शुक्रवार, 22 जून 2012

राम रोटी और राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति


राम रोटी और राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति

(संजय तिवारी)

जो रोज बदले वही राजनीति। कम से कम राष्ट्रपति चुनाव में इस बार सच सामने आ रहा है। विकेन्द्रित लोकतंत्र के अतिकेन्द्रित स्वार्थी दलों के दो समूहों, यूपीए और एनडीए के छापामार दल अपनी अपनी गोटियां बिछाकर दांव चल रहे हैं। अगर यूपीए से दूर जाकर ममता बनर्जी अपना उम्मीदवार खोज लाती हैं तो यूपीए के उम्मीदवार को एनडीए के दो क्षेत्रीय क्षत्रप समर्थन का ऐलान कर देते हैं। खुद राम की पार्टी भी ज्यादा देर तक दोराहे पर खड़ी नहीं रह सकती थी इसलिए कलाम के मना कर देने के बाद संगमा को समर्थन देने का ऐलान कर दिया तो एनडीए अध्यक्ष शरद यादव ने अपने जनता दल की ओर से भरे मन से ही सही प्रणव मुखर्जी की उम्मीदवारी को समर्थन देने की तैयारी बता दी।
भरे मन से इसलिए क्योंकि कल तक एनडीए की बैठकों में शरद यादव अटल बिहारी वाजपेयी बने हुए थे। उन्हें उम्मीद थी कि या तो भाजपा प्रणव के नाम पर मान जाएगी नहीं तो फिर नीतिश कुमार तो एनडीए उम्मीदवार को अपना समर्थन दे देंगे। दोनों बातें नहीं हुई। भाजपा प्रणव मुखर्जी के नाम पर तैयार इसलिए नहीं हुई क्योंकि उसे एनडीए में एक और संभावित आगंतुक आता हुआ दिखाई दे रहा है। वह तमिलनाडु से जयललिता हैं। जयललिता और नवीन पटनायक से मिलने के बाद ही पूर्णाे संगमा ने राष्ट्रपति उम्मीदावरी की दावेदारी की थी। ये दोनों ही पहले एनडीए में शामिल रह चुके हैं इसलिए भाजपा के लिए राष्ट्रपति चुनाव के जरिए आम चुनाव की राजनीति ठीक करने का यह एक बेहतर मौका था। उसने वह करने की कोशिश भी की।
लेकिन फिर क्या कारण था कि नीतिश कुमार नाराज हो गये? नीतीश कुमार के ऊपर कांग्रेस के काफी ऋण हैं। खासकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के। नीतीश कुमार की दूसरी बंपर जीत और कांग्रेस की सुपर बंपर हार के पीछे ईवीएम की गड़बड़ियों का आरोप तो लालू कब का लगा चुके हैं। उस वक्त जब बिहार में विधानसभा चुनाव हो रहे थे तब कांग्रेस लालू को सबक सिखाने के अभियान पर थी। लालू ने सबक सीख भी लिया और आफ द रिकार्ड भले ही मैडम सोनिया गांधी को कोसते हों आन द रिकार्ड वे सोनिया की तारीफ करते नहीं थकते हैं। शायद यही कारण है कि प्रणव मुखर्जी की उम्मीदवारी का ऐलान होने के बाद प्रधानमंत्री ने एनडीए के एक घटक दल के मुख्यमंत्री से सीधे बात की वह नीतिश कुमार थे। दोनों में क्या बात हुई यह तो वे ही दोनों जानें लेकिन प्रधानमंत्री के इस फोन के बाद कम से कम जदयू का प्रणव के साथ जाना तय हो गया था। वैसे भी सेकुलरिज्म की साफ राजनीति करनेवाले समाजवादी नीतिश के लिए भाजपा का भगवा रंग बोझ बन गया है। कम से कम आगामी लोकसभा चुनाव वे बिहार में अकेले अपने दम पर लड़ना चाहते हैं इसलिए अभी से किनाराकशी उनके लिए वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए फायदे का सौदा है। वैसे भी उत्तर प्रदेश में अकेले मैदान में उतरकर भाजपा ने जदयू को औकात बता दी थी, अब मौका मिलने पर जदयू भाजपा को भला क्यों छोड़ देती?
लेकिन नीतीश के इस फायदे के सौदे से शरद यादव के लिए और बड़ा संकट पैदा हो जाता है। शरद यादव न केवल नीतीश की पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं बल्कि एनडीए के अटल बिहारी भी हैं। नीतीश से उनका रिश्ता कभी मधुर नहीं रहा है। अब तो और भी नहीं जब दिल्ली और बिहार दोनों जगह एक ही बैनर तले एक ही राजनीतिक दल दो दो अलग अलग धड़ों में काम करता है। बिहार की जमीनी हकीकत से शरद को ज्यादा फायदा नुकसान नहीं है। उनको फायदा और नुकसान दिल्ली दरबार के अंकगणित से है। शायद इसीलिए अपने छोटी सी प्रेस कांफ्रेस में लंबे समय तक एनडीए का एका बनाये रखने की वकालत करने के बाद पी ए संगमा को समर्थन देने का ऐलान कर दिया। शरद की मजबूरियां साफ दिखती हैं। एनडीए का एका इसलिए क्योंकि इससे उनका दिल्ली का कद तय होता है लेकिन बिहार का आका इसलिए क्योंकि बिहार से उनको वह जमीन मिलती है जिस पर खड़े होकर वे दिल्ली दरबार में दस्तक देते हैं। इसलिए तारीफ भले ही उन्होंने एनडीए की की लेकिन समर्थन प्रणव बाबू को ही देने का ऐलान किया। आका की अकड़ का सवाल था।
इस सबके बीच जयललिता और मोदी की जुगलजोड़ी ने भी कमाल किया। अगर भाजपा ने संगमा को कमजोर तर्कों के साथ समर्थन देने का ऐलान किया है तो इसके पीछे की सच्चाई यह है कि संगमा को समर्थन देकर भाजपा मोदी की बात मान रही है और मोदी जयललिता की बात मान रहे हैं। भाजपा भी जानती है कि संगमा हारने के लिए मैदान में उतर रहे हैं। सुषमा स्वराज ने जिस तरह से प्रेस कांफ्रेस में लोकतंत्र में चुनाव की दुहाई दी वह उनकी हताशा भी बताती है और कमजोरी भी दिखाती है। लेकिन मानों पूरी पार्टी मोदी के आगे नतमस्तक है। क्योंकि इस बीच आडवाणी और अम्मा की भी मुलाकात हो चुकी है इसलिए संगमा को समर्थन देकर अम्मा को खुश करने का मौका बीजेपी अपने हाथ से भला क्योंकर जाने देगी?
संगमा और बीजेपी के इस संगम में जयललिता और नवीन पटनायक तो सध गये लेकिन गफलत में शिवसेना दूर हो गई। गफलत इस लिहाज से कि शिवसेना को लगता था कि हर बार बीजेपी उनसे अपनी बात मनवाती है लेकिन इस बार हो सकता है वह शिवसेना की सलाह मान ले। इसलिए बाल ठाकरे ने सामना में खुली सलाह दी कि प्रणव के बारे में सोचना चाहिए। भाजपा सोच भी लेती अगर जया अम्मा आड़े नहीं आती। जब तक स्थिति स्पष्ट होती शिवसेना के समर्थन का डंका बजाया जा चुका था। अब मुश्किल है कि बीजेपी की अपील के बीद शिवेसना पुनर्विचार करे। अगर वह करती है तो कम से कम एनडीए को थोड़ी राहत जरूर मिल जाएगी। लेकिन बीजेपी और शिवसेना का रिश्ता भी नीतिश और शरद वाला ही है। बीजेपी को लगता है वह राष्ट्रीय दल है और असली वाला हिन्दुत्व उसी के पास है। उसका मातृ संगठन भी उसी महाराष्ट्र से आता है जहां से शिवेसना आती है। इसलिए वह शिवसेना को छोटा भाई कहने के बाद भी कसाई जैसा ही व्यवहार करती है। यह बात शिवसेना को अक्सर चुभती है लेकिन राज्य में फिलहाल शिवसेना के पास ऐसा दूसरा कोई विकल्प नहीं है कि भाजपा का संग साथ छोड़कर कहीं और आशियाना लगा लिया जाए। प्रणव बाबू के फोन से बालासाहेब आह्लादित तो हुए लेकिन इस आह्लाद में भूल गये कि अगले दिन राजनीति ने करवट ली तब क्या करेंगे?
एनडीए की तरह यूपीए भी अपने अपने हिसाब से गणित जोड़ रही है। वाममोर्चा ने संकेत दिया है कि वह प्रणव मुखर्जी को समर्थन दे सकता है। अगर वाममोर्चा प्रणव बाबू के पास जाता है तो तय है कि ममता बनर्जी भी संगमा के साथ खड़ी हो जाएंगी। हालांकि इसके बाद भी संगमा के जीतने का कोई चांस नहीं बनता है लेकिन उनकी उम्मीदवारी से इतना जरूर हो गया है कि राम और रोटी की राजनीति करनेवाले करीब करीब सभी राजनीतिक दल नये सिरे से समीकरण बनाने में जुट गये हैं। जो लोग कह रहे थे कि यह प्रधानमंत्री का नहीं राष्ट्रपति का चुनाव है, एक बार फिर सोच लें कि क्या वे सही कह रहे थे?
(लेखक विस्फोट डॉट काम के संपादक हैं)

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