सोमवार, 9 अगस्त 2010

बच्चों को शिक्षा देना क्या सिर्फ केंद्र की जवाबदारी!

गुरू बिन गोविंद दर्शन हों तो कैसे?

केंद्रीय विद्यालयों का स्तर भी होगा सुधारना

गरीब गुरबों के बच्चों की कौन करेगा फिकर?

(लिमटी खरे)

बहुत पुराना दोहा है -‘‘गुरू गोविंद दोउ खडे, काके लागू पाय! बलिहारी गुरू आपकी, गोविंद दियो बताए!!‘‘ इस दोहे के भावार्थ बचपन में गुरूजनों द्वारा बडे ही चाव से बताए जाते थे, कि जब गुरू और ईश्वर दोनों खडे हों तो किसके पैरों को स्पर्श कर आर्शीवाद लिया जाना चाहिए। गुरू को ईश्वर से बडा मानकर उसके पैर स्पर्श पहले करने की बात कही जाती थी, क्योंकि गुरू के बिना ईश्वर के बारे में ज्ञात कैसे हो सकेगा? आज के दौडते भागते युग में गुरूओं का टोटा साफ दिखाई पड रहा है, यही कारण है कि गोविंद अर्थात ईश्वर के प्रति आस्था कम सी होती प्रतीत हो रही है।

देश को दशा और दिशा देने का जिम्मा केंद्र सरकार पर है। केंद्र सरकार ही जब सदन में यह स्वीकार कर ले कि देश में छः से चौदह साल के बच्चों को शिक्षा देने के लिए बारह लाख गुरूओं का टोटा है तब फिर देश का भगवान ही मालिक कहा जाएगा। सरकारी तौर पर संचालित होने वाली शालाओं में अध्ययापन के स्तर, बुनियादी ढांचे को लेकर सदा से ही बहस और चिंता जताई जाती रही है।

केंद्र सरकार आरोप प्रत्यारोपों के जरिए यह कह देती है कि वह पर्याप्त धन मुहैया करवा रही है, पर राज्य सरकारें इस मामले में सहयोग प्रदान नहीं कर रही हैं, यही कारण है कि देश में शिक्षा का स्तर प्राथमिक कक्षाओं में गिरता जा रहा है। वैसे देखा जाए तो केंद्र सरकार का आरोप अपनी जगह सही है कि राज्यों की सरकारें इस दिशा में पर्याप्त ध्यान नहीं दे रही हैं।

आंकडों की बाजीगरी करने वाली केंद्र सरकार का तर्क है कि राज्यों के पास लगभग सवा पांच लाख शिक्षकों के पद आज भी रिक्त हैं, जिन्हें भरने में सूबों की सरकारें दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैं। राज्यों पर आरोप मढते वक्त केंद्र सरकार यह भूल जाती है कि केंद्रीय विद्यालयों की स्थिति क्या है। क्या केंद्रीय विद्यालयों में शिक्षकों की पर्याप्त संख्या है? केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन संचालित होने वाले सेंट्रल स्कूल में शिक्षकों की कमी से अब पालकों का केंद्रीय विद्यालय के प्रति रूझान कम हो गया है।

केंद्रीय विद्यालयों में केंद्रीय शिक्षा बोर्ड का पाठ्यक्रम लागू है। सीबीएसई के नार्मस बहुत ही सख्त हैं। अगर शिक्षकों की तादाद कक्षाओं और विद्यार्थियों के हिसाब से नहीं है तो उसकी मान्यता रद्द की जा सकती है। केंद्रीय विद्यालयों में अस्थाई या तदर्थ तौर पर शिक्षकों की नियुक्ति के विज्ञापन जब तब समाचार पत्रों में दिख जाते हैं। मतलब साफ है कि केंद्रीय स्तर पर ही शिक्षकों की नियुक्ति पूर्णकालिक के स्थान पर अंशकालिक करने पर ही जोर दिया जा रहा है।

वैसे शिक्षकों की कमी से जूझ रहे भारत गणराज्य में शिक्षा का अधिकार लागू करना किसी चुनौति से कम नहीं है। शिक्षा की नीति तय करने वाले केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सामने भी प्रशिक्षित शिक्षकों को पदस्थ करना टेडी खीर ही साबित हो रहा है। शिक्षकों की नियुक्ति के दौरान ही उसे वांछित आहर्ताएं पूरी करना होता है। अगर वह इसे पूरा करने में असमर्थ रहता है तो उसे नौकरी से हाथ धोना पडता है।

वहीं दूसरी ओर पहुंच के अभाव में अनेक प्रतिभाशाली बीएड डीएड की डिग्रीधारी शिक्षक आज भी ओवर एज होकर निजी शालाओं में दो से चार हजार की नौकरी करने पर मजबूर हैं। सरकार को चाहिए कि आयू बंधन में शिथिलता देकर विश्वविद्यालयों से बीएड या डीएड कर चुके शिक्षकों की नियुक्ति हेतु नियमों का सरलीकरण कर उनके निवास के आसपास के केंद्रीय विद्यालय में ही उन्हें नियुक्ति प्रदान करे ताकि शिक्षा के स्तर को सुधारा जा सके।

आज देश में बीएड कराने वाले निजी कालेज की बाढ देखकर लगने लगा है कि आने वाले समय में जो शिक्षक कथित तौर पर प्रशिक्षित की श्रेणी में आएंगे वे देश का भविष्य शायद ही संवार पाएं। कालेज से निकलने वाले युवा अनुभव के न होने पर बच्चों को क्या पाठ पढाएंगे यह बात तो अपने आप में शोध का विषय ही मानी जा सकती है। वस्तुतः बीएड या डीएड कालेज सिर्फ और सिर्फ पैसा बनाने की दुकान बनकर रह गए हैं। विचारणीय प्रश्न तो यह है कि जो शिक्षक भारी भरकम फीस देकर डिग्री लेगा, फिर चढोत्री देकर नौकरी पाएगा, क्या वह बच्चों को पढाने की स्थिति में होगा? जाहिर है इसका उत्तर नकारात्मक ही आएगा।

इन शिक्षकों के भरोसे केंद्र सरकार ‘‘सबको शिक्षा‘‘ का सपना कैसे साकार कर सकती है? देखा जाए तो देश में सरकारी स्कूलों में ढांचागत सुविधाओं का साफ अभाव दिखता है। अनेक शालओं के पास अपने भवन नहीं हैं, अनेक की बाउंड्रीवाल नहीं हैं, कहीं खप्पर हैं तो बारिश में चू रहे हैं, कहीं शाला प्रभावशाली लोगों के भैंसों का तबेला बन गई है, कही छात्राओं के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था नहीं है। सत्तर फीसदी शालाओं में तो बिजली ही नहीं है। 88 फीसदी शालाएं कम्पयूटर विहीन हैं।

वैसे सर्वशिक्षा अभियान, मध्यान भोजन आदि के चलते शालाओं में बच्चों की उपस्थिति बढी है, जिससे केंद्र सरकार अपनी पीठ ठोंक सकती है, पर सवाल वहीं जस का तस ही खडा हुआ है कि क्या महज शालाओं में बढती उपस्थिति की औपचारिकता को पूरा करके ही शिक्षा के अधिकार को परवान चढया जा सकता है? जमीनी हकीकत कहती है कि देश के साठ फीसदी स्कूल आज भी महज एक या दो शिक्षकों के भरोसे ही चल रहे हैं।

जैसे ही शिक्षा का अधिकार कानून केंद्र सरकार की महात्वाकांक्षी परियोजना में शामिल हुआ वैसे ही राज्य सरकारों के मुंह खुलने आरंभ हो गए। राज्यों ने इसे लागू करने के लिए और अधिक धन की मांग रख दी। हालात देखकर एसा प्रतीत होता है मानो देश की आने वाली पीढी को शिक्षा देने का ठेका सिर्फ केंद्र सरकार ने ले लिया हो। भारत की युवा होने वाली पीढी को शिक्षित करने के मामले में राज्य सरकारों का कोई नेतिक दायित्व मानो बनता ही न हो।

वस्तुतः देश के हर बच्चे को शिक्षा देने का काम केंद्र और राज्य सरकारों का है। केंद्र और राज्य सरकारें अगर इस मामले में ही आपसी तालमेल न बना पाएं तो उन्हें देश या राज्यों पर राज करने का हक नहीं है। जनसेवकों और नौकरशाहों के बच्चे तो नामी गिरामी स्कूलों मंे उम्दा और महंगी शिक्षा पा सकते हैं, पर गरीब गुरबे की फिकर करना भी इन्हीं जनसेवकों और नौकरशाहों का ही काम है, जिस महती जवाबदारी से वे बच ही रहे हैं।

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