शनिवार, 14 मई 2011

‘भारतीय‘ होने पर शर्मसार युवराज


भारतीयहोने पर शर्मसार युवराज

(लिमटी खरे)

‘‘उत्तर प्रदेश में यमुना एक्सपे्रस हाईवे के लिए भूमि अधिग्रहण के मामले में तबियत से सियासत की जा रही है। सारे राजनैतिक दल इस मामले के गर्म तवे पर रोटियां सेंकने पर आमदा हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने सूबे सुरक्षा एजेंसीको चकमा देकर किसानों के बीच खुद को पहुंचाकर मीडिया में अपना महिमा मण्डन करवा लिया है। यक्ष प्रश्न तो यह है कि जब इलाका सील हो और परिंदा भी वहां पर न मार सकता हो, तब राहुल गांधी जैसा नामचीन चेहरा आखिर इस चक्रव्यूह को भेदकर अंदर कैसे पहुंचा। क्या एसपीजी आंखों में पट्टी बांधकर बैठी थी? क्या यह कांग्रेस और बसपा की मिली भगत है? चाहे जो भी हो डर तो इस बात का है कि कहीं सियासी लड़ाई में किसानों का मुद्दा गौड़ न हो जाए। राहुल का बड़बोलापन पहली बार झलका है जब उन्होंने व्यवस्था पर शर्म करने के बजाए खुद को भारतीय होने पर शर्म की बात कही है। क्या इसे उनकी मा सोनिया गांधी के पीहर से जोड़कर देखा जाए!‘‘

देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाले और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी तथा युवराज राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्रों को अपने आंचल मंे सहेजने वाले उत्तर प्रदेश सूबे में यमुना एक्सपे्रस हाईवे का निर्माण किया जा रहा है। तर्क दिया गया है कि इसके बनने से सूबे के विकास में चार चांद लग जाएंगे, इसके बनने से आम आदमी को जमकर फायदा होने की उम्मीद जताई जा रही है। यक्ष प्रश्न आज भी अनुततरित ही है कि इस तरह के मार्ग बनने से फायदा किसे होने वाला है? यदि यह मार्ग बना भी तो इसका उपयोग वही कर सकेंगे जिनके पास मोटर कार, ट्रक एवं परिवहन के अन्य साधन हैं। गरीब गुरबों के लिए तो यात्री बस ही सहारा होगी। कोई भी तीव्रगामी मार्ग जब बनता है तो गरीब की साईकल, बैलगाड़ी, तिपहिया और छोटे वाहनों का उस पर चलना प्रतिबंधित कर दिया जाता है। इस रफ्तार में उनको प्रवेश नहीं है जिनके हितों की दुहाई देकर इसका निर्माण कराया जाता है। जिस देश में आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही हो उनके लिए इस तरह के मार्ग का क्या ओचित्य?
देश की राजनैतिक राजधानी से सटे ग्रेटर नोएडा में भट्टा पारसौल गांव में भूमि के अधिग्रहण को लेकर मारकाट मची हुई है। हर एक सियासी दल इसका लाभ लेने की जुगाड़ में है, तो भला कांग्रेस कैसे पीछे रहने वाली। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश के चुनावों को देखकर अपने भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी को दौड़ा दिया भट्टा पारसौल गांव। राहुल गांधी के अंदर यह गुण है कि वे अपनी अभिजात छवि को तोड़कर आम आदमी के साथ सीधा रिश्ता बनाते हुए दिखाई पड़ ही जाते हैं। चाहे दलित के घर रात बितानी हो या फिर मुंबई में लोकल ट्रेन का सफर या एटीएम से पैसे निकालना, वे हर बार आम जनता से सीधा संवाद करते नजर आए हैं। कांग्रेस चाहती है कि वह राहुल की साफ छवि के साथ वैतरिणी पार कर ले किन्तु इसके लिए कांग्रेस को अपना चेहरा भी बदलना होगा।
कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी द्वारा मायावती सरकार के सारे नियम कायदों को धता बताते हुए उनके चक्रव्यूह को तोड़कर बुधवार को अलह सुब्बह ग्रेटर नोएडा जा पहुंचे। राहुल का वहां जाना अनेक सवालों को जन्म दे गया है। अगर राहुल गांधी प्रदेश सरकार के नियम कायदों को तोड़ रहे थे तब उनकी सुरक्षा में लगे स्पेशल प्रोटेक्शन गु्रप के जवान क्या मूक दर्शक बनकर उन्हें कानून तोड़ने दे रहे थे? एसपीजी भारत सरकार के दिशा निर्देश पर काम करती है या फिर वह भी राहुल गांधी की लौंडीबनकर रह गई है। हालात देखकर लगता है मानो राहुल गांधी को सुरक्षा की दृष्टि से भारत सरकार द्वारा एसपीजी नहीं वरन् राहुल गांधी ने खुद ही किसी निजी सिक्यूरिटी एजेंसी से भाड़े पर सुरक्षा कर्मी ले रखे हों।
 वैसे तो यहां किसानों द्वारा 17 जनवरी से आंदोलन किया जा रहा है, किन्तु तब इसे हवा नहीं मिल सकी। सियासी दलों की नजर लगने के बाद भट्टा पारसौल आग में झुलस रहा है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। पुलिस और किसानों के बीच हुए द्वंद के बाद अब जो जमीन तैयार हुई है उसे देखकर लगने लगा है कि मिशन यूपी 2012 की जमीन पूरी तरह तैयार हो चुकी है। राजनैतिक दल अपना अपना हित साध रहे होंगे किन्तु उन्हंे इस बात पर भी मंथन अवश्य ही करना चाहिए कि बार बार विकास, सड़क या औद्योगिक परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के बाद किसान हर बार ठगा सा महसूस क्यों करता है? देशवासियों के बीच बनने वाली यह धारणा बेमानी नहीं है कि सरकार अब बड़े औद्योगिक घरानों के एजेंट के तौर पर काम कर रही है।
आखिर क्या कारण है कि अंग्रेजों के जमाने 1894 में बने जमीन अधिग्रहण कानून को भारत सरकार अब तक तब्दील नहीं कर पाई है? 1894 में बने इस कानून में 1998 में कुछ सुधार किया गया है, जो सरकार को सार्वजनिक मकसद के लिए अपनी कीमत पर जमीन खरीदने का हक देता है। इस बारे में कानून विदों की राय में जमीन की वाजिब कीमत क्या होगी और सार्वजनिक मकसद किसे कहा जाएगा? अब तक स्पष्ट नहीं है। 2009 में लोकसभा में बिल लाया गया किन्तु पारित न हो सका।
देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसानों की जमीनों के अधिग्रहण की खिलाफ धधकती असंतोष की आग बरास्ता दादरी, नंदीग्राम, सिंगूर, जगतसिंहपुर, जैतापुर, नियामगिरी होती हुई अब ग्रेटर नोएडा पहुंच ही गई। 1985 में नर्मदा घाटी परियोजना में बनने वाले बाधों के विरोध में बाबा आम्टे और मेघा पटेकर ने आंदोलन किया था। टिहरी बांध में उत्तराखण्ड में तो उड़ीसा में नियामगिरी में वेदांता परियोजना, में भी कमोबेश यही आलम रहा।
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में नवंबर 2007 में इंडोनेशिया की एक कंपनी सालिम ग्रप के एसईजेड के लिए जमीन अधिग्रहण में पुलिस के साथ विवाद में 14 तो बंगाल के ही सिंगूर में टाटा के नैनो कार प्लांट के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले किसानों में से 14 को पुलिस की गोली का शिकार होकर जान गंवानी पड़ी थी। 2008 में अमरनाथ श्राईन बोर्ड को 99 एकड़ जमीन दने के विरोध में हुए प्रदर्शन में सात लोग मरे, तो यूपी के गाजियाबाद के दादरी में 2004 में अनिल अंबानी के स्वामित्व वाले रिलायंस गु्रप के लिए 2500 एकड़ के अधिग्रहण में भी विवाद हुआ।
पिछले साल अलीगढ़ में टप्पल में हुई हिंसा में तीन किसान और एक पुलिस कर्मी की मौत हुई। जगतसिंहपुर जिले में दक्षिण कोरिया की एक स्टील कंपनी पास्कोकी परियोजना का भी पुरजोर विरोध किया गया, इसके बाद अब ग्रटर नोएडा के भट्टा पारसौल गांव में हिंसा फैली। दिल्ली से आगरा को जोड़ने वाले 165 किलोमीटर लंबे इस मार्ग के लिए 43 हजार हेक्टेयर भूमि की आवश्यक्ता है। आंकड़ों पर अगर गौर फरमाया जाए तो आजादी के बाद से अब तक देश में एक ओर जहां कृषि योग्य भूमि का प्रतिशत तेजी से गिरा है तो दूसरी ओर सिंचित भूमि का प्रतिशत कम मात्रा में ही बढ़ा है।
किसानों के रिसते घावों पर युवराज राहुल गांधी घटनास्थल पर अवश्य गए। राजनैतिक तौर पर अपरिपक्व राहुल वहां पहुंचे तो मंझे हुई राजनीतिक हस्ती कांग्रेस महासचिव राजा दिग्विजय सिंह की बैसाखी के सहारे। क्या राहुल गांधी को पीएसी के उन जवानों से कोई सरोकार होगा जिन्हें वहशी तरीके से पीट पीट कर मौत के घाट उतार डाला। कांधे पर हल रखकर चलने वाला किसान क्या बंदूकों के माध्यम से आंदोलन छेड़ता है? अगर उत्तर प्रदेश मंे मायावती लोकतंत्रके स्थान पर हिटलरशाहीचला रही हैं तो राहुल और कांग्रेस तो क्या हर सियासी दल को इसका प्रतिकार करने का पूरा अधिकार है, पर लोकतांत्रिक तरीके से, न कि खून से रंगे हाथों की तरफदारी कर सियासी रोटियां सेंकने की तरह से। इस बात पर भी बहस होना चाहिए कि पुलिस वालों की हत्या करने वाले क्या वाकई किसान थे या फिर जमीनों के दलाल। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पा चुके मोगलीकी कर्मभूमि है देश के हृदय प्रदेश का सिवनी जिला, इस जिले में पिछले एक दशक में जमीन के दलालों ने सरकारी नुमाईंदों के साथ मिलकर सरकारी और निजी जमीनों को बेच दिया है। सूबे की सरकार सोई पड़ी है, विधायक और सांसद अपने निहित स्वार्थों में व्यस्त हैं। बंदरबांट जारी है जिसके हिस्से जो लग रहा है, वह लेकर चंपत हो रहा है।
बहरहाल, एक समाचार एजेंसी के अनुसार राहुल गांधी ने खुद के भारतीय होने पर शर्म महसूस करने वाली बात कही है, जिसकी सिर्फ निंदा से काम चलने वाला नहीं है। राहुल गांधी का किसानों की व्यथा देखकर दुखी होना (बशर्ते वे दुखी होने का प्रहसन कर रहे हों) लाजिमी है, किन्तु उन्हें इस पर खुद के भारतीय होने पर शर्माना कैसा? क्या राहुल गांधी के राजनैतिक प्रशिक्षकों ने उन्हें यह बात नहीं बतलाई है कि उनके परदादा पंडित जवाहर लाल नेहरू, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी इस देश के वजीरे आजम रहे हैं, जिन्होंने साल दर साल देश पर राज किया है। देश के कानून कायदे उन्हीं के द्वारा बनाए गए हैं। आपकी माता जी अवश्य ही इटली मूल की हैं, पर आपके पिता और पितामह सभी खालिस हिन्दुस्तानी हैं, आप इस तरह की बयानबाजी कर विरोधियों को बोलने का मौका दे रहे हैं। बहरहाल राहुल गांधी के भारतीय होने पर शर्म करने की बात गले नहीं उतरती। राहुल गांधी को चाहिए था कि वे इस देश की या उत्तर प्रदेश की व्यवस्था पर शर्म जताते, वस्तुतः एसा उन्होंने किया नहीं।

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