शनिवार, 19 जनवरी 2013

किस बात का हो रहा है चिंतन!


किस बात का हो रहा है चिंतन!

(लिमटी खरे)

एक बहुत पुरानी कहावत है, जबरा मारे रोन ना दे, अर्थात कोई आपको जमकर जबर्दस्त मारे और फिर रोने भी ना दे। जब से कांग्रेस की कमान श्रीमति सोनिया गांधी के हाथों आई है उसके बाद से कमोबेश यही स्थिति देश की होती जा रही है। मंहगाई, भ्रष्टाचार, अनाचार, व्यभिचार, अलगाववाद, नक्सलवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और ना जाने क्या क्या घट रहा है। केंद्र सरकार और सोनिया गांधी दोनों ही आंख बंद करके बैठे हैं। एक बात पर केंद्र सरकार की दाद देना पड़ेगा, विपक्ष को मैनेज कर जिस दिलेरी से केंद्र सरकार द्वारा मंहगाई बढ़ाई जा रही है वह तारीफेकाबिल है। 1974 फिर 1998 में पचमढ़ी और 2003 में शिमला में हुए चिंतन शिविर के एक दशक बाद पुनः जयपुर में कांग्रेस के नेताओं ने सर जोड़कर चिंता करना आरंभ किया है। इस चिंतन शिविर में आम आदमी के बजाए कांग्रेस की सरकार कैसे बने और राहुल गांधी को प्रधानमंत्री कैसे बनाया जाए इस बारे में ज्यादा चिंता होती दिख रही है।

सवाल यह है कि आखिर कांग्रेस को चिंतन शिविर की आवश्यक्ता क्यों आन पड़ी वह भी पंद्रह साल में दो मर्तबा, पंद्रह साल से तो सोनिया गांधी ही कांग्रेस की अगुआई कर रही हैं। जाहिर है कि सोनिया गांधी की रीतियां नीतियां कांग्रेस के लिए आत्मघाती ही साबित हो रही हैं। यक्ष प्रश्न तो यह है कि कांग्रेस को किस बात का चिंतन करना चाहिए, अपने नेतृत्व की दिशा का या देश के आम आदमी की दशा का अथवा राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने के जतन का।
चालीस बरस में कांग्रेस का यह चौथा चिंतन शिविर है, और सोनिया की अगुआई में चल रही कांग्रेस का दूसरा। 1998 में पचमढ़ी में हुए चिंतन शिविर में कांग्रेस ने सभी का साथ छोड़कर अकेले ही चलने का निर्णय लिया। कांग्रेस का यह निर्णय भी आत्मघाती ही साबित हुआ। कांग्रेस को छः साल इंतजार में काटने पड़े। इसके बाद कांग्रेस के रणनीतिकारों ने सोनिया गांधी को समझाया और फिर 19 दलों के साथ कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई।
इसके बाद विपक्ष को लगातार मैनेज कर कांग्रेस ने साढे आठ साल तो काट लिए हैं पर अब काफी मुश्किल दिख रहा है समय काटना। कांग्रेस के नेताओं ने इस दौरान सिर्फ और सिर्फ अपनी ही चिंता की कांग्रेस के कार्यकर्ता ठगे से महसूस करते रहे। नेताओं की सोच थी कि पैसा कमा लो और उसी पैसे के दम पर अगला चुनाव भी जीत लिया जाएगा। नेता यह भूल रहे हैं कि चुनाव पैसे के बल पर नहीं वरन कार्यकर्ताओं के बल पर जीते जाते हैं।
कांग्रेस के सामने एक बात तो तय ही नजर आ रही है कि कांग्रेस द्वारा अगला चुनाव मनमोहन सिंह के चेहरे को आगे कर कतई लड़ा नहीं जाएगा। कांग्रेस को एक नए साफ सुथरे चेहरे की दरकार है। रही राहुल गांधी की बात तो बड़े नेताओं ने 2004 के उपरांत राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने की बात बार बार कहकर सोनिया गांधी के सामने अपनी उपस्थिति और नौकरी पक्की की जाती रही है।
राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए या नहीं यह उनका नितांत निजी मामला है। कांग्रेस के प्रबंधकों ने मीडिया को मैनेज कर सोनिया और राहुल को खूब धोके में रखा। राहुल की छवि प्रधानमंत्री की बना दी गई सोनिया और राहुल के सामने। यह तो भला हो सोशल नेटवर्किंग वेब साईट्स वालों का कि राहुल, सोनिया और मनमोहन सिंह की असलियत सबके सामने आई और सोशल मीडिया की उपस्थिति राहुल और सोनिया को भी स्वीकार करना ही पड़ा।
इस बार चिंतन शिविर में एक बार फिर राहुल गांधी को कांग्रेस की बागडोर सौंपने की बात जोर शोर से उठने के पुख्ता इंतजामाता हैं। राहुल गांधी कुछ धरातल पर उतरते दिख रहे हैं। उन्हें सोशल नेटवर्किंग वेब साईट्स से भान हो चला है कि वे कितने पानी में हैं। राहुल गांधी खुद कांग्रेस की कमान संभालते हैं या फिर सोनिया की खड़ाउं ही कुर्सी पर रखकर राज करते हैं यह तो समय ही बताएगा, किन्तु राहुल गांधी अभी राजनैतिक तौर पर परिपक्व दिख नहीं रहे हैं।
राहुल गांधी को इस बात को भली भांति समझ जाना चाहिए कि देश में दो तिहाई मतदाता युवा है। युवाओं का रोष और असंतोष राहुल गांधी हाल ही में देख चुके हैं। आज अगर कांग्रेस द्वारा राहुल गांधी को बतौर प्रधानमंत्री प्रस्तुत कर दिया जाता है तो विपक्ष के साथ ही साथ देश भी कांग्रेस से पूछ उठेगा कि आखिर बतौर सांसद राहुल गांधी ने नौ बरसों में अपने संसदीय क्षेत्र और देश के लिए क्या किया। कितने प्रश्न पूछे, कितनी चर्चाओं में भाग लिया, कितने आंदोलनों में जनता का साथ दिया, कितने मामले सदन में उठाए?
आज युवाओं के मन में कसक है राहुल के प्रति। भले ही कांग्रेस का मैनेज्ड मीडिया राहुल गांधी की पीआर और इमेज बिल्डिंग में लगा हो पर युवा तो यह पूछ रहे हैं कि जब कड़कड़ाती ठण्ड में दिल्ली में गेंग रेप के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे युवाओं पर लाठियां भांजी जा रही थीं, ठण्डा पानी फेंका जा रहा था तब युवा हृदय सम्राट राहुल गांधी वातानुकूलित कक्ष में बैठकर क्या जेम्स बांड की नई मूवी देख रहे थे?
युवाओं को उनका उत्तर मिल गया है कि राहुल गांधी अभी पालीटिकल मेच्योर नहीं हैं। वे आज भी चाबी वाले गुड्डे ही हैं। उनके शिक्षक और सलाहकार जितनी चाबी भरते हैं वे उतना ही चल पाते हैं। सियासी फिजां में तो यहां तक कहा जा रहा है कि अगर नेहरू गांधी परिवार के कुलदीपकों राहुल और वरूण गांधी को बिठाकर शास्त्रार्थ करवा दिया जाए तो वरूण गांधी के सामने राहुल गांधी बौने साबित हो जाएंगे।
कांग्रेस को अगर चिंतन करना ही है तो राहुल गांधी की चापलूसी छोड़कर उसे इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि कांग्रेस अब एक भी एसा नेता नहीं दे पा रही है जो विदेश तो छोड़िए देश में ही सर्वस्वीकार्य हो। कांग्रेस को नहीं भूलना चाहिए कि उसने पंडित जवाहर लाल नेहरू, श्रीमति इंदिरा गांधी जैसे नेता दिए हैं जिनकी स्वीकार्यता देश ही नहीं वरन् विदेशों में भी थी।
कांग्रेस को चिंतन इस बात का करना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि देश में मंहगाई इस कदर बढ़ती जा रही है। जबकि वित्त मंत्री और खुद प्रधानमंत्री अर्थशास्त्री हैं। देश में एक के बाद एक सामने आते घपले घोटालों के बारे में चिंता की जानी चाहिए। कांग्रेस को इस बात पर चिंता करना चाहिए कि उसके लिए गठबंधन धर्म नहीं राष्ट्र धर्म सर्वोपरि हो। विकास की दुहाई देने वाली सोनिया गांधी को यह सोचना चाहिए कि विकास कितना बेतरतीब हुआ है।
कांग्रेस को इस बात का चिंतन करना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि अखंड भारत पर राज करने वाली कांग्रेस को अब केंद्र में बैसाखियों की जरूरत महसूस होने लगी है। गठबंधन के सहयोगी दल जब तब कांग्रेस की कालर पकड़कर हड़काने की जुर्रत कैसे करने लगे? क्या कारण है कि अब मुट्ठी भर राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है? कांग्रेस के हाथ से जनाधार रेत की तरह कैसे फिसल गया?
कांग्रेस को इस बात का चिंतन करना चाहिए कि जिन सांसदों को उसने मंत्री बनाया है वे अपने अपने राज्यों कांग्रेस को किस पायदान पर लाकर खडा कर रहे हैं? मंत्रियों के राज्यों में कार्यकर्ता क्या इनके परफार्मेंस से खुश हैं? कांग्रेस को चाहिए कि वे अपने बड़े नेताओं को दो टूक शब्दों में यह टारगेट दे दे कि जो बड़ा नेता अपने अपने क्षेत्र से ज्यादा सांसदों को जिताकर लाएगा उसे उस आधार पर ही मंत्री बनाकर मंत्रालय दिया जाएगा।
कांग्रेस को चिंतन इस बात का करना चाहिए कि आखिर क्या कारण है कि सोनिया गांधी के हाथ कमान आने के उपरांत कांग्रेस ने एक भी एसा नेता (खुद सोनिया भी) नहीं दिया है कि जिसकी अपील का देशव्यापी असर पड़े। आखिर नैतिक मूल्य और सरकार की छवि इस कदर क्यों गिरी कि आज प्रधानमंत्री की देश के नाम अपील बेअसर हो रही है? आज कांग्रेस के सामने राहुल गांधी को महिमा मण्डित करने की आवश्यक्ता क्यों आन पड़ी?
कांग्रेस को इस बात पर भी चिंतन करना चाहिए कि पिछले सवा सौ सालों से ज्यादा समय से कांग्रेस नाम का संगठन ही देश को एक सूत्र में पिरोए हुए था। आज वह संगठन भी छिन्न भिन्न ही नजर आ रहा है। यह सच है कि भारत गणराज्य में लोकतंत्र राजनीति की बुनियाद पर ही खडा है पर आज राजनीति किस अंधेरी सुरंग में कदम बढा चुकी है। आज कांग्रेस को यह चिंतन करना होगा कि कैसे नैतिक मूल्यों को स्थापित किया जाए? कैसे देश के प्रति प्रेम पैदा किया जाए? कैसे विकास के प्रति अलख जगाई जाए?
कांग्रेस को अपने इतिहास में झांककर देखना होगा, यह काम खलिस कांग्रेसी ही कर सकता है। सोनिया गांधी तो विदेश से यहां आकर बसीं हैं, उन्हें कांग्रेस के इतिहास की ज्यादा मालुमात किताबी ज्ञान से हो सकती है, पर सोनिया गांधी ने वो समय नहीं देखा जब सत्तर के दशक में सिनेमाघरों में न्यूजरील में भाखड़ा नंगलडेम कैसे बना, कैसे भारत का निर्माण हो रहा है जैसी चीजें दिखाइ्र जाती थीं।
आज के युवा को यह नहीं पता कि 2 अक्टूबर को महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री का जन्म दिन है। युवाओं को यह पता है कि 2 अक्टूबर को ड्राई डे (इस दिन शराब नहीं बिकती) है? आखिर किस दिशा में धकेल रहे हैं हम अपने आने वाली पीढ़ी को? क्या यही दिग्भ्रमित पीढ़ी संभालेगी भारत गणराज्य का नेतृत्व? कांग्रेस को अपने एतिहासिक दायित्व को समझना ही होगा।
कांग्रेस को चाहिए कि वह राहुल चालीसा का गान करने के बजाए देश को दिशा और दशा देने वाले एतिहासिक दायित्वों को याद कर एक बार पुनः उसका निर्वहन पूरी ईमानदारी से करे। नेहरू गांधी परिवार ने देश को काफी कुछ दिया है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है किन्तु उस परिवार की वर्तमान पीढ़ी को महज उसी अधार पर महिमा मण्डित कर देश को सर्वनाश की ओर ढकेलना समझदारी तो किसी भी दृष्टिकोण से नहीं कही जा सकती है।
यह सच है कि भ्रष्टाचार चरम पर है। कांग्रेसी भी इससे आजिज आ चुके हैं। इसका जीता जागता उदहारण जयपुर में देखने को मिला। सोनिया गांधी अपने उद्बोधन में भ्रष्टाचार पर जमकर बोल रही थीं। बताते हैं इतने में भ्रष्टाचार के ईमानदार संरक्षक की अघोषित उपाधि पाने वाले मनमोहन सिंह ने एक पर्ची सोनिया गांधी को भेजी जिसमें लिखा था कि मदाम आप अपनी ही सरकार को जो साढे आठ साल से सत्ता में है को कटघरे में खड़ा कर रही हैं। सोनिया कुछ रूकीं और विषय से विषयांतर किया। अब निश्चित तौर पर भाषण लिखने वाले की खैर नहीं है।

इसी बात पर प्रवीण श्रीवास्तव सोम्य जी की एक कविता का उल्लेख करना चाहूंगा -

माँ तुझे सलाम .....

एक माँ के लिए बेटे की ताजपोशी बन गया राष्ट्रीय मर्ज़!
आखिर कौन चुकाने आएगा वतन की माटी का क़र्ज़!!
हम तो बेचौन हैं शीश नमन करने को उस माँ के चरणों में!!!
जिसने बेटा कुर्बान कर अदा किया भारतीय होने का फ़र्ज़!!!!

(साई फीचर्स)

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