बुधवार, 7 नवंबर 2012

अंग्रेजी मीडिया के भरोसे छवि निर्माण की कोशिश का मन!


फेरबदल से क्या अलीबाबा . . . . 3

अंग्रेजी मीडिया के भरोसे छवि निर्माण की कोशिश का मन!

(लिमटी खरे)

भारत गणराज्य में कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के मनमोहनी कार्यकाल में देश की जनता को भ्रम में रखकर जिस कदर लूटा और भ्रमित किया गया है उतना इसके पहले कभी नहीं किया गया था। यह सच है कि देश की राजनीति की दशा और दिशा दिल्ली से ही निर्धारित होती है। दिल्ली में माहौल बनाने का काम मूलतः अंग्रेजी मीडिया ही किया करता है। इसका सबसे अहम कारण यह है कि देश के नीति निर्धारकों को देश की मातृ भाषा हिन्दी के बजाए ब्रितानी हुकूमत की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी से ज्यादा मोह है।
एक आंकलन के अनुसार देश के शीर्ष राजनेता (कुछ खालिस देशी नेताओं को छोड़कर) अंग्रेजी में ही सारी बातें समझा करते हैं। देश को हांकने वाली कांग्रेस की राजमाता (बकौल एमपीसीसी चीफ कांति लाल भूरिया - राष्ट्रमाता) सोनिया गांधी को भी हिन्दी नहीं आती। वे इतालवी या अंग्रेजी में लिखा लिखाया भाषण पढती हैं उदहारण के लिए काम के उच्चारण के लिए के ए एम लिखा होता है।
इसी तरह देश के अन्य शीर्ष नेताओं को हिन्दी बोलना तो आसान है पर हिन्दी पढ़ना या लिखने में उनकी नानी याद आ जाती है। यही कारण है कि दिल्ली में अंग्रेजी मीडिया का बोलबाला है। कंप्यूटर भी हिन्दी नहीं समझता। कंप्यूटर के सारे कमांड आज भी अंग्रेजी में ही देने होते हैं। ब्लाग के इंटरनेट पर आ जाने और यूनीकोड फान्ट ने हिन्दी को इंटरनेट पर काफी हद तक समृद्ध कर दिया है, वरना हिन्दी का तो नामलेवा ही नहीं था इंटरनेट पर।
भारत गणराज्य के वजीरे आजम डॉक्टर मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम भले ही अपने आप को महान अर्थशास्त्री प्रचारित करवाते रहे हों पर सच्चाई इससे एकदम उलट ही है। अंग्रेजी मीडिया के कुछ तबकों में अपनी मजबूत पकड़ का उपयोग कर दोनों ही महानुभाव अपने आपको कार्यकुशल और महान अर्थशास्त्री के बतौर महिमा मण्डित करवाने से नहीं चूकते हैं।
जहां तक रहा मंहगाई का सवाल तो रूपहले पर्दे की दामनीचलचित्र की तरह तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख से ही देश की जनता का मन बहलाते आए हैं मनमोहन सिंह। कभी सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए थर्ड ग्रेड हिन्दी फिल्म के डायलाग की तरह बोल देते हैं -‘‘पैसा पेड़ों पर नहीं उगता।‘‘ तो कभी -‘‘मेरे हाथ में जादू की छड़ी नहीं है।‘‘
दरअसल मनमोहन सिंह खुद को ईमानदार बताने के चक्कर में बेईमानों की फौज के सेनापति बन बैठे हैं। वे अब भ्रष्टाचार के ईमानदार संरक्षक बनकर रह गए हैं। रीढ़ विहीन व्यक्तित्व आखिर कर भी क्या सकता है। आज तक मनमोहन सिंह ने एक भी चुनाव नहीं जीता है और कांग्रेस की राष्ट्रमाता श्रीमति सोनिया गांधी के हाथ के चलते वे प्रधानमंत्री बने बैठे हैं। इन परिस्थितियों में उनका सोनिया का रबर स्टेंप बनना स्वाभाविक ही है।
रही बात सोनिया गांधी की तो सोनिया गांधी को देश की जनता से कोई लेना देना ही प्रतीत नहीं होता है। कांग्रेस का काम भी देश की सेवा के बजाए अब बस सोनिया राहुल की सेवा तक ही सीमित बचा है। कांग्रेस की आधिकारिक वेब साईट पर भी सिर्फ सोनिया और राहुल के गुणगान हो रहे हैं। पंडित नेहरू से लेकर नरसिंहराव तक इस वेब साईट से नदारत हैं।
एक प्रश्न आम भारतीय के दिमाग में घूमना स्वाभाविक ही है कि आखिर कौन है राहुल? क्यों किया जा रहा है इन्हें महिमा मण्डित? कांग्रेस के महासचिव और सांसद बस यही योग्यता है राहुल की। रही बात चमत्कारिक व्यक्तित्व की तो राहुल और सोनिया अपना घर उत्तर प्रदेश और अपने अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली और अमेठी ही नहीं बचा पा रहे विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनावों तो इस देश को क्या खाक बचाएंगे।
बहरहाल, इस सत्र में गेंहू के समर्थन मूल्य को ना बढ़ाकर कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने बहुत ही बड़ा आत्मघाती कदम उठाया है। सरकार ने रसूख वाली किसान लाबी को सिरे से नाराज कर दिया है। किसान लाबी के बीच असंतोष पनप रहा है। किसान लाबी का रोष और असंतोष इसलिए भी लाजिमी है क्योंकि जब पिछले एक दशक से गेंहू का समर्थन मूल्य बढ़ता रहा हो और चुनाव के 14 माह पहले ही इसे ना बढ़ाया जाए तो इसे क्या कहा जाएगा?
अदूरदर्शी सरकार और इन कथित अर्थशास्त्रियों के नए नए प्रयोगों के चलते इस तरह के हालात निर्मित हुए हैं। सरकार ने भले ही खुदरा स्तर पर गेंहू और रोटी के आटे के दामों को ना बढ़ने देने के लिए गेंहूं का समर्थन मूल्य ना बढ़ाया हो पर जिस तरह से मंहगाई अपने पैर पसार रही है उसे देखकर लगता नहीं कि घरों में पहुंचने वाला आटा मंहगाई के इस कैंसर से अछूता रह पाएगा। सरकार की सोच इस मसले पर भले ही आम उपभोक्ताओं को राहत देने की रही हो पर सरकार के इस कदम से ना तो किसानों का ही हित सधेगा और ना ही आम आदमी की रोटी सस्ती हो सकेगी।
दरअसल, सरकार को कार्यकाल आरंभ करते ही अर्थव्यवथा में ढांचागत सुधार की कवायद करनी चाहिए थे, वस्तुतः उस समय सरकार में बैठी कांग्रेस सत्ता के मद में चूर थी। अब जबकि देश चुनाव के मुहाने पर खड़ा हो तब इस तरह की सोच या कवायद आत्मघाती ही साबित हो सकती है। जिस किसी ने भी कांग्रेस को इस तरह की सोच पर काम करने का मशविरा दिया है वह निश्चित तौर पर यह चाह रहा होगा कि आने वाले समय में देश से कांग्रेस का नामोनिशान उसी तरह मिट जाए जिस तरह उत्तर प्रदेश, गुजरात और मध्य प्रदेश से मिट चुका है। (साई फीचर्स)
(क्रमशः जारी)

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