सोमवार, 11 अप्रैल 2011

राजनैतिक दलों के एजेंडे से बाहर हुए विद्यार्थी!


राजनैतिक दलों के एजेंडे से बाहर हुए विद्यार्थी!
लिमटी खरे

देश में जब भी किसी भी चुनाव की रणभेरी बजती है, वैसे ही राजनैतिक दल अपने अपने एजेंडे सेट करने में लग जाते हैं। कोई मंहगाई को तो कोई बेरोजगारी को टारगेट करता है। देश के अंतिम छोर के व्यक्ति की पूछ परख के लिए घोषणापत्र तैयार किए जाते हैं। मतदाताओं को लुभाने के उपरांत इन मेनीफेस्टो को खोमचे वालों को बेच दिया जाता है।
पिछले कई सालों से तैयार हो रहे मेनीफेस्टो में एक बात खुलकर सामने आई है कि चाहे आधी सदी से अधिक राज करने वाली कांग्रेस हो या दो सीटों के सहारे आगे बढ़कर देश की सबसे बड़ी पंचायत पर कब्जा करने वाली भारतीय जनता पार्टी, किसी भी राजनैतिक दल ने अपने घोषणा पत्र में स्कूली बच्चों के लिए कुछ भी खास नहीं रखा है।
कितने आश्चर्य की बात है कि देश के नौनिहाल जब अट्ठारह की उमर को पाते हैं, तो उनके मत की भी इन्हीं राजनेताओं को बुरी तरह दरकार होती है, किन्तु धूल में अटा बचपन सहलाने की फुर्सत किसी भी राजनेता को नहीं है। हमें यह कहने में किसी तरह का संकोच अनुभव नहीं हो रहा है कि चूंकि इन बच्चों को वोट देने का अधिकार नहीं है, अतः राजनेताओं ने इन पर नजरें इनायत करना मुनासिब नहीं समझा है।
इस तरह की राजनैतिक आपराधिक अनदेखी के चलते देश भर के स्कूल प्रशासन ने भी बच्चों की सुरक्षा के इंतजामात से अपने हाथ खींच रखे हैं। देश भर में कमोबेश हर निजी स्कूल आज के समय में एक उद्योग में ही तब्दील होकर रहा गया है। हर एक निजी स्कूल में ढांचागत विकास के नाम पर बिल्डिंग, लाईब्रेरी, गेम्स, कंप्यूटर, चिकितसा, सोशल एक्टीविटीज आदि जाने कितनी मदों में मोटी फीस वसूली जाती है।
एक तरफ शासन प्रशासन जहां ध्रतराष्ट्र की भूमिका में है तो स्कूल प्रशासन दुर्दांत अपराधी दाउद की भूमिका में अविभावकांे से फीस के नाम पर चैथ वसूल कर रहा है। आश्चर्य तो तब होता है, जब इन शालाओं में बुनियादी सुविधाएं ही नदारत मिलती हैं। देश के स्कूलों का अगर सर्वे करवा लिया जाए तो पंचानवे फीसदी स्कूलों में अग्निशमन के उपाय नदारत ही मिलेंगे।
देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में ही विद्यार्थियों के साथ खिलवाड़ के अनेकों उदहारण रोजाना ही देखने सुनने को मिला करते हैं। संवेदनाएं खो चुके राजनैतिक दलों के कारिंदों को भी इस सबसे कोई असर नहीं होता। स्कूल संचालकों, राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों और मीडिया की गठजोड़ के चलते अविभावक सरेआम लुटने पर मजबूर हैं, किन्तु उसका रूदन सुनने की किसी को भी फुर्सत नहीं है।
अगर किसी पालक द्वारा शाला प्रबंधन के खिलाफ आवाज उठाने की हिमाकत की जाती है तो उसकी गाज उसके बच्चे पर ही गिरती है। एक नहीं अनेकों उद्हारण एसे हैं जिनमें बच्चों का रिजल्ट ही इसके चलते रोक दिया जाता रहा है। इन सब पर पहरेदारी के लिए पाबंद शिक्षा विभाग के अधिकारी हाथ बांधे इन निजी शालाओं के प्रबंधन की सेवा टहल ही करते नजर आते हैं।
याद पड़ता है, सत्तर के दशक के पूर्वार्ध तक प्रत्येक शाला में स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन किया जाता था। हर बच्चे का स्वास्थ्य परीक्षण करवाना शाला प्रशासन की नैतिक जिम्मेदारी हुआ करता था। शिक्षक भी इस पुनीत कार्य में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया करते थे। उस वक्त चूंकि हर जिले में पदस्थ जिलाधिकारी (डिस्ट्रिक्ट मेजिस्ट्रेट) व्यक्तिगत रूचि लेकर इस तरह के शिविर लगाना सुनिश्चित किया करते थे। उस वक्त के जिला शिक्षा अधिकारी (डीईओ) भी व्यक्तिगत तौर पर सरकारी और निजी शालाओं में जाकर बच्चों का स्वास्थ्य परीक्षण करवाया करा करते थे। आज इस तरह के स्कूल निश्चित तौर पर अपवाद स्वरूप ही अस्तित्व में होंगे जहां विद्यार्थियों के बीमार पड़ने पर समुचित प्राथमिक चिकित्सा मुहैया हो सके।
कितने आश्चर्य की बात है कि आज जो शिक्षक अपना आधा सा दिन अपनी कक्षा के बच्चों के साथ बिता देते हैं, उन्हें अपने छात्र की बीमारी या तासीर के बारे में भी पता नहीं होता। मतलब साफ है, आज के युग में शिक्षक व्यवसायिक होते जा रहे हैं। आज कितने एसे स्कूल हैं, जिन में पढ़ने वालों की बीमारी से संबंधित रिकार्ड रखा जा रहा होगा?
स्कूल में दाखिले के दौरान तो पालकों को आकर्षित करने की गरज से शाला प्रबंधन द्वारा लंबे चैड़े फार्म भरवाए जाते हंै, जिनमें ब्लड गु्रप से लेकर आई साईट और जाने क्या क्या जानकारियों का समावेश रहता है। सवाल इस बात का है कि इस रिकार्ड को क्या अपडेट रखा जाता है? जाहिर है इसका उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा।
सरकारी स्कूलों के अध्यापकों तो नसबंदी, जनगणना, मतदाता सूची, अंधत्व निवारण आदि की बेगार में लगा दिया जाता है, जिससे वे अपने मूल कार्य से इतर इन कामों को करने में जुट जाते हैं। इसका सीधा सीधा प्रभाव देश के भविष्य बनने वाले बच्चों पर पड़ना स्वाभाविक ही है।
उचित मार्गदर्शन और कड़े अनुशासन के डंडे के अभाव में निजी तौर पर संचालित होने वाले शिक्षण संस्थान (शिक्षा की दुकानें) अब पूरी तरह से मनमानी पर उतर आई हैं। सरकारी स्कूलों में गिरते शिक्षा के स्तर से चिंतित पालकों की मजबूरी है कि वे अपने बच्चों को सरकारी के बजाए निजी स्कूलों में अध्ययन के लिए भेजें फिर ख्याति लब्ध अध्यापकों के पास ट्यूशन के लिए भी भेजें।
शक्षण संस्थानों द्वारा हर माह ली जाने वाली मोटी फीस में अन्य मदों के अलावा ट्यूशन फीस भी ली जाती है, इसके बावजूद भी शिक्षकों द्वारा पढ़ाई जाने वाली ट्यूशन और उनके घरों के सामने लगने वाली वाहनों की भीड़ आखिर क्या साबित करती है? कितने आश्चर्य की बात है कि इसके बावजूद भी तो कोई सांसद ही कोई विधायक इसके खिलाफ विधानसभा या लोकसभा में प्रश्न लगाने का साहस जुटा पाता है।
दरअसल हमारा तंत्र चाहे वह सरकारी हो या मंहगे अथवा मध्यम या सस्ते स्कूल सभी संवेदनहीन हो चुके हैं। मोटी फीस वसूलना इन स्कूलों का प्रमुख शगल बनकर रह गया है। आज तो हर मोड पर एक नर्सरी से प्राथमिक स्कूल खुला मिल जाता है। कुछ केंद्रीय विद्यालयों में तो प्राचार्यों की तानाशाही के चलते बच्चे मुख्य द्वार से लगभग आधा किलोमीटर दूर तक दस किलो का बस्ता लादकर पैदल चलते जाते हैं, क्योंकि प्राचार्यों को परिसर में आटो या रिक्शे का आना पसंद नहीं है।
एक ही शाला में अध्ययन करने वाला छात्र जब अगली कक्षा में जाता है तब उससे दोबारा एडमीशन फीस लेना क्या न्यायसंगत है? क्या किसी दुकान विशेष से स्कूल की गणवेश या किताब खरीदना उचित है? अगर देखा जाए तो हर शाला का अपना कोर्स और विशेष प्रकाशन या लेखकों की किताबें नियत हैं जो हर शहर में दुकान विशेष पर ही मिलती हैं। राज्य या केंद्र सरकार अगर सर्वे करवा ले तो उसे इस मामले में अरबों रूपयों से खेलने वाले रेकट का पता चल जाएगा।
अगर देखा जाए तो देश का कमोबेश हर स्कूल मानवाधिकार का सीधा सीधा उल्लंघन करता पाया जाएगा। आज जरूरत इस बात की है कि देश के भाग्यविधाता राजनेताओं को इस ओर देखने की महती आवश्यक्ता है, क्योंकि उनके वारिसान भी इन्हीं में से किसी स्कूल में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे होंगे या करने वाले होंगे।

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