मंगलवार, 2 जुलाई 2013

खुल गई शिक्षा की ‘दुकानें‘

खुल गई शिक्षा की दुकानें

(शरद खरे)

वैसे तो शिक्षण सत्र जून में ही आरंभ हो चुका है पर औपचारिक तौर पर शिक्षण सत्र 01 जुलाई से ही आरंभ माना जाता है। एक जुलाई को शिक्षण सत्र आरंभ हो गया है। बच्चों के अंदर स्कूल जाने का उत्साह देखते ही बन रहा है। इसका कारण यह है कि बच्चों को दो माह के अवकाश के उपरांत एक बार फिर से अपने पुराने मित्र दोस्त मिलेंगे, जिनसे वे सारी बातें शेयर करेंगे।
एक समय था जब शिक्षा का स्थान गुरूकुल माना जाता था। गुरूकुल में विद्यार्थी को चाहे वह राजा का पुत्र हो या गरीब का, सभी को समान रूप से काम करने की शिक्षा दी जाती थी। उस समय पाठ्यक्रम के साथ ही साथ बच्चों को प्रायोगिक शिक्षा भी दी जाती थी। बच्चों को आंगन लीपने से लेकर, लकड़ी काटने, भोजन पकाने, मवेशी चराने जैसे काम भी करवाए जाते थे, ताकि उन्हें जीवन की वास्तविकता का भान हो सके।
कालांतर में भारत पर मुगलों और अंग्रेजों के आक्रमण हुए। मुगलों ने अपनी संस्कृति, तो ब्रितानी गोरों ने अपनी परंपराओं को भारत पर थोपा। ब्रितानी अंग्रेजों की पूजा ईबादत रविवार को होती थी अतः उन्होंने सप्ताहिक अवकाश का दिन रविवार ही मुकर्रर किया जो आज भी अनवरत जारी है। सनातन पंथी संगठन इसे बदलकर मंगलवार करने की मांग करते आ रहे हैं पर हुआ कुछ भी नहीं।
आजादी के उपरांत गुरूकुलों और स्कूलों का स्वरूप शनैः शनैः बदलने लगा। अंग्रेजों के जमाने में बनाए गए शिक्षण संस्थानों को हमारी सरकारों नें अंगीकार कर लिया। उनके नाम वही रखे गए जो पूर्व में प्रचलित थे। दशकों तक यही व्यवस्था लागू रही। नब्बे के दशक के उपरांत इनके नाम बदलने का काम आरंभ किया गया।
भारत का संविधान बना, व्यवस्थाएं भी एक के बाद एक बनती गईं। देश में शिक्षा को लागू करने, शिक्षा की नीति रीति बनाने, दिशा दशा तय करने का जिम्मा केंद्र में मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सौंपा गया। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सत्तर के दशक के उपरांत मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भी शिक्षा में अपनी मनमर्जी को थोपा ही है। कभी किसी एचआरडी मिनिस्टर ने कहा कि शिक्षा में व्याप्त हिंसा को दूर करना होगा! तो कोई कहता सुना गया कि शिक्षा का भगवाकरण कर दिया गया है।
आखिर शिक्षा में हिंसा कैसी? और किसने इस हिंसा को डाला शिक्षा में? शिक्षा का भगवाकरण अगर हो रहा था तो उस समय विपक्ष में बैठे जनता के नुमाईंदे क्या भांग खाकर बैठे थे। देश में जितनी भी सरकारें आई,ं सबने शिक्षा को लेकर नए नए प्रयोग किए। शिक्षा पर उन्होंने वास्तविक स्थिति को सोचे समझे बिना ही अपनी मंशाओं को लादा है।
दो दशकों से शिक्षा की स्थिति बेहद खराब है। आज अधकचरी शिक्षा के चलते, विद्यार्थी भ्रमित ही नजर आ रहे हैं। अब तो लोग यह कहने पर मजबूर हो रहे हैं कि आदमी महज तीन चीजों में निवेश के लिए ही कमा रहा है। एक खाने के लिए, दूसरा चिकित्सक और दवाओं के लिए और तीसरा बच्चों की पढ़ाई के लिए।
आज के समय में नर्सरी से लेकर हायर सेकंड्री तक की पढ़ाई करवाने में पालकों की पतलून ढीली हो रही है। मंहगी फीस, मंहगे गणवेश, मंहगी किताबें पालकों की कमर तोड़ कर रख रही है। उपर से कोचिंग की दुकानों में बच्चों को पढ़ने भेजने में पालकों की बन आती है। गणवेश और किताबें भी शालाओं द्वारा विशेष दुकानों से खरीदने की सलाह दी जाती है। इसमें भी कमीशनखोरी जमकर हो रही है। सिवनी में भी दो तीन ही गणवेश वितरक हैं जिनकी चांदी है। यही आलम किताबों का है।
पता नहीं कैसे शाला में चालीस मिनिट के कालखण्ड के बाद, बच्चों को कोचिंग की आवश्यक्ता पड़ती है। यह बात भी समझ से परे ही है कि चालीस बच्चों को चालीस मिनिट के काल खण्ड में जो शिक्षक बच्चों को समझा नहीं पाता है, वह आखिर कोचिंग में चालीस से ज्यादा बच्चों को, चालीस मिनिट या एक घंटे में उसी चीज को कैसे समझा पाता है। मतलब साफ है कि शिक्षा अब व्यवसाय बन गया है। शिक्षक भी अपना मूल उद्देश्य भूल चुके हैं। शिक्षक भी शालाओं में समय पास करने जाते हैं और अपनी पूरी मेहनत कोचिंग में झोंक देते हैं।
सरकारी शालाओं में यह दायित्व सरकारी नुमाईंदों का बनता है कि वे शाला में बच्चों को सही तरीके से शिक्षा मिले, यह सुनिश्चित करें और निजी तौर पर संचालित होने वाली संस्थाओं में यह दायित्व प्रबंधन का बनता है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उसके संस्थान में शिक्षक अपने दायित्वों का निर्वहन पूरी ईमानदारी से करें। इसके लिए जिला प्रशासन को कड़े कदम उठाने ही होंगे।
एक और बात जो सामने आ रही है वह है प्रोजेक्ट की। शालाओं में बच्चों को प्रोजेक्ट दिए जाते हैं। इन प्रोजेक्ट को करवाने के लिए बच्चों की भीड़ सायबर कैफे में दिखाई पड़ जाती है। शासन के निर्देशानुसार हर शाला में एक कंप्यूटर लेब और इंटरनेट कनेक्शन होना चाहिए। अगर शाला में कंप्यूटर लेब है, कंप्यूटर का कालखण्ड है, इंटरनेट कनेक्शन है तो फिर क्या कारण है कि विद्यार्थी शाला के बजाए इंटरनेट कैफे के चक्कर काट रहे हैं!

जिला प्रशासन से अपेक्षा है कि शिक्षा विभाग, आदिवासी शिक्षा विभाग के आफीसर इंचार्ज उप जिलाध्यक्ष को स्पष्ट निर्देश दे कि शालाओं में चाहे वह निजी हो या शासकीय, में अध्ययन अध्यापन का सतत निरीक्षण कर सारी व्यवस्थाएं अप टू द मार्क हों। ओआईसी इसलिए क्योंकि इसके लिए जिम्मेदार जिला शिक्षा अधिकारी और सहायक आयुक्त आदिवासी विकास विभाग अपने दायित्वों का निर्वहन ईमानदारी से नहीं कर पा रहे हैं।

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