बुधवार, 17 मार्च 2010

आईपीएल के मैच फ्लड लाईट के बजाए दिन में क्यों नहीं

घर फूंक, मोहल्ला रोशन करना क्या समझदारी है!

आईपीएल के मैच फ्लड लाईट के बजाए दिन में क्यों नहीं

आज भी अंधेरे की जद में हैं चालीस फीसदी घर

(लिमटी खरे)

भारत देश को आजाद हुए बासठ साल से ज्यादा बीत चुके हैं। इन बासठ सालों में देश का आम आदमी ब्रितानी बर्बरता तो नहीं भोग रहा है, पर स्वदेशी जनसेवकों की अदूरदशीZ नीतियों के चलते नारकीय जीवन जीने पर अवश्य मजबूर हो चुका है। एक आम भारतीय को (जनसेवकों और अमीर लोगों को छोडकर) आज भी बिजली, पानी साफ सफाई जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल सकी हैं। सरकारी दस्तावेजों में अवश्य इन सारी चीजों को आम आदमी की पहुंच में बताया जा रहा हो पर जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। कमोबेश पचास फीसदी से अधिक की ग्रामीण आबादी आज भी गन्दा, कन्दला पानी पीने, अंधेरे में रात बसर करने, आधे पेट भोजन करने एवं शौच के लिए दिशा मैदान (खुली जगह का प्रयोग) का उपयोग करने पर मजबूर ही है।

इन परिस्थितियों में भारत में आईपीएल 20 - 20 क्रिकेट प्रतियोगिता का आयोजन किया गया है। फटाफट क्रिकेट के इस आयोजन में कुछ मैच दिन में रखे गए हैं, किन्तु अधिकांश मैच रात गहराने के साथ ही आरम्भ होंगे। जाहिर है, इन मैच के लिए सैकडों फ्लड लाईट का इस्तेमाल किया जाएगा। कहने का तातपर्य यह कि रात गहराने के साथ ही जब लोगों के दिल दिमाग पर हाला (शराब) का सुरूर हावी होता जाएगा, वैसे वैसे नामी गिरामी क्रिकेट के सितारे अपना जौहर दिखाएंगे। दर्शक भी अधखुली आंखों से इस फटाफट क्रिकेट का आनन्द उठाते नज़र आएंगे।

जनवरी से लेकर अप्रेल तक का समय अमूमन हर विद्यार्थी के लिए परीक्षा की तैयारी करने और देने के लिए सुरक्षित रखा जाता है। सवाल यह उठता है कि जब देश के भविष्य बनने वाले छात्र छात्राएं परीक्षाओं की तैयारियों में व्यस्त होंगे तब इस तरह के आयोजनों के ओचित्य पर किसी ने प्रश्न चिन्ह क्यों नहीं लगाया। क्या देश के नीति निर्धारक जनसेवकों की नैतिकता इस कदर गिर चुकी है, कि वे देश के भविष्य के साथ ही समझौता करने को आमदा हो गए हैं।

एक अनुमान के अनुसार देश के ग्रामीण अंचलों में आज भी महज चार से छ: घंटे ही बिजली मिल पाती है, तब फिर आईपीएल में खर्च होने वाली बिजली को बचाकर उसे देश के ग्रामीण अंचलों के बच्चों की पढाई और कृषि पैदावार के लिए क्यों नहीं दिया जाता है। बात बात पर न्यायालयों में जाकर जनहित याचिका लगाने वाली गैर सरकारी संस्थाओं की नज़रों में क्या यह बात नहीं आई। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आई भी होगी तो उन्हें इस मामले में अपने निहित स्वार्थ गौड ही नज़र आ रहे होंगे तभी उन्होंने भी खामोशी अिख्तायार कर रखी है।

यह बात सत्य है कि अगर मैच रात में खेले जाते हैं तो उसमें दिन की अपेक्षा दर्शकों के आने की उम्मीद ज्यादा ही होती है। इससे आयोजकों और प्रायोजकों को खासा लाभ होता है, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु अगर विपक्ष में बैठे जनसेवक या भारत सरकार चाहती तो क्या आयोजकों पर बिजली बचाने का दबाव नहीं बनाया जा सकता था। इसका उत्तर 100 में से 100 लोग ही सकारात्मक अर्थात हां में देंगे। ये मेच दिन में भी आयोजित किए जा सकते थे।

इस आयोजन से हो सकता है सरकारी खजाने में करोडों रूपयों की अकस्मात वृद्धि दर्ज की जाए, सरकार और जनसेवकों के साथ ही साथ आयोजकों और प्रायोजकों की माली हालत इससे सुधरे, किन्तु नफा नुकसान देखना सरकार का काम हो सकता है, पर अगर रियाया को कष्ट में रखकर नफा नुकसान का खेल खेला जाए तो उसे कहां तक उचित ठहराया जा सकता है। इस तरह के आयोजन से तो वही कहावत चरितार्थ होती है कि मोहल्ले को रोशन करने के लिए अपना ही घर फूंक दिया जाए।

वैसे भी ग्रीन पीस के स्टिल वेटिंग प्रतिवेदन में साफ कहा गया है कि िग्रड आधारित भारत की वर्तमान विद्युत वितरण प्रणाली में असमानता का खामियाजा देशवासी ही भुगत रहे हैं। आज भी देश के चालीस फीसदी गांवों में बिजली का करंट नहीं पहुंच सका है। गांव में आज भी गौ धूली की बेला (शाम को गाय जब वदीZ से वापस लौटतीं हैं, तो उनके पैरों से उडने वाली धूल) के साथ ही लालटेन के कांच की सफाई राख से की जाना आरम्भ कर दिया जाता है।

कहते हैं कि भारत देश गांव में बसता है, पर गांव की असलियत क्या है, इस बात से जनसेवकों को कोई इत्तेफाक नहीं है। आजाद भारत के गांवों में आज भी देश के भविष्य लालटेन के मद्धिम प्रकाश में ही पढकर अपनी आंखे फुडवाने पर मजबूर हैं। वहीं दूसरी ओर जनसवकों के आलीशान निजी और सरकारी आवास में एयर कण्डीशनर जब हवा फैंकते हैं तो इन सारी समस्याओं के कारण उनकी पेशानी पर आने वाला पसीना शीतल हवा में तुरन्त ही सूख जाता है। ये हालात तब हैं जबकि पिछले दो दशकों में बिजली के उत्पादन में 162 फीसदी की वृद्धि हुई है। इतनी बढोत्तरी के बाद भी अगर समस्या जस की तस है, तो निश्चित तौर पर इसके लिए विद्युत वितरण प्रणाली को ही दोषपूर्ण माना जाएगा।

बहरहाल, केन्द्र सरकार और विपक्ष में बैठे जनसेवकों के साथ ही साथ सूबों की सरकार को भी चाहिए कि वे अपने राजस्व की चिन्ता के साथ ही साथ अपनी रियाया की चिन्ता भी अवश्य करें। राजस्व के बढने से जनता को मिलने वाली सुविधाओं में इजाफे की बात तो अब इतिहास की बातें हो गईं हैं, क्योंकि जैसे ही सरकारी कोष में वृद्धि होती है, वैसे ही जनसेवक अपने को मिलने वाली सुविधाओं में जबर्दस्त इजाफा करवा लेते हैं। इसका एक उदहारण यह भी है कि अनेक सरकारी नौकरियों में अब भर्ती के साथ ही यह प्रावधान कर दिया गया है कि शासकीय सेवक साठ साल की उम्र को पाने के साथ ही सेवानिवृत्ति के उपरान्त पैंशन का हकदार नहीं होगा, वहीं दूसरी ओर चाहे सांसद हो या विधायक महज पांच साल के कार्यकाल के बाद उसकी पैंशन न केवल बरकरार है, वरन हर साल उसमें वृद्धि होती है। जब भी इस तरह का प्रस्ताव संसद या विधानसभा में आता है, सभी सदस्य आपसी भेदभाव छोडकर मेज थपथपाकर उसका स्वागत कर अपने सुनहरे भविष्य के मार्ग प्रशस्त करने से नहीं चूकते हैं।

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