शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार के ‘‘ईमानदार संरक्षक‘‘ मनमोहन

भ्रष्टाचार के ‘‘ईमानदार संरक्षक‘‘ मनमोहन

(लिमटी खरे)

पांच संपादकों की ‘टोली‘ के सामने अपने आप पर अघोषित तौर पर लगे ‘कमजोर‘ के तगमे को खुद ही खारिज करने से प्रधानमंत्री अपने आप को मजबूत साबित नहीं कर पाए हैं। इसके पहले फरवरी में चुनिंदा न्यूज चेनल्स के साथ अपनी बात रखकर पीएम ने कुछ इसी तरह का उपक्रम किया था। हर मोर्चे पर असफल प्रधानमंत्री ने जनता को संदेश देने के लिए सरकारी माध्यम ‘दूरदर्शन‘ और ‘आकाशवाणी‘ के बजाए निजी समाचार चेनल्स और संपादकों की टोली को चुनकर साफ कर दिया है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय के सबसे सशक्त इन दोनों माध्यमों पर से न केवल जनता का भरोसा उठा है, वरन सरकार का भरोसा भी इस पर से उठ चुका है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि खुद सत्ता की मलाई चखते रहने के लिए प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने आदिमत्थू राजा और सुरेश कलमाड़ी को जनता के गाढ़े पसीने की कमाई से भरे राजकोष को लूटने की खुली छूट दे रखी थी। देश के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या कहा जाएगा कि एक से बढ़कर एक नगीने होने के बाद भी कांग्रेस के सिपाहसलार सामंती तौर तरीकों से अपनी प्रजा (देश वासियांे) को सूचित कर रहे हैं कि अब फलां (युवराज राहुल गांधी) राज काज संभालने के योग्य हो गए हैं। राजा की सभा के सभासद (मंत्री और संगठन के पदाधिकारी) हाथ बांधे ‘युवराज की जय हा‘े का उद्घोष करने में व्यस्त हैं।
अर्थशास्त्र के प्रकाण्ड विद्व़ान माने जाते हैं वजीरे आजम डॉक्टर मनमोहन सिंह। डॉक्टर साहेब के प्रधानमंत्री बनते ही देश वासियों को लगने लगा था कि अब देश की अर्थव्यवस्था में सुधार आ जाएगा। जनता का यह भ्रम था कि अर्थशास्त्री के हाथ अगर देश की बागडोर सौंप दी जाए तो अर्थ व्यवस्था पटरी पर आ सकती है। जिस तरह किसी चिकित्सक को अगर देश का स्वास्थ्य मंत्री बना दिया जाए तो माना जाता है कि वहां स्वास्थ्य सुविधाएं कुछ तो सही हो जाएंगी। वस्तुतः लोकतंत्र वह भी इक्कीसवीं सदी के इस घटिया लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में देश को न अर्थ शास्त्री की आवश्यक्ता है और न ही किसी विशेष विधा में पारंगत नेता की। आज जरूरत है तो एक कुशल प्रशासक की, जो अपनी कुर्सी की परवाह न करते हुए देश हित में सहयोगी दलों या अपने ही दल के नुमाईंदों के हितों को न देखते हुए कड़े फैसले ले।

पांच क्षेत्रीय संपादकों के साथ बंद कमरे में प्रधानमंत्री ने क्या गुफ्तगू की किसी को पता नहीं। इसके बाद सरकारी तौर पर इस बैठक के बारे में कुछ नहीं कहा गया। देश के सामने इस बैठक की तस्वीर पेश की पांचों संपादकों ने। समूचे देश में एक ही बात सामने आ रही थी कि प्रधानमंत्री ने इन पांच लोगों को अपने घर बुलाकर चाय पिला, कुछ चर्चा कर सरकार के अघोषित पांच प्रवक्ता तैयार कर लिए हैं। होना यह था कि सरकार की ओर से इस बैठक की ब्रीफिंग मीडिया को दी जानी चाहिए थी, वस्तुतः एसा हुआ नहीं। कुल मिलाकर पीएम ने इन पांच कथित मीडिया मुगलों के साथ बंद कमरे में न जाने क्या बातचीत की जिसे लोग ‘डीलिंग‘ कह रहे हैं कि इन संपादकों के सुर ही बदल गए। सभी एक साथ सरकार की हां में हां मिलाने लगे। पीएम के मीडिया एडवाईजर्स का तीर निशाने पर लगा और कुछ दिनों के लिए ही सही पीएम की छवि मजबूत पेश हो गई वह भी कुछ चुनिंदा मीडिया घरानों में।

आज अगर पीएम और पांच क्षेत्रीय संपादकों की बैठक का विश्लेषण किया जाए तो सामने आने वाले तथ्य निराशाजनक ही हैं। बतौर प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन ंिसह ने भ्रष्टाचार और मंहगाई पर अपनी असफलता को छिपाने का सबसे उत्तम प्रयास किया था यह। प्रधानमंत्री ने कभी खुद को कमजोर नहीं कहा तो फिर वे अपने आप को ‘कमजोर नहीं‘ कहने के लिए कैसे उपयुक्त माने जा सकते हैं। जो कल तक उन्हें कमजोर कहते थे वे आज भी उन्हें कमजोर ही जता रहे हैं। कमोबेश हर संवेदनशील मुद्दे पर पीएम की खामोशी उनकी कमजोरी का परिचायक ही मानी जा सकती है।

पिछले तीन सालों से मंहगाई का रूख किसी से छिपा नहीं है। हर मर्तबा पीएम और वित्त मंत्री मंहगाई कम करने के लिए तीन तीन माह की ‘पेशी की तारीख‘ लेते जा रहे हैं। तारीख लेने के तत्काल बाद ही पीएम कहते हैं कि उनके हाथ में जादू की छड़ी नहीं है कि मंहगाई कम कर दें। संपादकों की टोली के साथ बैठक में उन्होंने इस बार सीधे नौ महीने की तारीख लेकर मामला मार्च तक टाल दिया है। बुद्धिजीवि संपादकों ने भी पीएम को पिछले तीन सालों से ‘तारीख पर तारीख‘ के बारे में कोई सवाल जवाब नहीं किया जाना साबित करता है कि वे भी प्रधानमंत्री की ‘चाय‘ से किस कदर ‘उपकृत‘ महसूस कर रहे थे।

दरअसल मंहगाई के मोर्चे पर पीएम पूरी तरह असफल ही साबित हुए हैं। दालों का ही मामला लें तो दालों के सबसे अधिक विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता टर्की, मियांमार और आस्ट्रेलिया से दालों की आपूर्ति सही तरीके से नहीं हो पाई। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार पर आरोप है कि उन्होंने देश की गरीब जनता के बजाए अपने मित्रों के व्यवसायिक हित साधे। मंहगाई सुरसा की तरह मुंह फाड़ रही है। अनाज खुले मंे पड़ा सड़ रहा है, न्यायालय इस पर संज्ञान ले रहा है, सरकार को निर्देश दे रहा है कि अगर इसे संभाल नहीं सकते तो गरीबों में बांट दो, पर नतीजा सिफर ही है। अगर यह अनाज गरीबों में बांट दिया जाएगा तो गोदामों में भरा औद्योगिक घरानों का अनाज मंहगी दरों पर कौन खरीदेगा? हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि मनमोहन की आर्थिक नीतियां महज कुछ औद्योगिक घरानों के हित साधने के लिए ही बनाई गई थीं। बार बार गठबंधन धर्म की दुहाई देने वाले वजीरे आजम यह भूल जाते हैं कि गठबंधन धर्म से बड़ा राष्ट्रधर्म है जिसके पालन में वे पूरी तरह असफल ही साबित हुए हैं।

इन संपादकों की टोली के साथ वार्ता के दौरान मनमोहन सिंह फरमा रहे थे कि मीडिया से उन्हें शिकायत है। मीडिया खुद ही अपील, दलील और मुंसिफ की भूमिका में आ जाता है। संपादक भी यह कहने का साहस नहीं जुटा पाए कि यह मीडिया ही है जिसने इतने घपले और घोटाले उजागर किए हैं। रही बात मुंसिफ या दलील अथवा अपील की तो जब सरकार का पक्ष सदा ही मौन रहे तो मीडिया को क्या करना चाहिए? क्या सरकार का यह दायित्व नहीं कि वह आरोपों का जवाब दे।

आज मीडिया के माध्यम से ही यह जानकारी भी सार्वजनिक हो रही है कि टूजी मामले में पीएमओ को सारी बातों की जानकारी थी। कामन वेल्थ गेम्स के घोटाले से भी पीएमओ अनजान नहीं था। जब ये परिस्थितियां हैं तो क्या देश की एक सौ इक्कीस करोड़ जनता के प्रति प्रधानमंत्री की यह जवाबदेही नहीं बनती कि वे सामने आएं और अपनी तथा प्रधानमंत्री कार्यालय की स्थिति स्पष्ट करें। दूसरों पर आरोप लगाना ‘परनिंद‘ जैसे सुख की अनुभूति करवाता है।

कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10, जनपथ (सोनिया गांधी का सरकारी आवास) और प्रधानमंत्री आवास के बीच खाई खुद चुकी है, जो सार्वजनिक तौर पर धुंधली दिखाई पड़ रही है। सोनिया ने भी प्रधानमंत्री को अकेला छोड़ दिया है। यही कारण है कि रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के साथ हुई रावणलीला के तत्काल बाद उन्होनें सरकार का बचाव करने के बजाए अपने पीहर ‘इटली‘ जाना उचित समझा। इतना ही नहीं युवराज राहुल ने भी माता का अनुसरण किया और नानी से मिलने जा पहुंचे।

एक तरफ तो प्रधानमंत्री खुद को मजबूत जताने का प्रयास करते हैं वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के मार्ग प्रशस्त करते नजर आते हैं। देश मंे लोकतंत्र की स्थापना के छः दशक बीत चुके हैं। आज राजशाही का कहीं नामोनिशान नहीं है, किन्तु कांग्रेस के राज में देश में स्थापित लोकतंत्र और कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र देखिए। देश के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या कहा जाएगा कि एक से बढ़कर एक नगीने होने के बाद भी कांग्रेस के सिपाहसलार सामंती तौर तरीकों से अपनी प्रजा (देश वासियांे) को सूचित कर रहे हैं कि अब फलां (युवराज राहुल गांधी) राज काज संभालने के योग्य हो गए हैं। राजा की सभा के सभासद (मंत्री और संगठन के पदाधिकारी) हाथ बांधे ‘युवराज की जय हा‘े का उद्घोष करने में व्यस्त हैं।

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