गुरुवार, 30 जून 2011

. . . इसलिए कत्लखाने जाने लगी गायें

कहां जाती हैं पकड़ी गई गायें ---- 2

. . . इसलिए कत्लखाने जाने लगी गायें

(लिमटी खरे)

मीडिया में जब तब यह खबर सुर्खियों में रहा करती है कि फलां जगह से कत्लखाने ले जाई जा रही ट्रक भरकर गाय पकड़ी गईं। सवाल यह उठता है कि इक्कीसवीं सदी के आगाज के साथ ही सनातन पंथियों की अराध्य गौ माता को आखिर कत्लखाने क्यों और कैसे ले जाया जाने लगा। आखिर वे कौन सी ताकतें हैं जो हष्ट पुष्ट और जवान गाय को कत्लखाने भेजने पर आमदा हैं? देश में गौ मांस पर प्रतिबंध है, फिर भी कामन वेल्थ गेम्स में गौ मांस को परोसे जाने पर जमकर तूफान मचा था। गाय को माता का दर्जा दिया गया है फिर उसे काटकर उसका मांस भक्षण के लिए कैसे राजी हो जाते हैं गौ पालक? जाहिर है इसके पीछे कहीं न कहीं सोची समझी रणनीति और साजिश ही काम कर रही है। सरकार को इसकी तह में जाना ही होगा वरना इनसे फैलने वाला जहर लोगों को अपने आगोश में ले चुका होगा।

दूध और उससे बने पदार्थ हमारे दैनिक जीवन की जरूरत का अभिन्न अंग बन चुके हैं। दूध का प्रमुख स्त्रोत सदा से गाय ही रही है। वैसे भैंस, बकरी, उंट आदि का दूध भी उपयोग में लाया जाता है, किन्तु गाय के दूध की बात ही कुछ और है। आदि अनादि काल से गाय का दूध ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। नवजात शिशू को भी अगर जरूरत पड़ती है तो गाय का ही दूध देने की सलाह दी जाती है। गाय के दूध में अनेक गुण होते हैं।

शहरों में दूध डेयरियों में गाय का स्थान वैसे तो भैंस ने ले लिया है, क्योंकि भैंस को ज्यादा घुमाना फिराना नहीं होता है। एक ही स्थान पर बंधी भैंस सालों साल दूध देने का काम करती है, जबकि गाय को चरने के लिए भेजना जरूरी होता है। लोग इस बात को भूले नहीं होंगे जब सुबह गाय चराने वाला चरवाहा घरों से गाय लेकर जंगल जाता और दिन भर उन्हें चराता और दिन भर बांसुरी बजाकर अपना समय काटता फिर शाम को गौ धूली बेला पर गाय को वापस लाकर घर में छोड़ जाता।

इक्कीसवीं सदी में दूध डेयरी और कत्लखानों में बड़ा गहरा नाता स्थापित हो चुका है। दूध की बराबर कीमत न मिल पाने पर ग्वालों ने भी मजबूरी में अपनी कामधेनू गाय को पैसा कमाने की मशीन में तब्दील कर दिया है। दूध डेयरी वालांे और ग्वालों ने गाय, भैंस को चारे के साथ यूरिया और आक्सीटोन जैसे इंजेक्शन लगाकर कम समय में ही कई गुना दूध प्राप्त किया जा रहा है। कल तक जबकि पैकेट वाला दूध बाजार में नहीं था, तब तक ग्वाले ही घरों घर जाकर दूध का वितरण किया करते थे। उस वक्त दुग्ध संघ के माध्यम से आधे लीटर की बोतल में दूध अवश्य ही मिला करता था।

दूध के बाजार पर जैसे ही बड़ी कंपनियों ने कब्जा जमाया और अन्य जिंसों की तरह ही दूध को भी प्लास्टिक के पैकेट में बंद कर बेचना आरंभ किया इन ग्वालों की रोजी रोटी पर संकट खटा हो गया। इसके बाद दूध के फैट का निर्धारण कर उसकी दरें तय की गईं। इस नई व्यवस्था में ग्वालों से दूध खरीदने वाले व्यापारियों ने दूध का फैट निकालकर ग्वालों को दाम देने तय किए। घरों घर जाकर पर्याप्त मात्रा में पैसा न मिल पाने से परेशान ग्वालों के लिए यह वरदान ही था कि वे अपना दूध एक ही व्यापारी को बेच दें भले ही उसकी कीमत उतनी न मिल पाए। इससे उनका परिश्रम और समय दोनों ही बचना आरंभ हो गया। यही कारण है कि अब महानगरों के साथ ही साथ छोटे शहरों में भी पैकेट बंद दूध का प्रचलन काफी मात्रा में बढ़ गया है।

अधिक लाभ की चाहत में इन व्यापारियों द्वारा बड़ी कंपनियों की तर्ज पर ग्वालों को यह समझाईश दी गई कि अगर भूसे की परत में थोड़ा सा यूरिया छिड़क दिया जाए और इस भूसे को दो तीन माह बाद गाय को खिलाया जाए तो दूध में फैट की मात्रा बढ़ जाएगी। यह योजना कफी हद तक कारगर साबित हुई। इसके बाद महज 18 पैसे के आक्सीटोन इंजेक्शन को गाय को दुहने के थोड़ी देर पहले अगर लगा दिया जाए तो उसका दूध बढ़ जाएगा। माना जाता है कि इस इंजेक्शन से गाय के शरीर से दूध और प्रोटीन निचुड़कर उसके दूध के रास्ते बाहर आ जाता है। इन दोनों ही चमत्कारिक तकनीक से ग्वालों को अपनी गाय से अधिक मात्रा में दूध वह भी पर्याप्त फैट वाला मिलने लगा।

इस तरह खुश होने वाले ग्वाले और व्यापारियांे ने इसके दुष्परिणामों के बारे में विचार नहीं किया। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि बारह से पंद्रह साल तक स्वस्थ्य रहकर दूध देने वाली गाय का दूध महज तीन से चार साल में ही समाप्त हो गया। इस अवधि के बाद ग्वालों के लिए गाय सफेद हाथीसाबित होने लगी। गाय को बिना दूध दिए खिलाने में ग्वालों को कठिनाई महसूस हुई तो उन्होंने इसे बेचकर दूसरी गाय खरीदने में समझदारी समझी। अब यक्ष प्रश्न यह सामने आया कि बिना दूध देने वाली गाय को खरीदे कौन?

देखरेख के अभाव में जल्दी ही इस तरह की गाय दम तोड़ने लगीं। इसके शव से चमड़ा उतारकर शेष मांस को जंगलों मंे फिकवा दिया जाता। जहां प्रकृति का ईमानदार और स्वाभाविक सफाई कर्मी गिद्ध इसे चट कर जाता। चूंकि आक्सीटोन और यूरिया के कारण इसका मांस विषाक्त हो चला था, इसलिए इसका भक्षण करने वाले गिद्ध भी इस दुनिया से एक एक कर जाने लगे। आज गिद्ध की गिनती अगर विलुप्त प्रजाति में होती है तो इसके पीछे दुधारू पशुओं का दूध बढ़ाने आक्सीटोन और यूरिया का सहारा लेना प्रमुख कारण है।

कमजोर और बिना दूध देने वाली गाय को ठिकाने लगाने का इंतजाम भी सामने आया। कत्लखाने ले जाने वालों ने गांव गांव जाकर इस तरह की गायों को खरीदना आरंभ किया। आरंभ में तो इसे पूजा के बाद दान में देने की बात कही जाती रही किन्तु धीरे धीरे यह बात खुल गई कि कत्लखाने वालांे को इसके दूध से कोई लेना देना नहीं है उन्हें तो मतलब इसके मांस से है। दुधारू पशुओं को पालकर उससे जीवोकापर्जन करने वाले लोग अपनी माता समान गाय को कसाईयों के हाथों बेचने लगे जो सच्चे कलयुग की निशानी मानी जा सकती है।

दुधारू पशुओं की कमी के कारण अब सिंथेटिक दूध भी बाजार में आ गया है, जिसे देखकर असली नकली की पहचान करना बहुत ही मुश्किल है। महानगरों के साथ ही साथ भाजपा शासित राज्यों विशेषकर मध्य प्रदेश में गौकशी की घटनाओं में जबर्दस्त उछाल दर्ज किया है। मध्य प्रदेश महाराष्ट्र सीमा पर गायों को कत्लखाने ले जाने के प्रकरण जब तब सामने आते हैं। राजधानी भोपाल में ही बकरे का मांस 100 रूपए प्रति किलो से ज्यादा तो अन्य मांस महज बारह से बीस रूपए प्रति किलो की दर पर सरेराह उपलब्ध है। आज जबकि कट चाय ही पांच रूपए प्रति गिलास उपलब्ध है, उस मंहगाई के जमाने में मटन कवाब महज डेढ़ रूपए में तला हुआ मिल रहा है पुराने भोपाल में! मुनाफे के लिए व्यवाईयों द्वारा लोगों के स्वास्थ्य के साथ जबर्दस्त तरीके से खिलवाड़ किया जा रहा है, जिसे रोकना ही होगा वरना आने वाला कल बहुत ही भयावह होने वाला है।

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