गों के बीच अंतर की एक स्पष्ट फांक दिखाई पड़ती है। अमेरिका जैसे विकसित देश में जहां युवा पर्यावरण, जीवनशैली, रहन सहन और पारिवारिक मूल्यों के बारे में पुरानी पीढ़ी से अपने मत भिन्न रखती है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक जीवनशैली के मामले में युवाओं द्वारा तेज गति से बदलाव चाहा जाता है। वैसे हमारी व्यक्तिगत राय में हर राजनैतिक दलों में युवाओं और बुजुर्गों के बीच संतुलन और तालमेल होना चाहिए। यह सच है कि उमर के साथ ही अनुभव का भंडार बढ़ता है, पर यह भी सच है कि उमर बढ़ने के साथ ही साथ कार्य करने की क्षमता में भी कमी होती जाती है। जिस गति से युवाओं द्वारा कार्य को अंजाम दिया जाता है उसी तरह मार्गदर्शन के मामले में बुजुर्ग अच्छी भूमिका निभा सकते हैं।

कितने आश्चर्य की बात है कि जिस ब्यूरोक्रेसी (अफसरशाही) की बैसाखी पर चलकर राजनेता देश को चलता है, उसकी सेवानिवृत्ति की उम्र साठ या बासठ साल निर्धारित है, किन्तु जब बात राजनेताओं की आती है तो चलने, बोलने, हाथ पांव हिलाने में अक्षम नेता भी संसद या विधानसभा में पहुंचने की तमन्ना रखते हैं, यह कहां तक उचित माना जा सकता है। राजनैतिक क्षेत्र में युवा को अलग तरीके से परिभाषित किया जाता है। अघोषित तौर पर कहा जाता है कि राजनीति में युवा अर्थात 45 से 65 साल। इस हिसाब से राहुल गांधी को अगर अमूल बेबीकहा जाता है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होना चाहिए। विडम्बना तो देखिए सरकार में काम करने वालों की सेवानिवृत्ति की उम्र निर्धारित है, किन्तु सरकार चलाने वालों की नहीं!

हमारे विचार से महज कुछ चेहरों के आधार पर नहीं, वरन् विचारों के आधार पर युवाओं को व्यापक स्तर पर राजनीति में आने प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। कब्र में पैर लटकाने वालों को अब राहुल गांधी से प्रेरणा लेना चाहिए। जब 41 बसंत देखने वाले राहुल गांधी कैबनेट में शामिल होने से खुद को दूर रखे हुए हैं तो फिर साठ पार कर चुके नेता आखिर लाल बत्ती के लिए जोड़तोड़ क्यों करते हैं। उन्हें भी चाहिए कि वे युवाओं को आगे लाने के हिमायती बनें पर राजा दिग्विजय सिंह जैसे नहीं जो खुद तो राजनीतिक मलाई चखने की कामना रखते हैं और अपने ही पुत्र को चुनाव में उतारने की घोषणा भी कर देते हैं, जबकि अभी न प्रत्याशी चुनाव के लिए समीति बनी है और न ही चुनावों की तारीखों की ही घोषणा हुई है। बुजुर्ग राजनैताओं का नैतिक दायित्व यह बनता है कि वे सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर अब मार्गदर्शक की भूमिका में आएं और युवाओं को ईमानदारी से जनसेवा का पाठ पढ़ाएं तभी गांधी के सपनों का भारत आकार ले सकेगा।

अनेक जिलों में नामों पर बनी सहमति

अनेक जिलों में नामों पर बनी सहमति

कांग्रेस की जिला इकाई घोषित करने भूरिया को आया पसीना

राहुल सिंह ने दिखाई अपनी ताकत

निर्वाचित जिलाध्यक्ष हैं 63 जिलों में

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। कांग्रेस संगठन में तेरह महीने पहले मध्य प्रदेश में जिला अध्यक्षों के निर्वाचन की प्रक्रिया पूरी कर ली जाने के बाद भी जिलाध्यक्षों की घोषणा न तो पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सुरेश पचौरी कर पाए और न ही वर्तमान अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया द्वारा ही की पा रही है। इसका कारण निर्वाचितअध्यक्षों के नामों पर उनके क्षेत्र के प्रभावशाली नेताओं की आपत्ति ही है। प्रदेश की राजनैतिक राजधानी भोपाल, आर्थिक राजधानी इंदौर और संस्कारधानी जबलपुर को लेकर जबर्दस्त घमासान मचा हुआ है।

गौरतलब है कि चार जुलाई को कांग्रेस संगठन के 63 में से 34 जिलों के कांग्रेस अध्यक्षों की घोषणा कर दी गई थी। एआईसीसी के सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे और नियमों के अनुसार राष्ट्रीय अध्यक्ष की नियुक्ति के साथ ही इन अध्यक्षों का कार्यकाल तीन साल अर्थात छत्तीस माह का होता है, जिसमें से 13 महीने तो बीत ही चुके हैं। कांतिलाल भूरिया का कहना है कि वे जल्द ही प्रदेश के क्षत्रपों से चर्चा के उपरांत नामों की घोषणा कर देंगे।

प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया, मध्य प्रदेश के प्रभारी महासचिव बी.के.हरिप्रसाद, एमपी चुनाव प्राधिकरण के अध्यक्ष नरेंद्र बुढ़ानिया, नेशनल चुनाव प्राधिकर के अध्यक्ष आस्कर फर्नाडिस, कांग्रेस के एमपी के क्षत्रप कमल नाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी आपस में सर जोड़कर इस मामले में बैठ चुके हैं। उधर विन्ध्य क्षेत्र में अपना वर्चस्व बढ़ाने की गरज से नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह द्वारा अपने पिता स्व.अर्जुन सिंह के खासुलखास रहे आला दर्जे के राजनेताओं के माध्यम से इस क्षेत्र में अपनी पसंद के जिलाध्यक्षों को सत्तासीन करने की कवायद की जा रही है।

एआईसीसी के एक पदाधिकारी ने नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा कि जब जिला अध्यक्षों को चुनाव द्वारा निर्वाचित घोषित किया गया है तब बड़े नेताओं की पसंद नापसंद का सवाल ही कहां से उठता है। अगर निर्वाचित अध्यक्ष के बजाए किसी अन्य नाम की घोषणा की जाती है तो यह तो कांग्रेस संगठन के अंदर प्रजातंत्र के बजाए हिटलरशाही ही मानी जाएगी।

दक्षिण से प्रभावित हैं शिवराज

अब दक्षिण राज्यों और छत्तीसगढ सरकार की तर्ज पर शिवराज भी मध्यप्रदेश में 3 रू प्रति किलो गेहूं बाटेंगे

(विदुर सरकार)

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दक्षिण राज्यों और छत्तीसगढ़ सरकारों की तर्ज पर अभी से 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए चुनावी बिसात बिछाना शरू कर दिया है और लोक लुभावने निर्णय लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। जिससे की उनकी सरकार पार्टी के जनाधार को व्यापक तरिके से भी बडा सके। इसी क्रम में प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अभी पिछले ही सप्ताह प्रधानमंत्री से मुलाकात कर प्रदेश में रिकार्ड गेहूं की पैदावार से उत्पन्न भण्डारण की समस्या से अवगत कराया और साथ ही पर्याप्त गोदाम न होने के कारण ज्यादातर गेहूं खुले में पडा है जिससे उसके खराब होने की सम्भावना को देखते हुये आग्रह किया कि केन्द्र सरकार गेहूं का प्रदेश को एक साल का अग्रिम आवंटन कर दे जिससे कि भण्डारया की समस्या हल भी हो जाएगी और राज्य सरकार गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों को तीन रूपये किलो की दर से अनाज उनमें बांट देगी। इससे अनाज का भी सही उपयोग हो जायेगा और साथ ही जरूरतमंदों को भी सस्ते दाम पर अनाज मिल जाएगा। इस समय लगभग 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले में रखा है जिससे सुरक्षित भण्डारया की आवश्यकता है।

अव्वल तो यह सम्भव नही है कि केन्द्र सरकार एक साल का अग्रिम आवंटन राज्य सरकार को कर दे और अगर कर देती है तो शिवराज सिंह चौहान 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं को गरीबों को 3 रूपये प्रति किलो की दर से बांट कर कई लाख परिवारों को इसका लाभ पहूचा सकेंगे जो इस समय कमर तोड़ महंगाई से जूझ रहे है वे सरकार के क्रर्ताथ होगे। जो बाद में विधान सभा चुनाव के दौरान शिवराज सरकार की वाह-वाही का गुनगान कर वोटो में तब्दील हो सकते है। कुछ इसी तरह का फायदा छत्तीसगढ़ और दखिण राज्यों ने 1 रू किलो की दर से चावल गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वालो को सौगात मे दीये थे।

अगर इस पूरे मुददे का बारीकी से देखे तो 3 रू प्रति किलो का गेहू गरीबी की रेखा के नीचे वाले परिवारों को बांटने से राजनैतिक लाभ को अवश्य दिख रहा है। लेकिन इसके अर्थशास्त्र अथवा आर्थिक पक्ष को जरा बारिकी से अध्ययन करे तो पायेंगे की पूरा का पूरा मुददा हवा-हवाई लगता है जिसको की यथार्थ रूप लेने में राज्य सरकार की अर्थव्यवस्था ढगमगा जाएगी और इसको पूरा करना राज्य सरकार की आज की आर्थिक स्थिति को देखते हुए सम्भव कर पाना सपना सा लगता है।

अगर हम आकडों पर जाए तो मुख्यमंत्री के अनुसार लगभग 18 लाख मीट्रिक टन गेहूं खुले में पडा है। जिससे सुरक्षित भण्डारण की आवश्यकता है। अगर हम मान ले की केन्द्र सरकार 18 मीट्रिक टन गेहूं को प्रदेश को साल भर कर अग्रिम आबंटन कर देती है तो 18 लाख मीट्रिक को हम किलो में करें तो 18 करोड किलो गेहूं हुआ। अगर हम गेहूं के समर्थन मुल्य 11 रू की दर मान ले तो इस पर 8 रू की राज्य सरकार को आर्थिक सब्सीडी देगी। 8 रू प्रति किलो के हिसाव से राज्य सरकार पर केवल गेहूं की सब्सीडी का लगभग 14.500 करोड़ का अतिरिक्त भार पडेगा। जिसको की राज्य सरकार का अपनी ही वार्षिक योजना से लेना होगा। यह भार गैर योजना मद से लेना होगा।

अब प्रश्न यह उठता है की राज्य सरकार अपनी 2011-12 की कुल वार्षिक योजना 23000 मे से यह गैर योजना गत राशि खर्च कर पाना सम्भव है क्या और अगर राज्य सरकार जैसा कह रही है अगर करेगी तो राज्य सरकार को एक मद का पैसा गैर योजना मद मे खर्च करना पडेगा तो क्या अन्य कल्याणकारी क्षेत्र जैसे शिक्षा ,स्वास्थ्य, उर्जा, कृषि, उधोग, अधोसंरचना आदि की योजना पर प्रतिकूल असर नही पडेगा।

अव्वल तो ऐसा करना प्रदेश के वित्तीय प्रबंधन के लिहाज से ठीक नही होगा और व्यवहारिक रूप से भी यह सम्मभव नहीं है। तो क्या मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान गेहूं के मुददे पर राजनीति कर रहे है और केन्द्र सरकार से ऐसी मांग कर रहे है। जो सामान्यता  केन्द्र सरकार मानेगी नही अगर नही मानेगी तो गेहूं का सड़ना और गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को पर्याप्त मात्रा में गेहूं सस्ते दामों में न उपलबध कराने का ठीकरा भी केन्द्र सरकार पर मड दिया जाता, और यदि अगर केन्द्र सरकार खुदा न खासता खुले में पडे गेहूं को राज्य सरकार को एक साल का अग्रिम में आवंटन करने को राजी हो जाती है तो मुख्यमंत्री को गेहूं को समर्थन मुल्य पर लेकर गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों में 3 रूपये प्रति किलो के हिसाब से बांटना राज्य सरकार के लिए गले की हडडी बन जाएगी जो न निगलते बनेगी और न उगलते बनती। अर्थात सिर्फ राजनैतिक लाभ लेने के लिए राजनेता कुछ भी लुभावने वायदे अथवा घोषणा करने से गुरेजते नही है। विकास के मूलमंत्र पर दोबारा सत्ता पर आसिन शिवराज अब तीसरे पारी के लिए अभी राजनैतिक बिसात बिछा रहे है पर उनको शायद यह नही पता की कभी-कभी इस तरह का वार उल्टा पड सकता है और कलई खुल सकती है।