मंगलवार, 6 नवंबर 2012

घर के लड़का गोंही चूसें मामा खाएं अमावट!


फेरबदल से क्या अलीबाबा .... 2

घर के लड़का गोंही चूसें मामा खाएं अमावट!

(लिमटी खरे)

आजादी के उपरांत गठित भारत गणराज्य में कांग्रेस के राज में नेहरू गांधी परिवार से इतर कम ही वजीरे आजम हुए हैं। इनमें से सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री रहने का गौरव पंडित जवाहर लाल नेहरू तो गैर नेहरू गांधी परिवार में इसका गौरव वर्तमान वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह को जाता है। मनमोहन सिंह को वैसे तो ईमानदार कहा जाता रहा है किन्तु अब तो उन्हें मौन मोहन सिंह के साथ ही साथ भ्रष्टाचार का ईमानदार संरक्षक भी कहा जाने लगा है।
पंडित जवाहर लाल नेहरू भारत गणराज्य के वजीरे आजम आजादी के दिन यानी 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 तक रहे। पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन के उपरांत गुलजारी लाल नंदा को इस पद पर बिठाया गया जो महज नौ दिन के प्रधानमंत्री रहे और वे 9 जून को हट गए। इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री के असमय निधन के उपरांत एक बार फिर गुलजारी लाल नंदा को 11 जनवरी से 13 दिन के लिए 24 जनवरी तक प्रधानमंत्री बनाया गया।
देश के प्रधानमंत्रियों में सबसे युवा प्रधानमंत्री देने का श्रेय कांग्रेस को तो सबसे बुजुर्ग वजीरे आजम देने का श्रेय जनता पार्टी को जाता है। जब आपातकाल की आग में देश जूझ रहा था, उस वक्त 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री का पद संभाला। इस समय मोरारजी की आयु 81 साल थी। वहीं 31 अक्टूबर 1984 को प्रियदर्शनी श्रीमति इंदिरा गांधी की हत्या के उपरांत जब राजीव गांधी को इस पद पर बिठाया गया तब उनकी आयु महज 40 साल थी।
भारत गणराज्य की स्थापना के उपरांत नेहरू गांधी परिवार के पंडित जवाहर लाल नेहरू, के उपरांत इनकी बेटी इंदिरा गांधी और इंदिरा गांधी के निधन के उपरांत इनके पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। गैर नेहरू गांधी परिवार के सदस्यों में गुलजारी लाल नंदा, लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, पी.व्ही.नरसिंहराव, अटल बिहारी बाजपेयी, एच.डी.देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल एवं मन मोहन सिंह का शुमार है।
आजादी के उपरांत भारत गणराज्य के विकास के लिए आवश्यक संसाधनों को जुटाने के लिए धन की महती आवश्यक्ता थी। इसे जनता पर कर लादकर ही जुटाया गया। मंहगाई का ग्राफ दिनों दिन बढ़ता गया। इक्कीसवीं सदी के आरंभ तक मंहगाई का मंुह इतना नहीं खुला था। संप्रग की दूसरी सरकार के बनते ही मंहगाई मानों सुरसा का मुंह बनकर रह गई। अब तो मंहगाई पर लगाम लगाना केंद्र सरकार के बलबूते का काम प्रतीत नहीं हो रहा है।
मंहगाई पर नकेल डालना सरकार के लिए बहुत ही दुष्कर काम साबित होने वाला है। मंहगाई का मुद्दा सीधे जनता से जुड़ा हुआ है इसलिए जनता की नाराजगी के चलते दुबारा सरकार बनाने की बात सोचना दिन में सपने देखने जैसा ही है। इन परिस्थितियों में वित्त मंत्री पलिअप्पम चिदम्बरम को दूसरे रास्तों से पैसों की व्यवस्था करना अवश्यंभावी हो गया है। चिदम्बरम को राजस्व जुटाने की हर संभव पहल करनी होगी ताकि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के मार्ग प्रशस्त करने और सोनिया गांधी के वोट जुटाने के फार्मूले वाली योजनाओं को अधिक से अधिक आवंटन दिया जा सके। इसके अलावा अतिरिक्त घाटे पर भी लगाम लगाना जरूरी है ताकि बैंक मुख्य नीतिगत दरों को कम करने का प्रयास कर सकें।
महान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह एवं अर्थ जगत की जाने मानी शख्सियत पलनिअप्पम चिदंबरम (संभवतः कागजों पर) के रहते भारत में मंहगाई का ग्राफ आसमान को छू गया है। अब इन परिस्थितियों में यक्ष प्रश्न यही है कि आखिर मंहगाई को कम करके राजस्व जुटाकर राजकोष को कैसे भरा जाए? इसका सबसे सरल रास्ता सरकार को यही समझ में आया है कि ईंधन और उर्वरक में दी जाने वाली सब्सीडी को कम किया जाए।
अब जबकि आम चुनावों से कांग्रेस महज 14 माह दूर है, तब क्या कांग्रेस अथवा केंद्र सरकार की इतनी ताकत है कि वह आम उपभोक्ताओं (विशेषकर वोटर्स का बड़ा वर्ग) को कीमतें बढ़ाकर या सब्सीडी कम कर नाराज करने का जोखिम उठाएगी? देखा जाए तो सरकार को इस तरह के कड़े फैसले लेने के पहले सौ मर्तबा सोचना ही होगा। वैसे सब्सीडी वाले सिलेन्डर्स की तादाद कम करके साल में महज छः करने का प्रयोग सफल होता नहीं दिख रहा है जिससे अब इनकी संख्या छः से बढ़ाकर नौ करने विचार चल रहा है। देखा जाए तो हर घर में कम से कम एक सिलेन्डर प्रतिमाह लगता ही है।
कांग्रेस के सामने बहुत सारे संकट एक साथ खड़े हुए हैं। राजकोष पूरी तरह खाली है। प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह और उनके सारे सहयोगी मंत्री तथा सांसदों और अन्य जनसेवकों की विलासिता की आदत अभी भी जैसी की तैसी ही बनी हुई है। अली बाबा और उसके चालीस चोरों ने घपले घोटाले और भ्रष्टाचार कर देश को गिरवी रखने की तैयारी कर ली है। भारत की न्यायप्रीय सरकार का चेहरा तो देखिए तीस रूपए से कम रोजना कमाने वाले को सरकार गरीब नहीं मान रही है।
वहीं दूसरी ओर वर्ष 2010 में सांसदों को आठ लाख रूपए प्रतिवर्ष का बेसिक वेतन, चार लाख अस्सी हजार रूपए का संसदीय क्षेत्र भत्ता, चार लाख अस्सी हजार रूपए का कार्यालय और स्टेशनरी भत्ता, दैनिक भत्ते के रूप में तीन लाख साठ हजार रूपए साल, तेरह लाख निन्यानवे हजार रूपए का हवाई टिकिट, वातानुकूलित श्रेणी में असीमित रेल यात्राएं, दो लाख रूपए प्रतिवर्ष का दूरभाष व्यय, दिल्ली के पॉश इलाके में निशुल्क आवास और बिजली इस तरह कुल इकसठ लाख रूपए एक सांसद पर खर्च किया जा रहा है हर साल केंद्र सरकार द्वारा।
इस हिसाब से लोकसभा के 543 एवं राज्य सभा के सासंदों को मिला लिया जाए तो करीब 900 सांसदों पर केंद्र सरकार हर साल 54 हजार 900 करोड़ रूपए एवं पांच सालों में दो लाख 74 हजार पांच सौ करोड़ रूपए खर्च करती है। अब इन परिस्थितियों में अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत गणराज्य में जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए स्थापित लोकतंत्र किस मुहाने पर पहुंच चुका है। निश्चित तौर पर अपना, अपने द्वारा और अपने लिए हो गई है लोकतंत्र की परिभाषा।
एक तरफ तीस रूपए प्रतिदिन अर्थात 900 रूपए माह यानी 10 हजार 800 रूपए सालाना कमाने वाला गरीब नहीं वहीं इन गरीबों को गरीब की संज्ञा देने वाला देश की सबसे बड़ी पंचायत का पंच हर साल 61 लाख रूपए कमा रहा है। इन परिस्थितियों में तो यही कहा जा सकता है कि -‘‘घर के लड़का गोहीं (आम की चुसी हुई गुठली) चूसें! मामा खाएं अमावट (आम के गूदे से बना एक स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ)!! (साई फीचर्स)

(क्रमशः जारी)

घर के लड़का गोंही चूसें मामा खाएं अमावट!


फेरबदल से क्या अलीबाबा .... 2

घर के लड़का गोंही चूसें मामा खाएं अमावट!

(लिमटी खरे)

आजादी के उपरांत गठित भारत गणराज्य में कांग्रेस के राज में नेहरू गांधी परिवार से इतर कम ही वजीरे आजम हुए हैं। इनमें से सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री रहने का गौरव पंडित जवाहर लाल नेहरू तो गैर नेहरू गांधी परिवार में इसका गौरव वर्तमान वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह को जाता है। मनमोहन सिंह को वैसे तो ईमानदार कहा जाता रहा है किन्तु अब तो उन्हें मौन मोहन सिंह के साथ ही साथ भ्रष्टाचार का ईमानदार संरक्षक भी कहा जाने लगा है।
पंडित जवाहर लाल नेहरू भारत गणराज्य के वजीरे आजम आजादी के दिन यानी 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 तक रहे। पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन के उपरांत गुलजारी लाल नंदा को इस पद पर बिठाया गया जो महज नौ दिन के प्रधानमंत्री रहे और वे 9 जून को हट गए। इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री के असमय निधन के उपरांत एक बार फिर गुलजारी लाल नंदा को 11 जनवरी से 13 दिन के लिए 24 जनवरी तक प्रधानमंत्री बनाया गया।
देश के प्रधानमंत्रियों में सबसे युवा प्रधानमंत्री देने का श्रेय कांग्रेस को तो सबसे बुजुर्ग वजीरे आजम देने का श्रेय जनता पार्टी को जाता है। जब आपातकाल की आग में देश जूझ रहा था, उस वक्त 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री का पद संभाला। इस समय मोरारजी की आयु 81 साल थी। वहीं 31 अक्टूबर 1984 को प्रियदर्शनी श्रीमति इंदिरा गांधी की हत्या के उपरांत जब राजीव गांधी को इस पद पर बिठाया गया तब उनकी आयु महज 40 साल थी।
भारत गणराज्य की स्थापना के उपरांत नेहरू गांधी परिवार के पंडित जवाहर लाल नेहरू, के उपरांत इनकी बेटी इंदिरा गांधी और इंदिरा गांधी के निधन के उपरांत इनके पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। गैर नेहरू गांधी परिवार के सदस्यों में गुलजारी लाल नंदा, लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, पी.व्ही.नरसिंहराव, अटल बिहारी बाजपेयी, एच.डी.देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल एवं मन मोहन सिंह का शुमार है।
आजादी के उपरांत भारत गणराज्य के विकास के लिए आवश्यक संसाधनों को जुटाने के लिए धन की महती आवश्यक्ता थी। इसे जनता पर कर लादकर ही जुटाया गया। मंहगाई का ग्राफ दिनों दिन बढ़ता गया। इक्कीसवीं सदी के आरंभ तक मंहगाई का मंुह इतना नहीं खुला था। संप्रग की दूसरी सरकार के बनते ही मंहगाई मानों सुरसा का मुंह बनकर रह गई। अब तो मंहगाई पर लगाम लगाना केंद्र सरकार के बलबूते का काम प्रतीत नहीं हो रहा है।
मंहगाई पर नकेल डालना सरकार के लिए बहुत ही दुष्कर काम साबित होने वाला है। मंहगाई का मुद्दा सीधे जनता से जुड़ा हुआ है इसलिए जनता की नाराजगी के चलते दुबारा सरकार बनाने की बात सोचना दिन में सपने देखने जैसा ही है। इन परिस्थितियों में वित्त मंत्री पलिअप्पम चिदम्बरम को दूसरे रास्तों से पैसों की व्यवस्था करना अवश्यंभावी हो गया है। चिदम्बरम को राजस्व जुटाने की हर संभव पहल करनी होगी ताकि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के मार्ग प्रशस्त करने और सोनिया गांधी के वोट जुटाने के फार्मूले वाली योजनाओं को अधिक से अधिक आवंटन दिया जा सके। इसके अलावा अतिरिक्त घाटे पर भी लगाम लगाना जरूरी है ताकि बैंक मुख्य नीतिगत दरों को कम करने का प्रयास कर सकें।
महान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह एवं अर्थ जगत की जाने मानी शख्सियत पलनिअप्पम चिदंबरम (संभवतः कागजों पर) के रहते भारत में मंहगाई का ग्राफ आसमान को छू गया है। अब इन परिस्थितियों में यक्ष प्रश्न यही है कि आखिर मंहगाई को कम करके राजस्व जुटाकर राजकोष को कैसे भरा जाए? इसका सबसे सरल रास्ता सरकार को यही समझ में आया है कि ईंधन और उर्वरक में दी जाने वाली सब्सीडी को कम किया जाए।
अब जबकि आम चुनावों से कांग्रेस महज 14 माह दूर है, तब क्या कांग्रेस अथवा केंद्र सरकार की इतनी ताकत है कि वह आम उपभोक्ताओं (विशेषकर वोटर्स का बड़ा वर्ग) को कीमतें बढ़ाकर या सब्सीडी कम कर नाराज करने का जोखिम उठाएगी? देखा जाए तो सरकार को इस तरह के कड़े फैसले लेने के पहले सौ मर्तबा सोचना ही होगा। वैसे सब्सीडी वाले सिलेन्डर्स की तादाद कम करके साल में महज छः करने का प्रयोग सफल होता नहीं दिख रहा है जिससे अब इनकी संख्या छः से बढ़ाकर नौ करने विचार चल रहा है। देखा जाए तो हर घर में कम से कम एक सिलेन्डर प्रतिमाह लगता ही है।
कांग्रेस के सामने बहुत सारे संकट एक साथ खड़े हुए हैं। राजकोष पूरी तरह खाली है। प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह और उनके सारे सहयोगी मंत्री तथा सांसदों और अन्य जनसेवकों की विलासिता की आदत अभी भी जैसी की तैसी ही बनी हुई है। अली बाबा और उसके चालीस चोरों ने घपले घोटाले और भ्रष्टाचार कर देश को गिरवी रखने की तैयारी कर ली है। भारत की न्यायप्रीय सरकार का चेहरा तो देखिए तीस रूपए से कम रोजना कमाने वाले को सरकार गरीब नहीं मान रही है।
वहीं दूसरी ओर वर्ष 2010 में सांसदों को आठ लाख रूपए प्रतिवर्ष का बेसिक वेतन, चार लाख अस्सी हजार रूपए का संसदीय क्षेत्र भत्ता, चार लाख अस्सी हजार रूपए का कार्यालय और स्टेशनरी भत्ता, दैनिक भत्ते के रूप में तीन लाख साठ हजार रूपए साल, तेरह लाख निन्यानवे हजार रूपए का हवाई टिकिट, वातानुकूलित श्रेणी में असीमित रेल यात्राएं, दो लाख रूपए प्रतिवर्ष का दूरभाष व्यय, दिल्ली के पॉश इलाके में निशुल्क आवास और बिजली इस तरह कुल इकसठ लाख रूपए एक सांसद पर खर्च किया जा रहा है हर साल केंद्र सरकार द्वारा।
इस हिसाब से लोकसभा के 543 एवं राज्य सभा के सासंदों को मिला लिया जाए तो करीब 900 सांसदों पर केंद्र सरकार हर साल 54 हजार 900 करोड़ रूपए एवं पांच सालों में दो लाख 74 हजार पांच सौ करोड़ रूपए खर्च करती है। अब इन परिस्थितियों में अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत गणराज्य में जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए स्थापित लोकतंत्र किस मुहाने पर पहुंच चुका है। निश्चित तौर पर अपना, अपने द्वारा और अपने लिए हो गई है लोकतंत्र की परिभाषा।
एक तरफ तीस रूपए प्रतिदिन अर्थात 900 रूपए माह यानी 10 हजार 800 रूपए सालाना कमाने वाला गरीब नहीं वहीं इन गरीबों को गरीब की संज्ञा देने वाला देश की सबसे बड़ी पंचायत का पंच हर साल 61 लाख रूपए कमा रहा है। इन परिस्थितियों में तो यही कहा जा सकता है कि -‘‘घर के लड़का गोहीं (आम की चुसी हुई गुठली) चूसें! मामा खाएं अमावट (आम के गूदे से बना एक स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ)!! (साई फीचर्स)

(क्रमशः जारी)

भ्रष्टाचार का भ्रम जाल है मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग विज्ञापन, किसानों से गेंहू खरीद


लाजपत ने लूट लिया जनसंपर्क ----------------- 6

भ्रष्टाचार का भ्रम जाल है मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग विज्ञापन, किसानों से गेंहू खरीद

(राजेश शर्मा)

भोपाल (साई)। म.प्र. मे किसानों से गेंहू खरीदी केन्द्रों पर बंपर खरीदी हो रही है। म.प्र. जनसंपर्क विभाग द्वारा जारी एक विज्ञापन के अनुसार देश के चार प्रमुख कृषि प्रधान राज्यों ,हरियाण,राजस्थान,गुजरात में म.प्र. ने दिनांक 25 अप्रैल 2012 तक 1938754 मीट्रिक गेंहू खरीदकर कीर्तिमान स्थापित किया है। विज्ञापन देखकर प्रत्येक प्रदेशवासी को सुखद अनुभव होना स्वाभाविक है।
प्रदेश के मुखिया की मेहनत एवं किसान की सेहत दुरूस्त नजर आती है। विज्ञापन के माध्यम से तो यही दर्शाने का प्रयास किया गया है। म.प्र. मे किसानों से गेंहू खरीदी केन्द्रों पर बंपर खरीदी हो रही है। प्रदेश में गतवर्ष भी बंपर खरीदी हुई,सूखा भी खूब पड़ा,ओलावृष्टि भी हुई,पाला भी पड़ा। भरपूर मुआवजा भी बंटा। और अब उन्ही किसानों के नाम से गेंहूॅ खरीदी केन्द्रों पर बंपर गैहू आ रहा है।
आकड़ों पर नजर डालेंगें तो आश्चर्यजनक लगेगा। यह सब एक भ्रष्ट व्यावसायिक परंपरा म.प्र. में चल रही है। जिसका संचालन ,खाद्य,नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग म.प्र. स्वयं कर रहा है।  भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के लिए जिला कलेक्टर ,जिला नियन्त्रक खाद्य,नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण को हरसंभव सहयोग प्रयास कर रहे है। 9.25 रू प्रति किलो का ए.पी.एल.गैहू जिसे आरक्षण मुक्त सामान्य परिवारों के लिए शासन शासकीय उपभोक्ता भंडारों के माध्यम से वितरण कराने की व्यवस्था प्रतिमाह कराता है।
वह गैंहू गुणवत्ताविहीन होने के कारण सामान्य परिवार के लोग नहीं खरीदते है। इसमें अपवादस्वरूप खरीदने वालों की संख्या 1,2 प्रतिशत हो सकती है। यह सारा आवंटित गैंहूॅ म.प्र. मेें किसानों से गेंहूॅ खरीदी केन्द्रों पर कूटरचित योजना के तहत आ रहा है। खरीदी केन्द्रों पर समर्थन मूल्य 1300रू एवं राज्य शासन की ओर से 100 रू प्रति कुन्टल विशेष अनुदान कुल 1400 रू प्रति कुन्टल में सीधे आ रहा है। 9.25 रू प्रति किलो में शासकीय उपभोक्ता भंडारों के संचालक को प्रति किलो 1.85 रू कमीशन ,गेंहू खरीदी केन्द्रों 1400 रू प्रति कुन्टल में सीधे आ रहा है। अर्थात 660 रू प्रति कुन्टल  शासकीय उपभोक्ता भंडारों के संचालक, लीड ऐजेन्सीज, जिला नियन्त्रक खाद्य,नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण के बीच बॅट रहा है।  भोपाल के किसान गैंहू खरीदी के केंन्द्रों ,एवं जिला कलेक्टर कार्यालय में आम चर्चा है कि जिला नियन्त्रक प्रति कुन्टल 250रू  कुन्टल निरीक्षक प्रति कुन्टल 100रू एवं अन्य राशि क्षेत्रीय विधायक एवं लीड ऐजेन्सी,संचालक शासकीय उपभोक्ता भंडार के बीच बंट जाती है। गैंहू खरीदी  केंन्द्रों के बन्द होने के बाद यह गैहू आटा, दलिया, मैदा,सूजी, बनाने के लिए फ्लोर मिल्स एवं आटा चक्कियों को बेच दिया जाता है। इसमें एक और आश्चर्य जनक जानकारी प्राप्त हुई है कि भोपाल सहित अन्य जिलों में आधे से अधिक खाद्य निरीक्षकों एवं नियन्त्रकों के फ्लोर मिल्स एवं आटा चक्किया छद्म नामों से संचालित हो रही हैं।  अर्थात शासकीय योजना का खाद्यान्न खपाने की पूरी कूट रचित प्रक्रिया चल रही है। स्थिति तब और गंभीर हो जाती है जब जिला कलेक्टर शिकायत करने के बाद सत्ताधारी दल के स्वजातीय विधायक का नाम लेकर अपना पल्ला झाड़ लेते है। मानो मामला कोई राजनीतिक हो। इस प्रकार की नियमित खाद्यान्न आवन्टन एवं वितरण तथा उपार्जन की जानकारी जिसे आम नागरिक विभाग के वेव पोर्टल पर देख सकता था ,उस वेवपोर्टल को भी विभागाध्यक्ष द्वारा हिडन करा दिया गया है। इस प्रकार विभाध्यक्ष से लेकर निरीक्षक तक जिला कलेक्टरों के माध्यम से खाद्यान्न माफिया के रूप में काम कर रहे है। और बेचारे मुख्यमंत्री बारदाना -बारदाना चिल्ला कर दिल्ली की सड़कों पर अपना पसीना बहा रहे है।