दिल्ली, डेल्ही या नई दिल्ली!
(लिमटी खरे)
पूर्व चुनाव आयुक्त और वर्तमान केंद्रीय खेल मंत्री एम.एस.गिल ने पिछले दिनों एक नई बहस को जन्म दे दिया है। उन्होंने कहा है कि नई दिल्ली का नाम बदलकर राष्ट्रमण्डल खेलों के पूर्व दिल्ली कर देना चाहिए। कोई इसे नई दिल्ली, कोई दिल्ली तो कोई डेल्ही कहता है।शहरों, प्रदेशों और देशों का नाम बदलने की पंरपरा नई नहीं है। यह काफी अरसे से चलने वाली निरंतर प्रक्रिया है। दिल्ली कभी इंद्रप्रस्थ तो कभी शाहजहांबाद हुआ करती थी। इलहाबाद को पहले प्रयाग के नाम से जाना जाता था, पटना का नाम पाटलिपुत्र और अज़ीमाबाद था। भारत को लोग पहले देवभूमि तो फिर आर्यावर्त के नाम से जाना जाता था। यूं तो भारत के भी कई नाम चलन में हैं। कोई इसे भारत, कोई हिन्दुस्तान तो कोई इंडिया कहता फिरता है।हमारी अपनी नजर में नाम परिवर्तन के सिलसिले के जनक ब्रितानी शासक थे। जिनका उच्चारण ही नामों को बदल गया। दरअसल नाम परिवर्तन की वजह विस्मृत होती संस्कृति ही कही जा सकती है। पहले स्कूली पाठ्यक्रमों में भारत के इतिहास को घोलकर बच्चों के जेहन में बिठाया जाता था। संस्कृत जैसी िक्लष्ठ किन्तु सुमधुर भाषा का ज्ञान आवश्यक तौर पर दिया जाता था। आज पाश्चात संस्कृति की ओर बढ़ते आकर्षण ने सब कुछ समाप्त सा कर दिया है।आज की युवा पीढ़ी से अगर पूछा जाए कि भारत में कितने मुगल शासकों ने शासन किया? मुगल कब भारत पर कब्जा करने आए थे? अंग्रेजों ने किस कदर इस देवभूमि के योद्धाओं पर अत्याचार किए? इन समस्त प्रश्नों के जवाब में युवा पीढ़ी बगलें झांकती ही नजर आएगी।दरअसल आजादी के छ: दशकों में हिन्दुस्तान में राज करने वाले राजनेताओं ने हमारी संस्कृति और विरासत को नई पीढ़ी के दिलो दिमाग से निकालने के वे सारे सरल मार्ग प्रशस्त कर दिए जिनके माध्यम से हम अपने अतीत को जान सकते थे। युवा पीढ़ी को अनुमान ही नहीं होगा कि आजादी के दीवानों ने किस शिद्दत के साथ ब्रितानी हुकूमत के अत्याचार सहते हुए उनसे लोहा लिया और आजादी पाई। दरअसल आजादी की कीमत इन लोगों को पता ही नहीं है।``पदमपुराण`` में महाकाल की नगरी उज्जैन के एक दर्जन से अधिक नामों का उल्लेख किया गया है। इनमें अवन्तिका, उज्जयनी, पदमावत आदि का उल्लेख किया गया है। इन सभी नामों के पीछे अलग अलग वजह है। विदिशा को पहले भेलसा के नाम से जाना जाता था, एवं भेलसा की तोपों का कोई जवाब नहीं था। नाम बदलकर हम अपनी प्राचीन संस्कृति से जुड़े रहने के मार्ग ही प्रशस्त करते हैं।उदहारण के तौर पर श्राद्ध कर्म करते समय हम अपने स्वर्गवासी पुरखों को याद करते हैं। सवाल यह है कि क्या हम यह प्रक्रिया देवी देवताओं को खुश करने के लिए करते हैं? जाहिर है, नहीं, यह अपने पूर्वजों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के साथ ही साथ उनके जीवन से प्रेरणा लेने, उनके साथ बिताए अच्छे बुरे पल याद करने का एक सहज तरीका हो सकता है। बेंगलौर को बंगलुरू, मैसूर को मैसूरू, कलकत्ता को कोलकता, मद्रास को चेन्नई, बंबइ्रZ को मुंबई, त्रिवेंद्रम को तिरूअनंतपुरम, कोचीन को कोच्ची करने के पीछे सांस्कृतिक वजहें ही हैं।अगर आप का नाम कोई गलत पुकारे तो आपको तकलीफ होना स्वाभाविक ही है। यही आलम शहर का है। अंग्रेज शासकों ने अपनी सुविधा के अनुसार शहरों के नए नाम निर्धारित किए थे। वस्तुत: दासता की समाप्ति के उपरांत हिन्दुस्तान के शहरों के पुराने नाम वापस रख दिए जाने चाहिए थे, पर एसा हुआ नहीं। अंग्रेजों के द्वारा दासता के दौरान दिए गए नामों को ही हम आज भी ढो रहे हैं। शहरों के नाम ही क्यों उनके बनाए नियम कायदे कानून यहां तक कि अंग्रेज रविवार को इबादत के लिए अपने आप को मुक्त रखना चाहते थे, सो आज भी सप्ताह का सरकारी अवकाश रविवार ही है। हम आजाद जरूर हो गए हैं, किन्तु आज भी ये सारे सिस्टम दर्शाते हैं कि हम मानसिक दासता से उबर नहीं सके हैं।बहरहाल एम.एस.गिल का कहना कि दिल्ली में यहां के मिजाज और संस्कृति की झलक मिलती है हास्यास्पद ही है। मुख्य चुनाव आयुक्त रहे गिल लंबे समय से दिल्ली में ही निवास कर रहे हैं, और अगर वे यह नहीं जानते कि दिल्ली की मूल पुरातन संस्कृति क्या अब बची है? पाश्चात संस्कृति का सबसे घिनौना और बिगड़ा रूप दिल्ली में ही देखने को मिलता है। हमारा कहना महज इतना ही है कि नाम अवश्य बदला जाए बशतेZ नाम बदलने का मकसद सही हो।
मनमानी के चलते प्रसार भारती कठघरे में!
0 अंदरूनी कर्मचारी ने ही की अनियमितताओं के खिलाफ आवाज बुलंद
0 चर्चाओं में है डी डी भोपाल
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। प्रसार भारती में पिछले दिनों व्यापक स्तर पर हुई अनियमितताओं के चलते इसकी विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह लगने लगा है। आम चुनावों के दौरान हुई एंकर्स की भर्ती और मध्य प्रदेश में भोपाल दूरदर्शन में जारी अनियमितताओं ने देश के एक मात्र राष्ट्रीय दृश्य और श्रृव्य ब्राडकास्टर की कलई खोलकर रख दी है।प्रसार भारती से जुड़े उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि प्रसार भारती ने मनमानी करते हुए अनेक एसी शिख्सयतों को वरिष्ठ एंकर के पद पर नियुक्त कर लिया है, जिनके पास अनुभव पांच साल से कम ही का है। इतना ही नहीं चहेतों (कारण चाहे जो भी हो) को उपकृत करने के लिए अनुभव में कोई कमी किए बिना ही इन्हें नियुक्त कर दिया गया है।इनमें से अनेक सामान्य स्नातक या बी टेक हैं, एवं इनके पास श्रृव्य एवं दृश्य मीडिया में काम करने का कोई अनुभव भी नहीं है। प्रसार भारती के ही एक कर्मचारी की याचिका पर केंद्रीय प्रशासनिक पंचाट (केट) ने प्रसार भारती को नोटिस भेजते हुए इसका जवाब चाहा है। याचिकाकर्ता द्वारा प्रसार भारती की समूची भर्ती प्रक्रिया पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया है।याचिका में कहा गया है कि गत वर्ष जारी विज्ञापनों में दूरदर्शन के लिए सीनियर एंकर, एंकर कम करस्पांडेंट, जूनियर एंकर कम करस्पांडेंट के लिए 13 सितम्बर तक आवेदन मंगाए गए थे। इसमें योग्यताएं क्रमश: पांच, तीन और एक साल के अनुभव के साथ मांगी गई थीं।तीन साल की अवधि के अनुबंध के लिए इनका वेतन भी 65 हजार, 45 हजार तथा 25 हजार रूपए तय किया गया था। मजे की बात तो यह है कि इसमें केंद्रीय मंत्रियों और संतरियों के सगे संबंधियों को भर्ती के लिए पत्रकारिता के अनुभव और पत्रकारिता की शिक्षा में छूट भी दी गई थी।याचिकाकर्ता का आरोप है कि इनमें भर्ती किए गए लोगों ने अपनी इंटरर्नशिप को भी अनुभव के दायरे में दर्शाया गया है, बावजूद इसके उनके पांच या तीन साल का अनुभव पूरा नहीं होता है।
इसी तरह के अनेक मामले मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दूरदर्शन केंद्र में नित सुनने को मिल रहे हैं। मध्य प्रदेश में भी किसी के नाम का भुगतान कोई और के द्वारा लिए जाने की चर्चाएं जमकर हैं। सूचना के अधिकार कानून में लगी एक अर्जी यहां के अधिकारियों के गले की फांस बन गई है। सूत्र बताते हैं कि सूचना के अधिकार की अर्जी के उपरांत आनन फानन यहां रिकार्ड भी दुरूस्त करवाए जा रहे हैं।
गुरुवार, 25 जून 2009
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