शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

पवार उवाच ‘‘सड़ जाए अनाज पर मुफ्त नहीं बाटेंगे‘‘

भरे पेट लोगों को क्यों होने लगी भूखों की चिंता

भूखे पेट न हों भजन गोपाला

भुखमरी के आंकड़े हैं देश में भयावह

हजारों टन सड़ जाता है अनाज हर साल

लचर सरकारी सिस्टम है जवाबदार

(लिमटी खरे)

देश की सबसे बड़ी अदालत भले ही सरकार को फटकार लगाकर अनाज को सड़ने के बजाए गरीबों में मुफ्त बांटने की बात कह रही हो पर आधी सदी से ज्यादा देश पर राज करने वाली कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही केंद्र सरकार के कानों में जूं रेंगने वाली नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने एक ही पखवाड़े में दो बार सरकार को आड़े हाथांे लेते हुए अनाज के मामले में टिप्पणी की है। पिछले महीने के अंत में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जिस देश में लोग भुखमरी का शिकार हो रहे हों वहां अन्न का एक भी दाना बरबाद नहीं होना चाहिए। अब सर्वोच्च न्यायालय ने देश में सड़ते अनाज पर सरकार को फटकारा है कि अनाज के सड़ने के बजाए उसे गरीबों में निशुल्क बांट दिया जाना चाहिए। वैसे भी अन्न की बरबादी एक बहुत ही बड़ा अपराध ही माना जाता है।

दुनिया भर के भूखे लोगों में हर पांचवा शख्स भारतीय है। भारत में तकरीबन पचास फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इतना ही नहीं वर्ल्ड फुड प्रोग्राम का प्रतिवेदन बताता है कि देश के लगभग पच्चीस करोड़ लोग हर रात को आधे या भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। भूख सब कुछ करवा देती है। देश में तेजी से बढ़ता अपराध का ग्राफ भी कमोबेश यही कहानी कह रहा है कि खाने को तरसने वाले खाने के जुगाड़ में हर स्तर पर उतरने को तैयार हैं।

सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून बनाने पर विचार किया जा रहा है। यह खुशफहमी चंद दिनों के लिए जनता को हो सकती है कि उसके शासक उसकी दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने जा रही है। यक्ष प्रश्न यह है कि कानून बनाने से भला क्या फायदा जब उसका पालन ही सुनिश्चित न हो। शिक्षा के अधिकार कानून के बाद कितने राज्यों में इसे लागू किया गया है। और छोडिए जनाब यह बताईए कि केंद्रीय स्तर पर चल रही शिक्षण संस्थाओं में आरटीई के क्या हाल हैं?

कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में लोक लुभावन वादों के तहत यह भी कहा था कि गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) जीवन यापन करने वाले परिवारों को हर माह तीन रूपए की दर से पच्चीस किलो चावल उपलब्ध करवाएगी। यूपीए सरकार का यह दूसरा कार्यकाल का दूसरा साल है, पर बीपीएल परिवार आज भी दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद में ही उलझा हुआ है। सवाल यह है कि बीपीएल का आधार क्या है, किस लक्ष्मण रेखा के पार रहने वालों को बीपीएल माना जाए। देखा जाए तो संपन्न और ताकतवर लोग बीपीएल की सूची में अपना नाम दर्ज करवाकर सारे लाभ उठा रहे हैं, और वास्तविक बीपीएल आज भी कमर तोड़ मंहगाई में उलझा हुआ है।

इस सब पर अनाज सड़ने की खबरें जले पर नमक का ही काम करती हैं। एक ओर खाने को नहीं है दाना और दूसरी ओर हजारों टन अनाज को रख रखाव के अभाव में सड़वा दिया गया। कुछ साल पहले केंद्र सरकार के कृषि विभाग ने निजी तौर पर वेयर हाउस बनवाने के लिए तगड़ी सब्सीडी की घोषणा की थी। साधन और पहुंच सम्पन्न लोगों ने इस योजना का लाभ उठाकर अपने बड़े बड़े गोदाम अवश्य बनवा लिए। अनेक गोदाम तो महज कागजों पर ही बन गए और सब्सीडी डकार ली गई। सवाल फिर वही खडा हुआ है कि इन गोदामों को बनाने के लिए सरकार ने अपनी ओर से राशि क्यों दी थी, जाहिर है अनाज को सड़ने से बचाने के लिए इन वेयर हाउस को सरकार किराए पर लेती। सरकार को चाहिए था कि सब्सीडी देते समय ही इस बात की शर्त रख दी जाती कि बारिश के चार माहों के साथ आधे साल के लिए इन गोदामों को सरकार को किराए पर देना वेयर हाउस मालिक के लिए आवश्यक होगा, तभी सब्सीडी दी जाएगी। अगर एसा होता तो आज देश भर की कृषि उपज मंडियों के प्रांगड में पड़ा अनाज सड़ा न होता।

एसा नहीं है कि अनाज पहली बार सड़ा हो। साल दर साल अनाज के सड़ने की खबरें आम हो रही हैं। पिछले साल ही पश्चिम बंगाल के एक बंदरगाह पर अरबों रूपए की आयतित दाल सड़ गई थी। किसान के खून पसीने से सींचे गए अनाज के दानों को सरकार संभाल नहीं पाती है। एक अनुमान के अनुसार हर सल करीब पचास हजार करोड़ रूपए का अनाज सरकारी कुप्रबंध के कारण मानव तो क्या मवेशी के खाने के लायक भी नहीं बचता है। अमूमन बफर स्टाक के चलते सरकार द्वारा जरूरत से ज्यादा अनाज खरीद लिया जाता है, पर उसके रख रखाव के अभाव में यह सड़ जाता है।

जब अनाज के सड़ने की खबरें बाजार में आती हैं तो कालाबाजारी करने वाले जमाखोरों के चेहरों पर रोनक आ जाती है। जमाखोरों द्वारा इन स्थितियों में बाजार में जिंस की कृत्रिम किल्लत पैदा कर तबियत से मुनाफा कमाया जाता है। दरअसल भारतीय खाद्य निगम की व्यवस्थाओं में ही खोट है। भारतीय खाद्य निगम ने जगह जगह अपने गोदाम अवश्य बनाए हैं पर वे नाकाफी ही हैं। सरकार को चाहिए कि कृषि विभाग से अनुदान पाकर गोदाम बनवाने वालों की सूची जिला स्तर पर बनवाई जाए और उनका किराया निर्धारित कर हर जिले के कलेक्टर पर यह जवाबदारी डाली जाए कि उस जिले की कृषि उपज मंडियों के माध्यम से की जाने वाली सरकारी अनाज की खरीद के सुरक्षित रख रखाव का जिम्मा जिला कलेक्टर का ही होगा। अगर केंद्र सरकार द्वारा इस तरह का कड़ा कदम उठा लिया गया तो अनाज की बरबादी काफी हद तक रोकी जा सकती है।

वैसे अनाज के सुरक्षित भण्डारण के लिए कंेद्र सरकार को चाहिए कि वह राज्यों को वित्तीय सहायता मुहैया करवाकर राज्यों की जवाबदेही भी सुनिश्चित करे। जिलों में पदस्थ जिलाधिकारी चूंकि अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होते हैं, इस लिहाज से वे केंद्र सरकार के अधीन भी होते हैं, पर दूसरी तरफ देखा जाए तो जिला कलेक्टर सीधे सीधे राज्य शासन के प्रति जवाबदेह ज्यादा होते हैं, इस तरह जिला कलेक्टर पूरी तरह राज्यों के नियंत्रण में हुआ करते हैं। देखा जाए तो अनाज के सड़ने के लिए राज्यों की सरकारें भी कम जवाबदेह नहीं हैं। अमूमन राज्य सरकारें समय पर अपना निर्धारित कोटा नहीं उठाती हैं, इसीलिए अनाज सड़ भण्डारण के अभाव में सड़ जाता है। गरीब गुरबों के लिए आंसू बहाने वाली राज्य सरकारें इस दिशा में पूरी तरह से लापरवाह ही हैं।

इधर अनाज के सड़ने की खबर से देश की सबसे बड़ी अदालत का आक्रोश लोगों को दिखा वहीं सियासत के धनी केंद्रीय कृषि मंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार कह रहे हैं कि खाद्यान्न सड़ने की खबरों को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। शरद पवार का कथन और राज्य सभा में कृषि राज्य मंत्री प्रो.के.वी.थामस के दिए वक्तव्य में असमानता ही दिख रही है। अब केंद्रीय कृषि मंत्री का नया बयान आ गया है कि भले ही बर्बाद हो जाए अनाज पर गरीबों के मुफ्त में इसे नहीं बांटा जा सकता है। खुद कृषि मंत्री ने पिछले महीने ही लोकसभा में जानकारी दी थी कि 6 करोड़ 86 लाख रूपए मूल्य का 11 हजार 700 टन अनाज बर्बाद हो गया।

देश का कृषि मंत्रालय निर्दलीय पी.राजीव और के.एन.बालगोपाल के पूछे प्रश्न पर उत्तर देते हुए कहता है कि देश में एफसीआई के गोदामों में कुल 11 लाख 708 टन अनाज खराब हुआ है। 01 जुलाई 2010 की स्थिति के अनुसार भारतीय खाद्य निगम के विभिन्न गोदामों में 11,708 टन गेंहू और चावल खराब हो गया। पिछले साल 2010 टन गेहूं और 3680 टन चावल खराब हुआ था। 2008 - 2009 में 947 टन गेंहू और 19,163 टन चावल बरबाद हुआ था। वर्ष 2007 - 2008 में 924 टन गेंहू और 32 हजार 615 टन चावल खराब हुआ था। इस तरह देखा जाए तो तीन सालों में देश के एफसीआई के गोदाम कुल 3881 टन गेंहू और 55 हजार 458 टन चावल खराब हुआ था। इस तरह इस साल 01 जुलाई तक के खराब हुए अनाज को अगर मिला लिया जाए तो चार सालांे में देश में सरकारी स्तर पर कुल 71 हजार 47 टन अनाज बरबाद हुआ है।

सरकार चाहे केंद्र की हो राज्यों की हर कोई बस गरीब गुरबों की चिंता में दुबले होने का स्वांग ही किया करते हैं। वस्तुतः गरीब गुरबों की फिकर किसी को भी नहीं है। देश के नौकरशाह और जनसेवक जब विलासिता भरी जिंदगी जी रहे हों, उनके वेतन भत्ते आसमान को छू रहे हों, और उनका पेट भरा हो तो भला फिर उन्हें क्यों गरीब गुरबों की फिकर होने लगी। हां वे चिंता जरूर जताते हैं, पर वह चिंता सिर्फ दिखावटी ही होती है, क्योंकि अगर उन्होंने चिंता जताने का दिखावा नहीं किया तो चुनावों के दौरान उन्हें वोट क्यों देगी यही जनता।

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