रविवार, 15 अप्रैल 2012

राहुल की मेहनत के मायने


राहुल की मेहनत के मायने


(रहीम खान)

बालाघाट (साई)। राजनीति ऐसा क्षेत्र है जहां पर किसका जादू कब चल जायेगा किसकी मेहनत पर कब पानी फिर जाएगा कह नहीं सकते है। जो आज दिख रहा है वह कल भी राजनीति में घटित होगा कहना मुश्किल होगा। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव केवल केन्द्र सरकार के लिये ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति के लिये महत्वपूर्ण प्रयोजन था यहीं कारण था कि सभी राजनीतिक दलों ने अपनी ताकत झोंक दी। इसी क्रम के युवा सांसद राहुल गांधी ने भी वक्त के पहले उत्तरप्रदेश की खाक छानना शुरू कर दिया था। दिन को दिन नहीं, रात को रात नहीं और हमेशा एयर कंडीशन की ठंडी हवा लेने वाले राहुल गांधी ने धूप में भी संघर्ष करने में कोई कमी नहीं छोड़ी।
उनकी मेहनत को देखते हुए ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस उत्तरप्रदेश में निर्णायक भूमिका में रहेगा और 75 से 100 के बीच सीट हासिल करने में शायद वह सफल हो जाय। पर जो नतीजे आये उसने एक बार फिर कांग्रेस के इस युवा नेता को आत्म मंथन करने के लिये मजबूर कर दिया। क्योंकि जिस तरह का राजनीतिक परिदृश्य उभर कर आया इसकी कल्पना किसी को नहीं थी। सम्पूर्ण उत्तरप्रदेश चुनाव अभियान पर नजर दौडाई जाय तो हम पाते कि कुछ गलतियां राहुल गांधी से हुई  तो बाकी कसर श्रीप्रकाश जैसवाल, सलमान खुर्शीद, बेनी प्रसाद वर्मा, जैसे लोगों ने पूरी कर दी। बेवजह की बयानबाजी ने कांग्रेस को बहुत नुकसान पहुंचाया है। उत्तरप्रदेश में मुस्लिम मतदाता प्रदेश की राजनीति का भविष्य लिखते है। उन्हें लुभावने के लिये जो सस्ते हथकंडे अपनाये गये उसको मुस्लिम वर्ग ने स्वीकार नहीं किया और यह मत समाजवादी के खाते में जाने से वह एकतरफा बहुमत हासिल करके सपा सत्ता में आ गई।
इस निराशा जनक चुनाव परिणाम से राहुल गांधी असफल जरूर हुए उनके लिये यह संदेश है कि वह जिस पद्धति पर राजनीति में आगे बढ़ना चाहते है उसमें खामियां है तभी नाकामियां भी उन्हें हासिल हुए। वरना क्या वजह थी कि 2009 के लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस ने जीत का परचम लहराया वहां पर उसे हार का मूंह देखना पड़ा। सबसे दुखदायी बात अमेठी, रायबरेली, सुल्तानपुर जैसे पंरपंरागत सीटों पर भी उसे नाकामी का मुंह देखना पड़ा इतना ही नहीं 48 ऐसी सीटें थी जहां पर कांग्रेस के उम्मीदवार 30 से 40 हजार और इससे भी ज्यादा वोट लिये पर हार का सामना करना पड़ा। वर्ष 2007 के मुकाबले वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवारों को वोट तो अच्छे मिले पर पराजय उनके गले लगी। राजनीति में अप और डाउन कोई महत्व नहीं रखता।
आज उतार है तो कल अवश्य ही चढ़ाव आयेगा। टिकट वितरण की अनियमितताएं कांग्रेस को भारी पड़ी। जैसे सलमान खुर्शीद की पत्नी लुईस खुर्शीद पहले भी चुनाव हार चुकी है इसके बाद पुनः उनको टिकट देना समझ से परे था। इसी प्रकार अन्य बड़े नेताओं के उन रिश्तेदार को टिकट दिया गया जो जमीनी स्तर पर पकड़ नहीं रखते थे। उत्तरप्रदेश में कांग्रेेस के पास दमदार मुसलमान नेताओं की कमी है जो मुस्लिम वोटों पर प्रभाव रखते हो। सलमान खुर्शीद या नूर बानों या दूसरे मुस्लिम नेता रईस घराने पर तालुक रखते है जिनकी अपनी कौम पर ही पकड़ा नहीं इनके सहारे आप मुस्लिमों का दिल नहीं जीत सकते। नये मुस्लिम नेतृत्व की तलाश ही उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को मजबूती दे सकती है।
कहा जाता था कि राहुल का पोलिटिकल रोड मैप दिग्विजय सिंह ने तैयार किया था पर संगठन की अच्छी जानकारी रखने वाले दिग्विजय उत्तरप्रदेश में समय रहते अगर प्रदेश अध्यक्ष श्रीमती रीता बहुगुणा को हटाकर नया संगठन के साथ चुनाव में जाते तो परिणाम कुछ और होते पर यहां दिग्विजय सिंह चूक गये। राहुल गांधी निश्चित रूप से पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव के पश्चात एक असफल नेता के रूप में उभरे है और चारों तरफ यही कहा सुना जा रहा है कि अभी राहुल गांधी को राजनीति में बहुत कुछ सीखना हे। मेरा भी यहीं मानना है कि राहुल गांधी को उस काकस से बाहर आने पडेगा जिसने कभी उनके पिता स्व. राजीव गांधी को नाकाम कर दिया था।
उत्तरप्रदेश में अपनी नाकामी से यदि राहुल गांधी कुछ सबक सीखना चाहते है तो सबसे पहले उन्हें यू.पी. में वही सक्रीयता रखनी होगी जो उन्होने चुनाव के पहले रखी थी। साथ ही 403 विधानसभा सीटों पर हार जीत का सूक्ष्म अध्ययन करना होगा एवं अखिलेश यादव की उन पॉलिसियों की तरफ उन्हें ध्यान देना होगा जिसने राहुल गांधी की लोकप्रियता पर पलिता लगाया। मुझे इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं है कि सुशिक्षित युवाओं को राजनीति में आगे बढ़ाने का जो फार्मूला राहुल ने लागू किया उसका उपयोग अखिलेख ने करके अपनी जीत का मार्ग प्रशस्त किया। साथ ही राजनीति में राहुल की आक्रमक शैली भी उनके लिये हानिकारक बनी उनका जो सलाहकार मंडल है वह उन्हें सुनहरे सपने दिखाते रहा और जमीनी हकीकत को उनसे दूर रखा।
जिसके चलते कोशिशों के बावजूद कांग्रेस उ.प्र. में बेहतर प्रदर्शन से दूर रह गई। आने वाले 2013 और 2014 में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव होना है। इस बात को ध्यान रखते हुए राहुल गांधी को अपने पूरे कोशिशों पर आत्ममंथन करना होगा। यह सही है कि प्रयासों में नाकाम रहे पर भारतीय राजनीति की उम्मीदों से वह अभी दूर नहीं हुये है। क्योंकि यही अखिलेश यादव 2 साल पहले फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव सीट पर अपनी पत्नी को संसदीय चुनाव भी जीता नहीं पाये थे और आज वहीं प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हो गये।
राजनीति में यह उतार चढाव चलता रहता है पराजय हमें यह संदेश देती है कि हमारी कोशिशों में कोई कमी रह गई। अगर इस प्रेरक वाक्य को राहुल गांधी समझेगें तो उनके लिये राजनीति में आगे के रास्ते आसान हो जायेगें। नहीं संभले तो वह भारतीय राजनीति के हांसिये में समा जायेगें। नव जवान सुशिक्षित और राजनीति के महत्वपूर्ण परिवार से होने का अर्थ यह नहीं होता कि जनता हमेशा आप से जुड़ी रहे। उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम राहुल गांधी के लिये एक सबक है कि उनकी जो नीतियां थी वह सुर्खियों में रहने वाली थी दिलों को जीतने वाली नहीं। लोगों के बीच राहुल गांधी की लोकप्रियता में कमी नहीं आई है पर एक राजनेता के रूप में उन्हें बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। चुनाव जीतने के पहले जरूरी हो जाता है कि आप पार्टी के दूसरे संगठनों को भी मजबूत रखे, समय बदला है सोच बदली है इसको समझो और आगे बढ़ों तो सियासत में आप कुछ कर सकते है। राहुल गांधी के लिये आत्म मंथन का समय है। अच्छे और सच बोलने वाले सलाहकार उनको साथ रखकर आगे बढ़ना होगा तभी आगे के रास्ते आसान होगे। अन्यथा उत्तरप्रदेश जैसे चुनाव परिणामों के उन्हें आगे के चुनावों में भी सामना करते रहना पडेगा।

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