जगजीत सिंह: एक युग का अवसान
(लिमटी खरे)
गीत गज़ल की दुनिया के सम्राट जगजीत सिंह अब हमारे बीच नहीं हैं। जगजीत सिंह ने निश्चित तौर पर गज़ल को नए आयाम दिए हैं। उनका रूझान कभी भी व्यवसियक नहीं रहा। निर्धनता में बचपन बिताने वाले जगजीत सिंह को आकूत दौलत और शोहरत तो मिली पर अहंकार उन्हें छू भी नहीं सका। यूं तो वे पगड़ी पहनते और दाढ़ी रखते थे, किन्तु एक एलबम के कव्हर फोटो के लिए उन्होंने दोनों ही चीजों की तिलांजली दे दी थी। उनका विवाह चित्रा दत्ता से महज तीस रूपए खर्च में संपन्न हुआ तब लोगों को उनकी सादगी का भान हुआ। संगीत जगजीत सिंह की आत्मा थी। उनके इकलौते पुत्र के निधन से वे व्यथित हो गए और आध्यात्म की ओर अग्रसर हो गए। पदमभूषण से सम्मानित जगजीत सिंह को सच्ची श्रृद्धांजली यही होगी कि आज के तड़क भड़क और आडम्बर से परिपूर्ण संगीत युग में सादगी को बरकरार रखा जाए
क्या याद उसे कहते हैं जो अकेले में आए! जी नहीं याद उसे कहते हैं जो महफिल में आए और तन्हा कर जाए!! अनेक फनकार होंगे जो अकेलापन दूर करने में सहायक होते होंगे। अकेले में जिनके गीत सुनने में सुकून मिलता होगा। जगजीत सिंह एक एसी शख्सियत थी जिसके गीत महफिल में भीड़ से खींचकर आपको अकेला कर देते हैं। जगजीत की गजलें हमें वास्तविकता से रूबरू किया करतीं हैं।
जगजीत सिंह के गीतों को सुनकर हर कोई डूब ही जाता था। अगर आप बस में सफर कर रहे हैं और उनकी गजलें बज रहीं हों तो निश्चित तौर पर आप साठ सत्तर यात्रियों से अपने आप को एकाएक अलग कर यादों में खो जाते हैं। उनकी गजलों में एक अजीब सा खिंचाव और जादू था, जो लोगों को बरबस ही अतीत के अच्छे बुरे अनछुए पहलुओं को कुरेदने पर मजबूर कर दिया करती थी।
सत्तर के दशक में जगजीत सिंह की एक गजल बेहद मशहूर हुई जिसका मुखड़ा था, बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। जगजीत की इस गजल वाकई आज के समय में भी प्रासंगिक मानी जा सकती है। सत्तर के दशक के उपरांत तकनीक बदली, आवाजें बदलीं, लोग बदले, तौर तरीका बदला, पश्चिमी सभ्यता और संगीत हावी हुआ पर जगजीत जहां थे वहीं रहे, और उनकी आवाज दूर तलक सालों साल उसी शिद्दत से गूंजती रही।
जगजीत सिंह के पिता मूलतः पंजाब के दल्ला गांव के निवासी थे। वे लोक निर्माण विभाग में काम करते थे। उनकी मां का नाम बचन कौर था। जगजीत का जन्म 8 फरवरी को राजस्थान के श्रीगंगा नगर में हुआ। इसके बाद उनका परिवार बीकानेर चला गया। बाद में वे फिर गंगानगर ही वापस आ गए। शालेय शिक्षा के उपरांत स्नातक करने वे जलांधर पहुंच गए। जगजीत सिंह के पिता अमर सिंह ने उनका नाम जगमोहन रखा।
जगजीत सिंह के गुरू के निर्देश पर उन्होंने अपना नाम जगमोहन से जगजीत कर लिया। वे अपने नाम के अनुसरण करते रहे और अपनी आवाज के दम पर उन्होंने जग को जीत ही लिया। उनका बचपन बहुत ही आभाव में बीता। यहां तक कि उन्हें सायकल तक के लिए संघर्ष करना पड़ा। उस जमाने में पतंग भी उनके लिए विलासिता की चीज ही हुआ करती थी।
जालंधर में उन्होंने आकाशवाणी में काम करने का प्रयास किया। आकाशवाणी जालंधर ने जगजीत सिंह को बी वर्ग के कलाकार के तौर पर मान्यता दे दी। इसके बाद रूपहले पर्दे की दुनिया के गढ़ मुंबई ने उन्हें आकर्षित किया। वे 1961 में मुंबई कूच कर गए। वहां सघर्ष किया किन्तु सफलता उनसे कोसों दूर ही रही। जब पैसे खत्म हो गए तो वहां से एक रेलगाड़ी के शौचालय में बिना टिकिट छिपकर वे वापस जालंधर लौटे।
जालंधर में 1962 में तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के जालंधर आगमन पर उन्हें एक स्वागत गीत तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई, जिसका उन्होंने बखूबी निर्वहन किया। तीन साल तक जालंधर में ही काम करने के उपरांत वे एक बार फिर दृढ निश्चय के साथ मुंबई लौटे। वहां इस बार उन्होंने किफायत से रहना आरंभ किया। सस्ती बदबूदार सीलन भरी जगह पर रहने के कारण वे अक्सर बीमार रहने लगे। उनकी रिहाईश में अनगिनत खटमल और मच्छर थे। एक रात तो उनके पैर को चूहा ही कुतर गया।
दुबारा मुंबई आए जगजीत सिंह को संघर्ष का लंबा अंतराल झेलना पड़ा। वे इस दरम्यान पार्टियों, घरेलू सामाजिक धार्मिक आयोजनों, महफिलों में गाया करते थे। अचानक ही एक दिन मशहूर एचएमवी कंपनी ने अपने एक रिकार्ड के लिए उनसे दो गजलें गवावाईं। इसके लिए उनका फोटो सेशन किया गया। फोटो सेशन हेतु उन्हें अपनी पगड़ी और दाढ़ी की तिलांजली देना पड़ा।
एक मर्तबा रिकार्डिंग के दौरान ही वे चित्रा दत्ता से मिले और नयन मटक्का हो गया। फिर क्या था, 1970 में बिना किसी रिसेप्शन, आयोजन, बारात, धूम धड़ाके, फटाके के दोनों परिणय सूत्र में आबद्ध हो गए। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जगजीत सिंह की शादी का कुल खर्च आया था महज तीस रूपए। विवाह के दौरान भी जगजीत सिंह की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी।
विवाह के उपरांत जगजीत सिंह एक कमरे के घर में रहने लगे। विवाह के एक साल के बाद उनके घर में खुशियां आईं। वे विवेक के पिता बने। गरीबी का आलम यह था कि तीन हफ्ते के दुधमुंहे विवेक को छोड़कर चित्रा को माईक थामना पड़ा। गरीबी उनका मजाक उड़ाती रही और अपने दोस्तों के बीच जगजीत अपने आप को दुनिया का सबसे अमीर ही निरूपित करते रहे।
विवेक के जन्म के चार साल बाद 1975 में उनकी किस्मत ने यू टर्न लिया और जगजीत सिंह ने कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ना आरंभ किया। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 75 का साल दो बातों के लिए याद रखा जाता है। पहली तो सुपर डुबर हिट फिल्म शोले के लिए और दूसरा एचएमवी के द अनफॉरगाटेबल्स के लिए। यह जगजीत सिंह का कलेक्शन था। इसकी कामयाबी ने सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर दिए। इसके बाद जगजीत सिंह ने मुंबई में एक मकान खरीदा। इसके बाद जगजीत की यात्रा चल पड़ी।
जगजीत सिंह ने कमर्शियल फिल्म की ओर कभी रूख नहीं किया। उन्होंने अनेक फिल्मों में स्वर और संगीत दिया। 22 जुलाई 1990 में विवेक की सड़क दुर्घटना में हुई मौत ने जगजीत को झझकोर कर रख दिया। इसके बाद वे आध्यात्म और दर्शन की ओर बढ़ गए। उन्हें 2003 में पदमभूषण सम्मान से नवाजा गया। संगीत के इस चितेरे को शत शत नमन।