किससे डर रहे हैं, जनादेश प्राप्त नुमाईंदे
लिमटी खरे
सांसद या विधायक जनसेवक कहलाता है। जनता
के द्वारा चुना गया प्रतिनिधि जनता का सेवक होता है। क्या उसे सुरक्षा की
आवश्यक्ता आम आदमी से ज्यादा है? ब्लेक कैट,
जेड
प्लय, आदि सुरक्षा घेरों में ये जनता के चुने
हुए नुमाईंदे अपने आप को महफूज पाते हैं। ये भूल जाते हैं कि भारत गणराज्य के पहले
वजीरे आजम जवाहर लाल नेहरू खुली कार में बिना सुरक्षा के ही घूमा करते थे। आज
जिन्होंने इन जनसेवकों को चुना है वह भी बिना सुरक्षा के ही निर्भीक होकर घूम रही
है। कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के परिवार के हर सदस्य यहां तक कि
उनके दमाद को भी सुरक्षा मुहैया करवाई है सरकार ने! देश आज प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन
सिंह से यह पूछ रहा है कि सोनिया गांधी के दमाद राबर्ट वढ़ेरा का देश के विकास में
क्या योगदान है? यही ना कि वे सोनिया गांधी के दमाद हैं? उनके इस काबिलियत पर उन्हें व्हीव्हीआईपी
ट्रीटमेंट मिलना क्या उचित है? क्या यही है देश के संविधान की समान नागरिक संहिता का अनुपालन!
आज के समय में एक सांसद और विधायक के उपर
वेतन, भत्ते आदि में जितना खर्च किया जा रहा है
वह विलासिता पूर्ण जीवन शैली के लिए पर्याप्त माना जा सकता है। जनता के चुने हुए
नुमाईंदों को एक वर्दीधारी गनमैन रखना अब स्टेटस सिंबाल के मानिंद हो चुका है।
उनकी सुरक्षा में तैनात पुलिस के जवान सालों साल उनके साथ ही रहते हैं, अनेक मामले तो एसे भी देखे गए हैं जिसमें
ये अपने सांसद या विधायक भले ही वे जीतें या हारें उन्हीं के साथ रहकर सेवानिवृत
हो जाते हैं। दरअसल,
सत्ता
के मद का स्वाद ये भी चख लेते हैं, और उसके बाद ये व्हीव्हीआईपी की सुरक्षा में कम उनके निज सचिव, टेलीफोन आपरेटर, अर्दली की भूमिका में आ जाते हैं।
अतिविशिष्ट और विशिष्ट लोगों का सुरक्षा
कव्हर में लगा फोर्स और उस पर होने वाला भारी भरकम खर्च का
भोगमान अंततः जनता के सर ही आता है। यह
मुद्दा अब देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंच चुका है। देखा जाए तो जिस व्यक्ति को
खुद के लिए अलग से सुरक्षा चाहिए उसका खर्च उसी से वसूला जाना चाहिए चाहे जनसेवक
हो, लोकसेवक (सरकारी कर्मचारी) या आम आदमी।
भारत गणराज्य के लोकतंत्र की स्थापना के
समय इस बात को विशेष तौर पर ध्यान में रखा गया था कि लोकतंत्र में सुरक्षा का
अधिकार हर किसी को बराबरी से है। संविधान के अनुच्छेद 15(1) में स्पष्ट कहा गया है
कि भारत में जन्मे सभी नागरिकों के अधिकार समान हैं और किसी को जन्म, खानदान, वंश, जाति, लिंग, धर्म, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर विशिष्ट नहीं
माना जाएगा, इसके बावजूद देश में विशिष्ट और अति
विशिष्ट के रूप में लोगों की भरमार है।
आज एसपीजी का बजट दो सौ करोड़ के आसपास है।
करोड़ों रूपए व्हीआईपी और व्हीव्हीआईपी सुरक्षा में खर्च हो रहे हैं। क्या भारत की
जनता इसी लिए हर बात पर टेक्स दे रही है कि जनता के द्वारा चुने गए ये नुमाईंदे
उन्हीं के टेक्स पर मलाई काटें। देश पर आतंकवादी, अलगाववादी, नक्सलवादी हमलों पर हमले करते जा रहे हैं, और जनता के चुने हुए नुमाईंदे रियाया की
हिफ़ाजत करने के बजाए अपनी सुरक्षा को चाक चौबंद करने पर आमदा हैं। नेताओं को एक्स, वाय, जे़ड और जे़ड प्लस श्रेणी की सुविधाओं की दरकार आखिर क्यों है? क्या वे अपने लोगों से इस कदर खौफ़जदा हैं
कि उन्हें सुरक्षा की जरूरत है? या फिर स्टेटस सिंबाल बन चुकी सुरक्षा की श्रेणियों को अपनाकर नेता अपना
रूआब गांठना चाहते हैं।
कितने आश्चर्य की बात है कि हम अपने
अतिविशिष्ट (व्हीव्हीआईपी) और विशिष्ट (व्हीआईपी) लोगों की सुरक्षा पर हर साल
करोड़ों फूंक देते हैं। शायद ही दुनिया का कोई अमीर या गरीब देश एसा हो जो
सत्ताधारियों को इतनी भारी भरकम सुरक्षा प्रदान करता हो। हिन्दुस्तान ही शायद
इकलौता देश होगा जहां सत्ताधारियों के बच्चों और नाती पोतों तक को जेड प्लस
केटेगरी की सुरक्षा प्रदान की गई हो।
क्या आम जनता की गाढ़ी कमाई (टेक्स) से
वसूली रकम का यह आपराधिक दुरूपयोग नहीं है। जब इस तरह के जेड प्लस सुरक्षा कवच में
कोई बच्चा नर्सरी स्कूल जाएगा तो उसकी सुरक्षा मंे आठ कारों का काफिला और भारी
संख्या में सुरक्षा बल का मौजूद रहना, सुरक्षा तंत्र का भद्दा मजाक नहीं है?
दिल्ली उच्च न्यायालय में जमा किए गए
आंकड़ों से साफ हो जाता है कि भारत में व्हीआईपी सुरक्षा पर कुल 250 करोड़ रूपए
सालाना की लागत आती है, वहीं
बाकी बची 125 करोड़ की जनता की जान माल के लिए महज 200 करोड़ रूपए ही मुहैया हो पाते
हैं। यह कहां का न्याय कहा जाएगा?
देश में जेड़ सुरक्षा श्रेणी के 70, वाई के 245 एवं एक्स के 85 से अधिक नेता
हैं। आंकड़े चौकाने वाले अवश्य हैं किन्तु इनमें सत्यता है कि देश के प्रधानमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्रियों और नेहरू गांधी
परिवार की सुरक्षा के लिए विशेष रूप से उतपन्न की गई एसपीजी का चालू माली साल का
बजट 180 करोड़ रूपए है। इसके अलावा एनएसजी का सालाना बजट 160 करोड़ रूपए सालाना है।
वहीं खुफिया एजेंसियों की अगर मानी जाए तो
देश के 400 मेें से 125 नेताओं को सुरक्षा की आवश्यक्ता नहीं है, तथा 135 नेताओं की मौजूदा श्रेणी को कम
किया जा सकता है। एक अनुमान के अनुसार एक नेता को मुहैया सुरक्षा में औसतन तीस
हजार रूपए मासिक का खर्च आता है।
पूरे परिदृश्य पर अगर नज़र डाली जाए तो देश
के लगभग 13 हजार से ज्यादा व्हीआईपी की सुरक्षा में तैनात 46 हजार सुरक्षाकर्मियों
में कमी कर राज्य स्तर पर एनएसजी कमांडो तैनात किए जा सकते हैं, जो मुंबई हमले जैसी घटनाआंे में त्वरित
कदम उठा सकते हैं।
सुरक्षा पाने वालों की फेहरिस्त में
केंद्रीय मंत्रियों के अलावा, सांसद, पत्रकार, सेवा निवृत प्रशासनिक अधिकारी भी आते हैं, साफ है कि रसूख वाला ही भयाक्रांत है।
क्या यह समय नहीं है जब विशिष्ट अथवा असुरक्षित व्यक्ति को नए सिरे से परिभाषित
किया जाए। अगर रसूख वालों को ही जान माल का खतरा है, तो देश के बाकी 125 करोड़ लोगों में शामिल
गरीब, मजदूर, किसान आखिर किसके किसकी जमानत पर अपनी जान
माल रखें?
सालों पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने
सुरक्षा संबंधी सवालों पर दो टूक टिप्पणी करते हुए कहा था कि नेता कोई राष्ट्रीय
संपत्ति नहीं हैं,
जो
कि उन्हें संरक्षित किया जाए। वहीं सर्वोच्च पदों पर बैठे नेताओं के अलावा
संरक्षित ‘‘राष्ट्र रत्नों‘‘ में कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमति सोनिया
गांधी एवं उनका पूरा परिवार (पुत्री प्रियंका के विवाह के बाद उनके परिवार को भी), राजग के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आड़वाणी, प्रकाश सिंह बादल का पूरा परिवार, अमर सिंह, राम विलास पासवान, मायावती, नरेंद्र मोदी, जय ललिता, ई.अहमद, शरद यादव, एच.डी.देवगोड़ा, मुरली मनोहर जोशी, रामेश्वर ठाकुर, सज्जन कुमार, वृजभूषण शरण, आर.एल.भाटिया, प्रमोद तिवारी, बी.एल.जोशी आदि शामिल हैं। (साई फीचर्स)