सोमवार, 18 जनवरी 2010

कम्युनिष्ट राजनीति के शक्तिपुंज का अवसान


कम्युनिष्ट राजनीति के शक्तिपुंज का अवसान


अपना कद सदा पार्टी से कम ही आंका ज्योति बाबू ने

(लिमटी खरे)

अपना सारा जीवन कोलकता के इर्दगिर्द समेटने वाले कम्यूनिस्ट नेता ज्योति बसु का जीवन अनेक मामलों में लोगों के लिए उदहारण बन चुका है। भले ही उन्होंने पश्चिम बंगाल के कोलकता को अपनी कर्मस्थली के रूप में विकसित किया हो पर राष्ट्रीय परिदृश्य में उनके महत्व को कभी भी कमतर नहीं आंका गया। उन्होंने एक एसा अनूठा उदहारण पेश किया है जिसमें साफ परिलक्षित होता है कि कोई भी किसी भी सूबे में रहकर देश के राजनैतिक क्षितिज पर अपनी भूमिका और स्थान सुरक्षित कर सकता है।


ज्योति दा इसी तरह की बिरली शिक्सयत में से एक थे। वे देश में सबसे अधिक समय तक किसी सूबे के निजाम भी रहे हैं। हिन्दुस्तान में वामपन्थी विचारधारा के सशक्त स्तंभ के तौर पर उभरे थे बसु। इतना ही नहीं बसु एक समझदार, परिपक्व और धीरगम्भीर नेतृत्व क्षमता के धनी थे। जिस तरह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने विदेशों में अध्ययन के उपरान्त देशसेवा की, कमोबेश उसी तर्ज पर ज्योति बसु ने ब्रिटेन में कानून के उच्च अध्ययन के उपरान्त भारत वापसी पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में खुद को झोंक दिया था।


ज्योतिकिरण बसु को उनके परिवारजन प्यार से ``गण`` पुकारते थे। 1935 में वे ब्रिटेन गए और वहां भारतवंशी कम्युनिस्ट विचारधारा के रजनी पाम दत्त के संपर्क में आए। इसके बाद लन्दन स्कूल ऑफ इकानामिक्स के राजनीति शास्त्र के व्याख्याता हेलाल्ड लॉस्की, के व्याख्यानों का उन पर गहरा असर हुआ। चूंकि लॉस्की खुद वाम विचारधारा के बहुत बडे पोषक थे, अत: इसके उपरान्त बसु वाम विचारधारा में रच बस गए।

1944 में कम्युनिस्ट आन्दोलन से खुद को जोडने वाले बसु 1946 में पश्चिम बंगाल विधानसभा के सदस्य बने। इसके बाद बसु ने कभी पीछे पलटकर नहीं देखा। 23 साल का अरसा कम नहीं होता। अगर कोई लगातार इतने समय तक एक ही राज्य का मुख्यमन्त्री रहे तो मान लेना चाहिए कि उसकी कार्यशैली में दम है, तभी सूबे की रियाया उस पर लगातार भरोसा कर सीएम की कुर्सी पर उसे काबिज करती रही है।

आपातकाल के दौरान 1977 में बसु पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठे फिर अपने स्वास्थ्य कारणों के चलते 2000 में उन्होंने सक्रिय राजनीति को अलविदा कह दिया। बसु की कुशल कार्यप्रणाली और लोकप्रियता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य की जनता ने उन पर 23 साल लगातार विश्वास किया।


मुख्यमन्त्री निवास को जतने के बाद उन्होंने एक और अनुकरणीय पहल की। वे पार्टी के लिए पथ प्रदर्शक की भूमिका में आ गए, वरना आज के राजनेता उमरदराज होने के बाद भी सत्ता का मोह नहीं छोड पाते हैं। ढलते और कमजोर स्वास्थ्य के बावजूद व्हील चेयर और अन्य चिकित्सा उपकरणों का सहारा लेकर चलने वाले राजनेताओं को बसु से पे्ररणा लेना चाहिए। जिस तरह अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने आप को सक्रिय राजनीति से दूर कर लिया है, उसी मानिन्द अब एल.के.आडवाणी, कुंवर अर्जुन सिंह, प्रभा राव, आदि को राजनीति को अलविदा कहकर पार्टी के लिए मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाना चाहिए, किन्तु सत्ता मोह का कुलबुलाता कीडा उन्हें यह सब करने से रोक देता है।

पश्चिम बंगाल में भूमिसुधार कानून और पंचायत राज के सफल क्रियान्वयन ने बसु को जननायक बनाया था। ज्योति बसु ने आम आदमी के हितों को साधने में कोई कोर कसर नहीं रख छोडी थी। देश में कम्युनिस्ट पार्टी के पर्याय के तौर पर देखे जाने लगे थे ज्योति बसु। एक तरफ जब विश्व में कम्युनिस्ट सोच का सूरज अस्ताचल की ओर चल दिया था, तब भी हिन्दुस्तान में कम्युनिज्म विचारधारा का पर्याप्त पोषण सिर्फ और सिर्फ ज्योति बसु के चलते ही हो सका।

बसु के अन्दर योग्यताओं का अकूत भण्डारण था। एक समय आया था जब केन्द्र में घालमेल सरकार बनने का समय आया तब ज्योति बसु को प्रधानमन्त्री मान ही लिया गया था। वक्ती हालात इस ओर इशारा कर रहे थे कि सर्वमान्य नेता के तौर पर ज्योति दा के अलावा और कोई नाम नहीं सामने आ पाया। इस समय पार्टी ने अपनी दखियानूस विचारधारा के चलते ज्योति दा को इसकी अनुमति नहीं दी। ज्योति दा ने पार्टी के फैसले को चुपचाप शिरोधार्य कर लिया। उस समय उन्होंने इस मसले पर एक लाईन की टिप्पणी ``एक एतिहासिक भूल`` कहने के बाद अपने काम कोे पुन: आगे बढा दिया।

मुख्यमन्त्री पद के तजने के बाद वे हाशिए में चले गए हों एसा नहीं था। पार्टी जानती थी कि ज्योत दा का क्या महत्व है, राजनीति में। ज्योति दा के दीघZकालिक अनुभवों का पर्याप्त दोहन किया इन दस सालों में पार्टी ने, वरना आज की गलाकाट राजनैतिक स्पर्धा में वर्चस्व की जंग के चलते बसु को हासिए में डालने में देर नहीं की जाती। यह तो उनका निर्मल स्वभाव, त्याग, तपस्या और बलिदान था जिसका लगातार सम्मान किया था पार्टी ने।


ज्योति बसु आज के समय में बहुत प्रसंगिक माने जा सकते हैं। आज जब नैतिकता की राजनीति और चरित्रवान जनसेवकों का स्पष्ट अभाव है, तब ज्योति बसु का जीवन प्रेरणा के तौर पर काम आ सकता है। ज्योति बसु जैसे गम्भीर और अनुशासित नेता, जिनके अन्दर राजनैतिक सोच कूट कूट कर भरी थी, दुनिया भर में लाल झण्डे के लगभग अवसान के बावजूद भी हिन्दुस्तान जैसे देश में उसे फक्र के साथ फहराना, सिर्फ और सिर्फ बसु के बस की ही बात थी। ऐसे महामना को शत शत नमन. . .।

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