गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

इस रात की सुबह नहीं. . .


इस रात की सुबह नहीं. . .


(लिमटी खरे)

सत्ताईस साल गुजर जाने के बाद भी न तो भारतीय जनता पार्टी और न ही कांग्रेस ने भोपाल गैस कांड को गंभीरता से लिया है। इंसाफ की रस्मअदायगी में सियासी पार्टियों ने अपने अपने हित तबियत से साधे हैं। 1984 में दो और तीन दिसंबर की दरम्यानी रात में देश के हृदय प्रदेश की राजधानी भोपाल में लाशों के ढेर बिछ गए थे। उस वक्त देश और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार काबिज थी। भोपाल गैस कांड में अब तक न जाने कितने राज सामने आ चुके हैं। 84 में अमरिका मूल की डाव केमिकल्स के आगे देश के नीति निर्धारकों ने घुटने टेक दिए थे। सैम अंकल को बेच दिया था हिन्दुस्तान का जमीर। यूनियन कार्बाईड से निकली जहरीली गैस ने पांच लाख से ज्यादा लोगों पर असर दिखाया। बीस हजार से ज्यादा जानें गईं पर सरकारें नीरो के मानिंद चैन की बंसी ही बजाती रहीं। इसके बाद भी परमाणु करार करने को भारत सरकार बेकरार ही दिख रही है।


सन 1984 में 2 और 3 दिसंबर की दर्मयानी रात में देश के हृदय प्रदेश की राजधानी भोपाल में हुआ गैस हादसा हिन्दुस्तान ही नहीं वरन दुनिया का सबसे बडा औद्योगिक हादसा था। यूनियन कार्बाईड के डॉव केमिकल के कारखाने से निकली जानलेवा गैस ने पांच लाख से अधिक लोगों को अपनी जद में लिया और बीस हजार से ज्यादा काल कलवित हो गए थे। आश्चर्य इस बात का है कि इसके दोषी आज भी सलाखों के बाहर हैं। हिन्दुस्तान में पीडित न्याय की गुहार लगाते हुए बच्चे से जवान, जवान से प्रोढ, प्रोढ से बुजुर्ग और न जाने कितने बुजुर्ग तो दुनिया छोड चुके हैं। 26 साल का समय कम नहीं होता है। 26 साल में बच्चा समझदार होकर जवानी की दहलीज पर काफी आगे निकल चुका होता है। दुनिया की इतनी बडी औद्योगिक त्रासदी जो कि मानव निर्मित ही थी, के दोषियों की पहचान होने के बाद भी इसमें न्याय के लिए अगर भारत जैसे देश में इतना समय लग जाए तो यह निश्चित तौर पर हमें शर्मसार करने के लिए पर्याप्त ही माना जा सकता है।

इस त्रासदी के उपरांत आज भी प्रभावित इलाके में भूजल बुरी तरह प्रदूषित है, इससे प्रभावित लोगों की आने वाली पीढियां बिना किसी जुर्म की सजा शारीरिक और मानसिक तौर पर भुगत रहीं हैं। विडम्बना तो यह है कि हजारों को असमय ही मौत की नींद सुलाने वाले दोषियों को 25 साल बाद महज दो दो साल की सजा मिली और तो और उन्हें जमानत भी तत्काल ही मिल गई। हमारे विचार से तो इस मुकदमे की सजा इतनी होनी चाहिए थी, कि यह दुनिया भर में इस तरह के मामलों के लिए एक नजीर पेश करती, वस्तुतः एसा हुआ नहीं। देश के कानून मंत्री वीरप्पा मोईली खुद भी लाचार होकर यह स्वीकार कर रहे हैं कि इस मामले में न्याय नहीं मिल सका है। फैसले में हुई देरी को वे दुर्भाग्यपूर्ण करार दे रहे हैं। दरअसल मोईली से ही यह प्रतिप्रश्न किए जाने की आवश्यक्ता है कि उन्होंने या उनके पहले रहे कानून मंत्रियों ने इस मामले में पीडितों को न्याय दिलवाने में क्या भूमिका निभाई है।

विश्व के इस सबसे बडे औद्योगिक हादसे का फैसला इस तरह का आया मानो किसी आम सडक या रेल दुर्घटना का फैसला सुनाया जा रहा हो। इस मामले में प्रमुख दोषी यूनियन कार्बाईड के तत्कालीन सर्वेसर्वा वारेन एंडरसन के बारे में एक शब्द भी न लिखा जाना निश्चित तौर पर आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। यह सब तब हुआ जब इस घटना के घटने के महज तीन दिन बाद ही मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया गया हो। सीबीआई पर लोगों का विश्वास आज भी कायम है। इस जांच एजेंसी के बारे में लोगों का मानना है कि यह भले ही सरकार के दबाव में काम करे पर इसमें पारदर्शिता कुछ हद तक तो होती है। इस फैसले के बाद से लोगों का भरोसा सीबीआई से उठना स्वाभाविक ही है। इस पूरे मामले ने भारत के ‘‘तंत्र‘‘ को ही बेनकाब कर दिया है। क्या कार्यपलिका, क्या न्यायपालिक और क्या विधायिका। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि प्रजातंत्र के ये तीनों स्तंभ सिर्फ और सिर्फ बलशाली, बाहुबली, धनबली विशेष तबके की ‘‘लौंडी‘‘ बनकर रह गए हैं।

सीबीआई ने तीन साल तक लंबी छानबीन की और आरोप पत्र दायर किया था। इसके बाद आरोपियों ने उच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाए थे। उच्च न्यायालय ने इनकी अपील को खारिज कर दिया था। इसके बाद आरोपी सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए और वहां से उन्होंने आरोप पत्र को अपने मुताबिक कमजोर करवाने में सफलता हासिल की। यक्ष प्रश्न तो यह है कि क्या सीबीआई इतनी कमजोर हो गई थी, कि उसने इस मामले की गंभीरता को न्यायालय के सामने नहीं रखा, या रखा भी तो पूरे मन से नहीं रख पाई। कारण चाहे जो भी रहे हों पर पीडितों के हाथ तो कुछ नहीं लगा।

आखिर क्या वजह थी कि एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद उसे गेस्ट हाउस में रखा गया। इसके बाद जब उसे जमानत मिली तो उसे विशेष विमान से भारत से भागने दिया गया। जब उसे 01 फरवरी 1992 को भगोडा घोषित कर दिया गया था, तब उसके प्रत्यापर्ण के लिए भारत सरकार द्वारा गंभीरता से प्रयास क्यों नहीं किए गए! 2004 में अमेरिका ने उसके प्रत्यापर्ण की अपील ठुकरा दी गई तो भारत सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठ गई। क्या दुनिया के चौधरी अमेरिका का इतना खौफ है कि भारत में हुए इस भयानक दिल दहला देने वाले हादसे के बाद भी सरकार उसे सजा दिलवाने भारत न ला सकी। इतना ही नहीं जब उसने अपना केस खुद नहीं लडा तब उसे इतने कम भोगमान पर छोड दिया गया। सरकार वैसे भी पहले ही लगभग दस गुना कम मुआवजा स्वीकार कर अपनी मंशा को स्पष्ट कर चुकी है। क्या कारण थे कि भारत सरकार ने इस कंपनी को चुपचाप बिक जाने दिया। इस दर्मयान भारत गणराज्य के वजीरे आजम और प्रजीडेंट न जाने कितनी मर्तबा अमेरिका की यात्रा पर गए होंगे पर किसी ने भी अमेरिका की सरकार के सामने इस मामले को उठाने की हिमाकत नहीं की। अगर भारत के नीति निर्धारक चाहते तो अमेरिका की सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर सकते थे कि वह यूनियन कार्बाईड से यह बात पूछे कि यह हादसा हुआ कैसे!

भोपाल गैस त्रासदी और लंबे समय बाद आया उसका यह फैसला निश्चित तौर पर खतरे की घंटी से कम नहीं है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों विशेषकर अमेरिका के जूते साफ करने को आमदा लोग अगर देश में विदेशी निर्भरता वाले परमाणु उर्जा संयंत्र लगाने की अनुमति देते हैं, और ईश्वर न करे कि अगर कोई हादसा हो जाए तो भारत सरकार और उसकी जांच एजेंसी किस भूमिका में होगी इस बात का परिचाक है यह पूरा प्रकरण। स्थिति परिस्थिति को देखते हुए हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सरकार और उसकी एजेंसियों की नजर में भारत की जनता की जान की कीमत कीडे मकोडों जैसी ही है। अगर यह हादसा अमेरिका में घटा होता तो डाव केमिकल और यूनियन कार्बाईड का नामोनिशान मिटने के साथ ही साथ अनेक बीमा कंपनियों के दिवाले निकल चुके होते। यही हादसा अगर दिल्ली में हुआ होता तो इसकी सूरत कुछ और होती। सवाल यह उठता है कि जब दिल्ली में उपहार सिनेमा में हुए हादसे के पीडितों को 15 से बीस लाख रूपए का मुआवजा मिल सकता है तो भोपाल गैस कांड के पीडितों को महज 25 - 25 हजार रूपए में क्यों टरका दिया गया।

55 अरब डालर की हो चुकी है डाव केमिकल। भोपाल जैसे हृदय विदारक हादसे को अंजाम देने के बाद भी यह कंपनी भारत का मोह नहीं छोड पा रही है। भारत सरकार है कि इस कंपनी को देश में दूसरे हादसे के लिए उपजाउ माहौल भी मुहैया करवा रही है। इस कंपनी ने वियतनाम युद्ध में एक जहरीली गैस बनाकर कहर बरपाया था। अब इस कंपनी के निशाने पर तमिलनाडू, महाराष्ट्र और गुजरात सूबे हैं। इस कंपनी के प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर अहसानों से दबे ही हैं केंद्र और सूबों के मंत्री, तभी तो ये डाव केमिकल की तारीफ में कशीदे गढने से नहीं चूकते। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वयं ही भोपाल में कंपनी के बंद पडे संयंत्र में जहरीले कचरे को छूकर कंपनी को सीधे तौर पर मदद करने का कुत्सित प्रयास किया था। इस कंपनी का महाराष्ट्र में मुंबई गोवा राजमार्ग पर एक संयंत्र आरंभ हो चुका है, जिसमें कीटनाशक बनता है। इसके अलावा गुजरात के दहेज में अगले साल यही कंपनी रसायनों का उत्पादन आरंभ कर देगी।

1984 में देश के हृदय प्रदेश में हुई अब तक की सबसे बडी और भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के फैसले के 26 साल बाद इससे संबंधित नित नए खुलासे इस तरह हो रहे हैं मानो बालाजी फिल्मस का कोई टीवी सीरियल हो। हालात देखकर लगने लगा है जिस तरह टीवी सीरियल में एक के बाद एक एपीसोड बढते ही जाते हैं, वैसे ही इस मामले में भेद खुलते ही जाएंगे। 84 की त्रासदी के बाद जहां एक ओर भोपाल शहर ने लाशें उगलीं वहीं अब इसके फैसले के उपरांत राज उगलते ही जा रहे हैं। एक के बाद एक सनसनीखेज खुलासे, कांग्रेस के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी और बीसवीं सदी के अंतिम दशकों के कांग्रेस की राजनीति के चाणक्य कुंवर अर्जुन सिंह को शक के दायरे में ला दिया गया है, प्रधानमंत्री मीडिया के सामने आने पर मजबूर हो गए हैं, नहीं डिगा तो कांग्रेस की राजमाता और स्व.राजीव गांधी की अर्धांग्नी सोनिया गांधी का सिहांसन। आज सोनिया गांधी ने साबित कर दिया है कि वे देश के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री पद से बडी अहमियत रखती हैं। कांग्रेस पर लगे आरोपों के मामले में प्रधानमंत्री गोल मोल जवाब दे रहे हैं। कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में है। सोनिया गांधी जबडे कसकर बांधे हुए हैं। उन्हें डर है कि अपने प्रबंधकों के मशवरों के चलते राजनैतिक बियावान में हाशिए में ढकेल दिए गए कुंवर अर्जुन सिंह उनके वक्तव्यों को किस दिशा में ले जाएं कहा नहीं जा सकता है। हालात देखकर लगता है कि अगर कुंवर अर्जुन सिंह ने मुंह खोला तो कांग्रेस की वो गत बन सकती है कि आने वाले दो तीन दशकों तक कांग्रेस का नामलेवा कोई भी नहीं बचेगा। कल तक सूने पडे कंुवर अर्जुन सिंह की सरकारी आवास में लाल बत्ती और सायरन की आवाजें इस बात का घोतक है कि भोपाल गैस कांड के फैसले से उनकी पूछ परख एकदम से बढ चुकी है।

तत्कालीन जिलाधिकारी मोती सिंह ने खुलासा किया कि उन्होंने तत्कालीन मुख्य सचिव के दबाव में यूनियन कार्बाईड के प्रमुख वारेन एंडरसन को छोडा था। यह अकाट््य सत्य है कि देश को भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी ही ‘‘हांक‘‘ (जिस तरह बेलगाडी को गाडीवान हांकता है) रहे हैं। क्या जिला दण्डाधिकारी ने तब ‘‘उपरी दबाव‘‘ को लिखा पढी में लिया था, अगर नहीं तो एंडरसन को भोपाल से भगाने का आपराधिक कृत्य मोती ंिसंह ने किया। मोती सिंह पर आपराधिक मामला दायर किया जाए फिर देखिए मजे। बरास्ता मोती सिंह एक के बाद एक सभी दोषी नग्नावस्था में सडको ंपर दिखाई देंगे।

जिस तरह बालाजी फिल्मस की प्रमुख एकता कपूर अपने सीरियल के अगले एपीसोड के लिए पटकथा आगे बढाती हैं, उसी तर्ज पर ‘‘भोपाल गैस कांड‘‘ सीरियल में बयानों की बोछारें हो रहीं हैं। छब्बीस साल का समय कम नहीं होता। अमूमन छब्बीस साल में एक युवा दो बच्चों का बाप बन चुका होता है, पर इन उमरदराज लोगों का साहस देखिए इस मामलें में छब्बीस साल तक मौन साधे रखा। आखिर क्या वजह थी कि छब्बीस सालों तक ये सारे राजदार अपने अंदर अपराध बोध को पालते रहे! राजधानी भोपाल के हनुमान गंज क्षेत्र में आता है यूनियन कार्बाईड। अब उस थाने के तत्कालीन थाना प्रभारी सुरेंद्र सिंह की आत्मा जागी है। उन्होंने छब्बीस साल बाद बताने की जहमत उठाई है कि ‘‘उपरी दबाव‘‘ के चलते उन्होनंे धाराएं बदलीं थी। रात में उन्हें यूनियन कार्बाईड के प्रंबंधन के खिलाफ धारा ‘304के तहत मामला पंजीबद्ध किया था, पर सुबह लाशों के ढेर देखने के बाद उन्होंने प्रबंधन के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज करना चाहा, किन्तु एक बार फिर ‘‘उपरी दबाव‘‘ का जिन्न सामने आया और उनके हाथ बंध गए।

सूत्रों के हवालों से जो खबरें मीडिया में आ रही हैं, उसके अनुसार तत्कालीन विदेश सचिव महाराज कृष्ण रसगोत्रा पर भी शक की सुई आकर टिक जाती है। कहा जा रहा है कि रसगोत्रा ने एंडरसन को गैस कांड के उपरांत भोपाल यात्रा के दरम्यान पुलिस सुरक्षा और रिहाई तक सुनिश्चित की थी। अमेरिकी दूतावास के तत्कालीन उप प्रमुख गार्डन स्ट्रीब के खुलासे से भारत गणराज्य का प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय दोनों ही शक के घेरे में आ गया है। मामले के पंेच कुछ समझ में आने लगे हैं। रसगोत्रा ने एंडरसन को मदद का वादा किया। संभवतः इसकी जानकारी तत्कालीन मुख्यमंत्री कुंवर अर्जुन सिंह को नहीं थी, इसीलिए एंडरसन को गिरफ्तार कर लिया गया था। इसके उपरांत वही ‘‘उपरी दबाव‘‘ के चलते रसगोत्रा को गार्डन ने उनका वादा याद दिलाया।

पूर्व अमेरिकी राजनयिक गार्डन स्ट्रीब का कहना है कि वारेन एंडरसन के मामले में भारत सरकार ने अमेरिका की इस शर्त का मान लिया था कि एंडरसन को भोपाल ले जाया जाए, किन्तु उसे सुरक्षित वापस पहुंचाया जाए। इसके बाद रसगोत्रा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को समझाया फिर दूरभाष खडके होंगे और एंडरसन ने राजकीय अतिथि का अघोषित दर्जा पाकर तत्कालीन पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी को अपना सारथी बनाया। सरकारी वाहन में कंडक्टर की जगह तत्कालीन जिला दण्डाधिकारी मोती सिंह बैठे थे। मध्य प्रदेश सरकार का उडन खटोला उनके स्वागत में स्टेट हेंगर पर उनका इंतजार कर रहा था। केप्टन अली ने उनके आते ही उनका अभिवादन किया और उन्हें ससम्मान दिल्ली पहुंचाया दिया। एक टीवी चेनल के द्वारा जारी फुटेज में साफ दिखाई पड रहा है कि हजारों लोगों का हत्यारा वारेन एंडरसन यह कह रहा है, अमेरिका का कानून है, वह घर जाने के लिए स्वतंत्र है।

जनसेवक अपनी जवाबदारी भूल चुके हैं, यह बात पूरी तरह स्थापित हो चुकी है। अब किस पर भरोसा किया जाए। क्या माननीय न्यायालय स्वयं ही इस मामले में संज्ञान लेकर इन सभी से यह पूछ सकता है कि छब्बीस सालों तक सभी गोपनीय राजों को अपने सीने में दफन करने वालों की तंद्रा अब क्यों टूटी और अगर उन्होंने किसी के दबाव में अपने कर्तव्यों से मुंह मोडा था तो क्यों न उनसे छब्बीस साल का वेतन भत्ते और सारे सत्व जो उन्होंने इन छब्बीस सालों में लिए हैं, वे उनसे वापस ले लिए जाएं। वह पैसा आखिर जनता के गाढे पसीने की कमाई का ही था, अगर वे सेवानिवृत हो चुके हैं तो इन सभी की पेंशन तत्काल प्रभाव से रोक देना चाहिए। कोई भी सरकारी नुमाईंदा क्या दबाव में नौकरी करता है। सत्तर के दशक के पहले तो लोग भ्रष्टाचार करने से घबराते थे, इसे सामाजिक बुराई की संज्ञा दी जाती थी। क्या हो गया है कांग्रेस को आधी सदी से ज्यादा देश पर राज करने वाली कांग्रेस का चेहरा क्या इतना भयानक है कि सच्चाई सामने आते ही लोग इससे घ्रणा करने लगेंगे। क्या पंद्रह हजार से ज्यादा लाशों के एवज में कंाग्रेस ने दुनिया के चौधरी अमेरिका से निजी तोर पर ‘‘मुआवजा‘‘ लेकर देश को अंग्रेजों के हाथों बेच दिया था चोरासी में। कांग्रेस को इसका जवाब देना होगा। मरहूम राजीव गांधी की बेवा कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी को अपना मौन तोडना ही होगा, वरना उनकी चुप्पी राजीव गांधी के उपर लगने वाले आरोपों की मौन स्वीकारोक्ति ही समझी जाएगी। एक बात और समझ से परे ही है कि इतने बडे नरसंहार के बाद सालों साल घिसटने वाले मृतकों के परिवार और पीडितों की व्यथा देखने के बाद भी एक ‘‘मा‘‘ सोनिया गांधी का दिल क्यों नहीं पसीज पा रहा है। क्या कारण है कि इतनी बडी त्रासदी के एक के बाद एक घुमावदार पेंच सामने आने के बाद भी वे चुपचाप ही बैठी हैं!

बहरहाल इतना वक्त बीत जाने के बाद भी अब हमारे पास खोने को कुछ भी नहीं है, जो भी होगा हम पाएंगे ही। इसलिए भारत सरकार को अब चेतना चाहिए। उपरी अदालतों में जाकर इसकी कमियां खोजकर नए सिरे से पहल करना आवश्यक है। इस मामले में सरकार को आगे आना होगा। इस मामले में सरकरों की मंशा आईने की तरह साफ है, जनता जनार्दन की कीमत उनकी नजरों में चुनावों के दौरान वोट से ज्यादा कतई नहीं है। स्वयं सेवी संगठनों द्वारा लंबे समय से लडाई लडी जा रही है, कुछ संगठनों पर निहित स्वार्थ सिद्धि के आरोप भी मढे जाते रहे हैं। मीडिया पहली बार खुलकर इस मामले में सामने आया है, जिसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करना होगा। सालों बाद पहली बार लगा कि प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ भी जीवित है। अगर माननीय उपरी न्यायालय स्वयं ही संज्ञान लेकर समय सीमा में इस मामले को निपटाने का प्रयास करे तो निश्चित तौर पर यह एक बेहतरीन नजीर बनकर सामने आ सकता है।

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