मंगलवार, 3 अगस्त 2010

रमेश की सडक को न पर रेल को हां

कारीडोर से रेल लाईन की अनुमति कैसे दी वन विभाग ने!
 
पेंच कान्हा कारीडोर से गुजरने वाले ब्राडगेज को अनुमति देना आश्चर्यजनक
 
क्या वन एवं पर्यावरण विभाग का बैर सिर्फ सिवनी से ही है?
 
(लिमटी खरे)

सिवनी। भगवान शिव की नगरी सिवनी से होकर गुजरने वाले उत्तर दक्षिण गलियारे के फोरलेन मार्ग को पेंच और कान्हा नेशनल पार्क के बीच के अघोषित काल्पनिक वन्य प्राणी गलियारे के कारण वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने लाल बत्ती दिखाई है, लेकिन इसी गलियारे के बीच से होकर गुजरने वाली बालाघाट जबलपुर नेरोगेज के अमान परिवर्तन कर ब्राडगेज में तब्दील करने के मामले में न केवल वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को ही कोई आपत्ति है, और ना ही सिवनी में पदस्थ मुख्य वन संरक्षक को।
 
फोरलेन के मामले में मुख्य पेंच की ओर किसी का ध्यान शायद नहीं जा रहा है, और अगर जा भी रहा है तो वे जानबूझकर इस मुद्दे को छूना ही नहीं चाह रहे हैं। गौरतलब है कि अनेक नेताओं के वक्तव्य से साफ हो गया है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न तो इसका काम रोका है और ना ही चालू होने पर उसे कोई आपत्ति है। अगर यह सच है तो निश्चित तौर पर इस सडक का काम तत्कालीन जिलाधिकारी सिवनी पिरकीपण्डला नरहरि के 18 दिसंबर 2008 के पत्र क्रमांक 3266 / फोले / 2008 के तहत ही रोका गया है।
 
पिछले साल जून से सिवनी में अस्तित्व में आए इस पत्र के बारे में न तो जनता के अधिकारों के लिए लडने वाले गैर राजनैतिक संगठन ने ही कोई प्रयास किए और न ही राजनैतिक दलों के नुमाईंदों ने। इस बात से साफ जाहिर होता है कि लोगों को सर्वोच्च न्यायालय के इर्द गिर्द ही घुमाकर भटकाने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं ये नुमाईंदे। साफ तौर पर जिला कलेक्टर के उक्त आदेश से काम रूका होना प्रतीत होता है, और सर्वोच्च न्यायालय के बारे में नेताओं के वक्तव्यों से साफ हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय में भले ही प्रकरण लंबित हो पर इस मामले में काम रूका है तो सिर्फ और सिर्फ तत्कालीन जिला कलेक्टर के 18 दिसंबर 2008 कके आदेश से।
 
इस मामले में पडोसी जिले बालाघाट की ब्राडगेज संघर्ष समिति के एक वक्तव्य ने और रोचक मोड ला दिया है। बकौल समिति उनके बालाघाट से जबलपुर के रेल अमान परिवर्तन के काम में मण्डला और सिवनी के मुख्य वन संरक्षकों ने तो वनों की कटाई की अनुमति प्रदान कर दी है, पर बालाघाट के मुख्य वन संरक्षक इस मामले में हीला हवाला कर रहे हैं।
 
यहां गौरतलब है कि बालाघाट से जबलपुर ब्राडगेज का मार्ग इसी पेंच और कान्हा के अघोषित काल्पनिक कारीडोर से होकर गुजर रहा है। 25 अक्टूबर 2008 को वनमण्डलाधिकारी दक्षिण सिवनी सामान्य वन मण्डल द्वारा मुख्य वन संरक्षक सिवनी को लिखे पत्र क्रमांक मा.चि. / 2008 / 1002 में साफ तौर पर इस बात को रेखांकित किया गया है कि राजस्व विभाग के नक्शों में आरक्षित वन सीमा में राजमार्ग को नहीं दर्शाया गया है। इस पत्र में वनामण्डलाधिकारी लेख करते हैं कि वन विभाग के पास एसे कोई दस्तावेज न तो हैं और न ही उपलब्ध कराए गए हैं जिससे स्पष्ट हो सके कि वन विभाग ने लोकनिर्माण विभाग या महामार्ग विभाग को कोई भूमि हस्तांतरित की गई हो। अगर एसा है तो लोक निर्माण विभाग और महामार्ग (राष्ट्रीय राजमार्ग) विभाग से यह पूछना चाहिए कि सालों साल तक इस सडक का रखरखाव विभाग ने किस मद से किया? इस पत्र में डीएफओ साउथ टेरीटोरियल ने वृक्षों की कटाई करने पर कानूनी कार्यवाही की बाध्यता की बात कही है। पत्र के अंत में डीएफओ ने सीसीएफ से अनुरोध किया है कि वन संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत स्वीकृति के उपरांत ही कर्या करने हेतु राजमार्ग के अधिकारियों को कोई लेख किया जाए।
 
वहीं दूसरी ओर इसी काल्पनिक और अघोषित कारीडोर को संवारने की बात करने वाले वन विभाग को बालाघाट से जबलपुर के रेल लाईन अमान परिवर्तन में कोई आपत्ति न होना आश्चर्य जनक ही माना जाएगा। हालाता देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि केंद्र में बैठी कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील सरकार सहित प्रदेश की भाजपा सरकार और विशेषकर वन विभाग ने अपना मानस बना लिया है कि जतन एसे हों कि चाहे कुछ भी हो जाए पर सिवनी के निवासियों को उनका वाजिब हक नहीं मिलने पाए।

आश्चर्य तो तब होता है जब राजनैतिक दलों के साथ जनता के हक के लिए लडने वाले संगठन भी उनके साथ ही तुकबंदी मिलाने लगते हैं। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि जनता के हक के लिए लडने वाले सर्वोच्च न्यायायल के प्रकरण के साथ ही साथ जिला कलेक्टर के 18 दिसंबर 2008 के आदेश को निरस्त करने की दिशा में संजीदगी से प्रयास करें साथ ही साथ मुख्य वन संरक्षक से यह भी पूछें कि अगर बालाघाट जबलपुर अमान परिवर्तन में झाड काटने की अनुमति दी जा सकती है तो फिर भला कुरई घाटी में क्या आपत्ति है। यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक होगा कि यह मामला अक्टूबर 2008 के पहले से ही रोका हुआ है, जब प्रकरण माननीय सर्वोच्च न्यायालय की दहलीज पर नहीं पहुंचा था।

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