मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

जगजीत सिंह: एक युग का अवसान


जगजीत सिंह: एक युग का अवसान

(लिमटी खरे)

गीत गज़ल की दुनिया के सम्राट जगजीत सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं। जगजीत सिंह ने निश्चित तौर पर गज़ल को नए आयाम दिए हैं। उनका रूझान कभी भी व्यवसियक नहीं रहा। निर्धनता में बचपन बिताने वाले जगजीत सिंह को आकूत दौलत और शोहरत तो मिली पर अहंकार उन्हें छू भी नहीं सका। यूं तो वे पगड़ी पहनते और दाढ़ी रखते थे, किन्तु एक एलबम के कव्हर फोटो के लिए उन्होंने दोनों ही चीजों की तिलांजली दे दी थी। उनका विवाह चित्रा दत्ता से महज तीस रूपए खर्च में संपन्न हुआ तब लोगों को उनकी सादगी का भान हुआ। संगीत जगजीत सिंह की आत्मा थी। उनके इकलौते पुत्र के निधन से वे व्यथित हो गए और आध्यात्म की ओर अग्रसर हो गए। पदमभूषण से सम्मानित जगजीत सिंह को सच्ची श्रृद्धांजली यही होगी कि आज के तड़क भड़क और आडम्बर से परिपूर्ण संगीत युग में सादगी को बरकरार रखा जाए


क्या याद उसे कहते हैं जो अकेले में आए! जी नहीं याद उसे कहते हैं जो महफिल में आए और तन्हा कर जाए!! अनेक फनकार होंगे जो अकेलापन दूर करने में सहायक होते होंगे। अकेले में जिनके गीत सुनने में सुकून मिलता होगा। जगजीत सिंह एक एसी शख्सियत थी जिसके गीत महफिल में भीड़ से खींचकर आपको अकेला कर देते हैं। जगजीत की गजलें हमें वास्तविकता से रूबरू किया करतीं हैं।

जगजीत सिंह के गीतों को सुनकर हर कोई डूब ही जाता था। अगर आप बस में सफर कर रहे हैं और उनकी गजलें बज रहीं हों तो निश्चित तौर पर आप साठ सत्तर यात्रियों से अपने आप को एकाएक अलग कर यादों में खो जाते हैं। उनकी गजलों में एक अजीब सा खिंचाव और जादू था, जो लोगों को बरबस ही अतीत के अच्छे बुरे अनछुए पहलुओं को कुरेदने पर मजबूर कर दिया करती थी।

सत्तर के दशक में जगजीत सिंह की एक गजल बेहद मशहूर हुई जिसका मुखड़ा था, बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। जगजीत की इस गजल वाकई आज के समय में भी प्रासंगिक मानी जा सकती है। सत्तर के दशक के उपरांत तकनीक बदली, आवाजें बदलीं, लोग बदले, तौर तरीका बदला, पश्चिमी सभ्यता और संगीत हावी हुआ पर जगजीत जहां थे वहीं रहे, और उनकी आवाज दूर तलक सालों साल उसी शिद्दत से गूंजती रही।

जगजीत सिंह के पिता मूलतः पंजाब के दल्ला गांव के निवासी थे। वे लोक निर्माण विभाग में काम करते थे। उनकी मां का नाम बचन कौर था। जगजीत का जन्म 8 फरवरी को राजस्थान के श्रीगंगा नगर में हुआ। इसके बाद उनका परिवार बीकानेर चला गया। बाद में वे फिर गंगानगर ही वापस आ गए। शालेय शिक्षा के उपरांत स्नातक करने वे जलांधर पहुंच गए। जगजीत सिंह के पिता अमर सिंह ने उनका नाम जगमोहन रखा।

जगजीत सिंह के गुरू के निर्देश पर उन्होंने अपना नाम जगमोहन से जगजीत कर लिया। वे अपने नाम के अनुसरण करते रहे और अपनी आवाज के दम पर उन्होंने जग को जीत ही लिया। उनका बचपन बहुत ही आभाव में बीता। यहां तक कि उन्हें सायकल तक के लिए संघर्ष करना पड़ा। उस जमाने में पतंग भी उनके लिए विलासिता की चीज ही हुआ करती थी।

जालंधर में उन्होंने आकाशवाणी में काम करने का प्रयास किया। आकाशवाणी जालंधर ने जगजीत सिंह को बी वर्ग के कलाकार के तौर पर मान्यता दे दी। इसके बाद रूपहले पर्दे की दुनिया के गढ़ मुंबई ने उन्हें आकर्षित किया। वे 1961 में मुंबई कूच कर गए। वहां सघर्ष किया किन्तु सफलता उनसे कोसों दूर ही रही। जब पैसे खत्म हो गए तो वहां से एक रेलगाड़ी के शौचालय में बिना टिकिट छिपकर वे वापस जालंधर लौटे।

जालंधर में 1962 में तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के जालंधर आगमन पर उन्हें एक स्वागत गीत तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई, जिसका उन्होंने बखूबी निर्वहन किया। तीन साल तक जालंधर में ही काम करने के उपरांत वे एक बार फिर दृढ निश्चय के साथ मुंबई लौटे। वहां इस बार उन्होंने किफायत से रहना आरंभ किया। सस्ती बदबूदार सीलन भरी जगह पर रहने के कारण वे अक्सर बीमार रहने लगे। उनकी रिहाईश में अनगिनत खटमल और मच्छर थे। एक रात तो उनके पैर को चूहा ही कुतर गया।

दुबारा मुंबई आए जगजीत सिंह को संघर्ष का लंबा अंतराल झेलना पड़ा। वे इस दरम्यान पार्टियों, घरेलू सामाजिक धार्मिक आयोजनों, महफिलों में गाया करते थे। अचानक ही एक दिन मशहूर एचएमवी कंपनी ने अपने एक रिकार्ड के लिए उनसे दो गजलें गवावाईं। इसके लिए उनका फोटो सेशन किया गया। फोटो सेशन हेतु उन्हें अपनी पगड़ी और दाढ़ी की तिलांजली देना पड़ा।

एक मर्तबा रिकार्डिंग के दौरान ही वे चित्रा दत्ता से मिले और नयन मटक्का हो गया। फिर क्या था, 1970 में बिना किसी रिसेप्शन, आयोजन, बारात, धूम धड़ाके, फटाके के दोनों परिणय सूत्र में आबद्ध हो गए। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जगजीत सिंह की शादी का कुल खर्च आया था महज तीस रूपए। विवाह के दौरान भी जगजीत सिंह की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी।

विवाह के उपरांत जगजीत सिंह एक कमरे के घर में रहने लगे। विवाह के एक साल के बाद उनके घर में खुशियां आईं। वे विवेक के पिता बने। गरीबी का आलम यह था कि तीन हफ्ते के दुधमुंहे विवेक को छोड़कर चित्रा को माईक थामना पड़ा। गरीबी उनका मजाक उड़ाती रही और अपने दोस्तों के बीच जगजीत अपने आप को दुनिया का सबसे अमीर ही निरूपित करते रहे।

विवेक के जन्म के चार साल बाद 1975 में उनकी किस्मत ने यू टर्न लिया और जगजीत सिंह ने कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ना आरंभ किया। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 75 का साल दो बातों के लिए याद रखा जाता है। पहली तो सुपर डुबर हिट फिल्म शोले के लिए और दूसरा एचएमवी के द अनफॉरगाटेबल्स के लिए। यह जगजीत सिंह का कलेक्शन था। इसकी कामयाबी ने सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर दिए। इसके बाद जगजीत सिंह ने मुंबई में एक मकान खरीदा। इसके बाद जगजीत की यात्रा चल पड़ी।

जगजीत सिंह ने कमर्शियल फिल्म की ओर कभी रूख नहीं किया। उन्होंने अनेक फिल्मों में स्वर और संगीत दिया। 22 जुलाई 1990 में विवेक की सड़क दुर्घटना में हुई मौत ने जगजीत को झझकोर कर रख दिया। इसके बाद वे आध्यात्म और दर्शन की ओर बढ़ गए। उन्हें 2003 में पदमभूषण सम्मान से नवाजा गया। संगीत के इस चितेरे को शत शत नमन।

चिदम्बरम और गहलोत पर युवराज की नजरें हुईं तिरछी


चिदम्बरम और गहलोत पर युवराज की नजरें हुईं तिरछी

गोपालगढ़ नहीं पहुंचे चिदम्बरम

बिना सूचना गोपालगढ़ पहुंचे राहुल

गहलोत पर संकट के बादल मंडराए

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। राजस्थान में सांप्रदायिक दंगा प्रभावित गोपालगढ़ इन दिनों सुर्खियों में है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी राज्य सरकार और राजस्थान कांग्रेस संगठन को सूचना दिए बिना ही गोपालगढ़ पहुंचे और प्रभावितों से चर्चा की। वहीं दूसरी ओर केंद्रीय गृह मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम ने गोपालगढ़ जाने की जहमत भी नहीं उठाई जो चर्चा का विषय बना हुआ है।

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने पिथेली, परसोली, मालिगा और गोपालगढ़ गांव का भ्रमण किया। केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह के साथ वे मोटर सायकल पर ही गांव गांव घूमे। उन्होंने पुलिस फायरिंग में मारे गए लोगों के परिवार के सदस्यों से मुलाकात भी की। राहुल के दौरे से राजस्थान की सियासत गर्मा गई है। राहुल गांधी ने प्रदेश सरकार को बताए बिना ही पार्टी के राज्य के नेताओं को भी प्रथक रखकर किए इस दौरे के निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। अनेक विधायकों ने भी इस मामले में सरकार के रूख की शिकायत राहुल गांधी से की थी।

एआईसीसी में चल रही चर्चाओं के अनुसार केंद्रीय गृह मंत्री को पता नहीं गहलोत से क्या एजर्ली है कि वे न तो जयपुर जाना चाह रहे हैं और न ही गोपालगढ़ जाने की जहमत ही उठा रहे हैं। चिदम्बरम विरोधियों का कहना है कि अगर यही मामला गुजरात में हुआ होता तो चिदम्बरम तो क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुद चलकर वहां जाते और घायलों से मिलते। कांग्रेस के रणनीतिकार इस मामले में नरेंद्र मोदी की बली लेने में कोई कसर नहीं रख छोड़ते।

कांग्रेस के अंदर सिद्धांतवादी गुट का मानना है कि एक बात के दो मानक नहीं हो सकते हैं। कांग्रेस के नेता सांप्रदायिकता से लड़ने के दो मानकों को अपना रहे हैं जो ठीक नहीं है। एक तो तथा कथित धर्मनिरपेक्षता के लिए और वहीं दूसरा और कहीं अधिक कड़े और अनुचित कथित सांप्रदायिक पार्टियों के लिए।

माना जा रहा है कि राहुल गांधी का गोपालगढ़ दौरा जल्द ही कांग्रेस की दशा और दिशा में सुधार करने का काम करेगा। राहुल गांधी इस मामले में अपनी मां कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी को दृश्य बताते हैं सब कुछ उसी पर निर्भर करता है। अगर राहुल ने कड़े तेवर अपनाए तो चिदम्बरम या गहलोत में से एक को जाना ही होगा।

मनमोहन निरूत्साहित तो राहुल अभी नहीं हैं तैयार


मनमोहन निरूत्साहित तो राहुल अभी नहीं हैं तैयार

प्रणव को पीएम नहीं बनाना चाहतीं सोनिया

सोनिया की पसंद हैं अंटोनी

दिग्विजय सिंह की खुल सकती है लाटरी

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की दूसरी पारी में जिस कदर घपले घोटाले और भ्रष्टाचार सामने आया है उससे कांग्रेस की बुरी तरह भद्द पिटी है। कांग्रेस के रणनीतिकार इस समय इस जुगत में लगे हैं कि किसी तरह 2014 के आम चुनावों के पहले कांग्रेस की काली छवि को धवल साफ कर दिया जाए। इसके लिए वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह की बिदाई ही इकलौता विकल्प उभरकर सामने आ रहा है।

कांग्रेस के सूत्रों का कहना है कि बीमारी से उठीं कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी इन हालातों को लेकर काफी उहापोह में हैं। उनके सामने सबसे बड़ी समस्या यह सामने आ रही है कि प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह निरूत्साहित हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी अभी राजकाज संभालने को तैयार नहीं दिख रहे हैं। अपने पुत्र को सियासी खुरपेंच सिखाने के लिए उन्हें महासचिव राजा दिग्विजय सिंह ही मुफीद लगे। राजा दिग्विजय सिंह भले ही द्रोणाचार्य की भूमिका में हों पर अर्जुन की भूमिका में राहुल अभी पूरी तरह पारंगत नहीं हो पाए हैं।

अगर मनमोहन सिंह को पीएम पद से हटाया जाता है तो उनके बाद नंबर आता है प्रणव मुखर्जी का। किन्तु प्रणव के नाम के लिए सोनिया गांधी किसी भी दृष्टिकोण से अपनी सहमति नहीं देना चाहतीं। सूत्रों ने बताया कि सोनिया को यह बता दिया गया है कि प्रणव मुखर्जी ही वह शक्सियत थी जिसने राजीव गांधी के खिलाफ परोक्ष तौर पर उनके प्रधानमंत्री रहते मोर्चा खोला था।

सूत्रों की मानें तो वजीरे आजम पद के लिए सोनिया की पहली पसंद के तौर पर ए.के.अंटोनी का नाम ही उभरकर सामने आता है। सोनिया की नजरों में भ्रष्टाचार मुक्त अगर कोई राजनेता है तो वह अंटोनी ही है। अंटोनी की राह में अनेक नेता फच्चर फंसाने को तैयार बैठे हैं। अगर अंटोनी का नाम सामने आया तो इसके लिए भी उनके विरोधियों ने झूटी सच्ची कहानियां गढ़ी हुई हैं।

कांग्रेस को अगर आम चुनाव में वेतरणी पार करने के लिए मनमोहन सिंह को हटाना पड़ता है तो निश्चित तौर पर इस पद के लिए सबसे योग्य और प्रबल दावेदार मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजा दिग्विजय सिंह ही होंगे। दिग्गी राजा के मीडिया से संबंध जग जाहिर हैं। मीडिया मैनेजमेंट में उनका कोई सानी नहीं है। सबसे अहम बात तो यह है कि दिग्गी राजा खुद बहुत ही सधे कदमों से 7 रेसकोर्स रोड़ अर्थात प्रधानमंत्री आवास को अपना आशियाना बनाने का सपना मन में संजोए बैठे हैं।

झा के हाथ होगा भाजपा का प्रभात


झा के हाथ होगा भाजपा का प्रभात

विधानसभा चुनावों में अपने को साबित करना होगा प्रभात झा को

दिल्ली का मीडिया मैनेजमेंट सरकारी हाथों में

सूबे में दम तोड़ रहा संगठन

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। मध्य प्रदेश में कांग्रेस कमेटी के गठन के उपरांत अब भाजपा और कांग्रेस में संगठनात्मक दृष्टि से एक दूसरे को तौलना आरंभ हो गया है। एक तरफ भाजपा की कमान प्रभात झा के तो कांग्रेस की परोक्ष तौर पर दिग्विजय सिंह के हाथ में है। 2008 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने आप को साबित कर चुके हैं अब परीक्षा की घड़ी संगठन के मुखिया प्रभात झा की है। अध्यक्ष बनने के उपरांत प्रभात झा समूचे मध्य प्रदेश को भी नहीं नाप पाए हैं।

मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के बहुप्रतिक्षित पुर्नगठन के उपरांत टीम भूरिया में दिग्विजय सिंह की परछाईं साफ दिखाई पड़ रही है। दिग्विजय सिंह अब सूबाई राजनीति से उपर उठ चुके हैं। राष्ट्रीय परिदृश्य में वे अपने आप को स्थापित कर चुके हैं। नेशनल मीडिया पर उनकी पकड़ का कोई सानी नहीं है। चर्चाओं में रहने के कारण वे समूचे देश में पहचाने जाने लगे हैं।

2008 में विधानसभा चुनाव शिवराज सिंह चौहान के चेहरे को ही आगे कर लड़ा गया था। उस वक्त उमा भारती का फेक्टर भी जमकर सामने आया था। उमा भारती खेमे द्वारा उछाले गए डम्पर कांड की काली छाया भी उनके उपर पड़ रही थी। बावजूद इसके शिव के तीर ने कांग्रेस को बांधे ही रखा। कहा जा रहा है कि उस वक्त संगठन भी शिवराज सिंह की छाया ही था।

वर्तमान में संगठन की कमान बिहार मूल के प्रभात झा के हाथों में है। प्रभात झा को अभी संगठनात्मक क्षमता का परिचय देना बाकी है। सियासी हल्कों में यह चर्चा भी चल पड़ी है कि मध्य प्रदेश के जनसंपर्क विभाग के दिल्ली स्थित सूचना केंद्र का उपयोग सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों के प्रचार प्रसार के बजाए संगठन के कार्यक्रमों के प्रचार प्रसार के लिए ज्यादा किया जा रहा है। इसके साथ ही साथ यह भी कहा जा रहा है कि पीएम इन वेटिंग से खुद को हटा चुके लाल कृष्ण आड़वाणी की हवाई रथ यात्रा को संगठन की मांग पर अब भाजपा की कमजोर सीटों की ओर मोड़ा जा रहा है ताकि इसका लाभ भाजपा को आने वाले चुनावों में मिल सके।