शुक्रवार, 1 मार्च 2013

प्राथमिकताओं में शिक्षा है निचली पायदान पर!


प्राथमिकताओं में शिक्षा है निचली पायदान पर!

(लिमटी खरे)

‘‘गुरू गोबिंद दोउ खड़े, काके लागू पाय, बलिहारी गुरू आपकी गोविंद दियो बताए‘‘। यह सुप्रसिद्ध दोहा आज के हुक्मरानों की समझ से परे ही नजर आ रहा है। इस साल के बजट में भी पलनिअप्पम चिदम्बरम की बाजीगरी साफ दिखाई पड़ रही है। चिदम्बरम के बजट में यह बात लोगों को लुभा सकती है कि शिक्षा मंत्रालय के लिए सरकार ने लगभग एक लाख करोड़ रूपए का प्रावधान किया है, जबकि यह भारत गणराज्य की वर्तमान शैक्षणिक जरूरतों के हिसाब से उंट के मुंह में जीरा ही है। इसका कारण कुल बजट आवंटन का पंद्रह से बीस फीसदी ही असल काम में खर्च हो पाना है। सरकार शिक्षा के अधिकार कानून का ही अनुपालन सुनिश्चित नहीं कर पा रही है, और साथ ही साथ सरकार का मानव संसाधन विभाग भी शिक्षा को लेकर प्रयोग पर प्रयोग करने आमदा नजर आ रहा है।

शिक्षा से ही अच्छे संस्कार और अच्छे संस्कारों से ही अच्छे राष्ट्र का निर्माण हो सकता है। भारत गणराज्य की स्थापना के साथ ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय के जिम्मे आधुनिक भारत को गढ़ने के लिए शिक्षा प्रणाली को निर्धारित करने की जवाबदेही सौंपी गई थी। भारत गणराज्य में शिक्षा को लेकर नित नए प्रयोग होते रहे हैं। याद पड़ता है कि कभी मानव संसाधन मंत्री रहे कुंवर अर्जुन सिंह ने एचआरडी की बागडोर संभालते ही शिक्षा में व्याप्त हिंसा को दूर करने की बात कही तो मुरली मनोहर जोशी के मानव संसाधन मंत्री बनते ही शिक्षा के भगवाकरण के आरोप लगने लगे।
आम जनता विशेषकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के लिए यह बात सुकून दायक हो सकती है कि वित्त मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम ने देश के आम बजट में शिक्षा मंत्रालय के लिए एक लाख करोड़ रूपए से भी ज्यादा का प्रावधान किया है। देखा जाए तो यह 12वींपंचवर्षीय योजना में शैक्षणिक जरूरतों के हिसाब से बेहद कम ही है। शिक्षा के लिए आवंटित कुल राशि में से 65867 करोड़ रुपये विकासात्मक कार्यों के लिए हैं। इसमें सबसे ज्यादा धनराशि स्कूली शिक्षा विशेष रूप से आरटीई के तहत स्कूलों के विस्तार, शिक्षकों की भर्ती एवं वेतन तथा मिड डे मील पर खर्च की जाएगी।
इसी तरह उच्च शिक्षा के लिए कुल 16198 करोड़ दिए गए। इस धनराशि से देश के पांच सौ से अधिक विश्वविद्यालय तथा हजारों की संख्या में महाविद्यालयों के विकास की बात सोचना भी बेमानी है। वहीं केंद्र की सबसे चर्चित आरटीई योजना के लिए चालू वर्ष में कुल 25 हजार करोड़ मिले थे किंतु बाद में दो हजार करोड़ रुपये की कटौती कर दी गई। इस साल आरटीई मद में 27000 करोड़ का प्रस्ताव है। अप्रैल 2013 से देश में आरटीई कानून लागू हो जाएगा। देश के तमाम राज्यों में अभी तक स्कूली ढांचा भी पूरी तरह खड़ा नहीं हो सका है।
विशेषज्ञों की मानें तो बजट का यही हाल रहा तो आरटीई का लक्ष्य पूरा करने में अभी पांच साल और लगेंगे। माध्यमिक शिक्षा अभियान के लिए इस बार बजट में कुछ वृद्धि की गई है लेकिन बढ़ती जरूरतों के लिए और अधिक बजट एवं प्रयासों की आवश्यकता होगी। उच्च शिक्षा के लिए कुल 16210 करोड़ इसमें से सात हजार करोड़ विश्वविद्यालयों को अनुदान के मद में, छात्रों को वित्तीय मदद के रूप में 1200 करोड़ तथा तकनीकी शिक्षा के लिए 7229 करोड़ रुपये का प्रावधान है। बजट में सूचना, संचार एवं तकनीकी के जरिए शिक्षा को बढ़ावा देने लिए 400 करोड़ रुपये दिए जाएंगे। यदि शिक्षा के विकास के पांच साल के आंकड़े को देखें तो यह धनराशि बहुत कम है।
अक्सर देखा गया है कि देश में जब भी किसी भी चुनाव की रणभेरी बजती है, वैसे ही राजनैतिक दल अपने अपने एजेंडे सेट करने में लग जाते हैं। कोई मंहगाई को तो कोई बेरोजगारी को टारगेट करता है। देश के अंतिम छोर के व्यक्ति की पूछ परख के लिए घोषणापत्र तैयार किए जाते हैं। मतदाताओं को लुभाने के उपरांत इन मेनीफेस्टो को खोमचे वालों को बेच दिया जाता है।
पिछले कई सालों से तैयार हो रहे मेनीफेस्टो में एक बात खुलकर सामने आई है कि चाहे आधी सदी से अधिक राज करने वाली कांग्रेस हो या दो सीटों के सहारे आगे बढ़कर देश की सबसे बड़ी पंचायत पर कब्जा करने वाली भारतीय जनता पार्टी, किसी भी राजनैतिक दल ने अपने घोषणा पत्र में स्कूली बच्चों के लिए कुछ भी खास नहीं रखा है। यूपीए वन एवं टू के मेनीफेस्टो को अगर उठाकर देखा जाए तो उनके घोषणापत्र में शिक्षा को लेकर बढ़ा चढ़ाकर बातें की गईं थीं किन्तु जब अमली जामा पहनाने की बारी आई तो नेताओं ने किनारा ही कर लिया।
कितने आश्चर्य की बात है कि देश के नौनिहाल जब अट्ठारह की उमर को पाते हैं, तो उनके मत की भी इन्हीं राजनेताओं को बुरी तरह दरकार होती है, किन्तु धूल में अटा बचपन सहलाने की फुर्सत किसी भी राजनेता को नहीं है। हमें यह कहने में किसी तरह का संकोच अनुभव नहीं हो रहा है कि चूंकि इन बच्चों को वोट देने का अधिकार नहीं है, अतः राजनेताओं ने इन पर नजरें इनायत करना मुनासिब नहीं समझा है।
इस तरह की राजनैतिक आपराधिक अनदेखी के चलते देश भर के स्कूल प्रशासन ने भी बच्चों की सुरक्षा के इंतजामात से अपने हाथ खींच रखे हैं। हर एक निजी स्कूल में ढांचागत विकास के नाम पर बिल्डिंग, लाईब्रेरी, गेम्स, कंप्यूटर, सोशल एक्टीविटीज आदि न जाने कितनी मदों में मोटी फीस वसूली जाती है। एक तरफ शासन प्रशासन जहां ध्रतराष्ट्र की भूमिका में है तो स्कूल प्रशासन दुर्दांत अपराधी दाउद की भूमिका में अविभावकांे से फीस के नाम पर चौथ वसूल कर रहा है। देश के स्कूलों का अगर सर्वे करवा लिया जाए तो पंचानवे फीसदी स्कूलों में अग्निशमन के उपाय नदारत ही मिलेंगे।
याद पड़ता है, सत्तर के दशक के पूर्वार्ध तक प्रत्येक शाला में स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन किया जाता था। हर बच्चे का स्वास्थ्य परीक्षण करवाना शाला प्रशासन की नैतिक जिम्मेदारी हुआ करता था। शिक्षक भी इस पुनीत कार्य में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया करते थे। उस वक्त चूंकि हर जिले में पदस्थ जिलाधिकारी (डिस्ट्रिक्ट मेजिस्ट्रेट) व्यक्तिगत रूचि लेकर इस तरह के शिविर लगाना सुनिश्चित किया करते थे। आज इस तरह के स्कूल निश्चित तौर पर अपवाद स्वरूप ही अस्तित्व में होंगे जहां विद्यार्थियों के बीमार पड़ने पर समुचित प्राथमिक चिकित्सा मुहैया हो सके।
कितने आश्चर्य की बात है कि आज जो शिक्षक अपना आधा सा दिन अपनी कक्षा के बच्चों के साथ बिता देते हैं, उन्हें अपने छात्र की बीमारी या तासीर के बारे में भी पता नहीं होता। मतलब साफ है, आज के युग में शिक्षक व्यवसायिक होते जा रहे हैं। आज कितने एसे स्कूल हैं, जिन में पढ़ने वालों की बीमारी से संबंधित रिकार्ड रखा जा रहा होगा?
स्कूल में दाखिले के दौरान तो पालकों को आकर्षित करने की गरज से शाला प्रबंधन द्वारा लंबे चौड़े फार्म भरवाए जाते हैं, जिनमें ब्लड गु्रप से लेकर आई साईट और न जाने क्या क्या जानकारियों का समावेश रहता है। सवाल इस बात का है कि इस रिकार्ड को क्या अपडेट रखा जाता है? जाहिर है इसका उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा।
दरअसल हमारा तंत्र चाहे वह सरकारी हो या मंहगे अथवा मध्यम या सस्ते स्कूल सभी संवेदनहीन हो चुके हैं। मोटी फीस वसूलना इन स्कूलों का प्रमुख शगल बनकर रह गया है। आज तो हर मोड पर एक नर्सरी से प्राथमिक स्कूल खुला मिल जाता है। कुछ केंद्रीय विद्यालयों में तो प्राचार्यों की तानाशाही के चलते बच्चे मुख्य द्वार से लगभग आधा किलोमीटर दूर तक दस किलो का बस्ता लादकर पैदल चलते जाते हैं, क्योंकि प्राचार्यों को परिसर में आटो या रिक्शे का आना पसंद नहीं है। अगर देखा जाए तो देश का कमोबेश हर स्कूल मानवाधिकार का सीधा सीधा उल्लंघन करता पाया जाएगा। आज जरूरत इस बात की है कि देश के भाग्यविधाता राजनेताओं को इस ओर देखने की महती आवश्यक्ता है, क्योंकि उनके वारिसान भी इन्हीं में से किसी स्कूल में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे होंगे या करने वाले होंगे। (साई फीचर्स)

1 टिप्पणी:

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