शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

भरे पेट लोग कर रहे भूखों की चिन्ता!


भरे पेट लोग कर रहे भूखों की चिन्ता!

(लिमटी खरे)

मंहगाई के नाम पर देश की एक सौ इक्कीस करोड़ जनता के रिसते, बदबू मारते घावों पर मरहम लगाने की गरज से केंद्र में विपक्ष में बैठी भाजपा ने संसद में बहस करने का काम आरंभ किया है। संसद में मंहगाई पर जिस तरह की चर्चा हुई उसे देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इस तरह की निरर्थक औचित्यहीन बहस से अच्छा था कि इन सड़ांध मारते घावों को बहने ही दिया जाता। जनता के मन में कुछ उम्मीद जगी किन्तु फिर वह अदृश्य रोशनी की तरह विलुप्त ही हो गई। संसद में मंहगाई पर बयानबाजी से ही मंहगाई कम होने वाली होती तो निश्चित तौर पर देश में मंहगाई कभी होती ही नहीं। देश के वजीरे आजम मंहगाई पर काबू करने के लिए ‘‘तारीख पर तारीख‘‘ ही दिए जा रहे हैं। सांसदों, विधायकों को भरपूर वेतन भत्ते और सुविधाएं मिल रही हैं, तो भला फिर भरे पेट लोगों को भूखों की चिन्ता क्यों होने लगी? हां चुनाव पास हैं तो चिन्ता का दिखावा आवश्यक है।


देश में भ्रष्टाचार अब सदाचार और शिष्टाचार का रूप ले चुका है। लोग भ्रष्टाचार को आवश्यक अंग की तरह लेने लगे हैं। अभी ज्यादा समय नहीं बीता है। अस्सी के दशक के आरंभ में सरकारी कार्यालयों में घूस (रिश्वत) लेना और देना दोनों अपराध है, घूस लेने और देने वाले दोनों ही पाप के भागी हैं।के जुमले लिखकर समाज लोगों में रिश्वत के लिए डर पैदा करता था। हमारे एक मित्र के पिता जो सब इंजीनियर (उस वक्त इन्हें ओवरसियर कहा जाता था) थे, वे बताते थे कि एक बार उन्होंने एक पालीस्टिर की शर्ट सिलवाई, पर उसे पहना केवल घर पर ही वह भी चोरी छिपे। डर था कि अगर सार्वजनिक तौर पर पहनकर निकल गए तो जांच बैठ जाएगी कि पालीस्टर जैसा मंहगा कपड़ा खरीदा कहां से। आज नेता हो या अफसर सभी मंहगी चीजों का उपभोग करने से ज्यादा उसके दिखावे में विश्वास करते हैं। अनेक राजनेता एसे हैं जो काम तो जनसेवाका कर रहे हैं पर हैं अनेक कंपनियों के मालिक।

मंहगाई पर सदन में बहस के दरवाजे खुले। यह बात जानकर देश का हर नागरिक खुश हो सकता है। किन्तु जिस तरह से मंहगाई पर बहस कर इसकी हवा निकाल दी गई वह निराशाजनक ही कहा जाएगा। देखा जाए तो सरकार भी भ्रष्टाचार पर बार बार के हमलों से आजिज आ चुकी है। सरकार भी चाह रही है कि एक बार इस पर बहस हो ही जाए। फिर कांग्रेस के कुशल रणनीतिकारों ने यही समय इसके लिए माकूल पाया। इसका कारण यह है कि भ्रष्टाचार के तीरों ने कर्नाटक में भाजपा के अंदर भी गहरे घाव कर दिए हैं, जिनसे रक्त बह रहा है। इन परिस्थितियों में कांग्रेस को सब कुछ सामान्य करने में ज्यादा मेहनत नहीं करना पड़ रहा है।

मंहगाई के मामले में नेताओं की अपनी अपनी राय है। कोई कह रहा है कि विकास का रथ आगे बढ़ने से मंहगाई बढ़ रही है तो वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी इसे सिरे से खारिज कर रहे हैं। वहीं यशवंत सिन्हा भ्रष्टाचार को मंहगाई के लिए जिम्मेवार बता रहे हैं। देखा जाए तो सिन्हा की बात में दम है। मंहगाई के गर्भ मंे कहीं न कहीं भ्रष्टाचार की खाद अवश्य ही है। कालाबाजारी करने वाले कहीं न कहीं भ्रष्टाचार करके ही अपने आप को बचाते हैं। इतना ही नहीं देश में सौ रूपयों के भ्रष्टाचार की जगह अब अरबों रूपयों के भ्रष्टाचार ने ले ली है।

भारत गणराज्य में आज के समय में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि भ्रष्टाचार से निपटने के बजाए नेताओं ने इसे आरोप प्रत्यारोप का जरिया बना लिया है। आज के समय में नैतिकता की बात करने वाले को महामूर्ख समझा जाता है। आज भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबी सरकार द्वारा विवादों मंे फसने के डर के चलते नए फैसले लेने में आनाकानी आरंभ कर दी है। जो फैसले लिए भी जा रहे हैं उनमें सबसे पहले यह देखा जाता है कि इसमें निहित स्वार्थ कहां तक है।

सरकार आज हरित क्रांति को मानो भुला चुकी है। आज के कांक्रीट युग में खेती की जमीनों का अधिग्रहण किस तरह किया जाए इस बात के मार्ग प्रशस्त किए जा रहे हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने तो कालोनाईजर्स को वीकर सेक्शन के लिए बनने वाले ईडब्लूएस मकानों पर प्रतिबंध से मुक्त करने का फैसला ले लिया है।

मंहगाई के लिए सरकार की हाजिर जवाबी का कोई सानी नहीं है। कुछ समय पहले वह कमजोर मानसून को इसके लिए जिम्मेवार बताती थी, आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों की बढोत्तरी का हवाला देकर वह मंहगाई से बचना चहती है। सरकार भूल जाती है कि जनता की सेवा करने वाले किस कदर संसद में ही अपने वेतन भत्ते बढ़वाने के लिए व्याकुल दिखने वाले सांसदों के दवाब में आकर वेतन बढ़ाती है। सरकार के नुमाईंदों का वेतन कहां से आता है? जाहिर है जनता के गाढ़े पसीने की कमाई के करों से। फिर जो जनता सरकार की नुमाईंदगी प्रत्यक्ष तौर पर नही कर रही है उसकी दो वक्त की रोटी का जिम्मा किसका है? क्या सरकार को महज अपने कर्मचारियों और नेताओं के लिए ही मंहगाई से लड़ने उनका वेतना बढ़ाना चाहिए? वस्तुतः यह इसलिए हो रहा है क्योंकि ग्रामीण अंचलों में रहने वाले लोग नेताओं के लिए वोट बैंक से ज्यादा कुछ भी अहमियत नहीं रखते हैं।

सरकार इस स्थापित तथ्य की ओर से आंख फेर लेती है कि हर साल भंडारण के अभाव में लाखों टन अनाज सड़ जाता है। एसा नहीं कि सरकार द्वारा इसका कोई प्रबंध नहीं किया हो। सरकार ने वेयर हाउस बनवाने के लिए सब्सीडी भी दी थी। लोगों ने सब्सीडी का लाभ उठाया, बड़े बड़े गोदाम बनवाए फिर उन गोदामों में अनाज रखने के बजाए ज्यादा मुनाफे के चक्कर में अन्य सामग्रियां रखवाना आरंभ कर दिया। होना यह चाहिए था कि इन गोदामों में सब्सीडी देने के साथ ही कम से कम पांच सालों के लिए इनका उपयोग सरकारी अनाज के भण्डारण की शर्त रखी जानी चाहिए थी।

कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के मामले में सदन के सारे दलों ने एक अघोषित गठजोड़ कर रखा है। यही कारण है कि इस पर बहस के दौरान इसे मिटाने के लिए तो कोई सुझाव नही देता, बस एक दूसरे पर लांछन लगाकर एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास अवश्य ही किया जाता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अगर हालात यही रहे तो आने वाले दिनों में भारत का स्थान सोमालिया या इथोपिया जैसे भुखमरी के संगीन दौर से गुजर रहे राज्यों के उपर होगा।

घर वापस लौटेंगे बीएसएनएल के अफसर


घर वापस लौटेंगे बीएसएनएल के अफसर

कैट के फेसले से कर्मचारियों में हड़कम्प

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। इंडियन टेलीकाम सर्विसेस के अफसरान के लिए यह खबर वज्रपात से कम नहीं है कि जल्द ही उन्हें भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) से अपना बोरिया बिस्तर बांधना होगा। दरअसल केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (कैट) ने इस मामले में अपना अंतिम फैसला सुनाकर अफसरों के लिए सारे रास्ते बंद कर दिए हैं। यद्यपि इसके लिए समयसीमा का निर्धारण संभवतः नहीं किया गया है अतः अफसर कुछ और माह बीएसएनएल में मलाई काट सकते हैं।

दरअसल 01 अक्टूबर 2000 को बीएसएनएल को कंपनी की शक्ल देते समय अफसरों की भर्ती के बजाए संचार मंत्रालय द्वारा भारतीय टेलीकाम सर्विस के 2000 अफसरों को ही पांच साल के लिए प्रतिनियुक्ति पर बीएसएनएल में भेज दिया था। इसके बाद बीएसएनएल को इन अफसरों ने अपने हिसाब से ही हांकना आरंभ कर दिया था। 2005 में जब पांच साल की प्रतिनियुक्ति की अवधि पूरी हुई तब सरकार की तंद्रा टूटी और सरकार ने इन अफसरों के सामने विकल्प रखा कि या तो ये अफसर वापस मूल काडर में जाएं या फिर बीएसएनएल में ही अपना संविलियन करवा लें।

इसके बाद कोर्ट कचहरी में मामला छः साल तक उलझता रहा। हाल ही में कैट द्वारा एक आदेश जिसे अंतिम आदेश कहा गया है पारित कर इन अफसरों की मुगलई खत्म कर दी है। कैट की दिल्ली शाखा ने आदेश जारी कर साफ कहा है कि बीएसएनएल में प्रतिनियुक्ति पर आए अफसर अपने मूल विभाग में वापस जाएं।

यह है जमे रहने की वजह
संचार मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि चूंकि बीएसएनएल मंे अब ज्यादा काम बचा नहीं है। इसलिए अफसर खाली बैठकर ही अपना समय पास करते हैं। वहीं दूसरी ओर प्रतिनियुक्ति पर इन्हें खासा वेतन और सुविधाएं मिलती हैं। चूंकि समूची व्यवस्था  में अफसरों का ही बोलबाला है अतः वे इसमें बने रहने की जुगत लगा ही लेते हैं। कंपनी प्रबंधन में इन अफसरों की जड़ें इतनी गहरी हैं कि कंपनी चाहकर भी इन्हें प्रथक करने की राह नहीं निकाल पा रही है।

एमपी की प्राथमिकताओं को फिर भूले शिवराज


एमपी की प्राथमिकताओं को फिर भूले शिवराज

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। मध्य प्रदेष के निजाम षिवराज सिंह चौहान ने अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान केंद्रीय मंत्रियों से मुलाकात कर उनसे मध्य प्रदेष के संबंध में चर्चा की। इस बार चौहान ने मध्य प्रदेष के कोटे के मंत्रियों कमल नाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया से दूरी बनाकर रखी गई। गौरतलब है कि हाल ही में मेट्रो मैन के नाम से मषहूर श्रीधरन के मध्य प्रदेष दौरे के बावजूद भी चौहान ने इस मामले में दिलचस्पी लेना मुनासिब नहीं समझा। वहीं वन मंत्री राजेंद्र शुक्ल ने कमल नाथ से इसी दिन सोजन्य भेंट की।

मध्य प्रदेश में बार बार केंद्र के सौतेले व्यवहार का रोना रोने वाले चौहान ने अपनी इस यात्रा में पिछले साल दिसंबर माह में ओला पाला से पीड़ित किसानों के मुआवजे के लिए गठित जीओएम की बैठक के लिए भी कोई प्रयास नहीं किए। इतना ही नहीं, एनएचएआई के लखनादौन से महाराष्ट्र सीमा तक के मार्ग के लिए भी उन्होंने भूतल परिवहन मंत्री सी.पी.जोशी से भेंट करना उचित नहीं समझा।

आधिकारिक जानकारी के अनुसार मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चौहान ने केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार से भी मुलाकात की। उन्होंने श्री पवार से एन एम बोरलोग कृषि अनुसंधान संस्थान को मध्यप्रदेश में खोलने का आग्रह किया जिसको केन्द्रीय मंत्री ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। प्रदेश में भण्डारण की स्थिति से निपटने के लिए श्री चौहान ने केन्द्रीय कृषि मंत्री से पी पी पी मॉडल पर आधारित सात साल के अनुबंध पर भण्डार गृह खोलने का सुझाव दिया। इससे प्रदेश में हो रही भण्डार समस्या से निजात मिलेगी और साथ ही खाद्यान्न भी बर्वाद नहीं होंगे।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री चौहान ने यहां केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश से मुलाकात की। मुलाकात के दौरान मुख्यमंत्री ने प्रदेश में एक हजार की आबादी वाले गॉंवों को प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अंतर्गत जोड़ने की मांग को दोहराया। उन्होंने मनरेगा के तहत नक्सलवाद से निपटने के लिए इंदिरा आवास योजना के तहत स्थायी सम्पत्ति बनाने की भी मांग की।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केन्द्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री श्रीकान्त जैना से भी मुलाकात कर प्रदेश में डी ए पी खाद की आपूर्ति के लिए आग्रह किया। सरकारी विज्ञप्ति मेें कहा गया है कि केन्द्रीय मंत्रियों ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मांगों को ध्यानपूर्वक सुना और अपने-अपने मंत्रालयों से हर संभव शीघ्र सहायता देने  का आश्वासन दिया।

प्रभाव छोड़ने में असफल साबित हो रहे भूरिया


प्रभाव छोड़ने में असफल साबित हो रहे भूरिया

बिसेन को घेरने में नाकाम दिख रही कांग्रेस

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। 2003 के बाद कोमा में गई अखिला भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मध्य प्रदेश इकाई अब भी सुस्सुपतावस्था से उबर नहीं पाई है। आलाकमान ने यद्यपि सुरेश पचौरी के स्थान पर कांतिलाल भूरिया को सूबे की कमान सौंप दी है पर भूरिया भी कांग्रेस को जिलाने में अक्षम ही साबित हो रहे हैं। भूरिया के कमान संभालने के बाद भी कांग्रेस में चुने गए जिलाध्यक्षों की घोषणा न हो पाने से अब कांग्रेस का आम कार्यकर्ता उनसे विमुख होता प्रतीत हो रहा है।

नौ दिन चले अढ़ाई कोसकी कहावत को चरितार्थ करते हुए भूरिया ने राम रामकरते अपने सौ दिन तो पूरे कर लिए पर इसमें कोई खास उपलब्धि उनके खाते में दर्ज नहीं हो सकी है। भूरिया के अध्यक्ष बनने के बाद हुए जबेरा उपचुनाव मे भी कांग्रेस औंधे मुंह ही गिरी। इस चुनाव में भूरिया ने संवैधानिक पद पर बैठे विधानसभा उपाध्यक्ष ठाकुर हरवंश सिंह को भी महती जवाबदारी देकर साबित कर दिया कि कांग्रेस प्रजातांत्रिक मूल्यों पर विश्वास नहीं करती है। अमूमन संवैधानिक ओहदों पर बैठे नेताओं द्वारा पार्टी का काम खुलकर न किए जाने की परंपरा रही है।

पीसीसी चीफ बनने के बाद भूरिया के हाथों मध्य प्रदेश के सहकारिता मंत्री गौरी शंकर बिसेन के द्वारा आदिवासी पटवारी को जातिसूचक शब्दों से अपमानित कर सभा मंच पर ही उठक बैठक लगवाने, आदिवासियों के बारे में घोर आपत्तिजनक टिप्पणी करने के मामले आए, किन्तु भूरिया के नेतृत्व में कांग्रेस इसे भुना न सकी। इतना ही नहीं सिवनी और छिंदवाड़ा में आदिवासियों का अपमान करने वाले बिसेन के खिलाफ दोनों ही जिलों का संगठन मौन साधे बैठा रहा किन्तु भूरिया ने इसकी सुध भी नहीं ली।

निर्णय लेने से कतराते हैं भूरिया
एमपी कांग्रेस के मुखिया कांतिलाल भूरिया की लाल बत्ती कांग्रेस आलाकमान ने छीन ली है। सत्ता के गलियारों में चर्चा आम है कि भूरिया द्वारा निर्णय लेने में आनाकानी करने के चलते ही लाल बत्ती से उनको उतारा गया है। इतना ही नहीं अध्यक्ष बनने के उपरांत भी निर्वाचित जिलाध्यक्षों की घोषणा में भी वे हीला हवाला करते ही नजर आ रहे हैं।

नहीं छूट रहा दिल्ली का मोह
कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ के सूत्रों का कहना है कि कांतिलाल भूरिया को दिल्ली से विदा कर पूरी तरह मध्य प्रदेश पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा गया है। भूरिया का दिल्ली प्रेम किसी से छिपा नहीं है। यही कारण है कि वे आए दिन मध्य प्रदेश को छोड़कर दिल्ली में ही अपना डेरा डाले नजर आते हैं। अध्यक्ष बनने के बाद भूरिया ने सौ दिन पूरे होने के उपरांत भी प्रदेश के जिलों में जाने की जहमत नहीं उठाई है।

मंहगाई पर सत्ता विपक्ष की नूरा कुश्ती


मंहगाई पर सत्ता विपक्ष की नूरा कुश्ती

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। मंहगाई के मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी की मांग पर की गई बहस में बुधवार को भोजनावकाश के उपरांत सदन पूरी तरह खाली रहा। जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा कमर तोड़ मंहगाई पर जनता का पक्ष रखने के बजाए भोजन करने के बाद आराम करना उचित समझा। भाजपा के मुख्य वक्ता यशवंत सिन्हा ही संसद के सेकन्ड हॉफ मंे गायब रहे।

गौरतलब है कि मंहगाई के मसले पर प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह द्वारा तारीख पर तारीख ही दी जाती रही है। इसके बाद भी मोटी तनखा और अन्य सुख सुविधाएं पाने वाले विपक्ष ने इस मामले में अपना मुंह खोलना मुनासिब नहीं समझा। इस बार संसद के सत्र में लोकपाल बनाम जनलोकपालसबसे अहम मुद्दा था। भाजपा पर आरोप है कि जनता का ध्यान भटकाने के लिए उसके द्वारा मंहगाई का मुद्दा उछाल दिया गया।

जब मंहगाई पर बहस का मामला आया तो विपक्ष ने भी इससे पल्ला झाड़ लिया। यद्यपि भाजपा के यशवंत सिन्हा का कहना था कि करारोपड़ के कारण ही मंहगाई बढ़ रही है। वहीं दूसरी ओर शरद यादव द्वारा प्रधानमंत्री को आड़े हाथों लिया गया। सपा बसपा ने भी सरकार को तबियत से कोसा पर सदन की पहली पाली में ही। दूसरी पाली में सदन पूरी तरह रीता ही नजर आया।

उल्लेखनीय होगा कि प्रधानमंत्री राज्य सभा से चुनकर आए हैं, इस नाते मतदाताओं के प्रति उनकी सीधी जवाबदेही नहीं है। यही कारण है कि देश के सबसे ताकतवर संवैधानिक पद पर बैठे डॉ.मनमोहन सिंह हो मंहगाई के कारण होने वाले नुकसान और आम जनता की हालत से कोई सरोकार नहीं है।