चिंतन शिविर में युवराज की चिंता!
(लिमटी खरे)
गुलाबी नगरी में कल से आरंभ होने वाले
चिंतन शिविर में कांग्रेस की पेशानी पर पसीने की छलकती बूंदों से आभास होता है
मानो अपनी गल्तियों दर गल्तियों से लहूलुहान कांग्रेस अब मरहम पट्टी नहीं बल्कि
गहन चिकित्सा इकाई (आईसीसीयू) में भर्ती होकर शल्य क्रिया (सर्जरी) की राह तक रही
है। कांग्रेस के अदूरदर्शी प्रबंधकों की अस्पष्ट नीतियों के चलते देश भर में
कांग्रेस की थू थू हो रही है। सोशल नेटवर्किंग वेब साईट्स पर कभी कांग्रेस के साथ
पलनिअप्पम चिदम्बरम और कपिल सिब्बल निशाना हुआ करते थे पर अब सीधे सीधे कांग्रेस
के साथ ही साथ प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी
और कांग्रेस की नजरों में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी निशाने पर हैं। सोशल
नेटवर्किंग वेब साईट्स पर जनता के गुस्से से कांग्रेस सहमी दिख रही है। आज मीडिया
को तो कांग्रेस मैनेज कर सकती है पर सोशल नेटवर्किंग वेब साईट्स पर आने वाले तीखे
और व्यंगात्मक बाणों को संभालना या रोकना कांग्रेस के बस का नहीं दिखता।
मई 2004 में केंद्र में सत्ता पर काबिज
होने के उपरांत कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कदम ताल देखकर लग
रहा था मानो यह पांच साल भी बमुश्किल चल पाए। यह तो बिखरा हुआ और ‘मैनेज‘ विपक्ष था कि 2009 के आम चुनावों में एक
बार फिर कांग्रेस की लाटरी लगी और दुबारा वह सत्ता पर काबिज हो गई। नेहरू गांधी
परिवार से इतर डॉ.मनमोहन सिंह ने बतौर प्रधानमंत्री सबसे लंबा कार्यकाल चलाया और
रिकार्ड अपने नाम कर लिया। प्रधानमंत्री का मौन रहना ही सबसे घातक साबित हुआ।
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक की समाप्ति के वक्त ही ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग
वेब साईट्स ने जोर पकडा और युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया। पहले पहल तो इसमें
दोस्ताना बातचीत हुईं फिर फूटा जनता का आक्रोश।
एक के बाद एक घपले घोटालों, भ्रष्टाचार, अनाचार, बलात्कार, उग्रवाद, अलगाववाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, चोरी डकैती, लूट आदि की घटनाओं के बाद भी जब हाकिमों
ने सुध नहीं ली, मीडिया को मैनेज कर सरकारों ने अपनी उजली छवि पेश करना आरंभ किया तब
जाकर देश के अघोषित पांचवें स्तंभ के रूप में सोशल नेटवर्किंग वेब साईट्स ने अपनी
उपस्थिति दर्ज कराना आरंभ कर दिया। इन वेबसाईट्स पर राहुल, सोनिया और मनमोहन सिंह का जिस तरह से
मजाक उडाया जा रहा है उससे लगता है मानों कांग्रेस के साथ ही साथ इन तीनों की
टीआरपी में भी जमकर कमी आई है।
2004 के बाद कांग्रेस का तीन सूत्रीय
कार्यक्रम उभरकर सामने आया है। पहला राहुल गांधी को किस तरह प्रधानमंत्री बनाया
जाए! दूसरा किस तरह सरकार बचाई जाए, और तीसरा किस तरह पैसा कमाया जाए। इन
तीनों सूत्रों में से दूसरे और तीसरे नंबर के सूत्रों को तो कांग्रेस के
रणनीतिकारों ने सिद्ध कर लिया। समय समय पर सांसत में आई सरकार की जान बचा ली और
पैसा भी तबियत से कमा लिया। रही बात राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की तो राहुल को
पीएम बनाने वाले मसले में कांग्रेस बुरी तरह विफल हुई है।
पिछले आम चुनावों में राहुल गांधी की
टीआरपी जब एकाएक घटी तो टीवी चेनल्स को मैनेज कर कांग्रेस ने अपनी तुरूप का इक्का, प्रियंका वढेरा को आगे कर दिया।
प्रियंका मंे कभी लाल साडी में इंदिरा गांधी का अक्स दिखाया गया तो कभी प्रियंका
की जुल्फों की तुलना इंदिरा गांधी के बालों से की गईं। चुनावी वेतरणी पार करने के
उपरांत कांग्रेस के रणनीतिकारों ने एक बार फिर सोनिया गंाधी को भरमाना आरंभ किया
और राहुल गांधी के बारे में तरह तरह की सच्ची झूठी बातों से सोनिया को बरगलाया।
इस चिंतन शिविर की सबसे बड़ी चिंता यह है
कि राहुल गांधी को आखिर किस तरह से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए।
कांग्रेस के अंदरखाने में चल रही चर्चाओं को अगर सही माना जाए तो कांग्रेस के थिंक
टैंक और ट्रबल शूटर प्रणव मुखर्जी को राहुल के रास्ते से हटाने के लिए रायसीना
हिल्स स्थित देश के महामहिम राष्ट्रपति भवन भेज दिया गया है। राहुल के बारे में
कांग्रेसियों का मानना है कि वे युवा हैं और उनमें राजीव गांधी का अक्स भी दिखता
है।
यह सब होने के बाद भी 2009 के उपरांत
राहुल गांधी के प्रदर्शन से कांग्रेस की अध्यक्षा सहित कांग्रेस के वरिष्ठजन
संतुष्ट तो कतई नहीं होंगे। सोनिया शायद इसी चिंता में घुली जा रही हैं कि राहुल
की छवि दिन प्रतिदिन धूमिल हो रही है और उनका प्रभाव और प्रभुत्व भी घटता ही जा
रहा है। राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने में अनेक रोढ़े खड़े हुए हैं। स्व.इंदिरा
गांधी, स्व.राजीव गांधी के साथ काम करने वाले नेताओं को राहुल के झंडे तले काम
करना असहज ही लग सकता है।
कांग्रेस के कथित रणनीतिकारों ने सोनिया
गांधी को एक के बाद एक सब्ज बाग दिखाए, पर जब जमीनी हकीकत सामने आई तो सोनिया
के हाथों से तोते उड़ना स्वाभाविक ही था। राहुल को मीडिया में पीएम के समकक्ष बताकर
सोनिया को भरमाया भी प्रबंधकों ने। 2010 में बिहार के चुनावों की बागडोर राहुल के
युवा कांधों पर थी। इन चुनावों में राहुल गांधी ने जमकर प्रचार किया और लोक लुभावन
वायदे किए। मीडिया ने भी बिहार में राहुल को शत प्रतिशत सफल करार दिया। पर जब
परिणाम आए तो प्रबंधकों की बोलती ही बंद हो गई। इन चुनावों में कांग्रेस और उसके
सहयोगी दलों को करारी हार का सामना करना पड़ा। इन चुनावों में जद यू और भाजपा को
वर्ष 2005 की तुलना में बहुतम मिला और दोनों ने क्रमशरू 27 एवं 36 सीटों अधिक
पाईं। एनडीए गठबंधन की सरकार के मुख्यमंत्री बने नीतिश कुमार और राहुल गांधी से
प्रधानमंत्री की कुर्सी दूर हो गई।
उत्तर प्रदेश सूबा राहुल गांधी का
संसदीय क्षेत्र वाला सूबा है। यहां के विधानसभा चुनावों में 2012 में एक बार फिर
राहुल गांधी के हाथों चुनाव की कमान सौंपी गई। इस सूबे में राहुल गांधी का दलितों
के आवास पर रात गुजारने का प्रहसन और तूफानी दौरे भी कांग्रेस को जिला नहीं पाए।
यहां का नतीजा भी चौंकाने वाला रहा। 403 सीटों वाले विधानसभा चुनावों में समाजवादी
पार्टी ने 224 सीटें पाकर जीत का परचम लहरा दिया और एक बार फिर राहुल गांधी के
अरमानों को करारा झटका लगा और प्रधानमंत्री की कुर्सी पहले से भी ज्यादा दूर हो
गई।
इसके उपरांत इसी साल गुजरात चुनावों में
भी राहुल ने कांग्रेस की नैया पार लगाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी। तूफानी भाषण
दिए। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लिए बिना ही उनके खिलाफ काफी
आक्रामक भाषण भी दिए। कभी कहा कि उन्हें गुस्से की राजनीति करनी नहीं आती है।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी बेटे को पीएम की कुर्सी पर आसीन कराने के लिए
बराबर का साथ दिया। गांधी के नाम का भरपूर इस्तेमाल किया और गुजराती भाषा में भी
भाषण दिए। इतना ही नहीं कांग्रेस के लगभग सभी दिग्गजों ने राहुल के पक्ष में
गुजरात चुनावों में कांग्रेस का धुआंधार प्रचार किया। नतीजा आया तो मोदी के पक्ष
में, नरेंद्र मोदी ने जहां अकेले अपने दम पर विकास को मुद्दा बनाकर जीत की
हैटट्रिक मनाई। भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में 182 सीटों में से 116 जीत कर एकतरफा
जीत हासिल की। मोदी के हाथों मिली हार ने इस बार भी कांग्रेस को ऐसी पटखनी दी, कि कल तक प्रधानमंत्री पद की कुर्सी
राहुल के लिए बड़ी आसान सी दिखाई दे रही थी, वह अचानक काफी दूर हो गई। कांग्रेस के
सपने धूलधूसरित हो गए। तीन साल के दौरान लगातार राहुल गांधी का घटता कद और कम होती
लोकप्रियता ने कांग्रेस को झाकझोर कर रख दिया।
राहुल के खाते में एक के बाद एक
नकारात्मक बातें आती जा रही हैं। हाल ही 16 दिसंबर को राजधानी दिल्ली के बसंत
विहार इलाके में चलती बस में गैंग रेप का शिकार हुई एक पैरामेडिकल छात्रा की मौत
के बाद पूरे देश के युवा धरना-प्रदर्शन कर रहे थे। उस दौरान दिल्ली में
प्रदर्शनकारी युवा चीख-चीखकर राहुल गांधी को बुला रहे थे। पूरे देश को एकजुट करने
वाले गैंगरेप जैसे संवेदनशील प्रकरण में सामने आने के बजाय राहुल की चुप्पी उनके
और कांग्रेस दोनों के लिए आत्मघाती साबित हुई। पार्टी के चुनाव प्रचारों में
विभिन्न प्रदेशों में बढ़-चढ़ कर भाषण देने और बयानबाजी करने वाले राहुल को युवाओं
ने अपना आइडियल बनाया था, लेकिन दिल्ली प्रकरण के बाद युवाओं को समझा आ गया है कि राहुल जो भी
बयानबाजी करते थे अथवा भाषण देते थे, उन्हें कोई अन्य अनुभवी व्यक्ति ही
लिखता होगा। लोगों का मानना है कि राहुल में अनुभवहीनता तो है ही साथ ही देश को
बांधे रखने की समझ भी कम है।
सोनिया इस बात को बखूबी समझने लगी हैं
कि राहुल के घटते प्रभाव का असर नेशनल स्टूडेंड यूनियन ऑफ इंडिया (एनएसयूआई) और
यूथ कांग्रेस का भी देशभर में प्रभाव कम हुआ है। राहुल के अनुचित फैसलों के कारण
कांग्रेस के इन दोनों संगठनों की हालत पतली हो गई है। पहले युवाओं में एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस के प्रति
काफी रुझान था, लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में गत तीन साल के दौरान बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात में मिली शिकस्त
ने प्रतिकूल प्रभाव डाला है और युवा वर्ग ने इन दोनों संगठनों से भी दूरियां बना
ली हैं।
कांग्रेस के लिहाज से इसके पहले 1998 के
पचमढ़ी और 2003 के शिमला में हुए चिंतन शिविर के समय की स्थिति मौजूदा राजनीतिक
स्थिति से काफी अलग थी। तब पार्टी विपक्ष में थी। राजग सत्ता में थी। उस समय
कांग्रेस आक्रामक थी। मुख्य राजनीतिक चुनौती थी भाजपा को सत्ता से हटाना। इसलिए
शिमला शिविर में सोनिया गांधी का उद्घाटन भाषण हो या फिर चिंतन के पांचों विषय पर
बहस के बाद तैयार किया गया शिमला संकल्प, उनका रुख आक्रमक था। उसके निशाने पर
भाजपा और राजग सरकार के कामकाज और नीतियां थीं।
परिस्थितियां इस बार अलग हैं। कांग्रेस
पिछले आठ साल से केंद्र की सत्ता में है। उसके कामकाज पर सवाल उठाया जा रहा है। अब
उसे केंद्र सरकार के खिलाफ नहीं बल्कि उसके पक्ष में उसकी नीतियों और कार्यशैली को
लेकर उसका महिमामंडन करना है। विपक्ष के लगाए आरोपों और सवालों का जवाब देना है।
यानी इस बार चिंतन शिविर में बहस के बाद जो भी दस्तावेज तैयार किया जाएगा, वह रक्षात्मक होगा। अपनी तरफ से सफाई
देने की जरूरत पड़ सकती है। उसके जरिए कार्यकर्ताओं को यह बताने की कोशिश होगी कि
वह जनता की तरफ से सरकार को लेकर उठाए गए सवालों का क्या जवाब दे। यह जवाब
कांग्रेस को उन्हीं सवालों पर देने हैं, जो उसने पचमढ़ी और शिमला चिंतन शिविर के
दस्तावेज में तब की सरकार के खिलाफ उठाए थे।
सवाल घोटालों से लेकर महंगाई और सरकार
की आर्थिक नीतियों से जुड़े हैं। इसी के साथ दूसरी तरफ कार्यकर्ताओं के लिए इस बात
के भी दिशा निर्देश होंगे कि वे जनता के बीच जाकर किस तरह सरकार की योजनाओं और
नीतियों के सकारात्मक पक्ष से उन्हें अवगत कराएं। शिमला से अलग इस बार अखिल भारतीय
कांग्रेस कमेटी की बैठक चिंतन शिविर के बाद रखी गई है। जाहिर तौर पर ऐसा किसी
विशेष कारण से किया गया है। सूत्रों के मुताबिक इस बैठक में चिंतन शिविर के
दस्तावेज को प्रस्ताव के रूप में पास कर इसकी घोषणा होगी। इस घोषणा में राहुल
गांधी के लिए किया गया पार्टी का फैसला भी शामिल होगा। (साई फीचर्स)