गुरुवार, 8 सितंबर 2011

नपुंसक सरकार को दहलाते बम ब्लास्ट

नपुंसक सरकार को दहलाते बम ब्लास्ट


(लिमटी खरे)




9/11 के बाद दुनिया के चौधरी अमेरिका पर आज तक कोई आतंकी हमला नहीं हुआ है। दुनिया के चौधरी अमेरिका ने यह साबित कर दिया है कि उसकी सरहद पूरी तरह सुरक्षित है। इतना ही नहीं मुस्लिम देशों पर आक्रमण कर वहां के तानाशाहों की सल्तनत को नेस्तनाबूत भी किया है अमेरिका ने। दादागिरी के साथ किसी भी देश में घुसकर वहां अपनी सेना को खड़ा करना कोई अमेरिका से सीखे। वहीं दूसरी ओर सहिष्णू होने का दंभ भरने वाले भारत गणराज्य की सरकारें वास्तव में सहिष्णु के बजाए अब नामर्द ज्यादा नजर आ रहीं हैं। एक के बाद एक आतंकी हमलों और बम विस्फोटों से निरीह निर्दोष आम जनता और उसके गाढ़े पसीने की कमाई से बनी सरकारी संपत्ति नष्ट होती जा रही है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेसनीत केद्र सरकार नीरो के मानिंद बांसुरी बजा रही है। 2008 में देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर हुए आतंकी हमले के उपरांत तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल को भारी विरोध के बाद हटाया गया था। इसके बाद हुए बम धमाकों को देखने के बाद भी पलनिअप्पम चिदंबरम का नैतिक साहस तारीफे काबिल है कि वे आज भी अपनी कुर्सी से चिपके ही बैठे हैं। वे दिन हवा हुए जब इस तरह की किसी भी घटना की नैतिक जवाबदारी लेते हुए नेता अपने पद से त्यागपत्र दे दिया करते थे।


बुधवार को सुबह देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में बम धमका हुआ। इलेक्ट्रानिक मीडिया के मार्फत जैसे ही देश को इसकी जानकारी मिली देश स्तब्ध रह गया। एक ईमेल के जरिए इसकी जवाबदारी हूजी ने ली है। प्रधानमंत्री इन दिनों बंग्लादेश की यात्रा पर हैं। हूजी को खाद पानी भी इसी मुल्क से मिलता है इस बात में शक की गुंजाईश कम ही है। इस समीकरण पर अगर गौर फरमाया जाए तो इसका क्या संदेश है?


आतंकवाद या इस तरह की घटनाएं निश्चित तौर पर सत्तारूढ़ लोगों के लिए एक चुनौति से कम नहीं है। देखा जाए तो देश में सबसे अधिक सुरक्षा प्राप्त है राजधानी दिल्ली। बावजूद इसके दिल्ली में अपराधों का ग्राफ दिनों दिन बढ़ते ही जा रहा है। दिल्ली में न तो महिलाएं ही सुरक्षित हैं और न ही बच्चे और बुजुर्ग। केंद्र सरकार का मुख्यालय भी दिल्ली ही है। दिल्ली की कुर्सी पर तीन मर्तबा से शीला दीक्षित विराजमान हैं। वे खुद भी महिला हैं। इन परिस्थितियों में दिल्ली को दहलाने का साहस करना वाकई दुस्साहसिक कदम ही माना जाएगा। वह भी न्याय के मंदिर में। जहां सुरक्षा सबसे तगड़ी होती है। अगर दिल्ली का उच्च न्यायालय ही सुरक्षित नहीं है तो फिर भला सुदूर ग्रामीण अंचलों में कोई सुरक्षित हो सकता है?


कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को शायद जमीनी हकीकत समझ में आ गई हो। वे जब राम मनोहर लोहिया अस्पताल में घायलों से मिलने पहुंचे तब उन्हें भी काले झंडों और सरकार तथा उनके खुद के खिलाफ लगने वाले नारों का सामना करना पड़ा। अगर राहुल गांधी अपने विवेक से राजनीति कर रहे होंगे तो निश्चित तौर पर यह घटना उनकी आत्मा को कचोटने के लिए काफी कही जा सकती है। वे खुद भी लोकसभा में सांसद हैं। सत्ता में उनके दल की ही सरकार है। राहुल गांधी नेहरू गांधी परिवार (राष्ट्रपिता महात्मा गांधी नहीं) की पांचवीं पीढ़ी के लीडर हैं। इसलिए उनकी बात में अपने आप ही वजन पैदा हो जाता है।


यक्ष प्रश्न यह है कि 1. क्या राहुल गांधी संसद में इस मामले को लेकर गृह मंत्री की भूमिका पर सवाल उठाने का दुस्साहस कर पाएंगे? 2. क्या राहुल गांधी अपने साथ आरएमएल अस्पताल में हुए इस तरह के व्यवहार पर आत्मावलोकन करने का साहस जुटा पाएंगे? 3. क्या राहुल गांधी अपनी ही पार्टी के गृह मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम का त्यागपत्र मांगने का दुस्साहस कर पाएंगे? 4. क्या राहुल गांधी दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित से बतौर सांसद और जनता के नुमाईंदे कोई प्रश्न करने का दुस्साहस कर पाएंगे? 5. क्या कांग्रेस महासचिव की हैसियत से राहुल गांधी अपनी माता और कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी से इस मामले में कड़े कदम उठाने की मांग कर पाएंगे? इसके साथ ही देश की जनता के दिलो दिमाग में उठने वाले सारे प्रश्नों का उत्तर निश्चित तौर पर नकारात्मक ही होगा। इसका कारण यह है कि देश के सारे जनसेवकों की नैतिकता कभी की मर चुकी है।


दिल्ली पुलिस ने इसके पहले 25 मई को गेट नंबर सात के पास हुए धमाके से सबक नहीं लिया। दिल्ली में धमाके का स्थल संसद भवन से महज दो किलोमीटर तथा सुप्रीम कोर्ट से महज कुछ ही मीटर की दूरी पर था। अति संवेदनशील और व्हीव्हीआईपी इलाके में हुए इस बम धमाके ने आतंकवाद से निपटने की सरकार की नीति और दावों की कलई खोलकर रख दी है। सरकार अब तरह तरह की बातें कहकर देश की जनता को तो बहला सकती है, पर दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी से खुद का सामना शायद ही सरकार का कोई नुमाईंदा करने का साहस जुटा पाए।


जनता के चुने हुए नुमाईंदे अपने साथ कारबाईन युक्त सुरक्षा गार्ड रखा करते हैं। कुछ को सरकारी गार्ड पर भरोसा नहीं है, इसलिए वे निजी या किराए के पीएसओ पर यकीन रखते हैं और इनसे घिरे होते हैं। यह बात समझ से परे ही है कि जनता के द्वारा चुने हुए नुमाईंदे क्या अपनी रियाया से इतने भयाक्रांत हैं कि वे उनके बीच जाते वक्त भी तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था चाहते हैं। जिस जनता ने उन्हें अपने लिए चुना है उससे इन नुमाईंदों को भय कैसा?


सर्वाधिक आश्चर्य तो तब हुआ जब संसद की कार्यवाही के चलते इस घटना को नापाक इरादों के लोगों ने अंजाम दे दिया। गौरतलब है कि इसके पहले लगभग दस साल पहले 13 दिसंबर 2001 को देश की सबसे बड़ी पंचायत पर आतंकी हमला हुआ था। वह हमला आज तक समूचे देश का सर शर्म से झुकाने के लिए काफी माना जाता है। इसके बाद भी देश के शासक नहीं चेते। इसके बाद भी एक के बाद एक हमले होते रहे और शासक मौज करते रहे। हद तो तब हो गई थी जब 2008 में 26/11 को देश की आर्थिक राजधानी पर अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ। देश की हांफती सुरक्षा व्यवस्था का आलम यह है कि अतिसंवेदनशील उच्च न्यायायल के क्षेत्र में न तो सीसीटीवी ही काम कर रहे थे और न ही मेटल डिटेक्टर ही।


देखा जाए तो बीते दो दशकों से आतंकवाद पर सियासी पार्टियों का ध्यान कुछ ज्यादा ही केंद्रित हो गया है। हर एक राजनैतिक दल आतंकवाद के दर्द को उभारकर राजनीति करने से बाज नहीं आ रहा है। आतंकवाद के सफाए की ओर इन दलों का ध्यान जरा सा भी नहीं जा रहा है। मुंबई में 2008 में हुए आतंकवादी हमले के बाद देश के सबसे कमजोर समझे जाने वाले गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने त्यागपत्र देकर अपने आप को नैतिक रूप से काफी हद तक मजबूत पेश किया था। आज देश के गृह मंत्री जैसे पद पर पलनिअप्पम चिदंबरम विराजे हैं। जिन पर अनेकानेक आरोप हैं। कांग्रेस शायद भूल गई कि देश के गृह मंत्री के पद पर लौह पुरूष माने जाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसी हस्ती को भी कांग्रेस ने ही बिठाया था, जिनकी नैतिकता, कार्यप्रणाली और देशप्रेम के ज़ज़्बे को आज भी लोग सलाम करते हैं।


इस मामले में इलेक्ट्रानिक मीडिया में जिरह के दौरान भाजपा बड़ी बड़ी बातें करती है, पर भाजपा शायद यह भूल जाती है कि इसके पहले अटल इरादों वाले अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के गृहमंत्री रहे लाल कृष्ण आड़वाणी के कार्यकाल में खौफ का पर्याय बन चुके आतंकवादियों को सरकार ने अपने ही जहाजांे में ले जाकर कंधार में छोड़ा था। तब कहां गई थी इन नेताओं की नैतिकता?


इतना ही नहीं राजग के पीएम इन वेटिंग के गृह मंत्री के कार्यकाल में ही देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद पर आतंकवादी हमला हुआ, अक्षरधाम के रास्ते रघुनाथ मंदिर और अमरनाथ यात्रा के दौरान न जाने कितने निरीह लोगों को भूना गया। क्या देश के नेताओं की याददाश्त इतनी कमजोर हो गई है कि चंद साल पहले घटी घटनाओं को भी याद रखने में उन्हें परेशानी होने लगी है।


उधर मुंबई पर अगर आतंकी हमला न हुआ होता तो हिन्दुस्तान के नीति निर्धारकों की तंद्रा शायद ही टूट पाती। लोगों के आक्रोश, उद्वेलना और उन्मादी तेवर के आगे केंद्र सरकार को आम चुनावों का खौफ सताने लगा और आनन फानन ही सही पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) संशोधन विधेयक 2008 (यूएपीए) लाया गया। दोनों ही सदनों से इस विधेयक को बिना किसी ना नुकुर के पारित कर दिया। यूएपीए में एक नई धारा जोड़कर इसे और अधिक शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया गया है, जिसके मुताबिक अगर कोई व्यक्ति विस्फोटक, आग्नेय शस्त्र, घातक हथियार, खतरनाक विशाक्त रसायन, जैविक या रेडियोधर्मी हथियारों का उपयोग अथवा आतंकवादी, देश विरोधी गतिविधियों के लिए करना या सहयोग देता है, तो उसे सजा मिलेगी और इसे दस वर्षों तक बढ़ाया भी जा सकता है। इस विधेयक में यह भी प्रावधान किया गया है कि अगर कोई व्यक्ति देश अथवा विदेश में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आतंकवादी गतिविधियों के लिए धन का संग्रह करता है, तो उसे कम से कम 5 साल की कैद दी जा सकती है, जरूरत पड़ने पर कैद को आजीवन कारावास में भी तब्दील किया जा सकता है। यह कानून आज के समय में निष्प्रभावी ही प्रतीत हो रहा है।


एक अन्य पहलू पर अगर गौर किया जाए तो देश में आज आतंकवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद, महंगाई और बेरोजगारी के समकक्ष अगर कोई मुद्दा खड़ा हुआ है तो वह है, बंग्लादेशी घुसपैठियों का। हमारी सरकारें ना मालूम क्यों इस ज्वलंत और बेहद संवेदनशील मुद्दे पर कोई ठोस पहल नहीं कर रही है।


वैसे इसे कमोबेश निराशाजनक ही कहा जा सकता है कि देश के किसी भी राजनैतिक दल ने अब तक विधानसभा या लोकसभा चुनावों मंे बंग्लादेशी घुसपैठियों के मसले को छुआ तक नहीं है। मध्य प्रदेश में अलबत्ता सूबे के निजाम ने ज़रूर एक मर्तबा बंग्लादेशी घुसपैठियों को सूबे से बाहर निकालने की बात कही थी। कितने आश्चर्य की बात है कि देश में सभी राजनैतिक दल लोकसभा के चुनाव को भी स्थानीय निकायों के चुनाव की तरह ही स्थानीय मुद्दों पर लड़ रहे हैं। देश में फैली अराजकता, भ्रष्टाचार, अनाचार आदि के मसले पर सभी राजनैतिक दल कमोबेश एक जैसा ही राग अलाप रहे हैं। अलापें भी क्यों न अखिर सियासत में तो सभी एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं।


देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली की ही अगर बात की जाए तो यहां लगभग दस लाख से अधिक की तादाद में बंग्लादेशी निवास कर रहे हैं। बंग्लादेश से लुके छिपे सीमा पर कर भारत आए इन बंग्लादेशियों से जहां एक ओर आंतरिक सुरक्षा को खतरा है, वहीं दूसरी ओर ये स्थानीय संसाधनों और रोजगार पर भी कब्जा जमाते जा रहे हैं। खबरें तो यहां तक हैं कि इनके द्वारा बड़ी ही आसानी से राशन कार्ड, ड्रायविंग लाईसेंस, मतदाता पहचान पत्र आदि बनवाकर हिन्दुस्तानियों के हितों पर सीधे सीधे डाका डाला जा रहा है।


2009 अगस्त में उच्च न्यायालय ने सरकार और चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर बंग्लादेशी मतदाताओं की स्थिति स्पष्ट करने को कहा था, साथ ही साथ मतदाता सूचियों में से बंग्लादेशियों के नाम विलोपित करने को भी कहा था। मजे की बात तो यह है कि देश की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा के लिए सीधे सीधे जिम्मेदार गृह मंत्रालय भी यह स्वीकार करता है कि दिल्ली में अवैध तरीके से रह रहे बंग्लादेशियों की तादाद दस लाख के करीब है। कुछ साल पहले तक तो मध्य प्रदेश के खुफिया विभाग के पास उपलब्ध आकड़ांे में बंग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या महज ग्यारह ही दर्ज थी, जबकि उस वक्त वड़ी तादाद में ये मध्य प्रदेश में निवास कर रहे थे। आज देश में इनकी तादाद बढ़कर करोड़ों में पहुंच गई हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।


देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली सदा से ही आतंकवादियों के निशाने पर रही है, यही कारण है कि तमाम तरह की सावधानी बरतने के बावजूद भी आताताई अपने इरादों में कामयाब होकर वारदात कर निकल जाते हैं। इन परिस्थितियों में घुसपैठियों के पास राशन कार्ड और मतदाता परिचय पत्र होना संगीन बात मानी जा सकती है, क्योंकि देश में हुई अनेक गंभीर वारदातों में बंग्लादेशी आतंकी संगठन हूजी के हाथ होने के पुख्ता प्रमाण भी मिले हैं। राजधानी दिल्ली की लगभग डेढ़ करोड़ की आबादी में दस लाख बंग्लादेशियों का होना देश के सुरक्षा और खुफिया तंत्र में अनगिनत छेदांे को रेखांकित करने के लिए काफी है।

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