शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

1411

आखिर कैसे बचें बाघ बहादुर 

जयराम उवाच देश में आदमियों की कमी नहीं, बाघों की है
 

हुजूर आते आते बहुत देर कर दी
 

अवैध शिकार रोकना टेडी खीर
 

वनाधिकारी और पुलिस की मिलीभगत से घट रही है बाघों की संख्या
 

(लिमटी खरे)

आधी सदी से ज्यादा समय तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस ने 1973 में बाघों को बचाने के लिए टाईगर प्रोजेक्ट का श्रीगणेश किया था। उस वक्त माना जा रहा था कि बाघों की संख्या तेजी से कम हो सकती है, अत: बाघों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया। विडम्बना देखिए कि उसी कांग्रेस को 37 साल बाद एक बार फिर बाघों के संरक्षण की सुध आई है। जिस तरह सरकार के उपेक्षात्मक रवैए के चलते देश में गिद्ध की प्रजाति दुर्लभ हो गई है, ठीक उसी तरह आने वाले दिनों में बाघ अगर चिडियाघर में शोभा की सुपारी की तरह दिखाई देने लगें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
बाघ संरक्षण के लिए भारत सरकार की तन्द्रा तब जाकर टूटी है, जबकि कैंसर लगभग अन्तिम अवस्था में पहुंच चुका है। कितने आश्चर्य की बात है कि हर साल हजारों करोड रूपए खर्च करने के बाद भी बाघों का अस्तित्व दिनों दिन संकट में पहुंचता रहा। 2007 में बाघ संरक्षित क्षेत्रों में सबसे अधिक 245 बाघ सुन्दरवन में थे, इसके अलावा बान्दीपुर में 82, कॉबेZट मेे 137, कान्हा में 127, मानस 65, मेलघाट 73, पलामू 32, रणथंबौर 35, सिमलीपाल में 99 तो पेरियार में 36 बाघ मौजूद थे।
2007 में हुई गणना के आंकडों के अनुसार सरिक्सा 22, बक्सा 31, इन्द्रावती 29, नागार्जुन सागर में 67 नामधापा 61, दुधवा 76, कलाकड 27, वाल्मीकि 53, पेंच (महाराष्ट्र) 40, पेंच (मध्य प्रदेश) 14, ताडोबा 8, बांधवगढ 56, डम्पा 4, बदरा 35, पाकुल 26, एवं सतपुडा में महज 35 बाघ ही मौजूद थे, इसके अलावा 2007 में सर्वेक्षण वाले अतिरिक्त क्षेत्रों में कुनो श्योपुर में 4, अदबिलाबाद में 19, राजाजी नेशनल पार्क 14, सुहेलवा 6, करीमनगर खम्मन 12, अचानकमार 19, सोनाबेडा उदान्ती 26, ईस्टर्न गोदावरी 11, जबलपुर दमोह 17, डाण्डोली खानपुर में 33 बाघ चििन्हत किए गए थे।
दूसरे आंकडों पर गौर फरमाया जाए तो 1972 में भारत में 1827 तो मध्य प्रदेश में 457, 1979 में देश में 3017, व एमपी में 529, 1984 में ये आंकडे 3959 / 786 तो 1989 में 3854 / 985 हो गए थे। फिर हुआ बाघों का कम होने का सिलसिला जो अब तक जारी है। 1993 में 3750 / 912, 1997 में 3455 / 927, 2002 में 3642 / 710 तो 2007 में देश में 1411 तो मध्य प्रदेश में महज 300 बाघ ही बचे थे।
दुख का विषय यह है कि देश में 28 राष्ट्रीय उद्यान और 386 से अधिक अभ्यरण होने के बाद भी छत्तीसगढ के इन्द्रावती टाईगर रिजर्व नक्सलियों के कब्जे में बताया जाता है। इसके साथ ही साथ टाईगर स्टेट के नाम से मशहूर देश का हृदय प्रदेश माना जाने वाला मध्य प्रदेश अब धीरे धीरे बाघों को अपने दामन में कम ही स्थान दे पा रहा है, यहां बाघों की तादाद में अप्रत्याशित रूप से कमी दर्ज की गई है।
दरअसल, भुखमरी, रोजगार के साधनों के अभाव और कम समय में रिस्क लेकर ज्यादा धन कमाने की चाहत के चलते देश में वन्य प्राणियों के अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हैं। विश्व में चीन बाघ के अंगों की सबसे बडी मण्डी बनकर उभरा है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बाघ के अंगों की भारी मांग को देखते हुए भारत में शिकारी और तस्कर बहुत ज्यादा सक्रिय हो गए हैं। सरकारी उपेक्षा, वन और पुलिस विभाग की मिलीभगत का ही परिणाम है कि आज भारत में बाघ की चन्द प्रजातियां ही अस्तित्व में हैं। मरा बाघ 15 से 20 लाख रूपए कीमत दे जाता है। बाघ की खाल चार से आठ लाख रूपए, हडि्डयां एक लाख से डेढ लाख रूपए, दान्त 15 से 20 हजार रूपए, नखून दो से पांच हजार रूपए के अलावा रिप्रोडेक्टिव प्रोडक्ट्स की कीमत लगभग एक लाख तक होती है। बाघ के अन्य अंगो को चीन के दवा निर्माता बाजार में बेचा जा रहा है।
बाघ संरक्षण की दिशा में केन्द्र और राज्य सरकार कितनी संजीदा है उसकी एक बानगी है मध्य प्रदेश के पन्ना जंगल। पन्ना में 2002 में 22 बाघ हुआ करते थे, इसी लिहाज से इस अभ्यरण को सबसे अच्छा माना गया था। 2006 मे वाईल्ड लाईफ इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया (डब्लूआईआई) ने कहा था कि पन्ना में महज आठ ही बाघ बचे हैं। इसके उपरान्त यहां पदस्थ वन संरक्षक एच.एस.पावला का बयान आया कि पन्ना में बाघों की संख्या उस समय 16 से 32 के बीच है। जनवरी 2009 में डब्लूआईआई ने एक बार फिर कहा कि पन्ना में महज एक ही बाघ बचा है। इस तरह अब किस बयान को सच माना जाए यह यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है। अपनी खाल बचाने के लिए वनाधिकारी मनमाने वक्तव्य देकर सरकार को गुमराह करने से नहीं चूकते और सरकार है कि अपने इन बिगडैल, आरामपसन्द, भ्रष्ट नौकरशाहों पर एतबार जताती रहतीं हैं।
एसा नहीं है कि वन्य जीवों के संरक्षण के प्रयास पहले नहीं हुए हैं। गुजरात के गीर के जंगलों में सिंह को बचाने के प्रयास जूनागढ के नवाब ने बीसवीं सदी में आरम्भ किए थे। एक प्रसिद्ध फिरंगी शिकारी जिम काबेZट को बाघों से बहुत लगाव था। आजादी के बाद जब बाघों का शिकार नहीं रूका तो उन्होंने भारत ही छोड दिया। भारत से जाते जाते उन्होंने एक ही बात कही थी कि बाघ के पास वोट नहीं है अत: बाघ आजाद भारत में उपेक्षित हैं।
इतना ही नहीं आजाद भारत में विजयनगरम के महाराजा ने उस जगह तीस महीनों में तीस बाघों को मौत के घाट उतारा जहां वर्तमान कान्हा नेशनल पार्क स्थित है। बावजूद इसके तत्कालीन जनसेवक मौन साधे रहे। खबरें यहां तक आ रही हैं कि मध्य प्रदेश में कुछ सालों पहले एक बाघ को इसलिए काल कलवित होना पडा क्योंकि उसने गांव वाले की गाय को खा लिया था। गुस्साए ग्रामीणों ने अधखाए गाय के शरीर में जहर मिला दिया था।
हर साल टाईगर प्रोजेक्ट के लिए भारत सरकार द्वारा आवंटन बढा दिया जाता है। इस आवंटन का उपयोग कहां किया जा रहा है, इस बारे में भारत सरकार को कोई लेना देना प्रतीत नहीं होता है। भारत सरकार ने कभी इस बारे में अपनी चिन्ता जाहिर नहीं की है कि इतनी भारी भरकम सरकारी मदद के बावजूद भी आखिर वे कौन सी वजहें हैं जिनके कारण बाघों को जिन्दा नहीं बचाया जा पा रहा है।
सरकार की पैसा फेंकने की योजनाओं के लागू होते ही उसे बटोरने के लिए गैर सरकारी संगठन अपनी अपनी कवायदों में जुट जाते हैं। वन्य प्राणी और बाघों के संरक्षण के मामले में भी अनेक एनजीओ ने अपनी लंगोट कस रखी है। जनसेवकों के ``पे रोल`` पर काम करने वाले इन एनजीओ द्वारा न केवल सरकारी धन को बटोरा जा रहा है, बल्कि जनसेवकों के इशारों पर ही सरकार की महात्वाकांक्षी परियोजनाओं में अडंगे भी लगाए जा रहे हैं। केन्द्रीय भूतल परिवहन मन्त्री कमल नाथ चाहते हैं कि स्विर्णम चतुभुZज सडक परियोजना के उत्तर दक्षिण गलियारे को उनके संसदीय क्षेत्र छिन्दवाडा से होकर गुजार जाए। वर्तमान में यह मध्य प्रदेश के सिवनी जिले से होकर गुजर रही है। इसके निर्माण में बाघा तब आई जब सर्वोच्च न्यायालय में एक गैर सरकारी संगठन द्वारा याचिका प्रस्तुत की गई।
बताते हैं कि याचिका में कहा गया है कि चूंकि शेरशाह सूरी के जमाने का यह मार्ग पेंच और कान्हा नेशनल पार्क के बीच वन्य जीवों के कारीडोर से होकर गुजर रहा है अत: इसके फोर लेन बनाने की अनुमति न दी जाए। यह एनजीओ किसके इशारे पर काम कर रहा है, यह तो वह ही जाने पर यह एनजीओ इस बात को भूल जाता है कि अगर इस मार्ग को छिन्दवाडा से होकर गुजारा जाएगा तब यह सतपुडा और पेंच के कारीडोर के मध्य से गुजरेगा। इस बात को न तो सिवनी के ही किसी जनसेवक ने उठाया है और न ही क्षेत्रीय प्रबुद्ध मीडिया ने भी नज़रें इनायत की हैं।
आजाद भारत के इतिहास में सम्भवत: पहली बार किसी वन मन्त्री ने खुद जाकर वन अभ्यारणों की स्थिति का जायजा लिया होगा। यह बात तो सभी जानते हैं कि किसी मन्त्री के निरीक्षण की सूचना के बाद जमीनी हालात फौरी तौर पर किस कदर बदल दिए जाते हैं। इसके पहले देश के पहले प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू, प्रियदर्शनी इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी वन्य जीवों के प्रति संजीद दिखे, पर इनके अलावा और अन्य निजामों ने कभी वन्य जीवों के प्रति उदार रवैया नहीं अपनाया।
बाघों या वन्य जीवों पर संकट इसलिए छा रहा है क्योंकि हमारे देश का कानून बहुत ही लचर और लंबी प्रक्रिया वाला है। वनापराध हों या दूसरे इसमें संलिप्त लोगों को सजा बहुत ही विलम्ब से मिल पाती है। देश में जनजागरूकता की कमी भी इस सबसे लिए बहुत बडा उपजाउ माहौल तैयार करती है। सरकारों के उदासीन रवैए के चलते जंगलों में बाघ दहाडने के बजाए कराह ही रहे हैं।
जंगल की कटाई पर रोक और वन्य जीवों के शिकार के मामले में आज आवश्यक्ता सख्त और पारदशीZ कानून बनाने की है। सरकार को सोचना होगा कि आखिर उसके द्वारा इतनी भारी भरकम राशि और संसाधन खर्च करने के बाद भी पांच हजार से कम तादाद वाले बाघों को बचाया क्यों नही जा पा रहा है। मतलब साफ है कि सरकारी महकमों में जयचन्दों की भरमार है। भारत में बाघ एक के बाद एक असमय ही काल कलवित हो रहे हैं और सरकार गहरी निन्द्रा में है।
भारत में वृक्षों की पूजा अर्चना की संस्कृति बहुत पुरानी है। एक जमाना था जब लोग झाड काटने के पहले उसकी पूजा कर क्षमा याचना करते थे, फिर कुल्हाडी चलाते थे। कल तक भारत सरकार द्वारा भी वृक्ष बचाने के लिए बाकायदा जन जागृति अभियान चालाया जाता था। विज्ञापनों का प्रदर्शन और प्रसारण किया जाता था, जिससे वनों को बचाने जन जागृति फैल सके। विडम्बना है कि वर्तमान में वनों को बचाने की दिशा में सरकारें पूरी तरह निष्क्रीय ही नज़र आ रही है।
वजीरे आजम डॉ.एम.एम.सिंह ने व्यक्तिगत रूचि ली थी बाघों के संरक्षण की दिशा में। उन्होंने पर्यावरणविद सुनीता नारायण की अध्यक्षता में एक कार्यदल का गठन किया। कार्यदल के प्रतिवेदन पर बाघ संरक्षण प्राधिकरण का गठन किया गया।। बावजूद इसके बाघों की संख्या में कमी चिन्ताजनक पहलू ही माना जाएग। आदिवासियों को मिले वनाधिकारों ने भी बाघों के परलोक जाने के मार्ग प्रशस्त किए हैं। बाघ के इलाकों के इर्द गिर्द मानव बसाहट भी इनके लिए खतरे से कम नहीं है।
तेजी से कटते जंगल, स्पेशल इकानामिक जोन जैसी विशाल परियोजनाएं, रेल विस्तार परियोजनाएं, बांघ निर्माण के साथ ही साथ बढते रिहायशी इलाकों के कारण बाघ सहित अन्य वन्य जीवों के घरोन्दे सिकुडते जा रहे हैं। बन्दर बिलाव तो शहरों में जाकर रह सकते हैं, पर बाघ या हाथी तो मुम्बई, दिल्ली में विचरण नहीं कर सकते न। इन्हें तो घने जंगल ही चाहिए, जहां मानवीय हस्ताक्षेप न हो।
बाघ बचाने लिए सरकार को चाहिए कि वह जंगल की कटाई पर रोक के लिए सख्त कानून बनाए, टाईगर रिजर्व के आस पास कडी सुरक्षा व्यवस्था मुहैया कराए, इसके लिए विशेष बजट प्रावधान हो, नए जंगल लगाने की योजना को मूर्तरूप दिया जाने के साथ ही साथ बाघ को मारने पर फांसी की सजा का प्रावधान किया जाना आवश्यक होगा। वरना आने वाले एक दशक में ही बाघ भी उसी तरह दुर्लभ हो जाएगा जिस तरह अब गिद्ध हो गया है।

2 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

kya kahun .............soye huye ko to aap jaga sakte hain magar jaage huye ko nhi..............kitni hi koshish kariye kaan par hoon bhi nhi rengegi.............phir bhi apna farz to ada karte rahna chahiye shayad kabhi asar ho jaaye.

बेनामी ने कहा…

बाघ का शिकार करके अपनी ताकत का परिचय देने वाले राजे-महाराजे, जागीरदार, ठिकानेदार, नवाब, और उनके बाद में अंग्रेज बहादुर भी जिस प्राणी को खत्म नहीं कर सके उसे पिछले 8-10 सालों में सरकारी बाबुओं ने खत्म कर दिया है। मध्य प्रदेश का हाल सबसे बुरा है। बाघों के नाम पर करोड़ों अरबों की मदद मिलती है लेकिन उससे गाड़िया खरीदी जाती हैं, दफ्तर बनाये जाते हैं, एसी लगाये जाते हैं और उतनी ही कीमत के बाघ कम हो जाते हैं। जगलों में 10 साल के लिये लोगों को तफरीह पर भेजना बंद कर दीजिये, हमारा मतलब है नेशनल पार्क्स बंद कर दीजिये, बाघ बच जाएंगे।
ये सरकारी बाबू तो आदमखोर बाघ से भी बडे हैं बाघखोर हैं।