रविवार, 16 सितंबर 2012

सिनेमा की सेंचुरी...


सिनेमा की सेंचुरी...

(नेहा घई पण्डित)

नई दिल्ली (साई)। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री इस वर्ष अपने सौ साल का जश्न मना रही है। सौ साल के सफर में ऐसे अनेक पड़ाव हैं जिन्होंने इस सफर को कदम दर कदम आगे पंहुचाया है। दादा फाल्के साहब की बनाई पहली फिल्म श्राजा हरिश्चंद्रश् हो या फिर पहली बोलती फिल्म श्आलम-आराश्, 1937 में बनी पहली रंगीन फिल्म श्किसान कन्याश् से लेकर अब 3-डी में बन रही फिल्में इन सभी ने फिल्मों के इतिहास में अहम भूमिका अदा की है। अपने ऐसे ही स्वर्णिम सफर पर एक नजर...सिनेमा के कुछ नए-पुराने पल, कुछ खट्टी-मिठी यादें...पढ़िए और जानिए नेहा घई पंडित के साथ

भारतीय सिनेमा का जन्म (1913) - दादा साहब फाल्के 1913 में पहली मूक फिल्म श्राजा हरिश्चंद्रश् बनाकर भारतीय सिनेमा के जनक बन गए। जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में पढ़े दादा साहब को फिल्म बनाने का विचार ईसामसीह के जीवन पर बनी फिल्म श्द लाईफ ऑफ क्रॉइस्टश् देखने के बाद आय़ा। फिल्म बनाने का जुनून उनपर इस कदर हावी था कि उन्होने अपनी पत्नी के जेवर बेचे और 1912 में फिल्म प्रोडक्शन सीखने इंग्लैंड चले गए। वापस आकर उन्होने फिल्म श्राजा हरिश्चंद्रश् बनाई जिसे लोगों ने बेहद पसंद किया। पहली फिल्म बनाने के कारण दादा साहब फाल्के को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उन्होंने स्वयं ही फिल्म के सीन लिखे, फोटोग्राफी की और इसके निर्माता भी बने। फिल्मों में काम करना या फिल्म देखना उस समय शराफत के खिलाफ माना जाता था और औरतों को इसकी इजाजत नहीं थी, इसी कारण फिल्म में किरदार पुरूषों ने ही निभाए थे। लगभग 40 मिनिट की इस फिल्म को छह महीनों में शूट किया गया और इसकी रील 3700 फुट लंबी थी।
दादा साहब ने इसके बाद श्भस्मासुर मोहिनीश्, श्सत्यवान सावित्रिश् और श्लंका दहनश् जैसी कुछ और फिल्में बनाई। 

0 महत्वपूर्ण उपलब्धि -
- 1913 में पहली फिल्म श्राजा हरिश्चंद्रश्                  
- 1913 से 1931 तक कुछ और लोग जैसे धीरेन गांगुली, जमशेद मदन और नितिन बोस भी फिल्में बनाने लगे
- 1931 में दादा साहब की आखिरी मूक फिल्म सेतु बंधनआई

मूक फिल्मों से गाते किरदारों की ओर (1931) -  1913 में शुरू हुआ सफर अब धीरे-धीरे अपने अगले पड़ाव की ओर था। वर्ष 1931 तक आते-आते हिन्दी सिनेमा लगभग सालाना 200 फिल्में बनाने लगा था।  इसी साल आर्देशिर एम. ईरानी ने भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आराका निर्माण किया था। बोलते और गाते हुए किरदारों को देखने का उन्माद लोगों के सर चढ़ बोलने लगा। इसी फिल्म में पृथ्वीराज कपूर में सह-अभिनेता की भूमिका निभाई जिसे बहुत सराहना भी मिली। इससे पहले वह करीब नौ मूक फिल्में कर चुके थे। फिल्म की शूटिंग रात में रेलवे लाइन के पास की गई थी। इस फिल्म में गाने ज़्यादा और डायलॉग कम थे। 

महत्वपूर्ण उपलब्धि - 

    1931 में पहली बोलती फिल्म श्आलम आराश्
    फिल्म श्आलम-आराश् का गाना ष् दे दे खुदा के नाम पर..ष् हिन्दी सिनेमा का पहला गाना बना
    पृथ्वीराज कपूर ने नौ मूक फिल्मों में काम करने के बाद फिल्म श्आलम-आराश् से बोलती फिल्मों में अभिनय की शुरूआत की


श्वेत-श्याम से रंगीन हुए सपने (1931 - 1941) - बोलती फिल्मों के बाद हिन्दी सिनेमा की अगली मंजिल बनी रंगीन फिल्में। 1937 में आर्देशिर एम. ईरानी ने पहली रंगीन फिल्म श्किसान कन्याश् बनाई। हालांकि 1933 में वी शांताराम ने मराठी फिल्म श्सैरन्ध्रीश् (ैंपतंदकीतप) बनाई जिसके कुछ दर्शय रंगीन थे। इस फिल्म की प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग जर्मनी में की गई थी इसी कारण से इस फिल्म को पूर्णतरू पहली भारतीय रंगीन फिल्म नहीं कहा जा सकता। फिल्म श्किसान कन्याश् को मोती बी गिडवानी ने बनाया था और इसे सिनेकलर प्रोसिस से रंगीन किया गया था। 137 मिनिट की इस फिल्म में 10 गाने भी थे जिन्हें ग्रामोफोन रिकॉर्ड्स द्वारा रीलिज किया गया था।
शुरुआती दौर में धार्मिक और पारिवारिक फिल्में बनीं । इस दौर में कुछ बड़े बैनर और स्टूडियो की स्थापना हुई। इनमें हिमांशु राय की श्बांबे टॉकीजश् और शांताराम और उनके भागीदारों द्वारा श्प्रभात स्टूडियोश् मुख्य रूप से सक्रिय रहे। 

महत्वपूर्ण उपलब्धि -

    1937 में पहली भारतीय रंगीन फिल्म श्किसान कन्याश् बनी
    1931 से 1941 तक कई महत्वपूर्ण एंव सफल फिल्में बनीं - अयोध्या का राजा, चन्द्रगुप्त, हंटरवाली, देवदास, अछूत कन्या, कंगन, जीवन नइया, ताज महल
    1931 से 1941 तक आई फिल्मों ने हिन्दी सिनेमा को कई नामी कलाकार दिए - अशोक कुमार, के.एल. सहगल, देविका रानी, नाडिया, लीला चिट्निस
    इस दौर में फिल्म के कलाकार स्वयं ही गाना गाया करते थे
    वर्ष 1935 में बनी फिल्म श्हंटरवालीश् से हिरोईन द्वारा किए स्टंट की शुरूआत हुई। इसके अलावा नाडिया द्वारा पहनी पोशाक और पहनावे ने समाज में नए फैशन का आगाज़ किया।


आया बेहतरीन कलाकारों का दौर (1942-1952) - इस दशक में फिल्में धार्मिक पृष्टभूमि से हटकर दूसरे विषयों पर बनने लगी। कुछ बेहद रोमांचित कहानियां और सबसे बेहतरीन अभिनेता और अभिनेत्रियों ने इस दशक में अपना जादू बिखेरा। दिलीप कुमार, मीना कुमारी, मधुबाला, नूरजहां, जोहरा सहगल, शशिकला, ललिता पवार, बलराज सहानी, राज कपूर जैसे कलाकारों ने पर्दे पर अपना फिल्मी सफर शुरू किया।

महत्वपूर्ण उपलब्धि -

    1949 में कमाल अमरोही द्वारा निर्देशित श्महलश् पहली हॉरर फिल्म
    1948 में राज कपूर ने 24 वर्ष की आयु में आर.के स्टूडियो की स्थापना की और देश के सबसे कम उम्र के निर्देशक के रूप में फिल्म श्आगश् का निर्देशन किया
    फिल्मों की कहानियों ने और बड़े-बड़े कलाकारों ने अपने अभिनय से हिंदी सिनेमा में स्टारडम जैसी बात पैदा की


आजादी, विभाजन और समाज (1952-1962) - देश नया-नया आजाद हुआ था। आजादी और विभाजन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का प्रभाव उस समय बनीं हिंदी फिल्मों पर छाया रहा। बिमल रॉय की श्दो बीघा ज़मीनश् ने देश के किसानों की दयनीय दशा दर्शायी। यह भारत की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसे कॉन फिल्म अवॉर्ड मिला था। श्परिनीताश्, श्जिस देश में गंगा बहती हैश्, श्नया दौरश्, श्श्री 420श् जैसी फिल्में बनी जिनके द्वारा पर्दे पर शहर और गांव, देश के बदलते नए और पुराने हालात और उसकी दिक्कतें बखूबी पर्दे पर पेश की गई। संगीत फिल्मों का महत्वपूर्ण अंग बन गया था। इस दौर में लता मंगेशकर, मोहम्मद ऱफी, मुकेश जैसे गायकों की आवाज़ का जादू फिल्मी दुनिया पर छाने लगा था। दादा साहब फाल्के से शुरू हुए हिन्दी सिनेमा के सफर को पृथ्वीराज कपूर के खानदान ने नया चोला पहनाया।

महत्वपूर्ण उपलब्धि -

    1955 में सत्यजीत रे की फिल्म श्पांथेर पांचालीश् को 11 अंतरराष्ट्रीय पुरुस्कार मिले जिनमें
    1957 में महबूब खान की श्मदर इंडियाश् ऑस्कर में श्बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फिल्मश् की श्रेणी में नामांकित हुई पहली भारती फिल्म बनी
    1960 में आई श्मुगल-ए-आजमश् ने लोगों में बहुत लोकप्रियता हासिल की
    राज कपूर, दिलीप कुमार, देव आंनद जैसे कलाकारों ने पर्दे पर अपना वर्चस्व कायम किया
    गुरू दत्त, महबूब खान, वी.शांताराम, बीमल रॉय जैसे निर्देशकों ने क्लासिक फिल्में दी
    इस दौर में ही फिल्मी जोडियां जैसे राज-नरगिस, दिलीप कुमार-वैजंतीमाला, गुरू दत्त-वहीदा रहमान प्रचलन में आने लगी

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