मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

निरंकुश है मीडिया, नकारा है प्रेस परिषद

निरंकुश है मीडिया, नकारा है प्रेस परिषद 
(ब्यूरो)
 
नई दिल्ली (साई)। टीम अन्ना के एक सदस्य अरविन्द केजरीवाल अगर राजीतिक दलों पर निशाना साध रहे हैं तो दूसरे महत्वपूर्ण सदस्य वरिष्ठ अधिवक्त प्रशांत भूषण मीडिया को निशाना बना रहे हैं। इन दिनों वे जहां जा रहे हैं मीडिया पर निगाह रखने की बात उठा रहे हैं। एक दिन पहले केरल में उन्होंने जो बातें कही थी, एक दिन बाद दिल्ली में एक मीडिया कार्यशाला में बोलते हुए उन्होंने फिर दोहराई कि मीडिया पर निगाह रखने की जरूरत है और इसके लिए प्रेस परिषद जैसी संस्थाएं नकारा साबित हो गई हैं इसलिए नागरिकों की स्वतंत्र संस्था बननी चाहिए।
प्रशांत भूशण कहते हैं कि मीडिया सभी पर निगाह रखती है, लेकिन अब जरूरत है कि मीडिया पर निगाह रखने के लिए नागरिकों की स्वतंत्र संस्था बने, जो पूरी तरह से स्वतंत्र रहे। उन्होंने कहा कि प्रेस काउंसिल जैसी संस्थाएं पूरी तरह से नकारा साबित हो गई हैं। जरूरत है कि नागरिक समाज की तरफ से ऐसी संस्था बने जो मीडिया के कामकाज और उसकी खबरों पर नजर रख सके। इस संस्था को कड़े कदम उठाने के अधिकार भी होने चाहिए। उन्होंने कहा कि मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, लेकिन कई बार वहां छपने वाली खबरें पूरी तरह से गलत और मनगढंत होती हैं। आतंकवाद के मामले में ऐसा कई बार हुआ है जब पुलिस के वर्जन को ही खबर बनाकर पेश किया जाता है। मीडिया में आतंकवादी करार दिये जाने के बाद कई ऐसे मुस्लिम युवाओं को अदालतों ने निर्दाेष करार दिया जिन्हें मीडिया आतंकवादी घोषित कर चुका था। प्रशांत भूशण ने मीडिया में और मीडिया पर शोध की जरूरत बताई।
श्री भूषण नई दिल्ली के दयाल सिंह कालेज में मीडिया स्टडीज ग्रुप द्वारा प्रकाशित जन मीडिया और मास मीडिया के लोकार्पण समारोह में बोल रहे थे। मासिक पत्रिका ‘जनपक्ष’ के संपादक चारू तिवारी ने उत्तराखंड के आंदोलनों का हवाला देते हुए कहा कि संस्करणों के प्रचलन से पहले उत्तराखंड में छोटे अखबार आंदोलनों की आवाज हुआ करते थे। पहाड़ों में चले शराबबंदी और पेड़ बचाओ आंदोलनों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि उस समय अखबारों ने लोगों को जोड़ने का काम किया। चारू तिवारी ने  आज के अखबारों की चर्चा करते हुए कहा कि अबके अखबारों ने लोगों को बांटा है। अलग-अलग संस्करणों के होने से एक जगह की खबर दूसरे जगह नहीं पहुंच पाती। भारतीय जन संचार संस्थान में एसोसिएट प्रोफेसर आनंद प्रधान ने कहा कि अभी तक मीडिया में शोध का जो प्रचलन रहा है वो बाजार केंद्रीत रहा है। टैम और रीडरषिप सर्वे अखबारों के लिए बाजार पैदा करने की जरूरत के चलते होते हैं। उन्होंने गैस, परमाणु उर्जा के लिए मीडिया लॉबिंग का हवाला देते हुए कहा कि इन सब को उजागर करने के लिए मीडिया पर शोध की सख्त जरूरत है।
दैनिक भास्कर के समूह संपादक रहे श्रवण गर्ग ने मीडिया पर दलाली और बाजारू होने के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि पत्रकारों के पास खबर की पुष्टि करने के लिए इतना समय नहीं होता। उन्होंने संस्करणों का बचाव करते हुए कहा कि अगर हर जगह की खबरों को एक ही अखबार में शामिल करेंगे तो 200 पेजों का अखबार निकालना होगा। उन्होंने कहा कि अखबार पूंजीपति या सरकार ही निकाल सकते हैं, सिविल सोसायटी अखबार नहीं चला सकती।
इससे पहले शोध जर्नल का परिचय कराते हुए इसके संपादक अनिल चमड़िया ने कहा कि हमने भारतीय भाषाओं में शोध को उभारने की कोशिश की है। उन्होंने कहा कि संस्करणों का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ रहा है जिस पर गंभीर शोध की आवश्यकता है। परिचर्चा का संचालन वरिष्ठ पत्रकार जसपाल सिंह सिद्धू ने किया। इस परिचर्चा में कई पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और छात्रों ने हिस्सा लिया।

(साभार विस्फोट डॉट काम)

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