गुरुवार, 1 सितंबर 2011

सर चढ़कर बोल रहा है अंग्रेजी का बुखार

सर चढ़कर बोल रहा है अंग्रेजी का बुखार

(लिमटी खरे)

हिन्दी भारत गणराज्य की आधिकारिक राष्ट्रभाषा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर आज तक सभी जनसेवक हिन्दी की हिमायत करते आए हैं, फिर भी हिन्दी बहुत ही पिछड़ चुकी है। केंद्र सरकार द्वारा राजभाषा का अलग प्रभाग बनाकर रखा है, बावजूद इसके हिन्दी को वांछित सम्मान नहीं मिल पा रहा है। सरकारी कार्यालयों में हिन्दी को प्रोत्साहन देने की इबारत युक्त नारे तो चस्पा होते हैं पर इनके उपर अगल नहीं हो पाता है। सर्वोच्च न्यायालय तक में अंग्रेजी का खासा बोल बाला है। देश के शासक मूलतः अंग्रेजी को ही प्रोत्साहित करते नजर आते हैं। विडम्बना देखिए कि देश के अनेक हिस्सों में सूचना पटल पर स्थानीय भाषा के साथ ही साथ अंग्रेजी में होते हैं, इन पर हिन्दी का नामोनिशान नहीं होता है। समाचार पत्रों में पहले हिन्दी का विशेष ध्यान रखा जाता था किन्तु इलेक्ट्रानिक मीडिया के अधकचरे ज्ञान वालों ने हिन्दी को दरकिनार कर अब हिन्दी अंग्रेजी के मिश्रित संस्करण हिंगलिशको बोलचाल की भाषा बना दिया है।
 
ग्लोबल भाषा का दर्जा पाने वाली इंग्लिश आज भारत गणराज्य में हिन्दी के उपरांत सबसे अधिक बोली जाने वाली दूसरी भाषा बन चुकी है। सबसे अधिक आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि भारत गणराज्य में अंग्रेजी बोलने वालों की तादाद यूरोपीय देशों में ब्रिटेन को छोड़कर अंग्रेजी बोलने वाले देशों से कहीं ज्यादा है। वर्ष 2001 की जनगणना में भारत में दो और तीन भाषाओं के जानकार या बोलने वालों की संख्या के आधार पर जुटाए गए आंकड़ोें से साफ होता है कि अंग्रेजी बोलने और समझने वाले भारतीयों की संख्या ब्रिटेन की जनता से दुगनी है।

इन आंकड़ों से यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि भारत में वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार साढ़े पच्चीस करोड़ लोग दो भाषाओं का ज्ञान रखते हैं। पौने नौ करोड़ लोग तीन या अधिक भाषा पर अच्छी कमान रखते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत गणराज्य में चौथाई जनसंख्या उस वक्त तक एक से ज्यादा भाषा बोलने में महारथ रखती थी। सबसे अश्चर्य का विषय तो यह रहा कि 2001 में दो लाख तीस हजार भारत वासियों ने अंग्रेजी को प्राथमिक भाषा का दर्जा दिया है। आठ करोड़ साठ लाख लोगों ने इसे दूसरी तो तीन करोड़ नब्बे लाख लोगों ने तीसरी भारतीय भाषा के तौर पर इसे चुना है। इस तरह भारत की जनसंख्या में से साढ़े बारह करोड़ लोग अंग्रेजी बोलते हैं।

दुनिया भर में अंग्रेजी बोलने वाले शीर्ष के पांच देशों में अमेरिका में छब्बीस करोड़ तीस लाख, भारत में बारह करोड़ पचास हजार, नाईजीरिया में सात करोड़ नब्बे लाख, ब्रिटेन और रूस में में छः करोड़ लोग अंग्रेजी बोलते हैं। भारत गणराज्य में बोली जाने वाली टॉप फाईव लेंग्वेज में 55 करोड़ 14 लाख लोग हिन्दी, बारह करोड़ पचास लाख लोग अंग्रेजी, नौ करोड़ ग्यारह लाख लोग बंगाली, आठ करोड़ पचास लाख लोग तेलगू और आठ करोड़ बयालीस लाख लोग मराठी बोलते हैं। इस तरह अंग्रेजी भारत गणराज्य की अनाधिकारिक तौर पर नंबर टू लंेग्वेज बन चुकी है।

देश की अन्य भाषा के आंकड़ों पर अगर नजर डाली जाए तो तमिल बोलने वाले छः करोड़ सढ़सठ लाख, उर्दू के वाकिफगार पांच करोड़ नब्बे लाख, कन्नड़ की माहिती रखने वाले पांच करोड़ आठ लाख, गुजराती को बोलने वाले पांच करोड़ तीन लाख लोग हैं। इस देश में उड़िया बोलने वाले तीन करोड़ छियासठ लाख, मलयाली बोलने वाले तीन करोड़ अड़तीस लाख तो पंजाबी बोलने वाले तीन करोड़ 14 लाख, असमी के जानकार एक करोड़ 89 लाख लोग हैं।

हिन्दी बोलने के मामले में जो आंकड़े सामने आए हैं वे इस प्रकार हैं। हिन्दी बोलने वालों की तादाद 55 करोड़ 14 लाख थी जिसमें से 42 करोड़ बीस लाख लोगों ने पहली भाषा के तौर पर हिन्दी को पसंद किया है। नौ करोड़ 82 लाख लोगों ने इसे दूसरीतो तीन करोड़ 12 लाख लोगों ने इसे तीसरी भाषा का दर्जा दिया है। ये सारे आंकड़े 2001 की जनगणना के आधार पर सामने आए थे। 2011 की जनगणना पूरी होने पर इसमें आश्चर्यजनक अंतर दर्ज किया जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

दुख तो इस बात को सोचकर होता है कि आजादी के 64 सालों में हम देश की करंसी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं दिला सके, हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके। आज भी लोग मन से हिन्दी बोलने में शर्म महसूस ही करते हैं। क्षेत्रों में हिन्दी के बजाए अंग्रेजी को ही लोग अधिक महत्व देते हैं। हालात देखकर कभी कभी लगने लगता है कि कहीं अंग्रेजी तो हमारी मातृ भाषा नहीं? वैसे भी आज औसत आयु 60 ही मानी जा रही है, फिर 64 सालों के बाद भी हिन्दी की चिंदी इस तरह उड़ाई जा रही है।

हमारे देश में भी मीडिया ने हिन्दी के बजाए हिंगलिश (हिन्दी और अंग्रेजी का मिला जुला स्वरूप) को अंगीकार कर लिया है। अभी कुछ दिनों पहले फ्रांस ने एक सर्कुलर जारी कर फ्रांसिसी भाषा के अखबारों को ताकीद किया था कि अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग निश्चित प्रतिशत से ज्यादा न करे। विडम्बना ही कही जाएगी कि हिन्दुस्तान में हिन्दी के संरक्षण के लिए सरकार के प्रयास नाकाफी ही हैं। सरकार ने हिन्दी के प्रोत्साहन को महज कागजों तक ही सीमित कर रखा है।

देश के कमोबेश हर बड़ी परीक्षाएं अंग्रेजी माध्यम में ही संचालित होती हैं। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायलय और देश की सबसे बड़ी पंचायत अर्थात संसद में भी अंग्रेजी का खासा बोलबाला है। देश के महामहिम राष्ट्रपति हों या प्रधानमंत्री सभी देश को संबोधित करते हैं, अंग्रेजी भाषा को ही प्रमुखता देते हैं, बाद में उस अनुवाद को अनुवादक हिन्दी में प्रसारित करते हैं। हम आज भी गोरे ब्रितानियों की दसता की जंजीरों से अपने आप को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं।

हिन्दी भाषी राज्यों से हटकर अन्य राज्यों में सूचना पटल या अन्य उदघोषणाएं भी या तो क्षेत्रीय भाषा मंे होतीं हैं, या फिर अंग्रेजी मंे। अधिकतर कांप्टीटिव एक्जाम्स का माध्यम अंग्रेजी ही होता है। क्या यही हैं हमारे द्वारा छः दशकांे में चुनी गई सरकारों की प्रतिबद्धताएं! भारत की पूर्व रेल मंत्री ममता बनर्जी ने तो हद ही कर दी थी। उन्होंने रेल मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण महकमे को संभालने के बाद ममता बनर्जी ने एक फरमान जारी किया था कि रेल्वे की परीक्षाएं या तो अंग्रेजी में संचालित की जाएं या फिर क्षेत्रीय भाषाओं में।

हिन्दी अंग्रेजी के साथ ही साथ संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान पा चुकी क्षेत्रीय भाषाओं में परीक्षा कराने से कोई रोक नही रहा है, पर यह हमारे देश की राष्ट्रभाषा की अस्मत का सवाल है। अभी लोग क्षेत्रीयता को लेकर तरह तरह के जहर उगल रहे हैं। शुक्र है कि भाषा विवाद अभी शांत है। क्षेत्रीय भाषाओं को तरजीह देने की बात समझ में आती है, किन्तु हिन्दी के बजाए अंग्रेजी को महत्व देना समझ से परे ही है। सवाल यह उठता है कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाष है, फिर हिन्दी की इस तरह दुर्दशा कोई कैसे कर सकता है। क्षेत्रीय भाषाओं को निश्चित तौर पर बढ़ावा मिलना चाहिए, किन्तु हिन्दी जो कि राष्ट्रभाषा है की इस तरह उपेक्षा करना संभव नहीं है, यह असंवेधानिक करार दिया जा सकता है, किन्तु आजाद भारत में वर्तमान परिस्थितियों में देश के नीति निर्धारक अपने अपने फायदों के लिए कानून की व्याख्या अपने हिसाब से करने में माहिर हैं।

कितने आश्चर्य की बात है कि आजाद हिन्दुस्तान में जहां राजभाषा के विकास के लिए गृह मंत्रालय के अधीन अलग से राजभाषा विकास विभाग की स्थापना की है। आफीशियल लेंग्वेज को प्रोत्साहन देने के लिए केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय एक तरफ पूरा जोर लगा रहा है, बावजूद इसके हिन्दी को वह स्थान आज भी नहीं मिल पा रहा है जिसकी वह हकदार है। सरकारें अपने अपने हिसाब से देश को हांकती आईं हैं। आज विदेशों में भी हिन्दी का चलन बढ़ चुका है। अनेक देश के लोग अब हिन्दी और संस्कृत सीखने में दिलचस्पी दिखाने लगे हैं।

कल तक कंप्यूटर जो सिर्फ अंग्रेजी में ही कमांड जानता था अब हिन्दी को भी अंगीकार कर चुका है। इंटरनेट पर हिन्दी का बोलबाला हो चुका है। ब्लाग की दुनिया ने तो हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेट के माध्यम से भाषाओं का सरताज बनाने के करीब पहुंचा दिया है। आज यूनिकोड़ फान्ट में अगर हिन्दी में टाईप किया जाए तो आपका कंप्यूटर और इंटरनेट भी उसे समझ जाता है। जब कंप्यूटर ने हिन्दी को अंगीकार कर लिया है तब फिर भारत सरकार को देश में इसे नंबर वन लेंग्वेज बनाकर सभी कार्यालयों में इसे लागू करने, देश में कोई भी सूचना पटल में हिन्दी के अलावा क्षेत्रीय भाषा में लागू करने का कड़ा फरमान क्यों जारी नहीं किया जाता है।

वर्तमान हालात देखकर लगता है मानो हिन्दी देश के लिए वैकल्पिक भाषा है, जबकि अंग्रेजी को वेकल्पिक भाषा होना चाहिए। देश के नीति निर्धारक जब भी मुंह खोलते हैं वे अंग्र्रेजी में ही बात करते हैं। कहा जाता है कि आला नेताओं को हिन्दी आती ही नहीं है। कांग्रेस में तो कहा जाता है कि अगर मदाम (श्रीमति सोनिया गांधी) को कोई संदेश भिजवाना है तो उसे अंग्रेजी में दिया जाए तब वे समझ पाती हैं। मिशनरी संचालित अनेक शालाओं में प्राचार्य और प्रबंधन एवं पालकों के बीच संवाद में अंग्रेजी की अज्ञानता ही बाधा के तौर पर समने आती है। सरकार को चाहिए कि इन विसंगतियों को देखते हुए हिन्दी के प्रोत्साहन के लिए एक ठोस कार्ययोजना सुनिश्चित करे, वरना आने वाले समय में हिन्दी का नामलेवा भी नही बचेगा।

. . . और ‘दादा‘ बरस पड़े ‘महाराज‘ पर!

. . . और दादा बरस पड़े महाराज पर!

मीडिया का गुस्सा सिंधिया पर निकाला मुखर्जी ने

दादा के रोद्र रूप के आगे बगलें झांकते नजर आए ज्योतिरादित्य

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी का पारा इन दिनों सातवें आसमान पर है। मीडिया जिस तरह से अण्णा हजारे को हाथों हाथ लिए हुए है उससे और कांग्रेस के रणनीतिकारों से प्रणव मुखर्जी खासे नाराज हैं। उनकी नाराजगी का नजला पिछले दिनों संसद में मध्य प्रदेश कोटे से केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया पर टूटा।

मीडिया के शुभचिंतक समझे जाने वाले प्रणव मुखर्जी के करीबी सूत्रों का कहना है कि जो दादा रोजना लगभग दो घंटे अखबारों से रूबरू रहते थे, पिछले एक पखवाड़े से उन्होंने अखबारों की तह भी नहीं खोली है, और तो और दादा ने समाचार चेनल्स की अण्णा के साथ कदम ताल के चलते टीवी भी चालू नहीं किया है।

प्रणव के एक खासुलखास ने नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा कि दादा आजकल पार्टी के राजनैतिक प्रबंधकों विशेषकर संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल से खासे खफा हैं। इसका कारण यह है कि बंसल ने अण्णा के मुद्दे पर विपक्ष को विश्वास में नहीं लिया है। इतना ही नहीं लोकसभा में अध्यक्ष द्वारा नेता प्रतिपक्ष की अनुमति के बावजूद भी सुषमा स्वराज को बोलने का मौका नही दिया गया।

उन्होंने आगे कहा कि मंगलवार को जब सुषमा स्वराज को जब बोलने का मौका नहीं मिला उसके उपरांत सदन स्थगित होने के बाद जब ज्योतिरादित्य सिंधिया खुद चलकर प्रणव मुखर्जी के कक्ष में गए और दादा से कहा कि अगर सुषमा जी को बोलने नहीं दिया गया तो इसका संदेश सरकार के खिलाफ जाएगा जिसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। फिर क्या था, दादा हत्थे से उखड़ गए। दादा ने सिंधिया पर लगभग चिल्लाते हुए कहा कि मुझे राजनीति सिखाने की आवश्यक्ता नहीं है। यह मत भूलो कि मैं तुम्हारी उमर से ज्यादा समय से राजनीति कर रहा हूं।

सूत्रों ने आगे कहा कि प्रणव को खतरा है कि सितम्बर के पहले सप्ताह में जब आपरेशन के उपरांत स्वास्थ्य लाभ लेकर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी भारत वापस आएंगी तब अण्णा प्रकरण का सारा हिसाब किताब उन्हें ही देना होगा, जिसके लिए वे होमवर्क में जुटे हुए हैं, क्योंकि कांग्रेस महासचिव राजा दिग्विजय सिंह ने मंत्रीमण्डल विस्तार के पहले प्रणव की भावभंगिमाएं देखते हुए उनके खिलाफ तलवार पजा रखी थी। अब सोनिया के आने के बाद सबसे ज्यादा भद्द प्रणव दा की पिटने की उम्मीद जताई जा रही है।

मीडिया है सरकार के निशाने पर!

मीडिया है सरकार के निशाने पर!

सरकार मानती है कि अण्णा को मीडिया ने महानायक बनाया

मुलायम भारी खफा हैं मीडिया की रामलीला से

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। मयूर विहार से रामलाला मैदान बरास्ता तिहाड़ जेल किशन बाबू राव उर्फ अण्णा हजारे की तेरह दिनी यात्रा में ही वे महानायक कैसे बन गए? यह प्रश्न सरकार के दिमाग में कौंध रहा है। इसका जवाब मिल रहा है कि मीडिया ने ही इन तेरह दिनों में अण्णा को महानायक बना दिया है। यही कारण है कि सरकार अब अंदर ही अंदर इस प्रयास में लग गई है कि किसी तरह मीडिया को भी लोकपाल के दायरे में लाया जाए।

प्रधानमंत्री के करीबी सूत्रों ने बताया कि सर्वदलीय बैठक में मुलायम सिंह मीडिया पर जमकर बरसे। इस दौरान अनेक लोगों ने मीडिया को भी लोकपाल के दायरे में लाने की बात तक कह मारी। इसके बाद हुई कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में अण्णा हजारे को लाईव दिखाने वाले चेनल्स के खिलाफ जमकर आक्रोश जताया सांसदों ने। सांसदों ने यहां तक सुझाव दे डाला कि इन चेनल्स के सैटेलाईट लिंक ही काट दिए जाने चाहिए।

कांग्रेस के अंदरखाने से छन छन कर बाहर आ रही खबरों पर अगर यकीन किया जाए तो यह कहा जा रहा है कि जब अमेरिका जैसा सुपर पावर खुद भी विक्कीलीक्स के केबल्स को नहीं रोक सका तो सरकार क्या खाकर मीडिया को रोकेगी। मीडिया ने इस मामले में वही किया जो जनता चाह रही थी। कांग्रेसियों का मत है कि राहुल, सोनिया गांधी, नितिन गड़करी सभी सत्ता की मलाई परोक्ष तौर पर चख रहे हैं। ये चेहरे अभी नए और बेदाग हैं। यही कारण है कि इनके डमरू से भीड़ भी जुट जाती है और मीडिया की सुर्खियां भी बटोरी जाती हैं।

अण्णा के अनशन को प्रमखता देना समय की मांग थी। अण्णा अगर महानायक बने तो इसमें मीडिया की सकारात्मक और सरकार की नकारात्मक भूमिका प्रमुख तौर पर उत्तर दायी मानी जा सकती है। माना जा रहा है कि सरकार ने 13 दिन बाद जो किया अगर वह पहले ही दिन कर लेती तो अण्णा को महानायक बनने से रोका जा सकता था। आने वाले दिनों में सरकार द्वारा मीडिया पर अगर गाज गिराई जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।