गुरुवार, 1 मार्च 2012

मौलिक चिंतन का महाजन



मौलिक चिंतन का महाजन

(संजय तिवारी)

समझ साफ हो तो जिंदगी सहज हो जाती है. नासमझी उलझने पैदा करती है. यह बात व्यक्तिगत जीवन में जितना लागू होती है उतना ही सामाजिक क्षेत्र या राजनीतिक चिंतन करते समय भी जरूरी होती है. हमारे आस पास बहुतेरे ऐसे लोग उपलब्ध हैं जो निजी जीवन से लेकर सार्वजनिक जीवन तक उलझे हुए नजर आते हैं. अपने अभी तक के जीवन में दो लोग ऐसे मिले हैं जो सुलझकर सहज हो गये लगते हैं. एक आचार्य नागराज जो कि जीवन विद्या के संस्थापक हैं और दूसरे बजरंगमुनि. आचार्य नागराज के बारे में हमारा समय ज्यादा जान नहीं पाया है लेकिन वे चेतना के जिस धरातल पर हैं वह जागृति की अवस्था है. अगर आप आचार्य नागराज के आस पास रहते हैं तो आपको महसूस होता है कि कम से कम उनके प्रभाव के दायरे में कोई उलझन नहीं है. प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं, जिज्ञासाएं तो जैसे बचती ही नहीं है. बजरंगमुनि से मिलते हैं तो भी हमारे सामाजिक और राजनीतिक सवालों को लेकर वही समाधान प्रस्तुत हो जाता है जो आचार्य नागराज के सामने आध्यात्मिक जगत के लिए होता है.
जैसे ही हमारी समझ साफ होती है हम सहज हो जाते हैं और जैसे ही हम सहज होते हैं हमारा चिंतन मौलिक हो जाता है. लौकिक हो जाता है. पारलौकिक विषयों की रहस्यवादी दुनिया और लौकिक विषयों की वास्तविक दुनिया में कोई भेद ही नहीं है. समझ की पैदाइश हो गई तो यह बात बिल्कुल अटपटी नहीं लगती है कि राजनीतिक सुधारों से व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है. अभी एक दिन पहले ही अमेरिकी विचारक एर्न्ड्यू कोहेन भी तो यही बोल रहे थे. किसी ने उनसे पूछा कि संसार में समस्याएं क्यों हैं तो उन्होंने कहा कि यह अविकसित रह जाने के कारण है. जैसे ही हमारा विकास पूरा होगा हमारी समस्याएं समाप्त हो जाएगी. एन्ड्रयू जब ऐसा कह रहे थे तो उनका आशय रोटी, कपड़ा और मकान भर से था. सम्यक रूप से भौतिक जरूरतें पूरी हो जाएं तो आध्यात्मिकता को प्रकट होने में वक्त कहां लगता है? भारत जैसे देश में जहां हमारे लिए हमारे राज्य प्रशासन ने अधिकांश जरूरतें पैदा कीं और उन्हें पूरा करने के नाम पर हमें भ्रमित करता है, कम से वहां यह बात अक्षरशरू लागू होती है.
बजरंग मुनि का लौकिक चिंतन इन्हीं मौलिक और मूलभूत जरूरतों को पूरा करने की दिशा में है. आचार्य नागराज की तरह वे किसी आध्यात्मिक उत्थान की शिक्षा नहीं देते. वे तो भारत की वर्तमान समस्या को वर्तमान के नजरिये से ही देख रहे हैं और उसका समाधान प्रस्तुत कर रहे हैं. उनके चिंतन में अतीत का कोई आवरण नहीं है. निहायत ही मौलिक तरीके से वे जब कहते हैं कि सब सुधरेंगे, तीन सुधारे, नेता कर कानून हमारे. तो एक बारगी हंसी छूट जाती है. यह कौन सा मौलिक चिंतन है? इसमें ऐसा क्या है जो हम नहीं जानते? और उस पर से बजरंग मुनि का तुर्रा यह कि इस निष्कर्ष पर पहुंचने में उन्होंने तीस साल लगा दिये हैं? तीस साल की तपस्या में ये तीन मामूली सी बातें भला कोई समाधान हो सकती हैं क्या?
लेकिन उनकी ये तीन मौलिक बातें मन में उतरती हैं तो मजा आता है. अगर आप ध्यान से अपनी निजी जिंदगी को देखें तो पायेंगे कि राजनीति, अर्थनीति और कानून हमारे लिए हमारी समस्त परेशानियों का कारण हैं. राजनीति का केन्द्र नेता है. अर्थनीति का केन्द्र कर प्रणाली है और उल्टे सीधे कानूनों के कारण हमारी जिंदगी से मौलिकता कहां गायब हो गई है इसे झक मारकर भी नहीं खोज सकते. मानवीय इतिहास में नेतृत्व एक अनिवार्य सत्य है. किसी भी समाज में नेतृत्व के बिना व्यवस्था संचालित नहीं हो सकती. यह नेतृत्व आकाशीय हो सकता है, कबीलाई हो सकता है, राज व्यवस्था का हो सकता है या फिर लोकतंत्र का. नेतृत्व के बिना मानव समाज अपना उद्धार नहीं कर सकता. मानव जाति की कलेक्टिव इच्छाशक्ति जब घनीभूत होती है तो उन्हीं के बीच से नेतृत्व पैदा होता है. हाल फिलहाल को देखें तो गांधी कोई आसमान से नहीं आये थे. वे हमारी कलेक्टिव इच्छाशक्ति के प्रतीक पुरुष थे. राम हो, पैगम्बर मोहम्मद हो, ईसा हों या फिर कोई महात्मा गांधी या नेल्सन मंडेला. मानव समाज की जितनी मात्रा में कलेक्टिव इच्छाशक्ति होती है उसी अनुपात में हमारे बीच से कोई पुरुष पैदा होता है जो वांछित शक्तियों का वाहक बनकर हमारा नेतृत्व करता है. अगर इस समझ से हम अपने नेता की ओर देखें तो क्या उसे सुधारने की जरूरत नहीं है?
बजरंग मुनि तब बजरंगलाल अग्रवाल होते थे और राजनीतिक व्यक्ति थे. उन्होंने चुनावी राजनीति को तिलांजलि देकर आज से करीब 25 साल पहले अपने आपको राजनीतिक संन्यासी घोषित कर लिया था. वह 25 दिसंबर 1984 था जब उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान अपनी सारी राजनीतिक जिम्मेदारियों को पूरा करके खुद को राजनीतिक सन्यासी घोषित कर लिया था. उस वक्त उन्होंने तय किया वे घर परिवार से अलग होकर रहेंगे और राजनीतिक चिंतन करेंगे. अपने जन्मक्षेत्र और बाद में कर्मक्षेत्र बने अंबिकापुर को ही उन्होंने अपना संन्यास क्षेत्र बनाया और खुद को सक्रिय राजनीति से अलग कर लिया. उस वक्त उन्होंने घोषणा किया था कि 2009 तक संविधान संशोधन हो जाएगा और इस संविधान के कारण जो भारतीय मनुष्यों के सामने समस्याएं हैं वे समाप्त हो जाएगी. राजनीतिक सन्यास के दौरान ही उन्होंने संविधान पर जमकर शोध किया और आज वे जो तीन निष्कर्ष बता रहे हैं यह उसी शोध से निकला परिणाम है. उनके शोध के दौरान दिल्ली से भी विशेषज्ञ उनके पास जाते थे और विचार विमर्श तथा शोध करीब 15 साल चला. उनकी योजना थी कि उनका शोध दस साल में पूरा हो जाएगा और वे दस साल में व्यवस्था परिवर्तन का सूत्र समाज को सौंप देंगे. लेकिन जैसा कि होता है अच्छे काम बिना विघ्न के संपन्न नहीं होते. बजरंग मुनि बताते हैं कि जैसे ही मध्य प्रदेश सरकार को यह बात पता चली उन्होंने तरह तरह से परेशान करने की कोशिश की जिसके कारण उनके इस शोध में करीब चार साल और लग गये और नवंबर 1999 में उन्होंने व्यवस्था परिवर्तन का सूत्र समाज को सौंप दिया.
उनका अध्ययन समग्र है. अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने समाज से जुड़े हर विषय पर मौलिक चिंतन किया है और उसका निष्कर्ष सामने रखा है. लेकिन इन निष्कर्षों के मूल का निष्कर्ष वही जो हम शुरू में समझ आये हैं. वे मानते हैं कि अगर इस देश में नेता, कर और कानून को ठीक कर दिया जाये हमारे देश की मानवीय समस्याओं का बहुत हद तक निदान हो जाएगा. उन्होंने जो शोध किया वह महज शोध ही नहीं रहा. वे रामानुजगंज के महापौर बने और अपने अध्ययन को अपनी नगरपालिका में लागू भी किया. प्रयोग का यह क्षेत्र भले ही तीन वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में सीमित रहा हो लेकिन उनके सफल प्रयोग से प्रेरित होकर छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार ने भी माना था कि रामानुजगंज में रामराज्य है. बजरंगमुनि का यह प्रयोग भले ही सीमित क्षेत्र में हुआ हो लेकिन उसकी संभावनाएं असीमित क्षेत्र के लिए भी हैं.
बजरंगमुनि का अपना निष्कर्ष है कि भारत में ग्यारह प्रकार की अनियंत्रित समस्याएं हैं जिनपर रोक लगाना बहुत जरूरी है लेकिन क्योंकि इन अनियंत्रित समस्याओं के कारण राजनीतिक हित सधते हैं इसलिए इन पर लगाम लगाने की बजाय हमारी राजनीति इनको बढ़ावा देती है. वे जिन 11 प्रकार की अनियंत्रित समस्याओं की ओर संकेत करते हैं वे हैं- चोरी डकैती, बलात्कार, मिलावट, जालसाजी, हिंसा आतंकवाद, भ्रष्टाचार, चरित्रपतन, सांप्रदायिकता, जातीय कटुता, आर्थिक असमानता और श्रम शोषण. अपने अध्ययन की समाप्ति के बाद वे अपने इन्हीं निष्कर्षों और इसकी व्याख्या को लेकर पूरे देश में जा रहे हैं. पिछले करीब एक दशक से यात्राओं और सभाओं के जरिए उन्होंने देशभर ये बातें समझाने की कोशिश की है कि जिसे हमारी समस्या बताया जा रहा है वह असल में कृतिम समस्या है जबकि हमारी मूल समस्या की ओर सरकारें जानबूझकर न ध्यान देती हैं और न ध्यान देने देती हैं.
हाल में अपनी एक और यात्रा पूरी करके दिल्ली पहुंचे बजरंग मुनि से जब हमने जानना चाहा कि करीब एक दर्जन राज्यों की यात्रा करने के बाद आपको कौन सी बात सबसे अधिक अखरती है तो उन्होंने कहा कि शरीर के व्यायाम पर जितना जोर बढ़ा है बुद्धि का व्यायाम उतना कम हो गया है. बकौल, बजरंगमुनि अब देश में बुद्धि की व्यायामशालाएं खोलने की जरूरत हैं ताकि लोग कम से कम अपने हित और अहित के बारे में निर्णय तो कर सकें. प्रक्षेपित ज्ञान ने हमें इतना आक्रांत कर दिया है कि हमारी अपनी मौलिक चिंतन की क्षमता ही खत्म होती जा रही है. शायद यही कारण है कि आज के विवेकशून्य होते दौर में हमें बजरंग मुनि मौलिक चिंतन के महाजन नजर आते हैं जिन्हें सुनने और समझने की जरूरत है. किसी और के लिए नहीं, बल्कि अपने खुद के लिए.

(लेखक विस्फोट डॉट काम के संपादक )

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