गुरुवार, 9 जून 2011

कब तक कीटनाशक पिलाएगी सरकार!

कब तक कीटनाशक पिलाएगी सरकार!

(लिमटी खरे)


शीतल पेय के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बार बार की जाने वाली टिप्पणियां दर्शाती हैं कि बड़े व्यापारिक घरानों और कंपनियों की गड़बडि़यों के खिलाफ कार्यवाही करने में सरकार का रवैया किस कदर टालमटोल भरा होता है। सात साल पहले एक याचिका के जरिए ठंडे पेयों की बिक्री के लिए गुणवत्ता जांच और नियम तय करने की मांग की गई थी, उसके पूर्व विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सीएसई) ने अपने एक प्रतिवेदन में इस बात का खुलासा किया था कि इन पेय में किस खतरनाक हद तक कीटनाशकांे को मिलाया जा रहा है। इक्कीसवीं सदी के स्वयंभू योग गुरू बाबा रामदेव ने भी ठंडे पेय के एक विशेष ब्रांड के खिलाफ जेहाद छेड़ी थी, पर उनकी यह लड़ाई अब भ्रष्टाचार के शोर में दबकर रह गई है। कई दिनों से बाबा रामदेव ने भी ठंडे पेय के बारे में कोई वक्तव्य नहीं दिया है जो कि आश्चर्यजनक ही माना जा रहा है। गनीमत है कि भारत में बनने वाली दवाओं में इस्तेमाल होने वाले रसायनों के लिए मानकीकरण का काम पांच सालों बाद आरंभ हो ही गया है।

इक्कीसवीं सदी में स्वयंभू योग गुरू बनकर उभरे राम किशन यादव उर्फ बाबा रामदेव ने कोल्ड ड्रिंक के एक ब्रांड विशेष का नाम लेकर उसे ‘टायलेट क्लीनर‘ की संज्ञा तक दे डाली थी। इस पर देशव्यापी बहस भी छिड़ गई थी। जब देश के अनेक हिस्सों में उक्त ब्रांड के कोल्ड ड्रिंक ने कीटनाशक और वाकई में संडास की सफाई का काम किया तो लोगों की आंखें ख्ुाली और सरकार की तंद्रा भी टूटी थी। लोगों ने मंहगे टायलेट क्लीनर के स्थान पर उक्त शीतल पेय को अजमाया और कारगर पाया। इतना ही नहीं फसलों पर भी इसके छिड़काव के अच्छे प्रतिसाद सामने आए थे।
 
भारत गणराज्य की विडम्बना तो देखिए, बाजार में बिक रहे शीतल पेय में कीटनाशक की मिलावट का मामला सामने आने के सात सालों के बीत जाने के बाद भी सरकार ने इनके मानक तय नहीं किए हैं। जाहिर है शीतल पेय कंपनियों के ‘भारी और उपरी दबाव‘ के चलते देश की सबसे बड़ी पंचायत (संसद) में सत्ता और विपक्ष में बैठने वाले सरपंच (प्रधानमंत्री) और पंच (सांसद) अपनी रियाया के साथ ही साथ अपने कर्तव्यों के प्रति पूरी तरह उदासीन ही नजर आ रहे हैं।
 
सबसे अधिक आश्चर्य जनक और चैंकाने वाली बात तो यह है कि पश्चिमी सभ्यता को अंगीकार करने वाले हमारे देश के युवा इस बात को भूल जाते हैं कि देश में बिक रहे पेय पदार्थों में कीटनाशक की मात्रा यूरोपीय मानकों से एक दो या दस बीस नहीं वरन् 42 फीसदी अधिक पाई गई है। इसके लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति ने भी सरकार से जल्द से जल्द शीतल पेय संबंधी मानक तय कर उसे लागू करने की पुरजोर सिफारिश की थी। अब लगभग सात साल बीत चुके हैं किन्तु जल्द से जल्द का समय अभी भी नहीं आ सका है।
 
इस समिति ने अपना प्रतिवेदन सात साल पूर्व फरवरी 2004 को संसदीय पटल पर रख दिया था। किसी ज्ञात आज्ञात उपरी दबाव में एक बार फिर यह प्रतिवेदन फाईलों के अंदर चला गया। इसके बाद मार्च 2007 में एन.के.गांगुली की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञों की समिति ने केंद्र सरकार से कहा था कि शीतल पेय विशेषकर कोला के उत्पादों में कीटनाशक की मात्रा के मानक अवश्य ही लागू किए जाएं। उस वक्त केंद्र सरकार ने एक झुनझुना थमाते हुए अप्रेल 2009 तक मानक लागू करने का लक्ष्य निर्धारित किया था।
 
फरवरी 2003 में पहली बार कोला उत्पादों में कीटनाशक के मिले होने की बात को सामने लाने वाली संस्था ‘सेंटर फाॅर साईंस एण्ड एन्वायरमेंट‘ भी इस बात से खासी खफा है कि बात के सामने आने के बाद भी सरकार का रवैया ढुल मुल ही है। मजे की बात तो यह है कि सरकार अपने पंचों अर्थात सांसदांे की सेहत के प्रति तो फिकर मंद दिखाई पड़ रही है, यही कारण है कि संसद में शीतल पेय की आपूर्ति पर रोक लगा दी है किन्तु देश की रियाया के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करते हुए इसे बाजार में बिकने पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई है।
 
यहां उल्लेखनीय होगा कि सीएसई ने पिछले साल देश के अलग अलग हिस्सांे से कोका कोला और पेप्सी के ग्यारह विभिन्न ब्रांड के सत्तावन नमूने लिए थे। इसकी जांच से साफ हो गया था कि इनमें मिले खतरनाक तत्वों की मात्रा भारतीय मानक ब्यूरो के निर्धारित मापदण्ड से पच्चीस गुना अधिक थीं। चिकित्सकों की मानें तो ये तत्व शरीर की प्रतिरोधिक क्षमता को कम करके अनेक तरह की गंभीर बीमारियों का कारक हो सकते हैं।
 
लंबा अरसा बीत चुका है, साल दर साल कलेंडर के पन्ने फड़फड़ाते हुए बदलते गए किन्तु शीतल पेय में मानकों की बात जस की तस ही रही। इन सात से अधिक सालों में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने देश के सवा करोड़ लोगों के स्वास्थ्य की चिंता करना भी मुनासिब नहीं समझा है। हो सकता है इन शीतल पेय कंपनियों ने हमारे जनादेश प्राप्त जनसेवकों को मंुह बंद रखने के लिए भारी भरकम वजन रखा हो, किन्तु नेताओं को अपनी नैतिकता की वर्जना ता कम से कम याद रखनी चाहिए। हमें यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि भारत गणराज्य की सरकार द्वारा इन शीतल पेय बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे घुटने टेके जा चुके हैं।
 
स्वयंभू योग गुरू बाबा रामदेव के कथन से अनेक लोग प्रभावित हुए। उनहोंने अपने शौचालयों में लेट्रिन की सीट और टाईल्स को कोका कोला वाले शीतल पेय से साफ करके इसका चमत्कारिक असर देखा। फिर क्या था मंहगे टायलेट क्लीनर के स्थान पर लोगों के घरों में कोका कोला की सस्ती दो लीटर वाली बोतल ने अपना स्थान बना लिया। यह अलहदा बात है कि पेप्सी से भी टायलेट साफ हो सकता है किन्तु बाबा रामदेव तो कोका कोला मतलब टायलेट क्लीनर का नारा जो रट रहे थे। देश के अनेक स्थानों में किसानों ने भी काले रंग वाले कोका कोला का छिड़काव कीटनाशक के स्थान पर किया, ओर पाया कि वाकई उनकी फसलें कीट पतंगों से सुरक्षित थीं।
 
यहां एक स्थानीय चेनल द्वारा शराब की बुराई को दर्शाने वाले जनहित में जारी विज्ञापन का जिकर लाजिमी होगा। उस विज्ञापन में शराबी बेटे की लत छुड़ाने की गरज से उसके पिता द्वारा शराब पीने के दौरान शराब के गिलास में एक कीड़ा डाल दिया जाता है। पिता कहता है देखा बेटा शराब पीने से इस तरह मर जाते हैं। बेटा भी इक्कीसवीं सदी का था, सो तपाक से बोला -‘‘पिता जी, शराब इसलिए ही पीता हूं कि पेट के सारे कीड़े मर जाएं।‘‘
 
जब संयुक्त संसदीय समिति ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि देश में बिकने वाले शीतल पेय मंे कीटनाशक की मात्रा अंतर्राष्ट्रीय मानकांे से कई गुना अधिक है, और संसद तक में इसकी आपूर्ति रूकवा दी गई है, तब क्या कारण है कि देश की सवा करोड़ से अधिक जनता को इस धीमे जहर के जरिए मारा जा रहा है?
 
शीतल पेय कंपनियां भी बड़े मजे से कह रहीं है कि अगर सरकार शीतल पेय के अंतिम उत्पाद तक मानक लागू करती है तो वे इसका स्वागत करेंगी। यह बात सरकार को मुंह चिढ़ाने के लिए पर्याप्त है, किन्तु सरकार में बैठे हमारे मोटी चमड़ी वाले जनसेवकों को इससे लेना देना नहीं है। सरकार के पास असीमित अधिकार हैं। क्या सरकार यह कहकर इनकी बिकावली नहीं रूकवा सकती कि अंतिम उत्पाद तक तो हम बाद में जाएंगे, पहले जिसमें साबित हो चुका है, उसे रोका जाए।
 
सुकून की बात तो यह है कि भारत गणराज्य मंे बनाई जाने वाली जीवन रक्षक औषधियांे में प्रयोग में आने वाले रसायनों पर देश नहीं विदेशों में मचे धमाल के बाद भारत सरकार जागी और पांच साल पहले इनके मानकीकरण का काम आरंभ किया गया। केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण महकमे का यह दायित्व है कि वह इस बात को जांचे कि दवा मंे डाले गए तत्वों की मात्रा और स्तर क्या है? इसके अलावा इसका मानव जीवन पर प्रतिकूल असर तो नहीं पड़ रहा है। सरकार ने यह भी तय किया था कि अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरने के उपरांत ही दवाओं को विदेश भेजने की अनुमति दी जाएगी।
 
विदेश भेजने का मामला तो समझ में आता है किन्तु फिर यक्ष प्रश्न वही खड़ा हुआ है कि देशी ब्रांड क्या देश के नागरिकों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर नहीं डाल रहे हैं? सूचना के अधिकार में इस बात का खुलासा हुआ कि देश के बाजारों में खुलेआम बिकने वाली दवाओं में अल्कोहल, मरकरी, लेड और आर्सेनिक जैसे तत्वों की भरमार है। मजे की बात तो यह है कि जिन दवाओं को विदेशों ने अपने देश में प्रतिबंधित कर रखा है, उन दवाओं का आयात भारत गणराज्य की सरकार ने करने की खुली छूट प्रदान कर रखी है। औषधि निरीक्षक और ड्रग कंट्रोलर सिर्फ पैसा बनाने में लगे हुए हैं। देश में वे दवाएं खुलेआम बिक रही हैं, जिन्हें चिकित्सक की परामर्श पर्ची के बिना बेचा जाना प्रतिबंधित है। लोग नशे के लिए सस्ते इंजेक्शन बेरोकटोक खरीद रहे हैं।

सरकार द्वारा सरेराह जनता के स्वास्थ्य के साथ होते खिलवाड़ को देखा जा रहा है। सरकार द्वारा अपने सांसद भाईयों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर शीतल पेय की आपूर्ति संसद में रूकवा दी है, किन्तु देश भर मंे खुले आम बिक रही इस धीमी गति की मौत को रोकने की दिशा मंे सरकार द्वारा कोई कदम नहीं उठाए हैं। जब देश में विशाल जनादेश लेकर रियाया की भलाई अमन चैन का सपना दिखाकर संसद मंे सत्ता की मलाई चखने वाले तथा विपक्ष में बैठकर पहरेदारी करने वाले जनता की ओर से मुंह मोड़ लें तो इस तरह की विदेशी और देशी कंपनियां अपने फायदे के लिए सरेराह देश की जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ न करें तो क्या करें?

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