मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

रियाया भी हकदार है ठंडी हवा की!



(लिमटी खरे)


राजा और प्रजा के बीच क्या संबंध होते हैं, इनके मायने आज के शासक भूलते जा रहे हैं, इसका कारण यह है कि आधुनिकता और पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में हम अपना इतिहास को विस्मृत करते जा रहे हैं। अभी बहुत समय नहीं बीता है, जबकि देश में आजादी का जश्न जिस संजीदगी से मनाया जाता था, पर आज उस जोश में कमी साफ दिखाई पड़ रही है। आज महज औपचारिकता रह गई है, गणतंत्र, स्वतंत्रता, शहीद दिवस आदि का आयोजन।


इतिहास साक्षी है कि शासक ने सदा ही अपनी रियाया के दुख दर्द को समझने का प्रयास किया है। अगर राजकोष रीतने लगता तो राजा और उनके सिपाहसलार सभी मिलकर अपने खर्चों पर अंकुश लगाकर प्रजा को हर हाल में सुकून से रखने का प्रयास करते रहे हैं। इस सबसे उलट अय्याश और बिगड़ेल राजाओं का हश्र भी किसी से छिपा नहीं है।


बीसवीं सदी के अंतिम दशकों और इक्कीसवीं सदी में तो मानोे सारे समीकरण और परिकल्पनाएं उल्टी ही होने लगी हैं। देश प्रदेश पर शासन करने वाले मंत्री, सांसद, विधायक अब तो प्रजा के बजाए अपने एशो आराम पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। आज रियाया कमरतोड़ महंगाई, पग पग पर फैले भ्रष्टाचार, अनाचार से आजिज आ चुकी है।


मंदी के दौर में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की चेयर पर्सन एवं कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी द्वारा सादगी दर्शन के लिए राजनैतिक राजधानी दिल्ली से व्यवसायिक राजधानी मुंबई तक की यात्रा हवाई जहाज में इकानामी क्लास में की जाती है, वह भी दस सीटें बुक करवाकर खाली छोड़कर।


उनके लाड़ले सपूत और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भला कहां पीछे रहने वाले थे। वे भी शताब्दी की एक पूरी बोगी बुक करवाकर यात्रा पर निकल पड़े। मीडिया ने भी निहित स्वार्थों के चलते पत्रकारिता के उसूलों को तिलांजली देकर मां बेटे के इस ``कथित महान कदम`` को खूब तवज्जो दी। गली चौराहों पर मां बेटे की सादगी के किस्से मशहूर हो गए। मीडिया ने इस मितव्ययता के पीछे की खर्चीली कहानी को बड़ी ही चतुराई के साथ पाश्र्व में धकेल दिया, जो निंदनीय कहा जाएगा।


केंद्र सरकार के दो मंत्री एम.एस.कृष्णा और शशि थुरूर लंबे समय तक सितारा युक्त होटल में रहे। हो हल्ला होने पर बाद में उन्होंने कहा कि उसका भोगमान (बिल) वे स्वयं ही भुगतेंगे। सवाल यह उठता है कि भोगमान चाहे जो भोगे पर देश के दोनों जनसेवकों को कम से कम होटलों का देयक तो सार्वजनिक करना चाहिए था, कि उन्होंने कितनी राशि व्यय की एवं उपर कितना कर लगाया गया।


मितव्ययता का पाठ सीखने वाले सांसद और विधायक सदा ही सुर्खियों में रहे हैं। हाल ही में संसदों के आवास को ठंडा रखने की गरज से लगवाए जाने वाले वातानुकूलित यंत्र (एयर कंडीशनर) के कारण सांसद सुर्खियों में हैं। सांसदों के घरों की साजसज्जा के साथ ही अब नए नवेले जनसेवकों को नए एसी भी चाहिए हैं।


अमूमन एक एयर कंडीशनर की औसत उम्र 10 वर्ष मानी जाती है। अगर ठीक ठाक रखरखाव किया जाए तो यह उम्र बढ़ भी सकती है। सांसदों के आवासों की सेवाटहल और रखरखाव के लिए अलग से सरकारी मुलाजिम तैनात हैं, उस हिसाब से इन एयर कंडीशनर्स को और अधिक दिन तक साथ देना चाहिए।


सांसदों को आवंटित आवास में शहरो से चुनकर आए नवधनाड्य या पढ़े लिखे सांसदों ने ``वास्तुकला`` के अनुरूप अपने आवास में तोड़फोड करवा दी है, ताकि वे लाल बत्ती या प्रभावशाली पद को पा सकें। इतना ही नहीं पुराने पर्दे, गद्दे सोफे के साथ ही साथ एयर कंडीशनर और पंखे भी नए लगवाए जा रहे हैं। गरीब गुरबे और ग्रामीण पृष्ठाभूमि वाले सांसद तो हर व्यवस्था को अंगीकार कर रहे हैं पर सर चढे नेताओं ने सरकारी धन में बुरी तरह सेंध लगा रखी है।


संबंधित विभाग के अफसर अगर उनकी बात न मानें तो जूतम पेजार की नोबत तक आ जाती है। पिछली बार तो एक संसद सदस्य ने एक अधिकारी को तमाचा रसीद कर दिया था। इतना ही नहीं एक गुस्सेल संसद सदस्य ने तो अधिकारी द्वारा उनकी मनमानी न मानने पर उनकी कनपटी पर पिस्तोल तक तान दी थी।


प्रश्न यही है कि आखिर यह सब किसके धन से किया जा रहा है, जाहिर है, जनता के गाढ़े पसीने की कमाई से। चूंकि यह मामला ज्यादा उछलता नहीं है, अत: जनता को इस बारे में पता नहीं चल पाता है कि उनके द्वारा अलह सुब्बह चाय से लेकर रात को सोते समय तक हर बात पर जो कर दिया जाता है, उसी राजस्व से प्राप्त रूपयों में संसद सदस्य इस तरह आग लगाने पर आमदा हैं।


सांसद हो या विधायक, उन्हें चुनता कौन हैर्षोर्षो देश की जनता। सांसदों के आवासों पर एयर कंडीशनर, हीटर, गीजर लगवाकर उन्हें तो ठंडी और गर्म हवा का लुत्फ उठाने दिया जा रहा है, किन्तु देश के आखिरी आदमी तक बराबरी का संदेश देने वाले ये जनसेवक क्या यह नहीं जानते कि उस आखिरी आदमी या देश के विकास और अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसान को भी भीषण गर्मी में ठंडी और हाड गलाने वाली सदीZ में गर्म हवा की जरूरत हो सकती है।


जनता के द्वारा चुने जाने वाले इन जनसेवकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर जनता उन्हें चुनकर जनादेश देकर संसद या विधानसभा में पहुंचाती है तो उन्हें उस जनादेश का सम्मान करना चाहिए वरना यही जनता उन्हें संसद या विधानसभा से उठाकर बाहर फेंकने में गुरेज भी नहीं करनी वाली।

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