रविवार, 10 जुलाई 2011

भूरिया के बूते नहीं उबरने वाली कांग्रेस

भूरिया के बूते नहीं उबरने वाली कांग्रेस

उखड़ चुके हैं कांग्रेस के मध्य प्रदेश में पैर

ताबूत की आखिरी कील थी 2003 का विधानसभा चुनाव

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। गुटांे में बटी मध्य प्रदेश की कांग्रेस का सदमे से उबरना अब मुश्किल ही प्रतीत हो रहा है। 2003 के बाद मध्य प्रदेश में कांग्रेस का जो सूपड़ा साफ हुआ है उस सदमे से आठ सालों के बाद भी कांग्रेस उबर नहीं सकी है। मध्य प्रदेश कोटे से केंद्र में मंत्री कमल नाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कांतिलाल भूरिया और अरूण यादव ने भी प्रदेश में कांग्रेस को जिलाने का प्रयास नहीं किया है।

2003 में राजा दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में लड़े गए विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए ताबूत की आखिरी कील साबित होता जा रहा है। कांग्रेस ने इसके बाद जो आत्मविश्वास खोया वह न तो सुभाष यादव के नेतृत्व में और न ही सुरेश पचौरी के नेतृत्व में कांग्रेस को वापस मिल पाया। कांग्रेस के वर्तमान निजाम कांतिलाल भूरिया के कदमों को देखकर लगने लगा है कि कांग्रेस का रसातल से उबरना मुश्किल ही है।

आलम यह है कि अब तो उपचुनावों में ही कांग्रेस अपनी परंपरागत समझी जाने वाली सीटों को ही खोती जा रही है। जमुना बुआ द्वारा सींची गई धार जिले की सीट कांग्रेस के हाथों से फिसल गई। इसके बाद 15 साल से कांग्रेस के कब्जे वाली सोनकच्छ विधानसभा से उसे हाथ धोना पड़ा। धीरे धीरे भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा का इकबाल बुलंद होता गया और भाजपा ने हेट्रिक लगाते हुए 18 साल से कांग्रेस के कब्जे वाली दमोह जिले की जबेरा सीट हथिया ली।
आंकड़ों की बाजीगरी के पुरोधा समझे जाने वाले मध्य प्रदेश के कांग्रेसी क्षत्रपों द्वारा बार बार कांग्रेस की पराजय के बाद भी आलाकमान के सामने वोट का परसेंटेज बढ़ने की बात कहकर भरमाया जा रहा है। जमीनी हालातों से अनजान कांग्रेस आलाकमान को भी इस बात से कुछ लेना देना नहीं है कि कांग्रेस की सीटों में तेजी से कमी दर्ज की जा रही है।

2004 के बाद केंद्र में सत्ता की मलाई चखने वाले कमल नाथ, सिंधिया, भूरिया और अरूण यादव ने समूचे मध्य प्रदेश के बजाए अपने अपने संसदीय क्षेत्रों का भी भ्रमण ठीक तरीके से नहीं किया है। कांग्रेस के रसातल में जाने की खबर इन नेताओं को भली भांति है। सत्ता के मद में चूर इन नेताओं को इस बात की परवाह भी नहीं रही कि इनके समर्थकों की तादाद में भी तेजी से कमी आई है। जब इन्हें अपने समर्थकों की परवाह नहीं तो फिर भला कांग्रेस के बारे में ये क्यों सोचने लगे?

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