मंगलवार, 26 जून 2012

भाड़ में जाए भाजपा


भाड़ में जाए भाजपा

(प्रेम शुक्ला / विस्फोट डॉट काम)

वैसे तो महाराष्ट्र की पूरी हिन्दूवादी राजनीति बिहार विरोध के नाम पर चलती है लेकिन एक मौका ऐसा आया है जब बिहार महाराष्ट्र एक दिखाई दे रहे हैं. बिहार के सेकुलर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और महाराष्ट्र के हिन्दू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे एक मत से राष्ट्रपति पद के लिए प्रणव मुखर्जी का सपोर्ट कर रहे हैं. संयोग से दोनों ही राष्ट्रीय जनतांत्रित गठबंधन के सदस्य हैं. लेकिन राजनीतिक सच्चाई यह है कि महाराष्ट्र की शिवसेना हो या फिर बिहार की जदयू दोनों ही दल भाजपा नेतृत्व और उसके मातृ संगठन के व्यवहार से अक्सर परेशान रहते हैं. भाजपा द्वारा शिवसेना के समर्थन पर सवाल खड़ा करने पर शिवसेना के मुखपत्र सामना के संपादक प्रेम शुक्ल भाजपा पर पलटवार करते हुए कई सवाल पूछ रहे हैं. उन्होंने यह लिखा तो नहीं है लेकिन उनके लिखने का मतलब यही है कि अगर भाजपा को शिवसेना की चिंता नहीं है तो उनको भी भाजपा की कोई चिंता नहीं है.
राष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवारों के समर्थन के मुद्दे पर राष्ट्रीय राजनीति के वर्तमान गठबंधनों के समीकरण पर नए सिरे से बहस छिड़ गई है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) ने वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को अपना उम्मीदवार घोषित किया तो मुखर्जी के गृह प्रदेश पश्चिम बंगाल से ही संप्रग के घटक दल तृणमूल कांग्रेस ने उनके नाम की मुखालफत कर दी। आज दिन तक यह नहीं तय हो पाया है कि तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बनर्जी आखिर किसे समर्थन देंगी? 2004 से 2009 की अवधि में ममता बनर्जी और पूर्णाे संगमा में गठबंधन हुआ था। सो राजनीतिक विश्लेषक अनुमान लगा रहे थे कि प्रणव मुखर्जी की मुखालफत की स्थिति में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के उम्मीदवार पी.ए. संगमा को ममता बनर्जी समर्थन देने को उत्सुक रहेंगी।
क्या नए समीकरण तैयार होंगे?रू बीते सप्ताह संगमा ने ममता दीदी से मुलाकात के लिए बारंबार संपर्क किया पर ममता ने उन्हें मिलने का समय ही नहीं दिया। प्रणव मुखर्जी की उम्मीदवारी का हिंदुहृदयसम्राट शिवसेनाप्रमुख श्री बालासाहब ठाकरे ने खुलकर समर्थन किया तो दिल्ली के राजनीतिक विश्लेषक इसे राजग की फूट का संकेत मानने लगे। चार दिन बाद जनता दल (यूनाइटेड) ने भी अपना समर्थन प्रणव मुखर्जी को घोषित कर दिया तो कुछ टिप्पणीकारों ने राजग की मर्सिया पढ़ने की शुरूआत कर दी। संप्रग और राजग में राष्ट्रपति प्रत्याशी के नामांकन पर मतभेद जाहिर हैं, वाममोर्चा भी इस मुद्दे पर बंट गया। फॉरवर्ड ब्लॉक और आरएसपी ने चुनाव प्रक्रिया से दूर रहने का फैसला किया है। न वे संगमा को वोट देंगे और न ही मुखर्जी को। राष्ट्रपति चुनावों की अधिसूचना जारी होने के पहले सर्वसम्मति से चुनाव कराने की चर्चा चली थी। अधिसूचना जारी होने के बाद एक उम्मीदवार पर सर्वसम्मति बनना तो दूर गठबंधन के प्रत्याशियों पर गठबंधनों में ही मतभेद उभर आए। सवाल पैदा होता है कि क्या इस चुनाव के बाद गठबंधनों के नए समीकरण तैयार होंगे? क्या राजग के घटक दल संप्रग में और संप्रग के घटक दल राजग में शामिल होंगे? जो दोनों से बाहर हैं क्या वे नया ध्रुवीकरण करेंगे? क्या राष्ट्रपति चुनाव नई राजनीतिक प्रक्रिया का आगाज है?
उजागर हुआ भाकड़ भाजपाइयों का ज्ञानरू हम पहले शिवसेना द्वारा प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने के मुद्दे से उत्पन्न प्रश्नों के उत्तर समझ लें। शिवसेनाप्रमुख का प्रणव को समर्थननार्थ जारी पत्र सामनामें जैसे ही प्रकाशित हुआ तत्काल भारतीय जनता पार्टी के महाराष्ट्र इकाई के अध्यक्ष सुधीर मुनगंटीवारने इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार देकर शिवसेना पर हमला बोलने का खोखला प्रयास किया। उनका तर्क था कि शिवसेना के इस फैसले से लोकसभा चुनावों के समय मतदाताओं में गलत संदेश जाएगा। उनका दूसरा तर्क था कि चुनावों के बाद त्रिशंकू लोकसभा की स्थिति में कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाला राष्ट्रपति सरकार बनाने की प्रक्रिया में कांग्रेस हित में पक्षपात कर सकता है। श्री मुनगंटीवार और उनके जैसे भाकड़ भाजपाइयों के इतिहास ज्ञान की क्षुद्रता इन तर्कों से सार्वजनिक हुई। पहली बात तो यह कि आज दिन तक किसी लोकसभा चुनाव पर राष्ट्रपति चुनावों के परिणाम का कोई प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ है। मुनगंटीवार ने चंद्रपुर के किस चंगूराम विशेषज्ञ से इस तरह के प्रभाव का ज्ञान अर्जित किया यह वही बेहतर बता सकते हैं। यह बात तो कोई अदना भाजपाई भी बता देगा कि अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की राजनीतिक समझ मुनगंटीवार की तुलना में बेहतर होना चाहिए। यदि राष्ट्रपति चुनाव लोकसभा चुनावों पर परिणाम डालते तो 1997 में क्या अटल-आडवाणी कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाले राष्ट्रपति प्रत्याशी के.आर. नारायण को समर्थन देते? 2014 में भाजपा के नेतृत्व में सत्ता संपादन की संभावना की तुलना में 1997 में भाजपा के सत्ता संपादन की संभावना बेशक बेहतर थी। फिर नारायणन को समर्थन देने का खतरा भाजपा ने क्यों लिया होगा? मुनगंटीवार जैसे भाजपाइयों के राजनीतिक स्मृति संभवतः संक्षिप्त है वर्ना उन्हें जरूर याद होता कि 1997 के राष्ट्रपति चुनावों के दौरान राजग के केवल तीन सदस्य हुआ करते थे-भाजपा, शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल।
शिवसेना जाति-धर्म राजनीति की विरोधीरू जब प्रथम दलित राष्ट्रपति के नाम पर भाजपा का कमलकांग्रेस के हाथकी शोभा बढ़ा रहा था तब भी शिवसेना ने भाजपा के फैसले से हटकर निर्णय लिया था। शिवसेनाप्रमुख जाति और धर्म के नाम की राजनीति का हमेशा प्रखर विरोध करते आए हैं। इसलिए जब जाति के नाम पर राष्ट्रपति चुना जाने लगा तो शिवसेना ने पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त टी.एन. शेषन की उम्मीदवारी को समर्थन दिया था। तब मुनगंटीवार जैसे बयानबाज भाजपा में नहीं उभरे थे। अटल-आडवाणी ने कभी नहीं कहा कि शिवसेनाप्रमुख आपके इस फैसले से लोकसभा चुनावों पर विपरीत परिणाम पड़ेंगे। महाराष्ट्र भाजपा के मामलों में तब महाजन और मुंडे का एकाधिकार चलता था। उनकी तरफ से भी कभी कोई आपत्ति नहीं दर्ज कराई गई। श्री मुनगंटीवार का दूसरा तर्क है कि त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में कांग्रेस पृष्ठभूमि वाला राष्ट्रपति पक्षपातपूर्ण फैसला कर सकता है। उनकी यह आशंका भी निराधार है। 1996 में पहली बार भाजपा के प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने शपथ ली थी। तब त्रिशंकु लोकसभा थी। भाजपा के पास कुल 161 सांसद थे तो कांग्रेस के पास 144 सांसद। उन दिनों कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाले डॉ. शंकरदयाल शर्मा राष्ट्रपति पद पर थे। भाजपा को सिर्फ शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल के सांसदों ने समर्थन घोषित किया था। हर कोई जानता था कि लोकसभा में स्पष्ट बहुमत तो दूर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार200 सांसदों का समर्थन भी जुटा जाने की स्थिति में नहीं है। दूसरी तरफ यदि डॉ. शंकर दयाल शर्मा निमंत्रण दे देते तो कांग्रेस संसदीय दल के नेता पी.वी. नरसिंहराव सामान्य बहुमत जुटाने का जुगाड़ कर सकते थे। डॉ. शंकर दयाल शर्मा को राष्ट्रपति पद पर नरसिंहराव ने पहुंचाया था। इसलिए राव को कृतज्ञता ज्ञापित करने का उनके पास अवसर था। डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने वैचारिक निष्ठा को किनारे कर लोकसभा में सबसे बड़ा दल होने के मापदंड पर अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए निमंत्रित किया। सरकार 13 दिन चली थी।
मुनगंटीवार के पास प्रमाण है?रू 1998 और 1999 में भी जब अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए निमंत्रण मिला तब राष्ट्रपति भवन में कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति और लोकसभा त्रिशंकु थी। राष्ट्रपति भवन से कभी कोई कुटिल दांव नहीं खेला गया। 2004 में भाजपा द्वारा प्रस्तावित और सर्वसम्मति से निर्वाचित डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति थे। कांग्रेस और भाजपा क्रमशः प्रथम और द्वितीय क्रमांक के दल बनकर लोकसभा में उभरे थे। दोनों की सीटों की संख्या में सिर्फ 6 का अंतर था। तब डॉ. कलाम ने कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए निमंत्रित करने में कोई संकोच नहीं किया। क्या सुधीर मुनगंटीवार के पास ऐसा कोई ठोस प्रमाण है जो सिद्ध करता हो कि प्रणव मुखर्जी की संविधान में डॉ. शंकर दयाल शर्मा, के.आर. नारायणन और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की तुलना में कम निष्ठा है? फिर उनका दुराग्रह मुखर्जी के ख्लिाफ है या शिवसेना के खिलाफ? श्री मुनगंटीवार कहते हैं कि कांग्रेसी मुखर्जी को समर्थन देने से जनता में गलत संदेश जाएगा? आखिर उनके जैसों के पास, कौन-सा साबुन है जिसने एक दिन में पी.ए. संगमा की कांग्रेसी पृष्ठभूमि को धो डाला? पी.ए. संगमा 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी नस्ल पर नाराज होकर कांग्रेसी से भागे थे। 2009 में अपनी बेटी अगाथा संगमा को केंद्रीय मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री का पद दिलाने के लिए यही संगमा 10, जनपथ की सीढ़ियां चूम बाए थे? यदि मुखर्जी पक्षपात कर सकते हैं तो अपने बेटे को मेघालय का मुख्यमंत्री बनाने या बेटी को केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनाने के लिए संगमा क्यों समझौता नहीं कर सकते?
नासिक में क्यों हुए नतमस्तक?रू अब रही बात जनता में गलत संदेश जाने की। बीते दिनों नासिक महानगरपालिका में त्रिशंकु सदन बना। शिवसेना ने भाजपा का महापौर प्रस्तावित किया। इन्हीं सुधीर मुनगंटीवार से शिवसेना नेताओं की कई चरणों में वार्ता चली। आखिरी पल तक मुनगंटीवार सहमति में मुंडी हिलाते रहे पर आखिरी दिन अचानक महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के महापौर को समर्थन देकर भाजपा ने दगा दे दिया। तब इन मुनगंटीवार का गठबंधन धर्म क्या गोदावरी में डूब गया था? भाजपा के पास राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक उम्मीदवारतक नहीं। वह उस जनता दल और आल इंडिया अण्णा द्रमुक से संगमा की उम्मीदवारी सांझा कर रही है जो कई मौकों पर भाजपा की नैया डुबा चुके हैं। जयललिता 1998-99 में भाजपा के वार्ताकारों को दिनोंदिन चेन्नई में प्रतीक्षा कराया करती थीं तो नवीन पटनायक ने 2009 में भाजपा के वार्ताकार को मिलने लायक भी नहीं माना था। इसलिए यदि भाजपा नेतृत्व के पास गठबंधन के निःस्वार्थ साथी शिवसेना पर बयान देने की तमीज होती तो उसे श्री मुनगंटीवार के बयान पर आपत्ति होनी चाहिए थी। शिवसेना ने 1997 में भाजपा समर्थित राष्ट्रपति प्रत्याशी का विरोध किया, पर 1998 और 1999 में भाजपा के प्रधानमंत्री प्रत्याशी को बिना शर्त समर्थन दिया। राजग के सभी घटकदलों ने भाजपा नेतृत्व से सांसदों के संख्याबल के आधार पर मंत्रियों की संख्या और विभागों का सौदा किया था।
हर हरकत का जवाब दोरू शिवसेनाप्रमुख ने कभी समर्थन के बदले सौदा नहीं किया। सुधीर मुनगंटीवार और नितिन गडकरी चाहें तो प्रभुराम की शपथ देकर भाजपा के वयोवृद्ध नेतृत्व से इस सत्य की पुष्टि कर सकते हैं। 2007 में शिवसेना ने महाराष्ट्र के स्वर्ण जयंती वर्ष (2009) के निमित्त मराठी महिला होने के चलते प्रतिभाताई पाटील को समर्थन दिया। 2009 में जब भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री घोषित किया तो शिवसेना ने कब उनको समर्थन देने में संकोच किया? सुधीर मुनगंटीवार ने एक पत्रकार सम्मेलन लेकर एक व्यंग्य कसा कि शिवसेनाप्रमुख से पूछना चाहिए कि क्या प्रणव मुखर्जी अफजल गुरु को फांसी देंगे? शिवसेनाप्रमुख व्यंग्यचित्रकार हैं और जरूरत समझने पर वे ऐसे घटिया सवाल का धारदार जवाब देंगे। यदि किसी पद के समर्थनार्थ यही सवाल पूछने हों तो कृपया सारे भाजपाई मिलकर बताएं- राम मंदिर कब बनवाओगे? कश्मीर में धारा 370 कब उठवाओगे? समान नागरिक कानून पर भाजपा कब फैसला करेगी?
शिवसेना और भाजपा का गठबंधन तो हिन्दुत्व के आधार पर था। हिन्दुत्वपर अपनी भूमिका पर भाजपा कब लौटेगी? 1995 के पहले गोपीनाथ मुंडे और प्रमोद महाजन कहते थे कि हमारी सरकार आई तेा हम दाऊद इब्राहिम को पकड़ लाएंगे? गोपीनाथ मुंडे पांच साल महाराष्ट्र के गृहमंत्री रहे, केंद्र में भी भाजपा का गृहमंत्री 6 वर्षों तक था। दाऊद तो वापस नहीं आया उलटे जसवंत सिंह अफजल गुरु के सरगना मौलाना अजहर मसूद को कंधार छोड़ आए। सुधीर भाऊ मुनगंटीवार कृपया बताओ क्या दाऊद को आप अब भी वापस लाओगे? अजहर मसूद को कंधार छोड़नेवाले और मोहम्मद अली जिन्ना की स्तुतिगान करने वाले जसवंत सिंह रामभक्तोंपर अयोध्या में गोलियां चलवाने वाले मुलायम सिंह यादव से उपराष्ट्रपति बनने के लिए समर्थन मांगने पहुंच गए थे। जसवंत की इस हरकत का जवाब किस भाजपाई के पास है?
(लेखक मुंबई से प्रकाशित हिन्दी सामना के कार्यकारी संपादक हैं)

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