क्या यही है भारत गणराज्य का प्रजातंत्र
(लिमटी खरे)
1947 में देश आजाद हुआ और 1950 को भारतीय गणतंत्र की स्थापना हुई।
भारतीय गणतंत्र की स्थापना जिन उद्देश्यों को लेकर की गई थी वह आज साकार होते नहीं
दिखते हैं। आज का भारत मूल अवधारणाओं से कोसों दूर है। इसका सबसे बड़ा कारण शासकों
का निरंकुश विपक्ष का रीढ़ विहीन और रियाया का निरीह होना है। देश के पहले नागरिक
का दर्जा दिया गया है रायसीना हिल्स पर रहने वाले भारत गणराज्य के महामहिम
राष्ट्रपति को। राष्ट्रपति भवन के अंदर का महौल पूरी तरह राजसी ही है। कई मर्तबा
इस माहौल को देखने का अवसर मिला तो लगा मानो सामंती प्रथा आज भी भारत गणराज्य में
बदस्तूर जारी है। जब इस पद पर प्रणव मुखर्जी को पदासीन किया गया तब लगा कि राजसी
महौल में बदलावा आएगा पर आज भी वहां यह प्रथा बदस्तूर जारी ही है।
रायसीना हिल्स का राष्ट्रपति भवन देश
विदेश के लोगों के लिए कोतुहल का ही विषय है। इस भवन के बारे में तरह तरह की
किंवदंतियां तक प्रचलित हैं। लोग इस भवन को अंदर से करीब से देखने के लिए बहुत
उतावले रहते हैं। आज से ही इसका सबसे मशहूर मुगल गार्डन लोगों के लिए खोला जाएगा।
इस भवन की सुरक्षा, साजसज्जा, आदि पर कितना खर्च होता है इस बारे में सरकार सदा ही मौन रहती है। भारत
गणराज्य की जनता को यह जानने का अधिकार है कि उसका पहला नागरिक उसके करों से संचित
धन में से कितना धन किस मद में व्यय कर रहा है।
इसे विडम्बना कहेंगे या फिर देश का
दुर्भाग्य कि गोरे ब्रितानियों के वायसराय जब देश पर राज करते थे तब उनके लिए बने
इस महलनुमा भवन में जाने के बाद देश के हर पहले नागरिक ने आम जनता के करीब जाने के
स्थान पर खुद को उसी सामंती प्रथा में ढाल लिया। प्रणव मुखर्जी के साथ भी कमोबेश वही
हो रहा है। जिस तरह के तामझाम और आडंबर इस भवन के अंदर होते हैं उसे देखकर नर्सरी
का बच्चा खिलखिलाकर हंस ही पड़ेगा। महामहिम जहां भी जा रहे हैं कमर बंद दस्ता झुककर
उनकी आगवानी में जुटा हुआ है।
भारत पर ब्रितानियों ने सालों साल शासन
किया और अपनी अमिट छाप भी छोड़ गए। उस छाप को या उस मानसिकता को आज भी देश के नेता
अपने जेहन से उतार फंेक नहीं पा रहे हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि आजादी के
उपरांत जब हमारे गणतंत्र का निर्माण हुआ देश का संविधान बना तबभी इसमें उपनिवेशवाद
की छाया साफ दिखती रही। आज भी देश का पहला नागरिक महामहिम राष्ट्रपति वस्तुतः
ब्रिटेन की उस महारानी के मानिंद ही है जो प्रतीकात्मक देश के लिए प्रधान ही हैं।
जानकारों का कहना है कि भारत गणराज्य का
राष्ट्रपति संविधान का संरक्षक होता है, जिसके पास सारे अधिकार होते हैं।
प्रत्यक्षतः इन अधिकारों का उपयोग भारत गणराज्य की निर्वाचित सरकार ही करती है।
निर्वाचित सरकार जनता के प्रति सीधे सीधे उत्तरदायी होती है। देश के प्रथम नागरिक
का अपना एक प्रोटोकाल होता है इस बात में संदेह नहीं है। राष्ट्रपति का प्रोटोकाल
देश का विदेश मंत्रालय ही संभालता है।
विदेश मंत्रालय भी ब्लू बुक के हिसाब से
ही प्रोटोकाल को निभा रहा है। भारत की आजादी को साढ़े छः दशक होने को आए पर आज भी
विदेश मंत्रालय लकीर का फकीर ही बनकर काम कर रहा है। आज भी महामहिम के तस्मे
अर्थात जूतों के बंद बांधने के लिए एक कर्मचारी पाबंद है, और सरकार सभी को समान अधिकार का दावा
करने से नहीं चूकती है। एक मनुष्य के सामने दूसरे मनुष्य का नियम कायदों केे हिसाब
से झुकना क्या अभिव्यक्ति की आजादी का उदहारण माना जाए।
अगर किसी के सामने श्रृद्धा से सर झुकता
है या मनुष्य नतमस्तक होता है तो यह उसका नितांत निजी मामला है जिसे उचित करार
दिया जा सकता है पर वजीफे या पारिश्रमिक के लिए किसी के सामने झुकना या झुकाना
क्या उचित है? इसे एक अच्छी पहल और बदलाव के बतौर देखा गया था कि प्रणव मुखर्जी ने
रायसीना हिल्स पहुंचने के उपरांत बिगुल बजवाना और अपने नाम के आगे से महामहिम या
माननीय शब्द को हटवा दिया था।
देश के महामहिम राष्ट्रपति के भवन में
जबरन के दिखावे को तो बंद किया जा सकता है,
तब
लग रहा था मानो महामहिम राष्ट्रपति देश में जनता और शासन के बीच की खाई को पाट
देंगे, वस्तुतः एसा होता नहीं दिख रहा है। एक समय था जब देश की जनता आकाशवाणी
पर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के द्वारा दिए जाने वाले देश के नाम संबोधन का
इंतजार करती थी, उसे लगता था कि देश के नीतिनिर्धारकों के निजाम देश को नई बात या नई राह
से आवगत कराएंगे। अब तो कब इनके उद्बोधन हो जाते हैं पता ही नहीं चलता।
दिनों दिन नैतिक मूल्यों के हास का ही
कारण है कि अब युवाओं का मन भी राजनीति से उचाट होने लगा है। सांसद विधायक भी
जनसेवा के स्थान पर निहित स्वार्थों को ही तवज्जो दे रहे हैं। राष्ट्रपति भवन के
अंदर परंपराएं काफी हद तक शाही कही जा सकती हैं। सबसे पहली बार इस भवन के दीदार के
अवसर पंडित शंकर दयाल शर्मा के राष्ट्रपति रहने के दरम्यान हुए थे। उस वक्त हमारे
एक परिचित इस भवन में थे, जो आज छत्तीसगढ़ की सेवा में हैं। उस दौरान इस आलीशान भवन की भव्यता
देखते ही बन रही थी। इतना लंबा चौड़ा भवन कि एक छोटा शहर ही बस जाए इसके अंदर।
प्रजीडेंट स्टेट का रकबा भी बहुत ही ज्यादा है। दिल्ली जैसे मंहगे शहर में इतने
लंबे चौड़े भव्य आलीशान भवन में संगीनों के साए में रहता है देश का पहला नागरिक।
जब प्रणव मुखर्जी प्रेजीडेंट बने तब
उम्मीद की जा रही थी कि वे जनता से जुड़े व्यक्तित्व के स्वामी हैं अतः इस भवन की
रिवायतें बदलेंगी, प्रणव मुखर्जी के शुरूआती कदमों से कुछ आहट भी मिली थी इसी तरह की।
किन्तु समय के साथ ही लगने लगा कि प्रणव मुखर्जी भी नौकरशाहों पर ही पूरी तरह
निर्भर हो चुके हैं। एसा प्रतीत होता है मानो आज प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति नहीं एक
सांसद ही हैं। उनके उद्बोधनों से इस बात की गंध आने लगती है कि वे देश के
संवैधानिक प्रमुख की बजाए एक सुलझे और गूढ़ राजनेता का लबादा उतारने को तैयार नहीं
हैं।
देश के पहले महामहिम राजेंद्र प्रसाद को
देखा तो नहीं पर उनके बारे में जो सुना है उस आधार पर कह सकते हैं कि जब वे
वायसराय की इस हवेली में रहने गए तब उनके तौर तरीकों से जनता के मुंह से बरबस ही
निकल पड़ता था कि एक भारतीय इस भवन में पहुंच चुका है। याद पड़ता है पूर्व महामहिम
एपीजे अब्दुल कलाम के इस भवन में रहने के दौरान काफी हद तक प्रोटोकाल उन्होंने
समाप्त करवा दिया था। वे अपने जूतों के तस्मे खुद ही बांधा करते थे। रात को देर से
खाने के आदी कलाम द्वारा साफ निर्देश दिया गया था कि उनके लिए कोई इंतजार ना करे।
उनके लिए बस एक रसोईया ही देर रात तक जगता था। जिस तरह गोरे ब्रितानियों के
शासनकाल में यह विशालकाय बंग्ला देश वासियों के लिए कौतुहल का विषय था, उसी तर्ज पर आज भी आजादी के साढ़े छः
दशकों बाद भी यह कौतुहल का ही विषय बना हुआ है। कुल मिलाकर अंत में यही कहना
चाहेंगे कि प्रणव मुखर्जी को चाहिए कि वे ब्रितानी वाईसराय और जनता के बीच की दूरी
को बरकरार रखने के स्थान पर आजाद भारत गणराज्य के हिसाब से जनता और राष्ट्रपति के
बीच खुदी खाई को पाटने का काम करें। (साई फीचर्स)