गुरुवार, 27 सितंबर 2012

कश्मीर घाटी में पंच प्रपंच


कश्मीर घाटी में पंच प्रपंच

(वीरेंद्र सिंह चौहान)

नई दिल्ली (साई)। कश्मीर घाटी में जमीनी स्थिति में सुधार के राज्य सरकार चाहे जितने दावे करे, हालात आज भी चिंताजनक बने हुए हैं। सुरक्षा बल और आम आदमी तो हमेशा से ही पाक-पोषित दहशतगर्दों के निशाने पर रहे हैं, मगर अब उनकी संगीनों के निशाने पर राज्य का ग्राम-स्वराज है। करीब तीस बरस बाद आधा-अधूरा जैसा भी ग्राम-स्वराज ग्राम पंचायतों के माध्यम से प्रदेश में बहाल हुआ था, चरमपंथियों को वह कतई रास नहीं आ रहा। पिछले एक पखवाड़े में एक सरपंच और एक उप-सरपंच की हत्या कर दी गई। बीते करीब एक वर्ष के दौरान दस पंच-सरपंचों की हत्या हो चुकी है। एक साल के भीतर अब तक लगभग सात सौ से अधिक सरपंच अपनी प्राणरक्षा के लिए त्यागपत्र दे चुके हैं।
23 सितंबर की शाम हुई उप-सरपंच की हत्या के बाद ही सौ से अधिक नए इस्तीफे हुए हैं। आतंक और भय का आलम यह है कि कश्मीर के अखबारों में आए दिए विज्ञापन देकर पंच-सरपंच आतंकियों, जनता और सरकार को बता रहे हैं कि वे अपने पद छोड़ चुके हैं।
उल्लेखनीय और चिंताजनक बात यह है कि आतंकियों ने पंच-सरपंचों के खिलाफ यह हिंसक अभियान अचानक नहीं छेड़ा। दहशत के कारोबारियों के हौंसले इतने बुलंद हैं कि वे बाकायदा पोस्टर लगाकर और चिट्ठियां भेजकर पहले जनप्रतिनिधियों को धमकी देते हैं और फिर अपनी अमानवीय करतूतों को अंजाम देते हैं। इसके विपरीत सरकारी अमला न जाने किस व्यामोह, मजबूरी या साजिश में शामिल है कि उसे न धमकियां जगा पाती हैं और न जनप्रतिनिधियों की हत्याएं।
याद रहे कि पंचायत चुनावों को उमर अब्दुल्ला सरकार अपनी बड़ी उपलब्धियों में गिनवाती रही है। प्रथम दृष्टया यह उपलब्धि थी भी। पहली बार लगभग बयासी फीसदी मतदाता चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा लेने निकले थे। आतंकियों ने उस समय  भी धमकियां दी थीं। मगर लोगों ने प्रजातंत्र और भारतीय  संविधान में विश्वास जताते हुए उन धमकियों को नकार दिया था। लोगों ने एक प्रकार से अलगाववादियों को वोट की चोट से यह जता दिया था कि अब उनका सामान समेटने का समय आ गया है।
स्वाभाविक रूप से देश-दुनिया के सम्मुख उमर सरकार ने अपनी इस कवायद को खूब भुनाया भी था। मगर इसके बाद ऐसा लगा मानों उमर और उनकी टीम अपने इन पोस्टर-ब्वायज को भूल ही गई। पंचायतों को मजबूत बनाने के लिए संविधान का 73 वां व 74 वां संशोधन लागू करने के लिए इस बीच कुछ नहीं किया गया। पंचायतों को मजबूत करना तो दूर आतंकियों की धमकियों को धता बताकर चुनावी दंगल में डटे रहे निर्वाचित प्रतिनिधियों की सुरक्षा के बारे में भी विचार नहीं किया। फिर जब सरकार के इन पोस्टर-ब्वॉयज को सरेआम पोस्टरों व खतों के माध्यम से धमकियां मिलनी शुरू हई तो भी उमर एंड कंपनी ने मामले की गंभीरता को समझा नहीं या फिर समझते हुए भी किसी रणनीतिक के तहत नजरंदाज कर दिया।
कायदे से इस धमकाने वाली पोस्टरबाजी के बाद राज्य के सुरक्षा अमले को चौकस हो जाना चाहिए था। मगर लगता ऐसा है कि घाटी के आतंकमुक्त होने के भ्रम में राज्य सरकार भूल गई कि पोस्टरों में दी गई धमकी हकीकत में भी तब्दील हो सकती है। पोस्टरबाजों तक पंहुच कर उन्हें नाथने के लिए कोई गंभीर प्रयास हुए होते तो संभवतः हत्याओं का यह सिलसिला प्रारंभ नहीं होता। ऐसा भी नहीं है कि सरकार के पास केवल पोस्टरबाजों की धमकियों के रूप में ही चेतावनी मौजूद थी।  निर्वाचित पंच-सरपंचों के राज्य स्तरीय संगठन की ओर से भी लगातार मांग की जा रही थी कि धमकियों के दृष्टिगत निर्वाचित प्रतिनिधियों को सुरक्षा मुहैया कराई जाए। मगर उमर प्रशासन इस मांग की अनदेखी करता रहा। इस अनदेखी को आपराधिक अनदेखी भी करार दिया जा सकता है चूंकि नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है और निर्वाचित प्रतिनिधियों की सुरक्षा पर मौजूद प्रत्यक्ष खतरे को तो और अधिक गंभीरता से लिया जाना चाहिए था।
मगर सब जानते हैं कि जब घाटी में पंच-सरपंचों के सिरों पर संगीनों का साया गहरा जा रहा था, उमर अब्दुल्ला ने इन इलाकों से जेहादियों को निर्मूल करने के लिए सेना की मदद लेने के बजाय घाटी में सेना की मौजूदगी को घटाने की रट लगाए रखी। अफस्पा हटाने और फौज की मौजूदगी घटाने की तोतारटंत उनके लिए किसी सनक से कम नहीं रह गई थी। इसी बीच पंच-सरपंचों के संगठन ने सब निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए सुरक्षा मांगी तो वह संभवतः राज्य सरकार के इस प्रचार अभियान की भेंट चढ़ गई कि अब घाटी में सब कुछ सुरक्षित  और सामान्य है।
अब सवाल यह है कि जो चुनौती मंुह बाए सामने खड़ी है, उसमें क्या किया जाए। दुर्भाग्यवश राज्य सरकार ग्राम-स्वराज पर आतंकियों के इस हल्ला बोल को लेकर अब भी गोलमोल रवैया अख्तियार किए हुए है। तैंतीस हजार प्रतिनिधियों को चौबीसों घंटे की सुरक्षा के लिए कम से कम दो सुरक्षा गार्ड प्रति व्यक्ति मुहैया कराना उसे बहुत खर्चीला काम नजर आता है। इसलिए सरकार के ग्राम विकास मंत्री को यह कहते सुना गया कि जो प्रतिनिधि गंभीर खतरा महसूस कर रहे हैं उनके आवेदन पर कुछ लोगों को सुरक्षा मुहैया कराने पर विचार किया जाएगा। ग्रामीणों को हथियार मुहैया करवाकर आत्म-रक्षा का विकल्प देने की चर्चा भी कहीं सुनाई नहीं दे रही। अभिप्राय यह कि बाकी लोगों के पास दो ही विकल्प हैं। पहला यह कि वे लश्कर-ए-तैयबा और हिजबुल मुजाहिदीन के
फरमानों के सामने नतमस्तक होकर अपने इस्तीफे सरकार को भेज दें। और दूसरा यह कि वे चौबीसों घंटे दहशत के साए में जीने को अपनी नियति माने लें। पाकिस्तान और उसके देसी पिट्ठुओं को घाटी में जमीन तक प्रजातंत्र की बहाली हजम न हो पाना कोई विचित्र बात नहीं हैं। उनके पेट में उठने वाले मरोड़ की परिणति खूनी खेल में होगी, इसका अनुमान लगाना भी कोई कठिन काम नहीं था। सुरक्षा बल और गुप्तचर एजेंसियां भी निरंतर इस आशय की सूचनाएं राज्य और केंद्र को बीते चंद महीनों के दौरान देते ही रहे। लगातार यह आवाज सत्ता के गलियारों में गूंजती रही है कि भारतीय सेना ने जिन आतंकी ताकतों की कमर तोड़ने में कामयाबी हासिल की है, वे फिर से सिर उठाने की फिराक में हैं। घाटी के नवयुवकों की आतंकी संगठनों में भर्ती के नए सिरे से प्रयास हो रहे हैं, यह तो राज्य की पुलिस भी पता था। ऐसे में मुख्यमंत्री और उनकी सलाहकार मंडली ने कहीं न कहीं ढ़िलाई बरती है, यह बात साफ है। न तो उन्होंने बंदूकों का जवाब बंदूकों से देने के लिए सेना पर भरोसा जताया और न ही जमीन पर दहशतगर्दों की मुहिम का कोई राजनीतिक प्रत्युत्तर देने के लिए अपने पार्टी संगठन को सक्रिय किया।
घाटी में जब कभी आतंकी सैलानियों को निशाना बनाने की कोशिश करते हैं तो कारोबार पर पड़ने वाले असर को देखते हुए घाटी के राजनीतिक व गैर-राजनीतिक संगठन एक सुर में खिलाफत पर उतर आते हैं। इसका सीधा प्रभाव आतंकियों पर पड़ता है। राज्य में पंचायती राज की बहाली के पक्ष में ग्रामीण अंचल में ऐसा ही मजबूत माहौल बनाया जा सकता था। यह काम सत्ताधारी और प्रतिपक्षी मिलकर करते तो कहीं अधिक प्रभावी होता। आज भी इस दिशा में ठोस कदम उठाए जाएं तो सुपरिणाम आने तय  हैं।

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