रविवार, 31 जनवरी 2010

भारतवंशियों का कभी नहीं डूबता है सूरज


भारतवंशियों का कभी नहीं डूबता है सूरज

दुनिया भर में पूजा जाता है इण्डियन स्किल

रहें कहीं, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी

(लिमटी खरे)

भारत पर सालों साल राज करने वाले ब्रितानियों के बारे में कहा जाता था कि अंग्रेजों का सूरज कभी नहीं डूबता, अर्थात उनकी सल्तनत इतने सारे देशों मे थी कि कहीं न कहीं सूरज दिखाई ही देता था। आज हम हिन्दुस्तानी गर्व से कह सकते हैं कि भारतवंशियों का सूरज कभी भी नहीं डूबता है। विश्व के कमोबेश हर देश में भारतीय मिल जायेंगे तो अपनी सफलता के परचम लहरा रहे हैं।

अपने ज्ञान और कौशल से दुनिया भर को आलोकित करने वाले भारतवंशियों के दिमाग का लोहा दुनिया का चौधरी माने जाने वाला अमेरिका भी मानता है। हर क्षेत्र हर विधा, हर फन में माहिर होते हैं भारतवंशी। भले ही वे गैर रिहायशी भारतीय (एनआरआई) हों पर कहलाएंगे वे भारतवंशी ही।

अपनी प्रतिभा के बलबूते पर ही दुनिया भर में भारत के नाम का डंका बजाने वाले भारतीयों को भी अपने वतन पर नाज है। भारत सरकार द्वारा प्रवासी भारतीयों के योगदान को रेखांकित करने के लिए 2003 से हर साल नौ जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस का आयोजन किया जाता है।

दरअसल इस दिन 1915 में भारत के सबसे बडे प्रवासी भारतीय मोहन दास करमचन्द गांधी ने दक्षिण आफ्रीका से भारत लौटकर स्वाधीनता का बिगुल बजाया था। कोट पेंट से आधी धोती पहनने वाले इस महात्मा ने अहिंसा के पथ पर चलकर भारत को आजादी दिलाई और हम भारतीयों का जीवन ही बदल दिया।

देखा जाए तो हिन्दुस्तानियों की तादाद लगभग हर देश में है। कनाडा में दस लाख, अमेरिका में साढे बाईस लाख, त्रिनिदाद में साढे पांच लाख, गुयाना में तीन लाख बीस हजार, सूरीनाम में एक लाख चालीस हजार, ब्रिटेन में 15 लाख, फ्रांस में दो लाख अस्सी हजार, साउदी अरब में 18 लाख, बेहरीन में साढे तीन लाख, कुबेत में पांच लाख अस्सी हजार, कतर में पांच लाख, यूनाईटेड अरब अमीरात में 17 लाख, दक्षिण अफ्रीका में 12 लाख, मरीशस में नौ लाख, यमन में एक लाख 20 हजार, ओमान में पांच लाख साठ हजार, श्रीलंका में 16 लाख, नेपाल में 6 लाख, मलेशिया में 21 लाख, म्यांमार में साढे तीन लाख, सिंगापुर में 6 लाख, फिजी में 3 लाख 22 हजार और आस्ट्रेलिया में साढे चार लाख भारतवंशी निवास कर रहे हैं।

दुनिया के चौधरी अमेरिका जैसे देश में 38 फीसदी चिकित्सक भारतीय हैं। यहां वैज्ञानिकों में 12 फीसदी स्थान भारतवंशियों के कब्जे में है। नासा में 36 फीसदी कर्मचारी भारतवंशी हैं। इतना ही नहीं कम्पयूटर के क्षेत्र में धमाल मचाने वाली माईक्रोसाफ्ट कंपनी में भारत के 34 फीसदी तो आईबीएम में 28 और इंटेल में 17 फीसदी कर्मचारियों ने अपना डंका बजाकर रखा हुआ है। फोटोकापी के क्षेत्र में 13 फीसदी हिन्दुस्तानी अमेरिका में छाए हुए हैं। भारतवंशियों की पहली पसन्द बनकर उभरा है अमेरिका, यहां भारतीय मूल के स्वामित्व वाली 100 शीर्ष कंपनियों का सालाना राजस्व 2.2 अरब डालर है, जो दुनिया भर के 21 हजार लोगों को रोजगार मुहैया करवा रही हैं।

भारतवंशियों के अन्दर कोई तो खूबी होगी जो कि विदेशों की धरा में ये अपने आप को संजोकर रखे हुए हैं। परदेस में परचम फहराने वाले भारतियों में अमेरिका में लुइसियाना के गर्वनर बाबी जिन्दल, न्यूजीलेण्ड के गर्वनर जनरल आनन्द सत्यानन्द, जाने माने ब्रिटिश सांसद कीथ वाज, लिबरल डोमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष लार्ड ढोलकिया, सुरीनाम के उपराष्ट्रपति राम सर्दजोई, सिंगापुर के महामहिम राष्ट्रपति एस.आर.नाथन, तीसरी बार गुयाना के महामहिम राष्ट्रपति बने भरत जगदेव के अलावा मरीशस के महामहिम राष्ट्रपति अनिरूद्ध जगन्नाथ, मरीशस के प्रधानमन्त्री नवीन रामगुलाम, 1999 में फिजी के प्रधानमन्त्री महेन्द्र चौधरी, केन्या के प्रथम उपराष्ट्रपति जोसेफ मुरूम्बी, त्रिनिदाद एवं टौबेगो की पहली महिला अटार्नी जनरल कमला प्रसाद बिसेसर के नाम प्रमुख हैं।

विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल विजेता डॉ हरगोविन्द खुराना, एस.चन्द्रशेखर, अन्तरिक्ष विज्ञानी कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स के अलावा 2009 में नोबेल विजेता वेंकटरमन रामाकृष्णन तो साहित्य के क्षेत्र में बुकर ऑफ बकर्स पुरूस्कार से नवाजे गए सलमान रशदी, बुकर विजेता किरण देसाई अर्थशास्त्र के नोबेल विजेता आमत्र्य सेन, पुलित्जर विजेता झुम्पा लाहिडी, नोबेल विजेता सर वी.एस.नागपाल प्रमुख हैं।

कारोबार के क्षेत्र में भारतवंशियों की सफलता इतनी है कि उनकी उंचाईयों को सर उठाकर देखने पर सर की टोपी पीछे गिरना स्वाभाविक ही है। पेिप्सको में मुख्य कार्यकारी अधिकारी इन्दिरा नूरी, ब्रिटेन के धनी परिवारों में से एक हिन्दुजा बंधु, बोस कार्पोरेशन के संस्थापक अमर बोस, इस्पात करोबारी लक्ष्मी नारायण मित्तल, 1978 मेें नून प्रोडक्टस की स्थापना करने वाले सर गुलाम नून, मूलत: चार्टर्ड एकाउंटेंट करन बिलीमोरिया ने 1989 में कोब्रा बीयर का कारोबार आरम्भ किया जो आज सर चढकर बोल रहा है। इसके अलावा साठ के दशक में अपनी बिटिया के इलाज के लिए ब्रिटेन पहुंचे लार्ड स्वराज पाल ने 1978 में कापरो समूह की स्थापना की जो आज बुलन्दियों पर है।

कंप्यूटर की दुनिया में तहलका मचाने वाले एचपी के जनरल मेनेजर राजीव गुप्ता, पेंटियम चिप बनाने वाले विनोद धाम, दुनिया के तीसरे सबसे धनी व्यक्ति अजीम प्रेमजी, वेब बेस्ड ईमेल प्रोवाईडर हॉटमेल के फाउण्डर और क्रिएटर समीर भाटिया, सी, सी प्लस प्लस, यूनिक्स जैसे कंप्यूटर प्रोग्राम देने वाली कंपनी एटी एण्डटी बेल के प्रजीडेंट अरूण नेत्रावाली, विण्डोस 2000 के माईक्रोसाफ्ट टेस्टिंग डायरेक्टर संजय तेजवरिका, सिटी बैंक के चीफ एग्जीक्यूटिव विक्टर मेंनेंजेस, रजत गुप्ता और राना तलवार, का नाम आते ही भारतवासियों का सर गर्व से उंचा हो जाता है।

दुनिया भर के देशों में सरकार में सर्वोच्च या प्रमुख पद पाने वालों में भारतवंशी आगे ही हैं। फिजी में एक, गुयाना में 14, मलावी में 1 मलेशिया में चार, मारीशस में 17, मोजािम्बक में 1, सिंगापुर में 8, श्रीलंका में 9, सूरीनाम में 5, त्रिनिदाद और टुबैगो में 8, दक्षिण आफ्रीका में चार लोगों ने सरकार में सर्वोच्च या प्रमुख पद पाया है।

इसी तरह कनाडा में 9, जिम्वाब्बे में 1, जांबिया में 1, ब्रिटेन में 24, त्रिनिदाद और टुबैगो में 23, युगाण्डा में 1, तंजानिया में 4, इण्डोनेशिया में 1, आयरलेण्ड में 1, मलेशिया में दस, सूरीनाम में 18, श्रीलंका में 2, दक्षिण अफ्रीका में 16, सिंगापुर में 4, पनामा में एक, मोजािम्बक में 11 और मारीशस में 36 भारतीय मूल के संसद सदस्य या सीनेटर रहे हैं।

इस लिहाज से माना जा सकता है कि भारतवंशी समूचे विश्व में फैले हुए हैं, और हर क्षेत्र, हर विधा हर फन में भारत का तिरंगा उंचा करने के मार्ग प्रशस्त करते जा रहे हैं। भारतीय दिमाग को विश्व के हर देश में पर्याप्त सम्मान दिया जाता है। माना जाता है कि भारतवंशी के दिमाग के बिना कोई भी देश प्रगति के सौपान तय नहीं कर सकता है। तभी तो हम भारतीय गर्व से कहते हैं -``वी लव अवर इण्डिया``।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

यमराज के शिकंजे में पेंच नेशनल पार्क के बाघ

यमराज के शिकंजे में पेंच नेशनल पार्क के बाघ

13 महीने में 19 बाघ हुए काल कलवित

(लिमटी खरे)

सिवनी। एक तरफ केन्द्र सरकार द्वारा एक के बाद एक कार्यक्रम लागू कर करोडों अरबों रूपए खर्च कर वन्य जीवों के संरक्षण के लिए नित नई योजनाओं को बनाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश के सिवनी जिले मेें एक के बाद एक बाघों ने दम तोडा है, जिससे यह साबित हो रहा है कि कागजों में तो योजनाएं फलफूल रहीं हैं, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही है।

प्रदेश के पेंच राष्ट्रीय उद्यान में पिछले चार महीने में चार बाघ मारे गए हैं। इन बाघों की मौत कैसे हुई है, यह बात अभी उजागर नहीं हो सकी है। गत 27 जनवरी को पेंच में बेयोरथडी बीट के तालाब में एक लगभग सात वषीZय जवान शेर मृत अवस्था में तैरता पाया गया। वन विभाग द्वारा इसकी सूचना मिलने पर आनन फानन में गोपनीय तरीके से इस शेर का अन्तिम संस्कार कर दिया गया था। जब यह मामला मीडिया में उछला तब जाकर वन विभाग ने इसकी आधिकारिक तौर पर जानकारी देना आरम्भ किया।

प्राप्त जानकारी के अनुसार उक्त बाघ के शव परीक्षण के दौरान उसकी किडनी, लीवर एवं हृदय क्षतिग्रस्त पाया गया। आशंका व्यक्त की जा रही है कि उक्त बाघ को जहर देकर मारा गया था। उक्त बाघ बीमार भी नहीं था और वह जहां तैरता पाया गया वहां पानी महज डेढ से दो फिट ही गहरा था। यक्ष प्रश्न आज भी यह है कि अगर बाघ की मौत जहर से हुई है तो जहर बाघ के शरीर में पहुंचा कैसे।

यहां उल्लेखनीय है कि 2003 में जब बाघों की गणना की गई थी, तब पेंच में 45 बाघ थे, जो 2005 में कम होकर 42 हो गए थे। वर्तमान में यहां महज 33 बाघ ही बताए जा रहे हैं। पिछले तीन माहों में दो बाघ के शावकों सहित तीन बाघ काल कलवित हो चुके हैं।

सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रदेश के बाघ बाघिन को सूबे के वन विभाग द्वारा सेटेलाईट कॉलर से जोड दिया गया है, जिससे इनकी उपस्थिति एवं गतिविधियों पर बराबर नज़र रखी जा सकती है। पेंच मेें भी बाघों को इससे जोडने के लिए डब्लू आई आई देहरादून के विशेषज्ञों के दल में शामिल डॉ.शंकर और डॉ.पराग निगम ने बाघों को सेटेलॉईट कॉलर से जोडा था।

मध्य प्रदेश का वन महकमा वन्य जीवों के प्रति कितना संवेदनशील है, इस बात का अन्दाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि पिछले 13 माहों में प्रदेश में 19 बाघों की मौत हुई है, जिसमें से सिवनी जिले के पेंच राष्ट्रीय उद्यान और कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में चार चार और बांघवगढ के नेशनल पार्क में तीन की मौत हुई थी।

पेंच नेशनल पार्क में जब से पार्क संचालक के.नायक, उपसंचालक ओम प्रकाश तिवारी की पदस्थापना हुई है, तबसे पेंच नेशनल पार्क में वन्य जीवों पर शामत ही आ गई है। बताया जाता है कि वन्य जीवों की तस्करी के लिए अब सिवनी जिले के जंगल ``साफ्ट टारगेट`` बनकर उभर रहा है। उधर दूसरी ओर क्षेत्रीय सांसद के.डी.देशमुख और विधायक कमल मस्कोले द्वारा भी वन्य जीवों के बारे में कोई संवेदनाएं नहीं बरती जा रहीं हैं। अब तक सिवनी में मारे गए वन्य जीवों के मामले में किसी की भी जवाबदारी निर्धारित न किया जाना आश्चर्यजनक ही है।

यहां एक और तथ्य गौरतलब है कि सिवनी से होकर गुजरने वाला शेरशाह सूरी के जमाने के मार्ग पर बनने वाले उत्तर दक्षिण गलियारे में लगभग आठ किलोमीटर के मार्ग पर अडंगा लगाया गया है। इस अडंगे का कारण यह है कि इस आठ किलोमीटर के हिस्से में वन्य जीवों के संरक्षण की बात कही गई है। यह मामला माननीय सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है।

महिलाओं का सच्चा हितेषी बना मध्य प्रदेश

महिलाओं का सच्चा हितेषी बना मध्य प्रदेश

महिलाओं के लिए वरदान से कम नहीं हैं शिवराज की योजनाएं

पहली बार किसी सूबे में महिलाओं को शक्तिशाली बनाने का हुआ है प्रयास

(लिमटी खरे)

देश को आजाद हुए छ: दशक (बासठ साल) से अधिक का समय हो चुका है। सरकार भी बासठ साल में अपने कर्मचारी को सेवानिवृत कर देती है। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि देश ने सरकार के हिसाब से अपनी औसत आयु की नौकरी पूरी कर ली है, पर क्या देश सेवानिवृति के लिए तैयार है। कतई नहीं, इन बासठ सालों में देश ने तरक्की के आयाम अवश्य तय किए होंगे पर यह अनेक मामलों में रसातल की ओर भी अग्रसर हुआ है।

मातृशक्ति को सभी बारंबार प्रणाम करते हैं, पर कोई भी महिलाओं को आगे लाने या सशक्त बनाने की पहल नहीं करता है। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस ने प्रधानमन्त्री के तौर पर स्व.श्रीमति इिन्दरा गांधी, अपने अध्यक्ष के तौर पर श्रीमति सोनिया गांधी के बाद देश की पहली महामहिम राष्ट्रपति श्रीमति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, पहली लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार दिए हैं, वहीं भाजपा ने मातृशक्ति का सम्मान करते हुए लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर श्रीमति सुषमा स्वराज को आसन्दी पर बिठाया है।

इतना सब होने के बाद भी महिलाओं के लिए 33 फीसदी के आरक्षण का विधेयक लाने में कांग्रेस को नाकों चने चबाने पड रहे हैं, जाहिर है पुरूष प्रधान मानसिकता वाले देश में महिलाओं को बराबरी पर लाने की बातें तो जोर शोर से की जातीं हैं, पर जब अमली जामा पहनाने की बात आती है, तब सभी बगलें झाकने पर मजबूर हो जाते हैं।

मध्य प्रदेश में पिछले कुछ सालों से ``मां तुझे सलाम . . .`` का गीत जमकर बज रहा है। सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान द्वारा मध्य प्रदेश में स्त्री वर्ग के लिए जो महात्वाकांक्षी योजनाएं लागू की गई हैं, वे आने वाले समय में देश के लिए नजीर से कम नहीं होंगी। निश्चित तौर पर इन योजनाओं को या तो `जस का तस` या फिर कुछ हेरफेर कर सभी राज्य लागू करने पर मजबूर हो जाएंगे।

सुप्रसिद्ध कवि मैथली शरण गुप्त की कविता की ये पंक्तियां -
``अबला जीवन हाय तुम्हारी यह ही कहानी!,
आंचल में है दूध, और आंखों में है पानी!!``

को शिवराज सिंह चौहान ने कुछ संशोधित कर आंखों के पानी को खुशी के आंसुओं में तब्दील कर दिया है।

कुल पुत्र से ही आगे बढता है, की मान्यता को झुठलाते हुए शिवराज सिंह चौहान ने लाडली लक्ष्मी योजना का आगाज किया। इस योजना में आयकर न देने वाले आंगनवाडी में पंजीकृत वे पालक जिन्होंने परिवार नियोजन को अपनाया हो, अपनी कन्या का नाम दर्ज करा सकते हैं। इसमें उन्हें तीस हजार रूपए का राष्ट्रीय बचत पत्र प्राप्त होता है। इस जमा राशि से मिलने वाले ब्याज से लाडली लक्ष्मी को दो हजार रूपए एक मुश्त दिए जाते हैं, जिससे वह पांचवी तक की शिक्षा प्राप्त कर सके।

इसके उपरान्त आठवीं पास करने पर चार हजार रूपए, दसवीं में पहुंचने पर साढे सात हजार रूप्ए और ग्यारहवीं तथा बारहवीं कक्षा के लिए उसे हर माह दो सौ रूपयों की मदद मिलेगी। इतना ही नहीं जब वह सयानी हो जाएगी तो उसे एक लाख रूपए से अधिक की राशि मिलेगी जो उसकी शादी में काम आएगी। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की यह योजना सुपरहिट साबित हुई है, अब तक साठ हजार से अधिक कन्याएं लाडली लक्ष्मी बन चुकी हैं।

इससे इतर बालिकाओं की शिक्षा के लिए शिवराज सिंह चौहान ने खासा ध्यान दिया है। सच ही है, अगर घर में मां शिक्षित और संस्कारी होगी तो आने वाली पीढी का भविष्य उज्जवल होना तय है। इसी तर्ज पर मध्य प्रदेश सरकार द्वारा संसाधन, साधन और धन के अभाव को शिक्षा में अडंगा न बनने की योजना बनाई है।

सरकार के अनेक महकमे अपनी अपनी महात्वाकांक्षी योजनाओं के माध्यम से बालिकाओं को कोर्स की किताबें, यूनीफार्म, छात्रवृत्ति तो मुहैया करा ही रहे हैं, साथ ही बालिकाओं के मन में पढाई के प्रति रूझान पैदा करने की गरज से सरकार ने जून 2008 से छटवीं कक्षा में प्रवेश लेने वाली हर कन्या को साईकिल देने का लोकलुभावना निर्णय भी लिया है।

सहज सुलभ व्यक्तित्व और सुलझे विचारों वाले सादगी पसन्द मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा महिलाओं के पिछडे होने के दर्द को समझा है। उन्होंने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने कमर कस ली है। महिलाओं में आत्मविश्वास जगाने का जिम्मा अपने कांधे पर उठाए शिवराज सिंह चौहान द्वारा एतिहासिक फैसले लेते हुए पंचायत संस्थाओं और नगरीय निकायों में पचास फीसदी, तो वन समितियों में एक तिहाई आरक्षण लागू करवा दिया है।

इतना ही नहीं 38 जिलों में महिला डेस्क, कार्यपालिक बल में सब इंसपेक्टर की भर्ती में तीस फीसदी, आरक्षक की भर्ती में दस फीसदी महिलाओं में रचनात्मकता को विकसित करने दो लाख रूपए के रानी दुगाZवती पुरूकार, समाज सेवा और वीरता के लिए राजमाता विजयाराजे सिंधिया और रानी अवन्ति बाई के नाम पर एक एक लाख रूपए के पुरूस्कार भी आरंीा किए गए है।

इतना ही नहीं वीरांगना रानी दुगाZवती के नाम पर बहुत समय से एक बटालियन की बहुप्रतिक्षित मांग को पूरा करते हुए 329 पदों का सृजन भी कर दिया है मध्य प्रदेश सरकार ने। इसके अलावा खेलों में महिलाओं को प्रोत्साहन देने हेतु ग्वालियर में राज्य महिला अकादमी की स्थापना भी कर दी गई है। हाकी के खिलाडियों को जब केन्द्र सरकार की ओर से तिरस्कार मिला तब शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें सहारा दिया है।

इस मंहगाई के दौर में गरीब के घर सबसे बडी समस्या उसकी बेटी के कन्यादान की होती है। शिवराज सिंह चौहान ने इस दर्द को बखूबी समझा है। जब वे संसद सदस्य हुआ करते थे, तब से उनके संसदीय क्षेत्र विदिशा में सामूहिक विवाहों का आयोजन होता रहा है। अब मध्य प्रदेश सरकार द्वारा कन्यादान योजना का ही आगाज कर दिया है।

इस योजना में गरीब, जरूरत मन्द, नि:शक्त, निर्धन, कमजोर परिवारों की न केवल विवाह योग्य, वरन् परित्याक्ता, विधवा महिलाओं के लिए पांच हजार रूपए और सामूहिक विवाह के आयोजनों हेतु संस्थाओं को एक हजार रूपए प्रति कन्या के हिसाब से राशि सरकार द्वारा मुहैया करवाई जाती है।

विवाह के उपरान्त गर्भधारण करने पर भू्रण का लिंग परीक्षण वैसे तो केन्द्र सरकार द्वारा ही प्रतिबंधित किया गया है, इस मामले में एक कदम आगे बढते हुए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा परीक्षण करने वाले चिकित्सक अथवा संस्था को दण्ड दिए जाने का प्रावधान करने के साथ सूचना देने वाले को दस हजार का ईनाम भी देने की घोषणा की है।

बिटिया जब गर्भ धारण करती है तो उसकी गोद भराई की जवाबदारी भी मध्य प्रदेश सरकार अपने कांधों पर उठाती है। इस योजना के तहत गोद भराई आयोजन में गर्भवती स्त्री को मातृ एवं शिशु रक्षा कार्ड, आयरन फोलिक एसिड की गोलियां आदि देकर उसकी गोद भराई में नारियल, सिन्दूर, चूडियां और अन्य तोहफे भी दिए जाते हैं।

फिर आती है जननी सुरक्षा योजना की बारी। इसमें गर्भवती महिलाओं को संस्थागत प्रसव के लिए प्रेरित कर आर्थिक सहायता मुहैया करवाई जाती है। इसमें प्रेरक को प्रोत्साहन राशि के अलावा स्त्री को समीपस्थ सरकारी अस्पताल पहुंचाने में होने वाले व्यय को भी दिया जाता है।

रीब की बच्ची के अन्नप्राशन हेतु आंगनवाडी केन्द्र में अन्नप्राशन संस्कार में बच्ची को कटोरी चम्मच और खाद्य पदार्थ तोहफे में दिए जाते हैं। इसके बाद पढाई के लिए लाडली लक्ष्मी योजना, आत्मनिर्भरता के लिए अनेक योजनाओं के बाद जब बेटी के हाथ पीले करने की बारी आती है तब भी मध्य प्रदेश सरकार इसे अपनी चिन्ता मानती है। जिस सूबे में मातृशक्ति को आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास से लवरेज करने के प्रयास खुले दिल और दिमाग से हो रहे हों उस प्रदेश में राम राज्य आने में समय नहीं लगेगा।

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

तीन दिन में सिमटी राष्ट्रभक्ति

तीन दिन में सिमटी राष्ट्रभक्ति


गणतन्त्र, स्वाधीनता और गांधी जयन्ती पर ही सुनाई देते हैं देशप्रेम के गाने

आजादी के मतवालों को भूल गई इक्कीसवीं सदी की युवा पीढी

देश प्रेम की अलख जगाने, महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी कवि प्रदीप ने

(लिमटी खरे)


कितने जतन के बाद भारत देश में 15 अगस्त 1947 को आजादी का सूर्योदय हुआ था। देश को आजाद कराने, न जाने कितने मतवालों ने घरों घर जाकर देश प्रेम का जज्बा जगाया था। सब कुछ अब बीते जमाने की बातें होती जा रहीं हैं। आजादी के लिए जिम्मेदार देश देश के हर शहीद और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी की कुबाZनियां अब जिन किताबों में दर्ज हैं, वे कहीं पडी धूल खा रही हैं। विडम्बना तो देखिए आज देशप्रेम के ओतप्रोत गाने भी बलात अप्रसंगिक बना दिए गए हैं। महान विभूतियों के छायाचित्रों का स्थान सचिन तेन्दुलकर, अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार जैसे आईकान्स ने ले लिया है। देश प्रेम के गाने महज 15 अगस्त, 26 जनवरी और गांधी जयन्ती पर ही दिन भर और शहीद दिवस पर आधे दिन सुनने को मिला करते हैं।


गौरतलब होगा कि आजादी के पहले देशप्रेम के जज्बे को गानों में लिपिबद्ध कर उन्हें स्वरों में पिरोया गया था। इसके लिए आज की पीढी को हिन्दी सिनेमा का आभारी होना चाहिए, पर वस्तुत: एसा है नहीं। आज की युवा पीढी इस सत्य को नहीं जानती है कि देश प्रेम की भावना को व्यक्त करने वाले फिल्मी गीतों के रचियता एसे दौर से भी गुजरे हैं जब उन्हें ब्रितानी सरकार के कोप का भाजन होना पडा था।

देखा जाए तो देशप्रेम से ओतप्रोत गानों का लेखन 1940 के आसपास ही माना जाता है। उस दौर में बंधन, सिकन्दर, किस्मत जैसे दर्जनों चलचित्र बने थे, जिनमें देशभक्ति का जज्बा जगाने वाले गानों को खासा स्थान दिया गया था। मशहूर निदेशक ज्ञान मुखर्जी द्वारा निर्देशित बंधन फिल्म सम्भवत: पहली फिल्म थी जिसमें देशप्रेम की भावना को रूपहले पर्दे पर व्यक्त किया गया हो। इस फिल्म में जाने माने गीतकार प्रदीप (रामचन्द्र द्विवेदी) के द्वारा लिखे गए सारे गाने लोकप्रिय हुए थे। कवि प्रदीप का देशप्रेम के गानों में जो योगदान था, उसे भुलाया नहीं जा सकता है।


इसके एक गीत ``चल चल रे नौजवान`` ने तो धूम मचा दी थी। इसके उपरान्त रूपहले पर्दे पर देशप्रेम जगाने का सिलसिला आरम्भ हो गया था। 1943 में बनी किस्मत फिल्म के प्रदीप के गीत ``आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है`` ने देशवासियों के मानस पटल पर देशप्रेम जबर्दस्त तरीके से जगाया था। लोगों के पागलपन का यह आलम था कि लोग इस फिल्म में यह गीत बारंबार सुनने की फरमाईश किया करते थे।


आलम यह था कि यह गीत फिल्म में दो बार सुनाया जाता था। उधर प्रदीप के क्रान्तिकारी विचारों से भयाक्रान्त ब्रितानी सरकार ने प्रदीप के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया, जिससे प्रदीप को कुछ दिनों तक भूमिगत तक होना पडा था। पचास से साठ के दशक में आजादी के उपरान्त रूपहले पर्दे पर देशप्रेम जमकर बिका। उस वक्त इस तरह के चलचित्र बनाने में किसी को पकडे जाने का डर नहीं था, सो निर्माता निर्देशकों ने इस भावनाओं का जमकर दोहन किया।

दस दौर में फणी मजूमदार, चेतन आनन्द, सोहराब मोदी, ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे नामी गिरमी निर्माता निर्देशकों ने आनन्द मठ, लीजर, सिकन्दरे आजम, जागृति जैसी फिल्मों का निर्माण किया जिसमें देशप्रेम से भरे गीतों को जबर्दस्त तरीके से उडेला गया था।


1962 में जब भारत और चीन युद्ध अपने चरम पर था, उस समय कवि प्रदीप द्वारा मेजर शैतान सिंह के अदम्य साहस, बहादुरी और बलिदान से प्रभावित हो एक गीत की रचना में व्यस्त थे, उस समय उनका लिखा गीत ``ए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी . . .`` जब संगीतकार ए.रामचन्द्रन के निर्देशन में एक प्रोग्राम में स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने सुनाया तो तत्कालीन प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू भी अपने आंसू नहीं रोक सके थे।

इसी दौर में बनी हकीकत में कैफी आजमी के गानों ने कमाल कर दिया था। इसके गीत कर चले हम फिदा जाने तन साथियो को आज भी प्रोढ हो चुकी पीढी जब तब गुनगुनाती दिखती है। सत्तर से अस्सी के दशक में प्रेम पुजारी, ललकार, पुकार, देशप्रेमी, कर्मा, हिन्दुस्तान की कसम, वतन के रखवाले, फरिश्ते, प्रेम पुजारी, मेरी आवाज सुनो, क्रान्ति जैसी फिल्में बनीं जो देशप्रेम पर ही केन्दित थीं।

वालीवुड में प्रेम धवन का नाम भी देशप्रेम को जगाने वाले गीतकारों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। उनके लिखे गीत काबुली वाला के ए मेरे प्यारे वतन, शहीद का ए वतन, ए वतन तुझको मेरी कसम, मेरा रंग दे बसन्ती चोला, हम हिन्दुस्तानी का मशहूर गाना छोडो कल की बातें कल की बात पुरानी,


महान गायक मोहम्मद रफी ने देशप्रेम के अनेक गीतों में अपना स्वर दिया है। नया दौर के ये देश है वीर जवानों का, लीडर के वतन पर जो फिदा होगा, अमर वो नौजवां होगा, अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं . . ., आखें का उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता. . ., ललकार का आज गा लो मुस्करा लो, महफिलें सजा लो, देश प्रेमी का आपस में प्रेम करो मेरे देशप्रेमियों, आदि में रफी साहब ने लोगों के मन में आजादी के सही मायने भरने का प्रयास किया था।

गुजरे जमाने के मशहूर अभिनेता मनोज कुमार का नाम आते ही देशप्रेम अपने आप जेहन में आ जाता है। मनोज कुमार को भारत कुमार के नाम से ही पहचाना जाने लगा था। मनोज कुमार की कमोबेश हर फिल्म में देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत गाने हुआ करते थे। शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम, क्रान्ति जैसी फिल्में मनोज कुमार ने ही दी हैं।

अस्सी के दशक के उपरान्त रूपहले पर्दे पर शिक्षा प्रद और देशप्रेम की भावनाओं से बनी फिल्मों का बाजार ठण्डा होता गया। आज फूहडता और नग्नता प्रधान फिल्में ही वालीवुड की झोली से निकलकर आ रही हैं। आज की युवा पीढी और देशप्रेम या आजादी के मतवालों की प्रासंगिकता पर गहरा कटाक्ष कर बनी थी, लगे रहो मुन्ना भाई, इस फिल्म में 2 अक्टूबर को गांधी जयन्ती के बजाए शुष्क दिवस (इस दिन शराब बन्दी होती है) के रूप में अधिक पहचाना जाता है। विडम्बना यह है कि इसके बावजूद भी न देश की सरकार चेती और न ही प्रदेशों की।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि भारत सरकार और राज्यों की सरकारें भी आजादी के सही मायनों को आम जनता के मानस पटल से विस्मृत करने के मार्ग प्रशस्त कर रहीं हैं। देशप्रेम के गाने 26 जनवरी, 15 अगस्त के साथ ही 2 अक्टूबर को आधे दिन तक ही बजा करते हैं। कुल मिलाकर आज की युवा पीढी तो यह समझने का प्रयास ही नहीं कर रही है कि आजादी के मायने क्या हैं, दुख का विषय तो यह है कि देश के नीति निर्धारक भी उन्हें याद दिलाने का प्रयास नहीं कर रहे हैं।

सोमवार, 25 जनवरी 2010

आजाद भारत में ये हैं गण और यह रहा तन्त्र

आजाद भारत में ये हैं गण और यह रहा तन्त्र


महिला बाल विकास के साथ, सूचना प्रसारण मन्त्रालय ले नैतिक जवाबदारी

तीरथ के बजाए अंबिका से मांगना चाहिए इस्तीफा

गणतन्त्र की स्थापना के साठ साल पूरे होने पर कांग्रेस का देशवासियों को नायाब तोहफा

सवाल गिल्त किसकी का नहीं, कैसे हो गई गिल्त यह महत्वपूर्ण

(लिमटी खरे)


15 अगस्त 1947 को भारत देश को पराधीनता से मुक्ति मिली। इसके बाद 26 जनवरी 1950 को भारण गणराज्य के गणतन्त्र की स्थापना हुई। भारत का गणतन्त्र आज किस मुकाम पर है किसी से छिपा नहीं है। देश के जिन गण के लिए तन्त्र की स्थापना की गई थी, आज वे गण तो हाशिए में सिमट गए हैं। अब तन्त्र चलाने वाले गण ही सब कुछ बनकर उभर चुके हैं। किसी को भारत देश के आखिरी छोर पर बैठे आम आदमी की चिन्ता नहीं है, हर कोई अपनी मस्ती और मद में चूर है। शिख से लेकर नख तक समूचे गण और उसका तन्त्र आकंठ विलासिता, राजशाही, में डूबकर भ्रष्टाचार और अमानवीयता का नंगा नाच दिखा रहा है।

भारत के गणतन्त्र के साठ साल पूरे होने की पूर्व संध्या से पहले ही भारत सरकार ने एक एसा करिश्मा कर दिखाया है, जिसे क्षम्य श्रेणी में कतई नहीं रख जा सकता है। भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय बालिका दिवस पर रविवार को जो विज्ञापन प्रकाशित करवाया है, वह घोर आपत्तिजनक है। इस विज्ञापन के बारे में अब सरकार अपनी खाल बचाने की गरज से तरह तरह के जतन अवश्य कर रही हो पर तरकश से निकले तीर को वापस रखा जा सकता है, किन्तु धनुष से छूटे तीर को वापस नहीं लाया जा सकता है।

केन्द्र सरकार के मानव संसाधन विभाग द्वारा कन्या भू्रण हत्या के खिलाफ प्रकाशित विज्ञापन में देश के वजीरे आलम डॉ.एम.एम.सिंह, कांग्रेस की शक्ति और सत्ता की शीर्ष केन्द्र श्रीमति सोनिया गांधी के साथ पडोसी मुल्क पाकिस्तान के पूर्व एयर चीफ मार्शल तनवीर महमूद अहमद का फोटो भी प्रकाशित किया है। तनवीर महमूद का फोटो इसमें प्रकाशित किया जाना किसी भी दृष्टिकोण से प्रासांगिक नहीं कहा जा सकता है।

केन्द्र सरकार के विज्ञापन सरकारी तौर पर जारी करने का दायित्व सूचना और प्रसारण मन्त्रालय के दिल्ली में सीजीओ काम्लेक्स में सूचना भवन के दृश्य एवं श्रृव्य निदेशालय (डीएव्हीपी) का होता है। सम्बंधित विभाग द्वारा विज्ञापन का प्रारूप या अपनी मंशा से इस महकमे को आवगत कराया जाता है। इसके उपरान्त यह विभाग उस विज्ञापन को डिजाईन करवाकर वापस सम्बंधित विभाग के अनुमोदन के उपरान्त प्रकाशन के लिए जारी करता है।

यहां यह उल्लेखनीय होगा कि जो भी विभाग अपने विज्ञापन का प्रकाशन करवाना चाहता है, वह विज्ञापन के साथ अनुमानित राशि का धनादेश और किन अखबारों में इसे प्रकाशित किया जाना है, उसकी सूची भी संलग्न कर भेजता है। यह समूची प्रक्रिया सूचना भवन के भूलत से लेकर नवें तल तक विभिन्न प्रभागों और अनुभागों से होकर गुजरती है। इस मामले में गिल्त किसकी है, यह मूल प्रश्न नहीं है, मूल प्रश्न तो यह है कि इतने हाथों से होकर गुजरने के बाद भी गिल्त कैसे हो गई।

दरअसल सूचना भवन में वषोZं से पदस्थ सरकारी नुमाईन्दों को अब अपने मूल काम के बजाए मीडिया की दलाली में ज्यादा मजा आने लगा है। कहते हैं कि पन्द्रह से पचास फीसदी तक के कमीशन पर यहां करोडों अरबों रूपयों के वारे न्यारे हो रहे हैं। सूचना प्रसारण मन्त्री अंबिका सोनी द्वारा अगर एक माह में ही विभागों द्वारा प्रस्तावित विज्ञापन, अखबारों की सूची, उनके देयक के भुगतान की जानकारी ही बुलवा ली जाए तो उनकी आंखें फटी की फटी रह जाएंगी कि उनकी नाक के नीचे किस कदर भ्रष्टाचार की गंगा अनवरत सालों साल से बह रही है। डीएव्हीपी में भ्रत्य से लेेकर उप संचालक स्तर तक के अधिकारियों का पूरा कार्यकाल डीएव्हीपी के दिल्ली कार्यालय में ही बीत गया है।

इस मामले में अपनी खाल बचाने के लिए महिला बाल विकास मन्त्री कृष्णा तीरथ द्वारा तर्क के बजाए कुतर्क देना उनके मानसिक दिवालियापन के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता है। यह कोई छोटी मोटी गिल्त नहीं जिसकी निन्दा कर इसे भुलाया जा सके। अगर चाईल्ड वेलफेयर मिनिस्ट्री ने तनवीर महमूद की फोटो जारी की भी हो तो क्या डीएव्हीपी की सारी सीिढयों पर धृतराष्ट्र के बंशज ही विराजमान हैं।

वायूसेना का कहना सच है कि इस तरह से सरकारी विज्ञापनों में अगर भारत के खिलाफ आतंकवाद का ताना बाना बुनने वाले पकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख का फोटो प्रकाशित किया जाएगा तो सैनिकों का मनोबल गिरना स्वाभाविक ही है। उपर से तीरथ के उस बयान ने आग में घी का ही काम किया है जिसमें तीरथ ने कहा है कि फोटो के बजाए विज्ञापन की भावनाओं पर ध्यान दें। तीरथ का यह बयान राष्ट्रभक्तों की भावनाएं आहत करने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है।

अगर विज्ञापनों में फोटो महत्वहीन होती हैं तो फिर उसमें सोनिया और मनमोहन की फोटो लगाई ही क्यों गई। और अगर तीरथ के बजाए इस विज्ञापन में पाकिस्तान की किसी महिला नेत्री की फोटो लग जाती तब भी क्या तीरथ के तेवर यही रहते, जाहिर है नहीं, क्योंकि उस वक्त तो विभाग के न जाने कितने अफसरान निलंबन की राह से गुजर चुके होते।

इस तरह के विज्ञापन के लिए प्रधानमन्त्री कार्यालय और तीरथ ने तो कुतर्कों के साथ माफी मांग ली है, किन्तु भारत सरकार के सूचना प्रसारण मन्त्रालय (आई एण्ड बी मिनिस्ट्र) दायित्व सम्भालने वाली अंबिका सोनी क्यों खामोश हैं। दरअसल यह गिल्त सूचना प्रसारण मन्त्रालय के डीएव्हीपी प्रभाग की है, सो उन्हें भी सामने आना चाहिए। गिल्त से अगर महिला बाल विकास विभाग ने तनवीर महमूद की फोटो जारी भी कर दी तो आई एण्ड बी मिनिस्ट्र के डीएव्हीपी प्रभाग की जवाबदारी यह नहीं बनती है कि वह सम्बंधित विभाग को यह बताए कि यह फोटो प्रासंगिक नहीं है।

बहरहाल देश में गण की रक्षा, समृद्धि, विकास के लिए स्थापित किए गए तन्त्र ने साठ साल पूरे कर लिए हैं। आज आजाद भारत में गणतन्त्र पहले से मजबूत हुआ है या कमजोर इस पर टिप्पणी करना बेमानी ही होगा, क्योंकि भारत के गणतन्त्र की गाथा सबके सामने ही है। जब गणतन्त्र की स्थापना के पचास साल पूरे होने के महज दो दिन पहले ही भारत सरकार का तन्त्र इतनी भयानक और अक्षम्य लापरवाही करे तब गणतन्त्र के हाल किसी से छिपे नहीं होना चाहिए।

युवराज से घबराई भाजपा


ये है दिल्ली मेरी जान


(लिमटी खरे)

युवराज से घबराई भाजपा

कांग्रेस की नज़र में भविष्य के प्रधानमन्त्री राहुल गांधी की लोकप्रियता शायद इस कदर बढ गई है कि अब भाजपा द्वारा उन पर तीखे प्रहार आरम्भ कर दिए हैं। भाजपा द्वारा राहुल गांधी के युवा जोडो अभियान में पलीता लगाने के हर सम्भव प्रयास किए जा रहे हैं। हाल ही में राहुल गांधी की मध्य प्रदेश यात्रा के उपरान्त भाजपा शासित राज्य सरकार ने मध्य प्रदेश की अघोषित व्यवसायिक राजधानी इन्दौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के कुलपति और रजिस्टार को नोटिस भेजकर जवाब तलब किया है। गौरतलब होगा कि राहुल इस विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में शिरकत करने गए थे, इस दौरान वे विद्यार्थियों से रूबरू हुए और उन्होंने राजनीति में सक्रिय होने का न्योता दिया था। यह अलहदा बात है कि राजनीति को दूर से सलाम करने वाले विद्यार्थियों की यहां ज्यादा तादाद थी, किन्तु भाजपा सरकार को यह रास नहीं आया और राज्य के उच्च शिक्षा विभाग ने यूनिवर्सिटी को नोटिस देकर पूछा है कि इस तरह के राजनैतिक कार्यक्रम की इजाजत किसने दी थी। उधर कांग्रेस के तथाकथित थिंक टैंक समझे जाने वाले सांसद अनिल माधव दुबे ने भी नहले पर दहला मारकर ग्वालियर, इन्दौर, भोपाल और सागर के शैक्षणिक संस्थाओं को पत्र लिखकर कहा है कि वे उनके भी इस तरह के कार्यक्रम आयोजित कराएं ताकि वे बच्चों को पर्यावरण के बारे में विस्तार से समझा सकें।

इन्दिरा गांधी को कोसा मोंटेक ने

कांग्रेस का दुश्मन और कोई नहीं कांग्रेस ही है, यह बात कांग्रेस से जुडे न जाने कितने बडे नेता और जनसेवक कह चुके हैं। शशि थुरूर हों या फिर खुद राहुल गांधी अपने बडबोलेपन से कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने से नहीं चूकते। अबकी बार योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने ही इन्दिरा गांधी की नीतियों की आलोचना कर डाली। अहलूवालिया का कहना है कि इन्दिरा गांधी की गरीबी उन्नमूलन की नीतियों के जरिए गरीबी को मिटाया जाना सम्भव नहीं है। गरीबी उन्नमूलन पर पटना में आयोजित एक सम्मेलन में अहलूवालिया ने इस तरह का बयान देकर सनसनी पैदा कर दी। हलांकि अहलूवालिया के इस कथन को मीडिया ने ज्यादा हवा नहीं दी फिर भी कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के अंग ही कांग्रेस के लिए नित नई मुसीबत पैदा करने से नहीं चूक रहे हैं। कांग्रेस का भाग्य अच्छा कहा जा सकता है, क्योंकि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के खेमे में पिछले तीन चार माहों से खामोशी पसरी हुई है। यही कारण है कि अनेक अच्छे, ज्वलन्त और प्रभावी मुद्दे भाजपा के हाथ से निकलते जा रहे हैं।

अरूण वसेZस अरूण!
भाजपा में इन दिनों दो अरूण के बीच घमासान मचा हुआ है। पिछले अनेक चुनावों में मुंह की खाने के बाद भाजपा के नए निजाम नितिन गडकरी की ताजपोशी के बाद अरूण जेतली और अरूण शोरी की तोपें शान्त हो गईं थीं, यह शान्ति क्षणिक ही थी। गौरतलब होगा कि आंग्ल भाषा में कुछ दिनों पूर्व मूलत: पत्रकार किन्तु अब राजनेता अरूण शोरी ने अपने एक लेख के माध्यम से तहलका मचा दिया था, जिसमें उन्होंने तत्कालीन नेतृत्व पर जमकर प्रहार किया था। सभी को घोर आश्चर्य हुआ था कि शोरी ने अचानक अपना मोर्चा पार्टी के उमर दराज नेता एल.के.आडवाणी और अरूण जेतली के खिलाफ एकाएक कैसे खोल दिया। शोरी के नजदीकी सूत्रों की मानें तो अरूण वसेZस अरूण की लडाई में अल्पविराम लगा है किन्तु दोनों अन्दर ही अन्दर तलवारें पजा रहे हैं, जो कभी भी खुलकर सामने आ सकतीं हैं। अनुशासन का दंभ भरने वाली भाजपा में अनुशासनहीनता की मिसालें जब तब देखने को मिलतीं हैं। गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी को ही लें, जिन्होंने अब तक भाजपाध्यक्ष नितिन गडकरी से सोजन्य भेंट तक करने का समय नहीं निकाला है।

भूख हडताल की उम्र दो सौ साल
अपनी बातें मनवाने के लिए घर हो या बाहर सभी भूख हडताल का ही साहारा लेते हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भूख हडताल की आयु अब दो सौ साल और एक महीना होने वाली है। भारत में भूख हडताल का सिलसिला 26 दिसम्बर 1809 को बनारस में भूमि एवं भवन कर के मुद्दे को लेकर आरम्भ हुआ था। तब पहली बार भारतवंशियों ने भूखहडताल को विरोध प्रदेर्शन के लिए अपना अस्त्र बनाया था। उस समय महज पांच लोगों ने इसका आगाज किया और जल्द ही समूचे शहर ने इसे अंगीकार कर लिया था। 1809 में जब देश की धर्मनगरी बनारस दंगे की आग में जल रही थी, तभी तत्कालीन कलेक्टर मिस्टर बर्ड ने एक तुगलकी फरमान सुनाते हुए शहरवासियों पर भूमि और भवन का कर लगा दिया। इसके विरोध में गौरीकेदारेश्वर मन्दिर के महन्त परिवार से जुडे पांच सदस्यों ने भूख हडताल आरम्भ की और लगभग एक माह चली इस हडताल के बाद कलेक्टर बर्ड को घुटने टेकने पडे। फिर क्या था, गलत बात के विरोध में भूख हडताल करना अब सभी का प्रिय शगल बन चुका है।

राजमाता का आंचल ममता को नहीं दे रहा छांव
कांग्रेस की सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी और त्रणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी के बीच सब कुछ सामान्य नहीं दिख रहा है। पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने के मामले में दोनों ही के बीच खाई बढती ही जा रही है। ममता चाहतीं हैं कि केन्द्र का पूरा दोहन कर वे पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्री की कुर्सी हथिया लें उधर प्रणव मुखर्जी की नज़रें भी इसी कुर्सी पर लगी हुइंZ हैं। पिछले दिनों ममता बनर्जी ने आरोप लगाया था कि उनके टेलीफोन और बिना तार के फोन की भी टेपिंग कर उन पर नज़र रखी जा रही है। ममता का इशारा राज्य सरकार की ओर था या कांग्रेस की ओर यह उन्होंने साफ नहीं किया है, पर ममता की बयानबाजी से साफ होने लगा है कि जैसे जैसे बंगाल के चुनावों का समय नजदीक आता जा रहा है वैसे वैसे कांग्रेस और ममता के बीच दूरियां बढने लगीं हैं। ममता ने इस समस्या से निपटने की महती जवाबदारी पूर्व रेल्वे के मुख्य सुरक्षा आयुक्त बी.मोहन को सौंप दी है कि उनके फोन की टेपिंग और उन पर निगरानी को रोका जा सके।


कब हटेगी किलर ब्लू लाईन!
देश की राजनैतिक राजधानी इस साल होने वाले कामनवेल्थ गेम्स की तैयारियों के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। समय कम होने के बावजूद युद्ध स्तर पर तैयारियां जारी हैं। विदेशों से आने वाले मेहमानों को दिखाने के लिए दिल्ली की परिवहन व्यवस्था को भी चाक चौबन्द किया जा रहा है। दिल्ली की सडकों पर यमराज बनकर दौडती किलर लाईन बन चुकी ब्लू लाईन बस को हटाने के लिए बस घोषणाओं पर घोषणाएं ही की जा रहीं हैं। शीला सरकार द्वारा अनेक मर्तबा तारीख मुकर्रर की जा चुकीं हैं कि फलां तारीख तक ब्लू लाईन बस हट जाएंगी, किन्तु ``दामिनी`` फिल्म की तरह यह तारीख पर तारीख ही साबित हो रहा है। ब्लू लाईन के एवज में डीटीसी ने लो फ्लोर बस उतारने की कवायद की है। लक झक बस कुछ मार्ग पर संचालित होना आरम्भ भी हो गईं हैं, पर ब्लू लाईन जस की तस ही हैं। कहा जा रहा है कि जनसेवकों या उनके नाते रिश्तेदारों और चाहने वालों की बसें ही हैं ब्लू लाईन, सो उनके दबाव के चलते इन्हें सडक से हटाने में देर हो रही है।

संस्कृत में अखबार हो कहा शीला ने
दिल्ली की कुर्सी पर तीसरी मर्तबा विराजीं शीला दीक्षित का मानना है कि संस्कृत भाषा में भी समाचार पत्र का प्रकाशन किया जाना चाहिए। चौंकिए मत, दरअसल शीला दीक्षित राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान द्वारा आयोजित कौमुदी संस्कृत नाटक महोत्सव के शुभारंभ अवसर पर बोल रहीं थीं, वरना संस्कृत की फिकर किसे है। वैसे भी अगर देखा जाए तो हमारी प्राचीन भाषा संस्कृत को काशी के अलावा संरक्षण कहां मिल पा रहा है। सरकारों द्वारा भी जब राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ ही दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा हो तब संस्कृत के साथ अन्याय होना स्वाभाविक ही है। आज स्कूल कालेज में संस्कृत पर जोर कतई नहीं दिया जाता है। शीला दीक्षित खुद एक सूबे की निजाम हैं, वे बेहतर जानतीं हैं कि किस तरह संस्कृत को संरक्षण दिया जा सकता है, पर वे एसा करने में न जाने क्यों हिचकतीं हैं। शीला जी, जब संस्कृत की पढाई ही नहीं होगी तो भला कोई इस भाषा में छपा अखबार पढेगा कैसे। वैसे भी आप इसी से सम्बंधित एक समारोह में शिरकत कर रहीं थीं, अत: आपका भाषण इस पर केन्द्रित होना स्वाभाविक ही है। सच ही है राजनेताओं की कथनी और करनी में बडा भेद होता है।

. . . . अभी भाजपा खामोश है
अक्टूबर माह के बाद से अब तक भाजपा में खामोशी ही पसरी हुई है। केन्द्र सरकार की अनेक विसंगतियों, विफलताओं के बाद भी भाजपा ने अपना मुंह सिला हुआ है। एसा नहीं है कि भाजपा मरण शैया पर है। दरअसल भाजपा के अन्दरूनी सत्ता हस्तान्तरण के दौरान अन्त:पुर में व्याप्त खामोशी उभरकर सामने आ गई है। पहले चला चली की बेला में राजनाथ सिंह ने विवादित होने से बचने के लिए चुप्पी साध रखी थी, फिर दिसम्बर में नितिन गडकरी को कमान सौंप अवश्य दी, किन्तु उनकी नियुक्ति अडहाक ही थी। उस पर कंफरमेशन की मुहर फरवरी में राष्ट्रीय कार्यकारिणी में लगेगी। फिर गडकरी अपनी सेना का गठन करेंगे, उसमें कोैन स्थान पाएगा कौन नहीं यह बात अभी साफ नहीं है। लिहाजा भाजपा के प्रवक्ता भी जबर्दस्त मुद्दों पर खामोशी अिख्तयार किए हुए हैं। दूसरी ओर नए पदाधिकारी और प्रवक्ताओं को सेट होने में कम से कम दो माह का समय लगेगा। इस तरह देखा जाए तो भारतीय जनता पार्टी का प्रचार तन्त्र छ: महीने के लिए सुस्सुप्तावस्था में चला गया है। किसी भी नेता को इस वेक्यूम को भरने की फुर्सत नहीं है। इन सपनों और कार्यप्रणाली के साथ भाजपा केन्द्र और देश के अनेक राज्यों में सत्तारूढ होने का दंभ भर रही है, जय हो. . .!

कब होगा घोषणाओं पर अमल
सदन चाहे विधानसभा का हो राज्य सभा या लोकसभा का, मन्त्रियों का काम घोषणा करना है, उनका पालन किस स्तर पर हो रहा है, इस बारे में जानने की सुध किसी को भी नहीं है। गरीब रथ, दुरन्तो एक्सप्रेस जैसी रेल गाडियों में सभी श्रेणियों के यात्रियों को बिस्तर (बेड रोल) उलब्ध कराने की ममता बनर्जी की घोषणा नई अवश्य लगती है, किन्तु यह कोई अलग से उपलब्ध कराई गई सुविधा नहीं है। यह तो रेल्वे के संसाधनों पर ही निर्भर करता है कि उसे किस किस रेल में किस श्रेणी में क्या उपलब्ध करवाना है। देखा जाए तो रेल्वे की वाणिज्य नियमावली में बहुत पहले ही यह प्रावधान कर दिया गया था कि रेल में सफर करने वाले यात्रियों को उनकी मांग के अनुरूप शुल्क लेकर बिस्तर उपलब्ध कराया जा सकेगा। दुरन्तो और गरीब रथ में बेड रोल की सुविधा सशुल्क प्रस्तावित है। दरअसल रेल के सीमित संसाधनों के चलते यात्रियों को यह सुविधा सशुल्क भी उपलब्ध नहीं कराई जा रही है। हो भी क्यों, रेल मन्त्री को वाहवाही लूटना था, सो इस तरह की घोषणा कर दी, फिर उसका पालन हो रहा है या नहीं, इस पर कान देना उनका फर्ज नहीं होता है शायद।

दिल्ली में भीख मांगना अपराध नहीं!
एक तरफ देश की साख इस साल के अन्त में होने वाले कामन वेल्थ गेम्स पर लगी है। विदेशी आकर देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली की बदहाली न देख सकें इसके लिए करोडों अरबों रूपए व्यय कर दिल्ली को संवारा जा रहा है। दिल्ली में चौक चौराहों पर भीख मांगते अधनंगे लोगों को देखकर विदेशी भारत के असली चेहरे को आसानी से पहचान सकते हैं। दिल्ली के हृदय स्थल कनाट प्लेस पर सूखा नशा (पुडिया के नशे) के आदी हो चुके भिखारियों को पकडने पुलिस ने अनेक बार मुहिम भी छेडी है। लगता है आने वाले समय में दिल्ली में भीख मांगना अपराध नहीं होगा। दिल्ली सरकार भिक्षावृति को अपराध मुक्त बनाने के लिए कानून में परिवर्तन करना चाह रही है। गरीबी एक अपराध नहीं है, और गरीबी के चलते ही लोग भीख मांगते हैं, इस आधार पर दायर एक याचिका के जवाब में दिल्ली सरकार ने कहा है कि वह मुम्बई प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट में बदलाव पर विचार कर रही है। तीसरी बार कुर्सी पर बैठ कर शीला दीक्षित ने निश्चित ही एक रिकार्ड बनाया है, और वे अब जो भी करें सो कम ही होगा।

प्रवासी एससी एसटी आरक्षण के हकदार नहीं
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछडा वर्ग के आरक्षण का लाभ प्रवासियों को नहीं दिया जा सकता है। न्यायालय ने कहा है कि एक राज्य में रहने वाले एससी, एसटी और ओबीसी के आरक्षित वर्ग के अभ्यार्थी दूसरे सूबे में जाकर इसका लाभ नहीं ले सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश एस.बी.सिन्हा और सिरियाक जोसफ की युगल बैंच ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह व्यवस्था दी है। बैंच ने कहा है कि ग्यारह सदस्यीय बैंच ने अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में फैसला दिया था, एससी एसटी वर्ग के अभ्यार्थियों द्वारा सर्वोच्च न्यायायल में याचिका दायर की थी, जिसमें दिल्ली प्रशासन में आरक्षित नौकरियों में आरक्षण से लाभांवित होने की बात कही गई थी। इस याचिका को युगल बैंच ने खारिज कर दिया।

यह है आजाद भारत की तस्वीर
ब्रितानियों की परातन्त्रता से आजाद हुए छ: दशक से ज्यादा बीत चुके हैं, भारत के गणतन्त्र की स्थापना को भी साठ साल पूरे हो चुके हैं, पर भारत की वास्तविक तस्वीर से आज भी देश के नीति निर्धारक रूबरू नहीं हैं। देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली से कुछ ही दूर हरियाणा के फरीदाबाद गांव में पीर बाबा की मजार के पास एक आठ वषीZय बच्चा पान गुटखा बेच रहा है, जबकि सरकार ने अठ्ठारह साल से कम उमर के लोगों को पान गुटखा बेचने पर ही पाबन्दी लगाई हुई है। दिल्ली में ही अनेक स्थानों पर एक रूपए में ठण्डा पानी पिलाने वाली मशीन हो या फिर अघोषित मयखानों में गिलास पानी की सुविधा देने वाले हाथ, हर जगह नाबालिकों की खासी तादाद है। इन बच्चों से अगर पूछ ही लिया कि बेटा स्कूल जाते हो तो इनका एक ही उत्तर होता है, स्कूल कैसा होता है, अंकल। यह है राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, चाचा जवाहर लाल नेहरू और प्रियदर्शनी इन्दिरा गांधी के सपनों के भारत की तस्वीर।

भाजपा को मिला था पचास लाख का चन्दा
चुनाव में किस दल को कितना चन्दा मिला, यह बात सार्वजनिक करना न करना उस पार्टी का अपना अन्दरूनी मामला हो सकता है, किन्तु अगर जनसेवा के लिए राजनीति करने उतरे जनसेवक ही इस बात को जनता से छिपाएं तो बात कुछ हजम नहीं होती है। आयकर छापों के दौरान उडीसा के एक कारोबारी ने यह स्वीकार किया है कि उसने लोकसभा चुनाव में भाजपा को पचास लाख रूपए का चन्दा दिया था। राजनैतिक दलों को चन्दा देने पर आयकर में छूट का प्रावधान है, इसलिए मोटी रकम काटने वाले व्यवसायी दोहरा लाभ उठाने से नहीं चूकते हैं। उडीसा के एक खनन व्यवसायी के बारे में सूचना के अधिकार के उपरान्त यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि उसने भाजपा को पचास लाख रूपए का चन्दा दिल्ली के एक ट्रस्ट के माध्यम से दिया था। मजे की बात यह है कि भाजपा की पंजी में यह रकम उक्त व्यवसायी के नाम पर दर्ज है, किन्तु चन्दा ट्रस्ट के माध्यम से दिया गया था।

पुच्छल तारा
भोपाल से श्वेता तिवारी द्वारा भेजे गए ईमेल के अनुसार बाघ को पाने के दो ही तरीके हैं, पहला तो जंगल जाओ और बाघ को खोजो, जो बहुत ही कठिन और जोखिम का काम है। दूसरा यह कि बिल्ली को पकडो, और भारतीय पुलिस की तरह तब तक पीटो जब तक वह यह स्वीकार न कर ले कि वह बाघ ही है।

रविवार, 24 जनवरी 2010

कहां ले जा रहा है इलेक्ट्रानिक मीडिया समाज को!


कहां ले जा रहा है इलेक्ट्रानिक मीडिया समाज को!


अंधविश्वास को बढावा देकर माल अंटी करना क्या उचित है

क्या नैतिकता खो चुका है इलेक्ट्रानिक मीडिया

(लिमटी खरे)


दोपहर, देर रात और सुबह सवेरे अगर आपने अपना बुद्धू बाक्स खोलें तो आपको स्वयंभू भविष्य वक्ता अंक ज्योतिषी और ना ना प्रकार के रत्न, गण्डे, तावीज बेचने वाले विज्ञापनों की दुकानें साफ दिख जाएंगी। यह सच है कि हर कोई अनिष्ट से घबराता है। मानव स्वभाव है कि वह किसी अनहोनी के न घटने के लिए हर जतन करने को तत्पर रहता है। इसी का फायदा अंधविश्वास का व्यापार करने वाले बडे ही करीने से उठाते हैं। विडम्बना यह है कि इस अंधविश्वास की मार्केटिंग में ``न्यूज चेनल्स`` द्वारा अपने आदशोZं पर लालच को भारी पडने दिया जा रहा है।

धार्मिक आस्था और मान्यताओं को कोई भी चेलेंज करने की स्थिति में नहीं है। आदि अनादि काल से चली आ रही मान्यताओं को मानना या ना मानना निश्चित तौर पर किसी का नितान्त निजी मामला हो सकता है। इन्हें थोपा नहीं जा सकता है। हर काल में नराधम अधर्मियों द्वारा इन मान्यताओं को तोड मरोडकर अपना हित साधा है। आज के युग में भी लोगों के मन में ``डर`` पैदा कर इस अंधविश्वास के बाजार के लिए उपजाउ माहौल तैयार किया जा रहा है।


जिस तरह से बीसवीं सदी के अन्तिम और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में स्वयंभू योग, आध्यात्म गुरू और प्रवचनकर्ताओं ने इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपने बाहुपाश में लिया है, वह चमत्कार से कम नहीं है। समाचार चेनल्स यह भूल गए हैं कि उनका दायित्व समाज को सही दिशा दिखाना है ना कि किसी तरह के अंधविश्वास को बढावा देना।

चेनल्स पर इन स्वयंभू गुरूओं द्वारा अपने शिविरों में गम्भीर बीमारी से ठीक हुए मरीजों के साथ सवाल जवाब का जिस तरह का प्रायोजित कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, उसे देखकर लगता है कि मीडिया के एक प्रभाग की आत्मा मर चुकी है। अस्सी के दशक तक प्रिंट मीडिया का एकाधिकार था, इसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया का पदार्पण हुआ, जिसे लोगों ने अपनी आंखों का तारा बना लिया।

अपनी इस सफलता से यह मीडिया इस कदर अभिमान में डूबा कि इसे अच्छे बुरे का भान ही नहीं रहा। अपनी सफलता के मद में चूर मीडिया के इस प्रभाग ने जो मन में आया दिखाना आरम्भ कर दिया। कभी सनसनी फैलाने के लिए कोई शिगूफा छोडा तो कभी कोई। रही सही कसर अंधविश्वास की मार्केटिंग कर पूरी कर दी। आज कमोबेश हर चेनल पर आम आदमी को भयाक्रान्त कर उन्हें अंधविश्वासी बना किसी न किसी सुरक्षा कवच जैसे प्रोडेक्ट बेचने का मंच बन चुके हैं आज के समय में न्यूज चेनल्स।

कभी संभावित दुघZटना, तो कभी रोजी रोजगार में व्यवधान, कभी पति पित्न में अनबन जैसे आम साधारण विषय ही चुने जाते हैं लोगों को डराने के लिए। यह सच्चाई है कि हर किसी के दिनचर्या में छोटी मोटी दुघZटना, किसी से अनबन, रोजगार में उतार चढाव सब कुछ होना सामान्य बात है। इसी सामान्य बात को वृहद तौर पर दर्शाकर लोगों के मन में पहले डर पैदा किया जाता है, फिर इसके बाद किसी को फायदा होने की बात दर्शाकर उस पर सील लगाकर अपना उत्पाद बेचा जाता है।


जिस तरह शहरों में पहले दो तीन लोग घरों घर जाकर यह पूछते हैं कि कोई बर्र का छत्ता तोडने वाले तो नहीं आए थे, ठीक उसी तर्ज पर इन अंधविश्वास फैलाने वालों द्वारा ताना बाना रचा जाता है। इसके कुछ ही देर बाद एक बाल्टी में कुछ मरी बर्र के साथ शहद लेकर दो अन्य आदमी प्रकट होते हैं और शुद्ध शहद के नाम पर अच्छे दाम वसूल रफत डाल देते हैं। एक दिन बाद जब उस शहद को देखा जाता है तो पाते हैं कि वह गुड के सीरा के अलावा कुछ नहीं है।

इतना ही नहीं इस सबसे उलट अब तो टीवी के माध्यम से अपने पूर्व जनम में भी तांकझांक कर लेेते हैं। आप पिछले जन्म में क्या थे, आज आपकी उमर 20 साल है, पिछले जन्म में 1800 के आसपास के नजारे का नाट्य रूपान्तरण देखने को मिलता है। अरे आपकी आत्मा ने जब आपका शरीर त्यागा तब से अब तक आपकी आत्मा कहां थी। यह रियलिटी शो बाकायदा चल रहा है, और चेनल की टीआरपी (टेलिवीजन रेटिंग प्वाईंट) में तेजी से उछाल दर्ज किया गया।

इस शो में पूर्वजनम आधारित चिकित्सा, ``पास्ट लाइ्रZफ रिग्रेशन थेरिपी का इस्तेमाल किया जाना बताया जाता है। इस थेरिपी का न तो कोई वैज्ञानिक आधार है और न ही यह प्रासंगिक भी कही जा सकती है, और न ही चिकित्सा विज्ञान में इसे चिकित्सा पद्यति के तौर पर मान्यता मिली है।

जानकारों का कहना है कि आज जब हिन्दुस्तान साईंस और तकनालाजी के तौर पर वैज्ञानिक आधार पर विकास के नए आयाम गढने की तैयारी में है, तब इस तरह के शो के माध्यम से महज सनसनी, उत्सुक्ता, कौतुहल आदि के लिए अंधविश्वास फैलाने की इजाजत कैसे दी जा सकती है। इस तरह के प्रोग्राम का प्रसारण नैतिकता के आधार पर गलत, गैरजिम्मेदाराना और खतरनाक ही है।

यह बात भी उसी तरह सच है जितना कि दिन और रात, कि पूर्व जन्म को लेकर हिन्दुस्तान में तरह तरह की मान्यताएं, भान्तियां और अंधविश्वास अस्तित्व में हैं। इक्कीसवीं सदी में अगर हम पन्द्रहवीं सदी की रूढीवादी मान्यताओं का पोषण करेंगे तब तो हो चुकी भारत की तरक्की। इस तरह के कार्यक्रम लोगों को अंधविश्वास से दूर ले जाने के स्थान पर अंधविश्वास के चंगुल में फंसाकर और अधिक अंधविश्वासी बनाने के रास्ते ही प्रशस्त करते हैं।

एसा नहीं कि मीडिया के कल्पवृक्ष के जन्मदाता प्रिंट मीडिया में अंधविश्वासों को बढावा न दिया जा रहा हो। प्रिंट मीडिया में ``सेक्स`` को लेकर तरह तरह के विज्ञापनों से पाठकों को भ्रमित किया जाता है। तथाकथित विशेषज्ञों से यौन रोग से सम्बंधित भ्रान्तियों के बारे में तरह तरह के गढे हुए सवाल जवाब भी रोचक हुआ करते हैं। सालों पहले सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाओं में सवाल जवाब हुआ करते थे, किन्तु उसमें इसका समाधान ही हुआ करता था, उसमें किसी ब्राण्ड विशेष के इस्तेमाल पर जोर नहीं दिया जाता था।

आज तो प्रिंट मीडिया में इस तरह के विज्ञापनों की भरमार होती है, जिनमें वक्ष को सुडोल बनाने, लिंगवर्धक यन्त्र, के साथ ही साथ योन समस्याओं के फटाफट समाधान का दावा किया जाता है। प्रिंट में अब तो देसी व्याग्रा, जापानी तेल, मर्दानगी को दुबारा पैदा करने वाले खानदानी शफाखानों के विज्ञापनों की भरमार हो गई है। ``गुप्तज्ञान`` से लेकर ``कामसूत्र`` तक के राज दो मिनिट में आपके सामने होते हैं। मजे की बात तो यह है कि देह व्यापार का अड्डा बन चुके ``मसाज सेंटर्स`` के विज्ञापन जिसमें देशी विदेशी बालाओं से मसाज के लुभावने आकर्षण होते हैं को छापने से भी गुरेज नहीं है प्रिंट मीडिया को।

सवाल यह उठता है कि मीडिया अब किस स्वरूप को अंगीकार कर रहा है। अगर मीडिया की यह दुर्गत हो रही है तो इसके लिए सिर्फ और सिर्फ कार्पोरेट मानसिकता के मीडिया की ही जवाबदेही मानी जाएगी। ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में आज मीडिया किसी भी स्तर पर उतरकर अपने दर्शक और पाठकों को भ्रमित करने से नहीं चूक रहा है। इसे अच्छी शुरूआत कतई नहीं माना जाना चाहिए। मीडिया के सच्चे हितैषियों को इसका प्रतिकार करना आवश्यक है अन्यथा मीडिया की आवाज कहां खो जाएगी कहा नहीं जा सकता है।

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

बस्ते के बोझ तले दबता बचपन

बस्ते के बोझ तले दबता बचपन


भारी भरकम बस्ते के साथ कैसे चहकें बच्चे!

गुम प्रतिवेदन को कैसे लागू करेगी सरकार!

(लिमटी खरे)


एक जमाना था जब हम प्राईमारी स्कूल में पढा करते थे, तब पाठ्यक्रम के बजाए व्यवहारिक शिक्षा पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जाता था। हमारा एक कालखण्ड गेम्स का एक पीटी का तो एक क्राफ्ट (इसमें तकली पोनी के सहारे रूई से धागा बनाया जाना सिखाया जाता था, चरखा चलाने की शिक्षा दी जाती थी) का भी होता था। कुल मिलाकर उस काल को हम आधुनिक गुरूकुल की संज्ञा दे सकते हैं।

आदि अनादी काल से गुरूकुलों में व्यवहारिक शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाता था। ऋषि मुनि अपने शिष्यों को लकडी काटने बटोरने से लेकर जीवन के हर पडाव में आने वाली व्यवहारिक कठिनाईयों से शिष्यों को रूबरू कराते थे। इसके साथ ही साथ धर्म अर्धम की शिक्षा भी दिया करते थे। बदलाव प्रकृति की सतत प्रक्रिया है। जमाना बदलता रहा और शिक्षा के तौर तरीकों में भी बदलाव होता रहा।

सत्तर के दशक की समाप्ति तक बदलाव की प्रक्रिया बहुत धीमी थी। इसके उपरान्त बदलाव की बयार शनै: शनै: तेज होकर अब सुपरसोनिक गति में तब्दील होती जा रही है। हमारे विचार से शिक्षा को लेकर जितने प्रयोग भारतवर्ष में हुए हैं, उतने शायद ही किसी अन्य देश में हुए हों। जब जब सरकारें बदलीं, सबसे पहले हमला शिक्षा प्रणाली पर ही हुआ।


देश के भूत वर्तमान और भविष्य को देखने के बजाए निजामों ने अपनी पसन्द को ही थोपने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। रही सही कसर शालाओं के प्रबंधन ने पूरी कर दी। अनेक सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों के लिए प्रबंधन के तुगलकी फरमान ने बच्चों की जान ही निकाल दी। शिक्षकों को अध्यापन से इतर बेगार के कामों में लगाने से उनका ध्यान अपने मूल कार्य से भटकना स्वाभाविक ही है।

शिक्षक ही देश का भविष्य गढते हैं, किन्तु आज देश के भविष्य को बनाने वाले शिक्षकों से जनगणना, मतदाता सूची संशोधन, पल्स पोलियो जैसे कामों में लगा दिया जाता है। शिक्षकों को यह बात रास कतई नहीं आती है। यही कारण है कि शिक्षकों ने भी अपने मूल काम को तवज्जो देना बन्द ही कर दिया है।


दिशाविहीन देश की शिक्षा प्रणाली को पटरी पर लाना निश्चित तौर पर आज सबसे बडी चुनौति बन गई है। बच्चों के कांधे आज बस्तों के बोझ से बुरी तरह दबे हुए हैं। दस से पन्द्रह किलो से भी अधिक के बस्ते छोटे छोटे बच्चे अपने कांधों पर लादकर चलने पर मजबूर हैं। इतना ही नहीं ठण्ड हो या बरसात, हर मौसम में शालाओं का समय बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति वितृष्णा का भाव भर रहा है। शाला प्रबंधन इतना भी निष्ठुर हो सकता है कि हाड गलाने वाली ठण्ड में अलह सुब्बह छ: बजे बच्चा अपने अपने घरों से स्कूल के लिए रफत डालने पर मजबूर हैं।

इन परिस्थितियों में केन्द्रीय विद्यालय संगठन की पहल का देश भर में निश्चित तौर पर खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए जिसमें उसने स्कूली बच्चों के प्रति पहली बार मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए बस्तों के वजन को कम करने का मुद्दा उठाया है। केवीसी के अनुसार बस्ते का कुल वजन छ: किलो से अधिक नहीं होना चाहिए।


यह सच है कि बच्चों को कम उमर में किताबी कीडा बनाने से उन्हें व्यवहारिक के बाजए मशीनी बनाने का ज्यादा प्रयास किया जा रहा है। आज हाई स्कूल की कोर्स की मोटी किताब को एक शैक्षणिक सत्र में कतई पूरा नहीं किया जा सकता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली में बच्चों की प्रतिभा का सहज विकास नहीं हो पा रहा है।

एसा नहीं है कि स्कूली बच्चों के बस्तों के बोझ से देश के शासक परिचित न हों। इसके पहले भी अनेकों बार बच्चों के बस्तों और होमवर्क को कम करने की कवायद की गई थी, किन्तु सदा ही इस मामले में नतीजा सिफर ही निकलकर आया। प्रोफेसर यशपाल समिति, चन्द्राकर समिति ने भी कमोबेश इस पर चिन्ता जताई थी। यशपाल कमेटी की सिफारिश पर बस्ते का बोझ कम करने को लेकर देशव्यापी बहस छिड गई थी, जो समय के साथ पाश्र्व बलात ही में ढकेल दी गई। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि देश में लालफीताशाही के चलते यशपाल समिति की सिफारिशें धूल खाती रहीं और बच्चे स्कूल बैग के बोझ तले दबते चले गए।


जनता के गाढे पसीने की कमाई से मोटी पगार पाने वाले बिगडेल नौकरशाहों के राज में शिक्षा व्यवस्था का आलम यह है कि 1988 में तत्कालीन संसद सदस्य चन्दूलाल चन्द्राकर की अध्यक्षता में बनी चन्द्राकर समीति का प्रतिवेदन ही गायब है। संसद की आश्वासन समीति की फटकार के बाद जनवरी 2009 में एक बार फिर ``चन्द्राकर समीति की रिपोर्ट`` खोजने के लिए मानव संसाधन विकास मन्त्रालय द्वारा अपने शीर्ष अधिकारियों से लैस एक ओर समिति बना दी थी। मजे की बात तो यह है कि समीति की सिफारिश ढूंढने बनाई गई समीति भी मूल फाईल को खोजने में नाकामयाब रही है।

जानकारों का कहना है कि अगर संसद की आश्वासन समिति के पास यह मामला नहीं होता तो कब का इसे ठण्डे बस्ते के हवाले कर दिया जाता। दरअसल 1992 में तत्कालीन मानव संसाधन मन्त्री अर्जुन सिंह ने सदन में इस समिति के प्रतिवेदन को लागू करवाने का आश्वासन दिया था। इसके बाद से यह सदन की संपत्ति के साथ ही साथ एचआरडी मिनिस्ट्री के गले की फांस बन गई है।

आज की शिक्षा प्रणाली महज डिग्री लेने का साधन बनकर रह गई है। अस्सी के दशक के उपरान्त पैदा हुए अधिकांश बच्चों को यह नहीं मालुम है कि देश पर मुगलों ने कब आक्रमण किया था, कब अंग्रेजों ने हमें अपना गुलाम बना लिया था, कैसे और कितने जुल्म सहने के बाद देश को आजादी मिली। वर्तमान भारत की तस्वीर कुछ इसी तरह की है, जिसकी कल्पना न महात्मा गांधी ने की होगी और न ही पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने। आज की युवा पीढी आजादी के सही मायने और मोल को नहीं पहचानती है, यही कारण है कि आज एक बार फिर ईस्ट इण्डिया कंपनी की तरह चीन द्वारा सस्ते ``चाईनीज आईटम्स`` के बहाने हमारी अर्थव्यवस्था में सेंध लगाने की तैयारी की जा रही है।

देश के नौनिहालों को देखते हुए आवश्यक्ता इस बात की है कि अब नए सिरे से शिक्षा प्रणाली को समझा, देखा, परखा और लागू किया जाए। स्कूलों में क्या पढाना चाहिए, अनावश्यक विषयों को वैकल्पिक बनाया जाए, बच्चों को सारी कापी किताबें रोजाना शाला ले जाना गैर जरूरी किया जाना चाहिए। इस सबके साथ ही साथ पढाई में बच्चों रूचि बरकरार रहे इसके लिए मैदानी, प्रयोगात्मक और अन्य माध्यमों से बच्चों को स्कूल की ओर आकषिZत करना होगा। इस दिशा में सरकार को कठोर और अप्रिय कदम उठाने से नहीं चूकना चाहिए। सरकार का यह प्रयास महज केवीएस तक ही न सीमित रहे। इसे देश के हर स्कूल को लागू करने के लिए ठोस कार्ययोजना सुनिश्चित करना ही होगा।

बुधवार, 20 जनवरी 2010

युवराज की स्पष्टवादिता या खाल बचाने की कोशिश


युवराज की स्पष्टवादिता या खाल बचाने की कोशिश


अगर सिस्टम से नहीं आए हैं तो फिर महासचिव का पद तज क्यों नहीं देते राहुल

(लिमटी खरे)


सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस अब निस्सन्देह ``खानदानी परचून की दुकान`` बनकर रह गई है। इसमें नेतृत्व ``सर्वाधिकार सुरक्षित`` का मामला बन गया है। आजादी के बाद कांग्रेस की कमान नेहरू गांधी परिवार के इर्द गिर्द ही रही है। मोतीलाल नेहरू के बाद उनके पुत्र जवाहर लाल नेहरू फिर उनकी पुत्री इन्दिरा गांधी के उपरान्त बडे पुत्र राजीव गांधी, फिर इतालवी मूल की उनकी पित्न सोनिया गांधी के पास कांग्रेस की सत्ता और ताकत की चाबी रही है। जिस तरह परचून की दुकान के स्वामित्व को एक के बाद एक कर आने वाली पीढी को हस्तान्तरित किया जाता है, ठीक उसी तर्ज पर अब कांग्रेस की अन्दरूनी सत्ता की कुंजी नेहरू गांधी परिवार की पांचवी पीढी को हस्तान्तरित करने की तैयारियां चल रहीं हैं।


कांग्रेस की नज़र में देश के भावी प्रधानमन्त्री एवं युवराज राहुल गांधी का मीडिया मेनेजमेंट तारीफे काबिल है। युवराज का रोड शो हो या फिर किसी सूबे में जाकर दलित सेवा का प्रहसन, हर बार देश के शीर्ष मीडिया के चुनिन्दा सरमायादारों को जबर्दस्त तरीके से उपकृत कर युवराज के महिमा मण्डन का खेल खेला जा रहा है। देश भर में युवराज राहुल गांधी को इस तरह पेश किया जा रहा है, मानो उनके अलावा देश को सम्भालने का माद्दा किसी नेता के पास नहीं है।


भारतीय राजनीति की इससे बडी विडम्बना और क्या होगी कि विपक्ष भी राहुल गांधी के महिमा मण्डन के आलाप गा रहा है। देश का प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी अपनी धार बोथरी कर चुका है। कांग्रेसनीत संप्रग सरकार में मंहगाई चरम पर है, चहुं ओर भ्रष्टाचार मचा हुआ है। मन्त्री उल जलूल बकवास कर रहे हैं, देश की जनता हलाकान है, पर पिछले एक माह से भाजपा की ओर से इसके विरोध की आवाज कहीं से भी नहीं सुनाई दे रही है। और तो और भाजपा शासित राज्यों में भी चुप्पी को देखकर कहा जा सकता है कि ``यहां पर सब शान्ति शान्ति है।``


बहरहाल कांग्रेस के युवा महासचिव परिवारवाद की मुखालफत करते नज़र आते हैं, पर जब इसे अंगीकार करने का मसला आता है तो वे भी मौन ही धारण कर लेते हैं। कांग्रेसजन सोनिया और राहुल गांधी को भले ही सत्ता प्राप्ति के मार्ग के तौर पर इस्तेमाल कर रही हो, पर राहुल गांधी को अपने उपर बिठाने के लिए वरिष्ठ नेता अपने आप को असहज महसूस कर रहे हैं। यही कारण है कि कांग्रेस के ऑफ द रिकार्ड बातचीत में महारथ रखने वालों ने राहुल के खिलाफ गुपचुप अभियान भी छेड रखा है, जिसमें एकाएक ``अवतरित`` होकर सांसद और महासचिव बनने के पीछे की कहानियां और किंवदन्तियां राजनैतिक फिजां में बलात तैरायी जा रही हैं।

राहुल गांधी के राजनैतिक प्रबंधक और मार्गदर्शक काफी सतर्क हैं। वे राहुल गांधी को हर हाल में 7 रेसकोर्स (प्रधानमन्त्री के सरकारी आवास) तक पहुंचाने के लिए हर ताना बाना बुनने को तैयार हैं। यही कारण है कि बीते साल के आखिरी माहों में राजस्थान यात्रा पर गए राहुल गाध्ंाी ने जयपुर में साफ कह दिया था कि वे भी सिस्टम से नहीं आए हैं। राहुल ने बडी ही साफगोई के साथ यह कहा कि उनके परिवार के लोग राजनीति में हैं, अत: वे इसमें आए हैं, पर यह सही तरीका नहीं है।


यह बात सर्वविदित है कि देश का हर परिवार चाहता है कि भगत सिंह पैदा जरूर हो, पर वह बाजू वाले घर में, अर्थात बलिदान दिया जरूर जाए पर अपने घर के बजाए साथ वाले घर से किसी का बलिदान दिया जाए। राहुल ने यह बात भी कही थी कि नेता वही बनेगा जिसके पीछे जनता होगी। राहुल गांधी इस तरह के वक्तव्य देते वक्त भूल जाते हैं कि कांग्रेस में ही उनकी माता और अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के इर्द गिर्द की सलाहकारों की भीड बिना रीढ के लोगों की है। न जाने कितने सूबों में प्रदेशाध्यक्ष के पद पर एसे लोग बैठे हैं, जो कभी चुनाव नहीं जीते। देश के वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह खुद इसकी जीती जागती मिसाल हैं। जनता द्वारा जिन लोगों को चुनाव में नकार दिया जाता है, उन्हें विधान परिषद या राज्य सभा के माध्यम से उपर भेजने की परंपरा नई नहीं है।


परिवारवाद की जहां तक बात है तो भारतीय राजनीति में परिवारवाद के नायाब उदहारणों में उनका अपना परिवार, शरद पवार, चरण सिंह, बाल ठाकरे, दिग्विजय सिंह, चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव, कुंवर अर्जुन सिंह, आम प्रकाश चौटाला, लालू प्रसाद यादव आदि हैं। अगर एक सरकारी नौकर सेवा में रहते दम तोडता है तो उसके परिजनों को `अनुकंपा नियुक्ति` के लिए चप्पलें चटकानी होती हैं, किन्तु जहां तक राजनीति की बात है इसमें अनुकंपा नियुक्ति तत्काल मिल जाती है।

जब भी किसी सूबे में कांग्रेस सत्ता में आती है, तब चुनाव के पहले यही कहा जाता है कि मुख्यमन्त्री के चयन का मामला चुने हुए विधायकों पर ही होगा। वस्तुत: एसा होता नहीं है, कांग्रेस हो या भाजपा जब भी निजाम चुनने की बारी आती है तो फैसला हाई कमान पर छोड दिया जाता है। फिर इन चुने हुए जनसेवकों की राय का क्या महत्व। मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर वही काबिज होता है जो शीर्ष नेतृत्व की ``गणेश परिक्रमा`` में उस्ताद होता है।

हाल ही में मध्य प्रदेश के दौरे के दौरान राहुल गांधी ने एक बार फिर कांग्रेस में अपनी स्थिति स्पष्ट की है। वे फिर यही बात दुहरा रहे हैं कि कांग्रेस में शीर्ष पर पहुंचने के लिए उनके परदादा से लेकर उनकी मां का राजनीति के शीर्ष में होना ही है। विदेशों में पले बढे राहुल गांधी भारत की जमीनी हकीकत से परिचित नहीं हैं। देश के इतिहास और सभ्यता के बारे में उन्हें अभी और स्वाध्याय की आवश्यक्ता है।

राहुल गांधी को चाहिए कि वे अगर वाकई में देश में राजनैतिक सिस्टम और परंपरा को बदलना चाह रहे हों तो एक नजीर पेश करें। वे साधारण कार्यकर्ता की तरह बर्ताव करें। उनसे वरिष्ठ नेताओं की कांग्रेस की सालों साल सेवा का सम्मान करते हुए सबसे पहले महासचिव पद को त्यागें। फिर साल दर साल कांग्रेस का झण्डा उठाने वाले साधारण कार्यकर्ताओं को आगे लाने और लाभ पहुंचाने के मार्ग प्रशस्त करें।


भाषण देकर वे नैतिकता का पाठ पढा सकते हैं पर महात्मा गांधी ने लोगों को अपने जीवन के माध्यम से सन्देश दिए थे, यही कारण है कि आज नेहरू गांधी परिवार से इतर महात्मा गांधी को ``राष्ट्र का पिता`` का दर्जा दिया गया है। आप अपने परिवार के कारण राजनीति में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन पाकर शीर्ष पर बैठ तो सकते हैं, देश की सत्ता की बागडोर भी अपने हाथों में ले सकते हैं, मीडिया में महिमा मण्डन करवाकर नेम फेम भी कमा सकते हैं, किन्तु जहां तक लोगों के दिलों में बसने का सवाल है तो उसके लिए तो आपको अपनी कथनी और करनी में एकरूपता लानी ही होगी।

सोमवार, 18 जनवरी 2010

कम्युनिष्ट राजनीति के शक्तिपुंज का अवसान


कम्युनिष्ट राजनीति के शक्तिपुंज का अवसान


अपना कद सदा पार्टी से कम ही आंका ज्योति बाबू ने

(लिमटी खरे)

अपना सारा जीवन कोलकता के इर्दगिर्द समेटने वाले कम्यूनिस्ट नेता ज्योति बसु का जीवन अनेक मामलों में लोगों के लिए उदहारण बन चुका है। भले ही उन्होंने पश्चिम बंगाल के कोलकता को अपनी कर्मस्थली के रूप में विकसित किया हो पर राष्ट्रीय परिदृश्य में उनके महत्व को कभी भी कमतर नहीं आंका गया। उन्होंने एक एसा अनूठा उदहारण पेश किया है जिसमें साफ परिलक्षित होता है कि कोई भी किसी भी सूबे में रहकर देश के राजनैतिक क्षितिज पर अपनी भूमिका और स्थान सुरक्षित कर सकता है।


ज्योति दा इसी तरह की बिरली शिक्सयत में से एक थे। वे देश में सबसे अधिक समय तक किसी सूबे के निजाम भी रहे हैं। हिन्दुस्तान में वामपन्थी विचारधारा के सशक्त स्तंभ के तौर पर उभरे थे बसु। इतना ही नहीं बसु एक समझदार, परिपक्व और धीरगम्भीर नेतृत्व क्षमता के धनी थे। जिस तरह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने विदेशों में अध्ययन के उपरान्त देशसेवा की, कमोबेश उसी तर्ज पर ज्योति बसु ने ब्रिटेन में कानून के उच्च अध्ययन के उपरान्त भारत वापसी पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में खुद को झोंक दिया था।


ज्योतिकिरण बसु को उनके परिवारजन प्यार से ``गण`` पुकारते थे। 1935 में वे ब्रिटेन गए और वहां भारतवंशी कम्युनिस्ट विचारधारा के रजनी पाम दत्त के संपर्क में आए। इसके बाद लन्दन स्कूल ऑफ इकानामिक्स के राजनीति शास्त्र के व्याख्याता हेलाल्ड लॉस्की, के व्याख्यानों का उन पर गहरा असर हुआ। चूंकि लॉस्की खुद वाम विचारधारा के बहुत बडे पोषक थे, अत: इसके उपरान्त बसु वाम विचारधारा में रच बस गए।

1944 में कम्युनिस्ट आन्दोलन से खुद को जोडने वाले बसु 1946 में पश्चिम बंगाल विधानसभा के सदस्य बने। इसके बाद बसु ने कभी पीछे पलटकर नहीं देखा। 23 साल का अरसा कम नहीं होता। अगर कोई लगातार इतने समय तक एक ही राज्य का मुख्यमन्त्री रहे तो मान लेना चाहिए कि उसकी कार्यशैली में दम है, तभी सूबे की रियाया उस पर लगातार भरोसा कर सीएम की कुर्सी पर उसे काबिज करती रही है।

आपातकाल के दौरान 1977 में बसु पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठे फिर अपने स्वास्थ्य कारणों के चलते 2000 में उन्होंने सक्रिय राजनीति को अलविदा कह दिया। बसु की कुशल कार्यप्रणाली और लोकप्रियता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य की जनता ने उन पर 23 साल लगातार विश्वास किया।


मुख्यमन्त्री निवास को जतने के बाद उन्होंने एक और अनुकरणीय पहल की। वे पार्टी के लिए पथ प्रदर्शक की भूमिका में आ गए, वरना आज के राजनेता उमरदराज होने के बाद भी सत्ता का मोह नहीं छोड पाते हैं। ढलते और कमजोर स्वास्थ्य के बावजूद व्हील चेयर और अन्य चिकित्सा उपकरणों का सहारा लेकर चलने वाले राजनेताओं को बसु से पे्ररणा लेना चाहिए। जिस तरह अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने आप को सक्रिय राजनीति से दूर कर लिया है, उसी मानिन्द अब एल.के.आडवाणी, कुंवर अर्जुन सिंह, प्रभा राव, आदि को राजनीति को अलविदा कहकर पार्टी के लिए मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाना चाहिए, किन्तु सत्ता मोह का कुलबुलाता कीडा उन्हें यह सब करने से रोक देता है।

पश्चिम बंगाल में भूमिसुधार कानून और पंचायत राज के सफल क्रियान्वयन ने बसु को जननायक बनाया था। ज्योति बसु ने आम आदमी के हितों को साधने में कोई कोर कसर नहीं रख छोडी थी। देश में कम्युनिस्ट पार्टी के पर्याय के तौर पर देखे जाने लगे थे ज्योति बसु। एक तरफ जब विश्व में कम्युनिस्ट सोच का सूरज अस्ताचल की ओर चल दिया था, तब भी हिन्दुस्तान में कम्युनिज्म विचारधारा का पर्याप्त पोषण सिर्फ और सिर्फ ज्योति बसु के चलते ही हो सका।

बसु के अन्दर योग्यताओं का अकूत भण्डारण था। एक समय आया था जब केन्द्र में घालमेल सरकार बनने का समय आया तब ज्योति बसु को प्रधानमन्त्री मान ही लिया गया था। वक्ती हालात इस ओर इशारा कर रहे थे कि सर्वमान्य नेता के तौर पर ज्योति दा के अलावा और कोई नाम नहीं सामने आ पाया। इस समय पार्टी ने अपनी दखियानूस विचारधारा के चलते ज्योति दा को इसकी अनुमति नहीं दी। ज्योति दा ने पार्टी के फैसले को चुपचाप शिरोधार्य कर लिया। उस समय उन्होंने इस मसले पर एक लाईन की टिप्पणी ``एक एतिहासिक भूल`` कहने के बाद अपने काम कोे पुन: आगे बढा दिया।

मुख्यमन्त्री पद के तजने के बाद वे हाशिए में चले गए हों एसा नहीं था। पार्टी जानती थी कि ज्योत दा का क्या महत्व है, राजनीति में। ज्योति दा के दीघZकालिक अनुभवों का पर्याप्त दोहन किया इन दस सालों में पार्टी ने, वरना आज की गलाकाट राजनैतिक स्पर्धा में वर्चस्व की जंग के चलते बसु को हासिए में डालने में देर नहीं की जाती। यह तो उनका निर्मल स्वभाव, त्याग, तपस्या और बलिदान था जिसका लगातार सम्मान किया था पार्टी ने।


ज्योति बसु आज के समय में बहुत प्रसंगिक माने जा सकते हैं। आज जब नैतिकता की राजनीति और चरित्रवान जनसेवकों का स्पष्ट अभाव है, तब ज्योति बसु का जीवन प्रेरणा के तौर पर काम आ सकता है। ज्योति बसु जैसे गम्भीर और अनुशासित नेता, जिनके अन्दर राजनैतिक सोच कूट कूट कर भरी थी, दुनिया भर में लाल झण्डे के लगभग अवसान के बावजूद भी हिन्दुस्तान जैसे देश में उसे फक्र के साथ फहराना, सिर्फ और सिर्फ बसु के बस की ही बात थी। ऐसे महामना को शत शत नमन. . .।