गुमराह पंचायत या पंच!
(लिमटी खरे)
सादगी की प्रतिमूर्ति महात्मा गांधी ने आधी धोती पहनकर अपने अहिंसा के हथियार से उन ब्रितानियों के दांत खट्टे किए जिनके बारे में किंवदंती थी कि ब्रितानियों का सूरज कभी डूबता ही नहीं है। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में महात्मा गांधी की कमी शिद्दत से महसूस की जाने लगी थी। तभी सत्तर के दशक में जयप्रकाश नामक लोकनायक का उदय हुआ। इसके उपरांत इक्कीसवीं सदी में अब अण्णा हजारे में लोग गांधी और जेपी की छवि देख रहे हैं। सांप बिच्छू के मानिंद हो चुकी नेतागिरी के बावजूद अण्णा ने अपने आंदोलन को जिस अहिंसक तरीके से अंजाम दिया वह निश्चित तौर पर सराहनीय कहा जा सकता है। गांधी के इस देश में जनता का जनादेश प्राप्त नुमाईंदे जनता के ही गाढ़े पसीने की कमाई में किस कदर आग लगा रहे हैं, उसे सिर्फ देश ही नहीं वरन् विदेशों में भी देखा जा रहा है।
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देश की सबसे बड़ी पंचायत के चलने में हर दिन का औसतन खर्च छः करोड़ 35 लाख रूपए बैठता है। इस पंचायत के पंच यानी सांसदों द्वारा जनता के गाढ़े पसीने की कमाई के पैसों को पानी में बहा दिया जाना निःसंदेह निंदनीय ही माना जाएगा। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के अस्तित्व में आने के उपरांत जून 2004 से 2010 तक कुल 352 बैठकें ही संपन्न हो पाईं। देश के संविधान निर्माताओं ने जब संसदीय लोकतंत्र की परिकल्पना की होगी तब निश्चित रूप से उन्होंने एक खुशहाल भारत का सपना देखा होगा, लेकिन आज की संसद देखकर लगता है कि संसद का मकसद सिर्फ और सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही रह गया है। देखा जाए तो संसद बनती है सांसदों से, और अगर सांसदों का चरित्र और चेहरा बदल जाए तो उसका सीधा असर संसद की गरिमा और संसद के कार्यकलापों पर पड़ना स्वाभाविक ही है।
गणतंत्र की स्थापना के साथ ही जो लोग राजनीति में आए थे, वे आजादी के संघर्ष में तपे हुए थे। उनका उद्देश्य त्याग कर जनसेवा करने का था। कालांतर में इसका स्वरूप विकृत हुआ और यह लाभ कमाने का अच्छा जरिया बन गई। एक लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए कम से कम दस से बीस करोड़ रूपयों की आवश्यक्ता होती है। यक्ष प्रश्न यह है कि इतना पैसा व्हाईट मनी के बतौर किसी के पास नहीं है, जाहिर है इसी के चलते चुनाव लड़ने वाले या तो आपराधिक चरित्र के लोगों से गलबहियां करते दिखते हैं या खुद इस चरित्र के लोग राजनीति में आ जाते हैं। अध्ययनों से साफ है कि देश में वर्तमान में 543 सांसदों वाली लोकसभा में करोड़पति सांसदों की तादाद 300 के उपर है।
संसद के मुख्य सात कमों में कार्यपालिका का नियंत्रण, कानून बनाना, वित्त का नियंत्रण, संवैधानिक काम, विमर्श आरंभ करना, न्यायिक कार्य और निर्वाचन संबंधी काम शामिल हैं। एक समय था जब संसद के सत्रों का पचास प्रतिशत से अधिक समय कानून बनाने में व्यतीत होता था। पिछले अनेक सालों में इसकी तादाद घटकर महज 15 प्रतिशत ही रह गई है। शून्य काल को काफी गंभीरता से लिया जाता था आरंभिक वर्षों में किन्तु कालांतर में शून्यकाल को तवज्जो देना ही बंद करने की प्रथा सी चल पड़ी है।
संसद के दोनों सदनों और संसदीय कार्य मंत्रालय का वर्ष 2010-11 के लिए कुल बजट अनुमानतः 535 करोड़ रुपये था। एक साल में संसद तीन बार यानी बजट सत्र, मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र के लिए बैठती है। पिछले पांच साल में हर साल संसद की औसतन 70 बैठकें हुई हैं। इस तरह एक सत्र की एक दिन की कार्यवाही पर 7।65 करोड़ रुपये का खर्च आता है। 2010 - 2011 के बजट, मानसून और शीतकालीन, तीनों सत्रों को मिलाकर वर्ष भर में कुल 80 बैठकें हुईं, जिनमें से व्यवधान और स्थगन के चलते 27 दिन कोई कामकाज नहीं हुआ। इस तरह लोकसभा ने 33 फ़ीसदी यानी करीब एक तिहाई समय बर्बाद कर दिया।
बाईस नवंबर को आरंभ हुए शीतकालीन सत्र भी लगभग ही हंगामे की भेंट चढ़ चुका है। एक समय था जब बांग्लादेश इसके लिए मशहूर हुआ करता था जहां विपक्षी दलों के बरसों लंबे बायकाट के कारण संसदीय साख में भारी गिरावट आई। वर्तमान में संसद सत्र पर हर घंटे खर्च होने वाली 25 लाख रुपए की रकम प्रासंगिक नहीं रह गई है। वर्तमान में धरने, प्रदर्शन, बंद, हड़ताल, की तुलना में संसदीय हंगामा अपनी पसंद के मुद्दों की ओर ध्यान खींचने का आसान जरिया बन रहा है। जिसके फलस्वरूप संसदीय परंपराओं तथा गरिमाओं का क्षरण स्वाभाविक ही है।
संसदीय कायर्वाही के आंकड़े उत्साहजनक किसी भी दृष्टिकोण से नहीं कहे जा सकते हैं। सन 2009 में शुरू हुई पंद्रहवीं लोकसभा में 200 प्रस्तावित विधेयकों में से अब तक सिर्फ 57 विधेयक पारित हो सके हैं। इनमें भी 17 फीसदी विधेयक ऐसे थे जिन पर पांच मिनट से भी कम समय के लिए चर्चा हुई। ऐसी चर्चाओं की सार्थकता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। इस बार के संसद के मौजूदा सत्र में 21 बैठकें होनी थीं, किन्तु नौ दिन इसमें व्यर्थ ही चले गए। इस बीच 31 विधेयकों के पारित होने और लोकपाल विधेयक समेत 23 बिलों को पेश किए जाने की बात अभी भविष्य के गर्भ में ही है।
विडम्बना है कि जनसेवकों ने संसद को कठपुतली के मानिंद नचाना आरंभ कर दिया है। एक समय जब राजग सरकार थी तब कांग्रेस का विपक्ष के बतौर यही बर्ताव हुआ करता था। कांग्रेस ने तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस पर आरोप लगाकर संसद में लंबे समय तक इसी तरह गतिरोध पैदा किया था। आज पात्र बदल चुके हैं। आज फर्नाडीस के स्थान पर पलनिअप्पम चिदम्बरम हैं और कांग्रेस की जगह भाजपा।
पिछले दो दशकों में इस साल के आरंभ का बजट सत्र सबसे संक्षिप्त था। इस सत्र में अनुदान मांगों के लिए 81 फीसदी बजटीय मांगों पर चर्चा ही नहीं हो पाई। इसमें वित्त विधेयक सहित पांच विधेयक पारित ही नहीं हो सके। इसमें लेजिस्लेशन पर लोक सभा में कुल प्रोडक्टिव टाईम का महज 12 तो राज्य सभा में कुल समय का इससे आधा यानी छः फीसदी समय ही खर्च किया गया था।
जनता के जनादेश प्राप्त नुमाईंदे जनता की कितनी परवाह करते हैं इस बात का अंदाजा पिछले साल के शीत कालीन सत्र से ही लगाया जा सकता है। 2010 के शीतकालीन सत्र में लोकसभा में 23 दिनों में से महज सात घंटे 30 मिनिट ही काम हो पाया था। सांसदों ने 124 घंटे 30 मिनिट का समय बर्बाद कर दिया था। राज्य सभा का आलम भी यही रहा। उच्च सदन में 23 दिनों में से महज 2 घंटे 44 मिनिट ही काम हो पाया था, इसमें 130 से ज्यादा घंटे बर्बाद हुए थे। इस दौरान सरकार का डेढ़ सौ करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ था। अमूमन एक सत्र में 15 से 20 विधेयक पारित कर लिए जाते हैं किन्तु इस सत्र में महज पांच विधेयक ही पारित किए जा सके थे।
पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी सांसदों के इस हंगामाई व्यवहार से खासे व्यथित नजर आते थे। जब उनसे नहीं रहा गया तो 20 फरवरी 2009 को उन्होंने संसद में ही सांसदों के खिलाफ कड़ी टिप्पणी की थी। बकौल सोमदा -‘‘मैने कई बार अपील की है, किन्तु बहुत दुख है कि (सांसदों पर) कोई असर नहीं हुआ है। आप (सांसद) पब्लिक मनी का एक भी पैसा पाने के अधिकारी नहीं हैं। संसदीय लोकतंत्र में संसद देश का सर्वोच्च संसथान है, यह लोकतंत्र का प्रतीक है। यहां देश के कानून बनाए जाते हैं। यहां से देश का शासन चलता है। जब आपको काम करने का मौका मिलता है तब आप काम नहीं करते, इसका क्या फायदा! हलांकि बाद में उन्होंने अपने वक्तव्य पर खेद भी प्रकट किया था किन्तु उस वक्त तो उनका दुख सामने आ ही गया था।
देखा जाए तो इस साल का शीतकालीन सत्र इसलिए भी अधिक महात्वपूर्ण था क्योंकि इसमें देश और सरकार को हिला देने वाले अण्णा हजारे के द्वारा लोकपाल बिल पारित करवाने की बात कही गई थी। भाजपा भले ही अण्णा के साथ खड़ी नजर आए किन्तु जब बात लोकपाल बिल पारित करवाने की आती है तब वह संसद में हंगामा कर गतिरोध पैदा करती नजर आती है। भाजपा ने इतना हंगामा बरपाया पर महिला आरक्षण बिल को भी वह परवान चढ़वाने में सफल नहीं हो पाई।
यहां उल्लेखनीय है कि जार्ज पंचम ने आज से सौ साल पहले दिल्ली के एक छोर पर दरबार लगाया था. वह भी 11 दिसंबर ही था और अण्णा ने भी यही दिन चुना है। पिछले साल नवंबर दिसंबर में यही अन्ना हजारे यहां आये थे तो उनके इर्द गिर्द कुल जमा दो पांच सौ लोग थे। लेकिन आज साल भर बाद न केवल जंतर मंतर अन्ना हजारे के जलवे देख रहा है बल्कि राजनीति भी लुटियन्स जोन से निकलकर जंतर मंतर पर दस्तक दे रही है।
समय के साथ राजनेता कैसी पलटी मारते हैं इसकी मिसाल भी चंद माहों में ही देखने को मिली। इसी साल सितंबर में रामलीला मैदान पर अन्ना हजारे ने जब अनशन शुरू किया तो संसद में खड़े होकर शरद यादव ने अन्ना हजारे की ऐसी खबर ली थी कि राजनीति बनाम सिविल सोसायटी की जंग में वे राजनीति के हीरो नजर आये थे। लेकिन उन्हीं शरद यादव ने आज अन्ना के मंच से अन्ना हजारे को हीरो माना। बकौल शरद यादव भ्रष्टाचार की जो मुहिम चल पड़ी है आदरणीय अन्ना हजारे उसके नेता है। वैसे शरद यादव ऐसे नेता जरूर नजर आते हैं जो भाषण देने की कला में माहिर है। अटल बिहारी बाजनेयी के उपरांत एनडीए में ऐसा वाकपटु नेता दूसरा बचा नहीं है।
एक के बाद एक तारीख देने वाले अण्णा हजारे ने अब 22 दिसंबर तक का अल्टीमेटम दे दिया है। अण्णा ने सरकार पर देश को धोखा देने का आरोप लगाया और कहा कि अगर 22 दिसंबर तक उनकी मांगें नहीं मानी गईं तो वे 27 दिसंबर से आंदोलन करेंगे। इस बार अण्णा के सुर में सोनिया और राहुल गांधी के लिए भी खासी तल्खी दिखी। राहुल के गरीब की झोपड़ी में रात गुजारने के प्रहसन पर उन्होंने कटाक्ष करते हुए कह ही डाला कि एक दिन झोपड़ी में रहकर कोई प्रधानमंत्री नहीं बन जाता। वहीं सोनिया को बीमर कहकर उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व को ही कटघरे में खड़ा कर दिया।
सरकार पर अण्ण बेहद आक्रोषित हैं। अण्ण का कहना है कि कांग्रेस अपने ही प्रधानमंत्री को कुछ नहीं समझ रही है। पीएम का पत्र ही कचरे के डब्बे के हवाले कर दिया जाता है। तीस सदस्यीय संसदीय समिति के 17 लोगों के विरोध में होने के बाद भी प्रतिवेदन संसद पहुंच जाता है, क्या यही लोकतंत्र है?
लोकपाल बिल लोक सभा में 04 अगस्त 2011 को पेश किया गया था और इसे संसद की स्थायी समिति को 8 अगस्त को भेजा गया था। इस बिल का उद्देश्य एक ऐसा कानून बनाना है जो सरकार में विभिन्न पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के बारे में जांच करेगा। इस कमेटी के सामने विचार के लिए दस हज़ार सुझाव आये। अन्ना हजारे की टीम ने भी समिति के सामने कई बार हाज़िर होकर अपनी बात रखी 23 सितम्बर 2011 के दिन पहली बैठक हुई और अंतिम बैठक 7 दिसंबर को हुई। इस बीच कमेटी के सामने कई न्यायविद, भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश, गैरसरकारी संगठनों के प्रतिनधि, टीम अन्ना के प्रतिनिधि, स्वयं अन्ना हजारे, धार्मिक संगठन, सीबीआई, सीवीसी आदि बहुत सारे लोग पेश हुए। रिपोर्ट संसद में पेश होने के बाद समिति के अध्यक्ष, अभिषेक मनु सिंघवी ने पत्रकारों से बात की और बताया कि सरकार के बहुत सारे सुझाव खारिज कर दिए गए हैं। जो ड्राफ्ट कमेटी के पास आया था उसको पूरी तरह से स्वीकार करने का कोई कारण नहीं था। करीब ढाई महीने की बैठकों के बाद जो सिफारिशें सरकार को दी गयी हैं उनमें टीम अन्ना समेत बहुत सारे लोगों के सुझाव हैं। किसी भी संगठन की बात को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया गया है।
(साई फीचर्स)