सोमवार, 25 जून 2012

दरिद्र का दान अमीरों के नाम


दरिद्र का दान अमीरों के नाम

(आनंद पाण्डेय / विस्फोट डॉट काम)

नई दिल्ली (साई)।ऐसे वक्त में जब भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा बुरी हो और दिशा निराशाजनक तब प्रधानमंत्री की चिंता यूरोप को आर्थिक संकट से उबारने के लिए १० बिलियन डॉलर का आर्थिक सहयोग देने की घोषणा के दो मतलब होते हैं। एक तो यह कि सरकार के पास पैसा बहुत है लेकिन वह मंहगाई से बदहाल जनता को राहत देने को कोई लाभदायक काम नहीं मानती है, और दूसरा यह कि भारत के नेता दुनिया में अपनी प्रतिष्ठा के लिए अपनी ही जनता को भूखा रखने में कुछ भी गलत नहीं मानते हैं।
प्रधानमंत्री ने घोषण की है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को १० बिलियन अमेरिकी डालर की आर्थिक सहायता देगा जिससे यूरोपीय देशों की कर्ज की समस्या का समाधान किया जायेगा। मनमोहन सिंह ने यह बताया है यह पैसा मुद्रा कोष के पास जमा रहेगा और जब जरूरत होगी तब इसे ख़र्च किया जायेगा अन्यथा भारतीय रिजर्व के रूप में पड़ा रहेगा। इसी तर्क के सहारे उन्होंने विपक्ष के विरोध को गैरज़रूरी बताया है। उनका कहना है कि ऐसा नहीं है कि भारत ही अकेले यूरोप की सहायता करने जा रहा है बल्कि सारे ब्रिक्स देश कुल मिलाकर ७५ बिलियन डालर की रकम दे रहे हैं। इस रकम को मिलाकर ४३० बिलियन अमेरिकी डालर का इंतजाम किया जायेगा जिससे यूरोपीय संघ के देशों को कर्ज के संकट से उबारा जा सके।
आजकल पहले देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए निजी कंपनियों को सब कुछ सौंपा जाता है वे तरह तरह से दुनियाभर में भ्रष्टाचार और आर्थिक शोषण बढ़ती हैं और फिर बड़ा बड़ा आर्थिक लाभ भी दिखाती हैं फिर पता नहीं कब और कैसे दिवालिया हो जाती हैं और फिर शुरू होता है उन्हें बेल आउट करने का काम। सरकारें जनता की मेहनत के पैसे से फिर उन कंपनियों को जिन्दा करती हैं। ऐसा लगता है कि यूरोपीय देशों का आर्थिक संकट ऐसा ही है, जिसे कृत्रिम कहा जा सकता है।
ब्रिक्स में अंग्रेजी वर्णमाला के ५ वर्ण आते हैं बी आर आई सी और एस। ये पांच देशों के नामों के पहले वर्ण के संकेतक हैं- जिसका पूरा रूप है - ब्राजील, रूस, चीन, इण्डिया, साउथ अफ्रीका। ब्रिक्स का गठन किया गया था तब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर नज़र रखने वाले प्रेक्षक यह मान रहे थे कि यूरोपीय संघ और यूरो-अमेरिका केन्द्रित अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के बरक्स यह एक नहीं वैश्विक ताकत बनेगा जो दो धुवीय से एक ध्रुवीय हो गयी दुनिया की ताकत को फिर विकेन्द्रित करेगा। क्या यूरोप को आर्थिक मदद देकर ब्रिक्स देश यह साबित करने जा रहे हैं की उनका समय आ गया है। हो सकता है कि ब्रिक्स देशों के शासकों की गर्वीली मानसिकता की पूरी कीमत इन देशों की जनता को ही चुकानी पड़े और दुनिया भर के पूंजीपति मौज उड़ाते रहें।
यह भी हो सकता है कि यूरोपीय संघ को विश्व समुदाय कर्ज के संकट से निकल पाने में कामयाब हो जाय और भारत की दुनिया में प्रतिष्ठा भी बढ़ जाय लेकिन क्या उन नीतियों को बदलने की जरूरत महसूस होगी जिनकी वजह से जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा लगाकर निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार, चार सौ बीसी और कुप्रबंधन को जिन्दा रखा जाता है और दुनियाभर में पर्यावरण और आर्थिक बराबरी के लिए संकट पैदा किया जाता है। दुनिया को भूमंडलीकरण इत्यादि मोहक नामों से नए ढंग की गुलामी और साम्राज्यवाद का शिकार बनाया जाता रहे ?
अंत में एक सवाल कि जिस यूरोप ने पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद फैलाकर संसार के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर अपने को श्पहली दुनियाश् बनाया उसे आर्थिक शक्ति देकर दुनिया को क्या सन्देश दिया जाने वाला है। आखिर ऐसी क्या बात है कि एक मजबूत यूरोप और एक कमजोर यूरोप दोनों दुनिया के लिए कष्टदायक हैं। और दुनिया को यूरप का ख्याल पहले करना चाहिए। जाहिर है, साम्राज्यवाद, सांस्कृतिक और बौद्धिक साम्राज्यवाद के सहारे दुनिया को इस तरीके से ढाल दिया है कि वह यूरोप के बिना जी ही नहीं सकती है। यह दुनिया यूरो-अमेरिका केन्द्रित दुनिया बना दी गयी है।
भारत एक जिम्मेदार देश होने के नाते जरूर विश्व समुदाय की जरूरत पड़ने पर मदद करे, ब्रिक्स के अन्य देश भी करें लेकिन जरा यूरोप के इतिहास पर भी नज़र दाल लें और अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता की आवश्यकता भी महसूस कर लें तो ज्यादा अच्छा होता।

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