गुरुवार, 16 सितंबर 2010

आखिर हम कहाँ जा रहे हैं?

आखिर हम कहाँ जा रहे हैं?

(हरीष शहरी)

दुनियाँ कहती है कि भारत विकसित राष्ट्र बनने जा रहा है। हर भारतवासी बड़े गर्व से कहता है कि भारत निरन्तर विकास के रास्ते पर अग्रसर है।  स्वतन्त्रता के बाद हमने अभूतपूर्व सफलता पायी है और दुर्लभ उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं।  आज हम चाँद पर अपना परचम लहरा चुके हैं और मंगल ग्रह पर जाने के लिए तैयार हैं।  हमारे पास दुर्लभ आयुध भंडार है जिसमें दूर तक मारक क्षमता रखने वाली मिसाइलें, ध्वनि की गति से भी तेज चलने वाले लड़ाकू विमान तथा पानी के भीतर शत्रुओं की खोज कर दूर तक मार करने वाली पन्डुब्बियाँ हैं।  इतना ही नहीं हमने अनेक रोगों के इलाज ढूंढने एवं उनके निरन्तर विकास में भी सफलता पायी है। 

कुल मिलाकर भौतिक उपलब्धियों की खोेज एवं उनके निरन्तर विकास में हम बहुत आगे आ चुके हैं किन्तु इस अन्धी दौड़ में हम अपनी मान्यताओं, अपनी संस्कृति एवं अपने मूल्यों को कितने पीछे छोड़ आये हैं इसका हमें जरा भी एहसास नहीं है। जिस भारतवर्ष में यह कहावत प्रसिद्ध थी कि घर आये दुष्मन का भी स्वागत करना चाहिए और जिसके अनेक उदाहरण हमारे इतिहास में दर्ज हैं जैसे हमने मुसलमानों को, अंग्रेजों को एवं अन्य न जाने कितने विदेषी लोगों को अपने सर आंखों पर बिठाया भले ही उन्होंने हमारे साथ बुरा सुलूक किया उसी भारतवर्ष में आज यदि सगा भाई भी घर आ जाये तो लोग उसके जल्द से जल्द जाने की तरकीबें सोचते हैं। 

यह वही देष है जिसमें परायी स्त्री को उम्र के हिसाब से माँ बहन या बेटी का दर्जा दिया जाता था उसी देष में आज प्रतिदिन महिलाओं के साथ छेड़छाड़ एवं बलात्कार जैसी घटनायें सुनने को मिलती हैं।  कुछ हद तक इसके लिए महिलायें भी उत्तरदायी हैं क्योंकि भारतीय परिधानों, जिनसे शरीर के सभी अंग पूरी तरह ढके रहते हैं, को छोड़कर वे पष्चिमी परिधानों, जिनमें शरीर ढकता कम है और दिखता ज्यादा है प्राथमिकता देने लगीं हैं। जिस देष में लोग दूसरों की मदद करने या दूसरों को कुछ देने में खुषी का अनुभव प्राप्त करते थे आज उसी देष में लोग दूसरों से छीनकर खुष होते हैं और इसी का परिणाम है कि भारत जैसे देष जिसमें दधीचि एवं कर्ण जैसे महादानी हुए उसी देष की मिट्टी में आज दाऊद, अबू सलेम, छोटा राजन एवं बबलू श्रीवास्तव जैसे लोग फल-फूल रहे हैं।  आज पश्चमी देषों की नकल में हम इतने आगे निकल आये हैं कि अपनी मान्यताओं, अपनी संस्कृति एवं अपने मूल्यों को तो जैसे भूल ही गये हैं।

मेरा हर भारतवासी से यह विनम्र अनुरोध है कि वह एक बार फिर से सोचे कि आखिर हम कहाँ जा रहे हैं? ये हमारी कैसी उन्नति है जो धीरे-धीरे हमें अपनी सभ्यता एवं संस्कृति से दूर कर रही है और हमें गर्त के मार्ग पर अग्रसर कर रही है।  क्या हमारे पूर्वजों एवं स्वतन्त्रता सेनानियों ने यही सपना देखा था और इसी दिन के लिए अपने प्राणों की आहूति दी थी?  यदि हम अभी भी नहीं चेते और अपने आचार-व्यवहार में जल्द ही परिवर्तन नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब हम केवल विकास के रास्ते में गुम होकर रह जायेंगे।

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