सोमवार, 24 जनवरी 2011

भारद्वाज के तीर के मायने

कहां जाकर लगेगा भारद्वाज का तीर

(लिमटी खरे)

कर्नाटक में महामहिम राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा के खिलाफ तलवार तानकर भले ही कांग्रेस का हित साधा हो पर उनके इस तरह के कदम से संवैधानिक विवाद आरंभ होना स्वाभाविक है। भारत गणराज्य की स्थापना के साथ ही साथ देश के अंदर जिस तरह की संवैधानिक व्यवस्था को लागू किया गया है, उसके तहत लाट साहेब यानी राज्यपाल को इस तरह की सिफारिश करने का अधिकार शायद नहीं हैं। मूलतः राज्यपाल मंत्रीमण्डल की सिफारिश पर ही काम करता है, मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा के मंत्रीमण्डल ने राज्यपाल से गुहार लगाई थी कि मुख्यमंत्री के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति न दी जाए। इसके पीछे मंत्रीमण्डल का तर्क था कि कर्नाटक के लोकायुक्त के साथ ही साथ सूबाई सरकार द्वारा गठित एक न्यायिक जांच आयोग भी इसकी जांच में लगा हुआ है। कर्नाटक के लाट साहेब हंसराज भारद्वाज मंझे हुए राजनेता हैं, इस बात में कोई शक नहीं, वे मध्य प्रदेश कोटे से राज्य सभा सदस्य रहते हुए केंद्र में कानून मंत्री रह चुके हैं। उनके अनुभव और काबिलियत पर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए, किन्तु विधि द्वारा स्थापित परंपराओं का पालन उन्हें हर हाल में करना ही होगा। भारद्वाज ने दो अधिवक्ताओं द्वारा दायर याचिका के आधार पर मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति प्रदान कर दी है। हो सकता है भारद्वाज का निर्णय नैतिकता के तकाजे पर खरा उतरे पर भारत गणराज्य में स्थापित विधि मान्यताओं के अनुसार विशेषज्ञ इस पर उंगली उठा ही रहे हैं। पहले भी कुछ लाट साहबों द्वारा इसी तरह के प्रयास किए जा चुके हैं। वस्तुतः राज्यपाल को जनसेवक के खिलाफ मुकदमा चलाने देने की अनुमति देने का अधिकार है, पर आम धारणा है कि राज्यपाल चूंकि राजनैतिक परिवेश से आते हैं अतः वे पूरी ईमानदारी से इस तरह की अनुमति देने के बजाए पूर्वाग्रह से ग्रसित ज्यादा नजर आते हैं।

मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा के मामले में अब कांग्रेस और भाजपा एक दूसरे के सामने ही दिखाई पड़ रही हैं। कांग्रेस के तेवर तीखे हैं, उसका कहना है कि राज्यपाल ने सही किया है। कांग्रेस के अनुसार किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री या मंत्रीमण्डल के किसी भी सदस्य के अनाचार, कदाचार या भ्रष्टाचार अथवा अनैतिक आचरण के मामलों में भारत का संविधान सूबे के राज्यपाल को स्वविवेक से फैसला लेने की इजाजत देता है। दूसरी तरफ भाजपा भी मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा के बचाव में खड़ी दिखाई दे रही है। भाजपा की दलील है कि राज्य का राज्यपाल हर हाल में हर काम के लिए मंत्रीमण्डल की सलाह से बंधा हुआ है। जब मंत्रीमण्डल ने मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा पर मुकदमा न चलाने की सिफारिश की थी, तब राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने कैसे मंत्री मण्डल की सिफारिश को दरकिनार कर दिया। कुछ भी हो पर यह मसला बड़ा ही गंभीर है और इस पर राष्ट्रव्यापी बहस की दरकार है कि कोई राज्यपाल किसी भी मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार अथवा अनैतिक आचरण को आखिर किस सीमा तक बर्दाश्त करे। भाजपा मानसिकता के लोग लाट साहेब के इस कदम को गलत तो कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाले इसे सही ठहरा रहे होंगे। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि बहस इस पर हो कि क्या राज्यपाल को मंत्री मण्डल की सिफारिश से इतर जाकर स्व विवेक से स्वतंत्र तौर पर फैसला लेने का हक है?

मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा के खिलाफ जिस तरह का वातावरण कांग्रेस बनाना चाह रही है, राज्य की स्थितियां देखकर लगता नहीं कि कांग्रेस अपने मंसूबों में कामयाब हो पा रही है। मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा के समर्थन में राज्य की भाजपा द्वारा शनिवार को आहूत कर्नाटक बंद को मिली आशातीत सफलता ने कांग्रेस के रणनीतिकारों के होश उड़ा दिए होंगे। भले ही राज्य में सरकारी मशीनरी पुलिस और प्रशासन के सहयोग से बंद कराने की बातें प्रकाश में आ रहीं हों पर कर्नाटक राज्य की जनता ने जिस तरह का जनता कफर््यू लगाया उससे लगने लगा है कि मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा पर लगे आरोंपों में बहुत दम नहीं है, या जनता को उन आरोपों से बहुत सरोकार नहीं है। कमोबेश यही स्थिति मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ कांग्रेस द्वारा उठाए गए डंपर मामले में हुआ था। कांग्रेस ने एम पी की जनता को शिवराज के डंपर मामले से रूबरू करवाया। कमोबेश हर किसी की राय बनी कि महज चार डंपर के लिए कोई मुख्यमंत्री इस स्तर तक नहीं जाएगा। बाद में कांग्रेस की अपनी ही कार्यप्रणाली के चलते मध्य प्रदेश में डम्पर मामले की हवा ही निकल गई थी।

कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा पर आरोप है कि उन्होंने अपने अनेक रिश्तेनातेदारों को मंहगी सरकारी जमीन सस्ती दरों पर बांट दी है। मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा ने अपने उपर लगे आरोपों को न केवल स्वीकारा वरन् उन जमीनों को वापस भी करवा दिया। मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा का दावा है कि उन्होंने अपने रिश्तेदारों को जमीनें बांटकर कोई अनैतिक काम नहीं किया है। कोई भी मुख्यमंत्री अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर सरकारी जमीन किसी को भी आवंटित कर सकता है, यह गैरकानूनी किसी भी दृष्टिकोण से नहीं कहा जा सकता है। इसके साथ ही साथ उनके मंत्रीमण्डल ने तो यहां तक कहा है कि अभी जांच जारी है, किसी को भी दोषी करार नहीं दिया गया है। प्रथम दृष्टया यह भ्रष्टाचार का मामला बनता ही नहीं है। इन सारी स्थिति परिस्थितियों में महामहिम राज्यपाल द्वारा किस बिनहा पर मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति दे डाली।

बहरहाल जो भी हो राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा के खिलाफ जांच की अनुमति देकर अनेक अनुत्तरित प्रश्न खड़े कर दिए हैं। अब यक्ष प्रश्न तो ये हैं कि क्या राज्य के मंत्रीमण्डल की सलाह को धता बताकर राज्यपाल स्वविवेक से निर्णय ले सकता है? क्या मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा के खिलाफ अनुमति मिलने के बाद वे अपने पद पर बने रह सकते हैं? मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा निर्वाचित नेता हैं और सूबे की जनता ने बंद रखकर उन पर भरोसा जताया है, तब क्या राज्यपाल का निर्णय सही है?, एक तरफ लगता है कि राज्यपाल का भरोसा मुख्यमंत्री बी.एस.येदयुरप्पा की सरकार पर से उठ गया है दूसरी और भाजपा के आव्हान पर जनता द्वारा किया गया बंद दर्शा रहा है कि वह अब भी अपने निजाम पर पूरा भरोसा जता रही है। कुल मिलाकर अच्छा मौका है, केंद्र सरकार को चाहिए कि सूबों में बिठाए जाने वाले राज्यपालों को कठपुतली न बनने दे, संविधान में संशोधन कर राज्यपाल के अधिकारों को बढ़ाए ताकि वे हाथी के दिखाने वाले दांतों के बजाए खाने वाले दांत बनें। अगर एसा नहीं है तो फिर किसी भी राज्य में रबर स्टेंप संवैधानिक पद का आखिर मतलब ही क्या है?

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