शुक्रवार, 9 मार्च 2012

शिव प्रभात का गुण्डा राज!


शिव प्रभात का गुण्डा राज!



(लिमटी खरे)

एक समय देश के हृदय प्रदेश को शांति का टापू कहा जाता रहा है। पिछले दो दशकों में आपराधिक गतिविधियों में मध्य प्रदेश ने सारे रिकार्ड ही ध्वस्त कर दिए हैं। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में जबसे मध्य प्रदेश में भाजपा का शासन विशेष तौर पर शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री और प्रभात झा प्रदेश भाजपाध्यक्ष बने हैं तबसे मध्य प्रदेश में गुण्डा राज चरम पर है। एमपी में वन और खनन माफिया बेहद ताकतवर हो गया है। मध्य प्रदेश में कानून और व्यवस्था नाम की चीज नहीं बची है। विपक्ष में बैठी कांग्रेस भी इसके विरोध की महज रस्म अदायगी ही कर रही है। खनिज माफिया के होसले इतने बुलंद हैं कि धुरैड़ी के दिए सरेराह ही भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी नरेंद्र कुमार को टेक्टर से कुचलकर उनकी इहलीला ही समाप्त कर दी गई। मध्य प्रदेश में राजनेताओं और माफिया की दबंगई का इससे घिनौना स्वरूप और कुछ नहीं हो सकता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, गृहमंत्री उमा शंकर गुप्त, एमपीबीजेपी प्रेजीडेंट प्रभात झा ने घटना की निंदा कर रस्म अदायगी कर ली है। मामला अब ठंडे बस्ते के हवाले करने की कवायद आरंभ हो जाएगी। विपक्ष में बैठी कांग्रेस भी घडियाली आंसू बहाकर चुप्पी साध लेगी। जल्द ही सब कुछ सामान्य हो जाएगा और फिर खनिज माफिया का नंगा नाच एक बार फिर आंरभ हो जाएगा।



अपने कर्तव्यों को तीज त्योहार से बड़ा समझने वाले 2009 बेच के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी नरेंद्र कुमार के लिए गुरूवार का दिन काल बनकर आया। होली के दिन खनिज माफिया ने उनकी हत्या कर दी। गृह मंत्री उमा शंकर गुप्त खुद स्वीकार कर रहे हैं कि उनकी हत्या हुई है। बावजूद इसके अब तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं की जा सकी है। मध्य प्रदेश में कानून और व्यवस्था राजनेताओं के घर की लौंडी बनी हुई है। पुलिस की खाकी वर्दी को नेता अपने हिसाब से चला रहे हैं। विधायकों पर हत्या या हत्या के प्रयासों के संगीन आरोप लग रहे हैं। चाल चरित्र और चेहरे का जुमला मुंह में लिए भाजपा चुपचाप सब कुछ देख सुन रही है। कांग्रेस भी मूकदर्शक बनकर इस काम में भाजपा का साथ दे रही है।
हालात देखकर अगर यह कहा जाए कि शांति का टापू मध्य प्रदेश भी अब बिहार और उत्तर प्रदेश की राह पर चल पड़ा है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। सूबे के आधा दर्जन विधायकों पर हत्या के आरोप लग चुके हैं। आरटीआई एक्टिविस्ट शाहला मसूद मामले में विधायक ध्रुव नारायण सिंह पर षणयंत्र में शामिल होने का आरोप लगा है। इसके पहले भाजपा के कमल पटेल, आशारानी सिंह, अनूप मिश्रा और जितेंद्र डागा पर हत्या के आरोप लगे हैं। वहीं कांग्रेस के ब्रजेंद्र सिंह राठोर पर भी हत्या का आरोप लगा था।
ब्रजेंद्र राठोर पर पूर्व मंत्री सुनील नायक की हत्या का आरोप लगा है। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से जमानत लेकर काम चलाया है। वहीं कमल पटेल पर दुर्गेश जाटव हत्याकांड का आरोप है। वे इसके लिए जेल की हवा भी काट चुके हैं। आशारानी सिंह पर अपनी नौकरानी तिज्जी बाई की हत्या का आरोप है। दो माह जेल में बिताने के बाद उन्हें जमानत मिल गई है।  जितेंद्र डागा पर भोपाल विकास प्राधिकरण के मुख्य कार्यकारी आधिकारी मदन गोपाल रूसिया की हत्या का आरोप है।
हालात साफ साफ इशारा कर रहे हैं कि एक ओर जहां कांग्रेस के शासन काल में मध्य प्रदेश में वन माफिया ताकतवर होकर उभरा था वहीं अब शिव प्रभात के राज में एमपी में खनिज माफिया की पौ बारह हो रही है। खनिज माफिया के तार इतने मजबूत हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का तख्ता पलट की कोशिशों के बाद शिवराज को मजबूरी में इनके खिलाफ मुंह खोलना पड़ा था। वहीं कांग्रेस ने शिवराज पर खनिज माफिया को संरक्षण देने के आरोप लगाकर अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है।
2009 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी नरेंद्र कुमार वर्तमान में परिवीक्षा अवधि में बतौर अनुविभागीय अधिकारी पुलिस मुरैना में पदस्थ थे। कहा जाता है कि नरेंद्र कुमार ने अवैध उत्खनन और खनिज माफिया के खिलाफ हल्ला बोल दिया था। राजनैतिक सरपरस्ती में चलने वाले इस धंधे के आगे नरेंद्र और मध्य प्रदेश पुलिस बौनी साबित हुई। मुरैना जिले में अवैध उत्खनन का आलम यह है कि वर्ष 2007 में तत्कालीन जिलाधिकारी आकाश त्रिपाठी और तत्कालीन जिला पुलिस अधीक्षक हरी सिंह यादव पर भी खनिज माफिया ने जमकर हमला बोल दिया था। उस वक्त हुई गोलीबारी में उक्त दोनों ही अधिकारी बाल बाल बच गए थे। जब जिले का मुखिया कहलाने वाला कलेक्टर और जिले में कानून और व्यवस्था का रखवाला एसपी ही खनिज माफिया द्वारा घेर लिया गया हो तब भला बाकी की क्या बिसात।
याद पड़ता है कि मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में जब नक्सलवादी सर उठा रहे थे तब वहां पुलिस ने सख्ती की। नक्सलियों ने प्रतिकार स्वरूप एक अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक पर हमला बोल दिया। इसके बाद पुलिस ने उन्हें इस कदर खदेडा कि वे सालों तक बिल में घुसे रहे। इसके बाद दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में तत्कालीन परिवहन मंत्री लिखी राम कांवरे की गला रेतकर इन नक्सिलयों ने नृशंस हत्या कर दी थी। फिर पुलिस ने कमान संभाली और उसके बाद बालाघाट में कोई बड़ी वारदात को नक्सली अंजाम नहीं दे पाए।
कहने का तात्पर्य महज इतना है कि अगर शासन प्रशासन किसी बात को ठान ले तो माफिया की इतनी ताकत नहीं कि वह सर उठा सके। विडम्बना ही कही जाएगी कि माफिया के आगे मध्य प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा घुटने टेके खड़ी नजार आ रही है। सरकार तो माफिया से अपनी कीमत वसूल रही होगी किन्तु विपक्ष में बैठी कांग्रेस की आखिर क्या मजबूरी है? दरआल, माफिया के आगे विपक्ष में बैठी कांग्रेस शांत इसलिए है क्योंकि कांग्रेस के युवा विधायक संजय पाठक भी खनिज व्यवसाय से जुड़े हैं और उन पर खनिज माफिया होने का आरोप भी है।
उधर, मध्यप्रदेश के मुरैना में खनन माफिया का शिकार बने आईपीएस अफसर नरेंद्र कुमार के पिता केशव देव का साफ कहना है कि उनके बेटे की हत्या में राजनेताओं का हाथ है और पुलिस का रुख भी असहयोगात्मक है। उन्होंने भाजपा के एक विधायक पर भी अंगुली उठाई और कहा कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सब पता है। उन्घ्होंने आशंका जताई कि उनके द्वारा खुले आम यह सच कहने के बाद उनकी बहू को भी खतरा हो सकता है। केशव का यह भी कहना है कि मौत से एक दिन पहले नरेंद्र ने उन्हें बताया था कि वह खनन माफिया के खिलाफ काम कर रहे हैं और उन पर ऐसा नहीं करने के लिए दबाव बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि मघ्य प्रदेश के एक भाजपा विधायक ने उनकी पुत्रवधू पर गलत काम करने के लिए दबाव डाला था। इनकार करने पर उनका तबादला करवा दिया गया। 15 दिन तक तो भोपाल सचिवालय में संबद्ध रखा गया और कोई काम भी नहीं लिया गया। जब उनसे उस विधायक का नाम बताने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा कि यह सब मुख्घ्यमंत्री के संज्ञान में है और नाम बताया तो उनकी बहू को खतरा हो सकता है।
नरेंद्र के पिता ने सोची समझी साजिश बताया है लेकिन मध्य प्रदेश के गृह मंत्री उमा शंकर गुप्ता ने कहा कि यह गलत है। उन्होंने कहा कि नरेंद्र की मौत के पीछे खनन माफिया का हाथ नहीं है। उनकी मौत के मामले में ड्राइवर को गिरफ्तार किया गया है। जांच हुए बिना ही उमा शंकर गुप्त ने खनिज माफिया को क्लीन चिट देना अपने आप में अनेकों अनुत्तरित प्रश्न छोड़ रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पर खनिज माफिया को संरक्षण देने के संगीन आरोप हैं। मध्य प्रदेश राज्य के गृह मंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे गुप्ता अगर खनिज माफिया के बचाव में आ रहे हों तब सूबे में कानून और व्यवस्था की क्या स्थिति होगी इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
वैसे नरेंद्र के पिता की पीड़ा को समझा जा सकता है। नरेंद्र के पिता केशव देव का कहना है कि अवैध खनन को रोक रहे उनके बेटे को ईमानदारी की सजा मिली है। उनका कहना है कि स्थानीय पुलिस अगर मदद करती तो शायद ये घटना नहीं होती। उन्होंने कहा कि उन्हें घटना की जानकारी तक पुलिस विभाग की ओर से नहीं दी गई। जब वह ग्वालियर पहुंचे तब भी उन्घ्हें कुछ बताने के बजाय सीधे बेटे का शव सौंप दिया गया। केशव देव ने मामले की जांच सीबीआई से कराने की मांग की है। नरेंद्र के पिता की जांच की मांग को न्यायोचित ठहराया जा सकता है।
नरेंद्र की मौत पर मध्य प्रदेश में राजनीति भी शुरु हो गई है। मध्य प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजय सिंह ने कहा है कि मध्य प्रदेश में शिवराज सरकार के संरक्षण में माफिया अपनी समानांतर सरकार चला रहे हैं। राज्य में जो भी उनके हितों के रास्ते में आ रहा है वो बेखौफ होकर उसे रास्ते से हटा रहे हैं। यह घटना इस बात का प्रमाण है कि सरकार माफिया के सामने कितनी कमजोर हो गई है। जबकि गृह मंत्री उमा शंकर गुप्ता इसे आईपीएस की मौत का राजनीतिकरण करने की विपक्षी साजिश बता रहे हैं।
आईपीएस अफसर नरेंद्र की मौत पर सियासी रोटियां सेंकने की निंदा की जाना जरूरी है। कांग्रेस को अगर लगता है कि सरकार कमजोर हो गई है और माफिया बेखौफ। तो कांग्रेस इसके लिए क्या कर रही है? कांगेस का संगठनात्मक ढांचा गांव गांव तक है, कांग्रेस इसके खिलाफ गांव से ही जेहाद का आगाज क्यों नहीं करती है? उत्तर साफ है हमाम में सब नंगे हैं! कांग्रेस का विरोध महज दिखावे से ज्यादा नहीं है।

(साई फीचर्स)

विभिन्न नाम और स्वरूपों में खेली जाती है देश में होली


विभिन्न नाम और स्वरूपों में खेली जाती है देश में होली

अनेकता में एकता भारत की विशेषता

होली तेरे नाम अनेक



(लिमटी खरे)

होली शब्द जेहन में आते ही सारा जहां रंगों से सराबोर दिखाई पडने लगता है। लगता है मानो कुदरत की सबसे अनुपम भेंट धरती और हम इंसानों सहित समूचे पशु पक्षी रंगों से नहा गए हों। होली का पर्व आते आते ही मन आल्हादित हो उठता है। युवाओं के मन मस्तिष्क में न जाने किसम किसम की भावनाएं हिलोरे मारने लगती हैं। प्रोढ और वृद्ध भी साल भर रंगो के इस त्योहार की प्रतिक्षा करते हैं। सबसे बडी और अच्छी बात तो यह है कि देश के हर धर्म, वर्ग, मजहब के लोग होली का पूरा सम्मान कर एक दूसरे से गले मिलने से नहीं चूकते हैं।
भारत को समूचे विश्व में अचंभे की नजरों से देखा जाता है। इसका कारण यह है कि यहां हर 20 किलोमीटर की दूरी पर बोलचाल की भाषा में कुछ न कुछ परिवर्तन दिखने लगता है। हिन्दुस्तान ही इकलौता एसा देश है जहां हर धर्म, हर पंथ, हर मजहब को मानने की आजादी है। दुनिया भर के लोग आश्चर्य इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि आखिर कौन सी ईश्वरीय ताकत है जो इतने अलग अलग धर्म, पंथ, विचार, मजहब के लोगों को एक सूत्र में पिरोए रखती है।
अगर देखा जाए तो भारत कुदरत की इस कायनात का एक सबसे दर्शनीय, पठनीय, श्रृवणीय करिश्मा होने के साथ ही साथ महसूस करने की विषय वस्तु से कम नहीं है, यही कारण है कि हर साल लाखों की तादाद में विदेशी सैलानी यहां आकर इन्ही सारी बातों के बारे में अध्ययन, चिंतन और मनन करते हैं। भारत के अंदर फैली एताहिसक विरासतों में विदेशी सैलानी बहुत ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं।
भारत के अनेक प्रांतों में होली को अलग अलग नामों से जाना जाता है। पर्व एक है, उल्लास भी कमोबेश एक ही जैसा होता है, बस नाम ही जुदा है। इसके साथ ही साथ इसे मनाने का अंदाज भी बहुत ज्यादा हटकर नहीं है। अगर आप इब्नेबबूता (मुगलकालीन धुमक्कड) बनकर समूचे देश की सैर करें तो आप पाएंगे कि वाकई होली एक है, भावनाएं एक हैं, प्रेम का इजाहर कमोबेश एक सा है, बस अंदाज कुछ थोडा मोडा जुदा है।

दुलैंडी

होली शब्द के कान में गूंजते ही देवर भाभी के बीच की नोक झोंक, छेड छाड के फिल्मी दृश्य जेहन में जीवंत हो उठते हैं। वैसे तो देश के अनेक भागों में देवर भाभी के बीच होने वाले पंच प्रपंच को होली से जोडकर देखा जाता है, पर हरियाणा में इसका बहुत ज्यादा प्रचलन है। मजे की बात यह है कि हरियाणा में इस दिन भाभी को देवर की पिटाई करने का सामाजिक हक मिल जाता है। इस दिन भाभी द्वारा पूरे साल भर की देवर की करतूतों हरकतों के हिसाब से उसकी पिटाई की जाती है। दिन ढलते ही शाम को लुटा पिटा देवर भाभी के लिए मिठाई लाता है।

फाग पूर्णिमा

बिहार में होली को फाग पूर्णिमा भी कहा जाता है। दरअसल फाग का मतलब होता है, पाउडर और पूर्णिमा अर्थात पूरे चांद वाला। बिहार में शेष हिन्दुस्तान की तरह आम तरह की ही होली मनाई जाती है। ‘‘नदिया के पार‘‘ में दिखाई होली बिहार में खेले जाने वाले फगवा की ओर इशारा करती है। बिहार में होली को फगवा इसलिए भी कहते हैं क्योंकि यह फागुन मास के अंतिम हिस्से और चैत्र मास के शुरूआती समय मनाई जाती है।

डोल पूर्णिमा

पश्चिम बंगाल में युवाओं द्वारा मनाई जाने वाली होली को डोल पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही केसरिया रंग का लिबास पहनकर युवा हाथों में महकते फूलों के गजरे और हार लटकाए हुए नाचते गाते मोहल्लों से होकर गुजरते हैं। कुछ स्थानों पर युवा पालकी में राधा कृष्ण की तस्वीर या प्रतिमा रखकर सज धजकर उल्लास से झूमते नाचते हैं।

बसंत उत्सव

पश्चिम बंगाल मेें इस उत्सव की शुरूआत नोबेल पुरूस्कार प्राप्त साहित्यकार गुरू रविंद्रनाथ टैगोर ने की थी। गुरूदेव के द्वारा स्थापित शांति निकेतन में बसंत उत्सव का पर्व बहुत ही सादगी और गरिमा पूर्ण तरीके से मनाया जाता है। शांति निकेतन के छात्र छात्राएं न केवल पारंपरिक रंगों से होली खेलते हैं, बल्कि गीत संगीत, नाटक, नृत्य आदि के साथ बसंत ऋतु का स्वागत करते हैं।

कमन पंडिगाई

तमिलनाडू में होली का पर्व कमन पंडिगाई के रूप में भी मनाया जाता है। तमिलनाडू में होली पर भगवान कामदेव की अराधना और पूजा की जाती है। यहां मान्यता है कि भोले भंडारी भगवान शिव ने जब कामदेव को अपने कोप से भस्म किया था, तो इसी दिन कामदेव की अर्धांग्नी रति के तप, प्रार्थना और तपस्या के उपरांत भगवान शिव ने उन्हें पुर्नजीवित किया था।

शिमगो

मूलतः शिमगो गोवा के इर्द गिर्द ही मनाया जाता है। महाराष्ट्र की कोकणी भाषा में होली को शिमगो का नाम दिया गया है। शेष भारत की तरह गोवा के लोग भी रंगों को आपस में उडेलकर बसंत का स्वागत करते हैं। इस पर्व पर ढेर सारे पकवान बनाए जाते हैं, आपस में बांटे जाते हैं। खासतौर पर पणजिम में यह त्योहार बहुत ही उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस अवसर पर विभिन्न धार्मिक और पौराणिक कथाओं पर आधारित नाटकों का मंचन भी इसी दिन किया जाता है।

होला मुहल्ला

पंजाब में होला मुहल्ला का इंतजार हर किसी को होता है। यह होली के दूसरे दिन आनंदपुर साहिब में लगने वाले सालाना मेले का नाम है। मान्यता है कि होला मुहल्ला की शुरूआत सिख पंथ के दसवें गुरू, ‘‘गुरू गोविंद सिंह जी‘‘ द्वारा की गई थी। तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के दौरान सिख समुदाय के लोग खतरनाक खेलों का प्रदर्शन कर उनके माध्यम से अपनी ताकत और क्षमताओं का प्रदर्शन करते हैं।

रंग पंचमी

समूचे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल सहित मालवा अंचल में होली का जश्न और सुरूर एक दो नहीं पूरे पांच दिन होता है। होलिका दहन के दूसरे दिन धुरैडी से लेकर रंग पंचमी तक लोग होली पूरे शबाब पर होती है। धुरैडी के उपरांत लोग पांचवा दिन अर्थात रंग पंचमी का बेसब्री से इंतजार करते हैं। प्रदेश के कुछ भागों में तो होली से ज्यादा आनंद रंग पंचमी का लिया जाता है। राज्य मेें खासतौर पर मछुआरा समुदाय इस पर्व को बडी ही धूमधाम के साथ मनाता है। वे जोरशोर से नाचते गाते बजाते हैं। इस दिन हुई शादी को वे बहुत ही शुभ मानते हैं।

(साई फीचर्स)

कांग्रेस नहीं चाहती महिलाओं का कल्याण


08 मार्च महिला दिवस पर विशेष

कांग्रेस नहीं चाहती महिलाओं का कल्याण



(लिमटी खरे)

आजाद हिन्दुस्तान में देश की सबसे शक्तिशाली महिला होकर उभरने के बावजूद भी सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी चौदहवीं लोकसभा में महिला आरक्षण जैसे महात्वपूर्ण बिल को पास नहीं करवा सकीं। अपने घोषणापत्र में कांग्रेस ने अवश्य कहा है कि सरकार में आने पर महिलाओं की तीस फीसदी भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी। पिछले अनेक मर्तबा संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी पर कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही मौन साध रखा था। अगर कांग्रेस के 2004 में सत्ता में आने के उपरांत मनमोहनी घोषणापत्र को अमली जामा पहनाया होता तो निश्चित रूप से आने वाले आम चुनावों के बाद आजादी के छः दशकों के उपरांत देश में महिलाओं की दशा में सुधार परिलक्षित हो सकता था, वस्तुतः एसा नहीं हुआ नहीं, क्योंकि घोषणा पत्र को मतदाताओं को लुभाने के लिए ही किया जाता रहा है। विडम्बना है कि देश की महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष श्रीमति सुषमा स्वराज के साथ ही साथ लगभग दो दशकों से कांग्रेस के सत्ता और शक्ति का केंद्र बन चुकी श्रीमति सोनिया गांधी के महिला होने के बाद भी महिलाओं को इसका लाभ नहीं मिल सका है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला दिवस 8 मार्चको मानया जाता है। अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आवाहन, यह दिवस सबसे पहले सबसे पहले यह 28 फरवरी 1909 में मनाया गया। इसके बाद यह फरवरी के आखरी इतवार के दिन मनाया जाने लगा। 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन के सम्मेलन में इसे अन्तरराष्ट्रीय दर्जा दिया गया। उस समय इसका प्रमुख ध्येय महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिलवाना था क्योंकि, उस समय अधिकर देशों में महिला को वोट देने का अधिकार नहीं था।
1917 में रुस की महिलाओं ने, महिला दिवस पर रोटी और कपड़े के लिये हड़ताल पर जाने का फैसला किया। यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी। ज़ार ने सत्ता छोड़ी, अन्तरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिये। उस समय रुस में जुलियन कैलेंडर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेंडर। इन दोनो की तारीखों में कुछ अन्तर है। जुलियन कैलेंडर के मुताबिक 1917 की फरवरी का आखरी इतवार 23 फरवरी को था जब की ग्रेगेरियन कैलैंडर के अनुसार उस दिन 8 मार्च थी। इस समय पूरी दुनिया में (यहां तक रूस में भी) ग्रेगेरियन कैलैंडर चलता है। इसी लिये 8 मार्च, महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
2004 में जैसे ही कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार केंद्र पर काबिज हुई, और सरकार के अघोषित सबसे शक्तिशाली पद पर कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी बैठीं तभी लगने लगा था कि आने वाले समय में सरकार द्वारा महिलाओं के हितों का विशेष ध्यान रखा जाएगा। पांच साल बीत गए पर महिलाओं की स्थिति में एक इंच भी सुधार नहीं हुआ है।
महिलाओं के फायदे वाले सारे विधेयक आज भी सरकार की अलमारियों में पड़े हुए धूल खा रहे हैं। लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को एक तिहाई (33 फीसदी) भागीदारी सुनिश्चित करने संबंधी विधेयक अंततः लोकसभा में पारित ही नहीं हो सका। राजनैतिक लाभ हानि के चक्कर में संप्रग सरकार ने इस विधेयक को हाथ लगाने से परहेज ही रखा।
महिलाओं की हालत क्या है यह बताता है उत्तर प्रदेश में किया गया एक सर्वेक्षण। सर्वे के अनुसार 1952 से 2002 के बीच हुए 14 विधानसभा चुनावों में प्रदेश में कुल 235 महिला विधायक ही चुनी गईं थीं। इनमें से सुचिता कृपलानी और मायावती ही एसी भाग्यशाली रहीं जिनके हाथों मंे सूबे की बागड़ोर रही।
चुनाव की रणभेरी बजते ही राजनैतिक दलों को महिलाओं की याद सतानी आरंभ हो जाती है। चुनावी लाभ के लिए वालीवुड के सितारों पर भी डोरे डालने से बाज नहीं आते हैं, देश के राजनेता। भीड़ जुटाने और भीड़ को वोट मंे तब्दील करवाने की जुगत में बड़े बड़े राजनेता भी रूपहले पर्दे की नायिकाओं की चिरोरी करते नज़र आते हैं।
देश के ग्रामीण इलाकों में महिलाओ की दुर्दशा देखते ही बनती है। कहने को तो सरकारों द्वारा बालिकाओं की पढ़ाई के लिए हर संभव प्रयास किए हैं। किन्तु ज़मीनी हकीकत इससे उलट है। गांव का आलम यह है कि स्कूलों में शौचालयों के अभाव के चलते देश की बेटियां पढ़ाई से वंचित हैं।
प्राचीन काल से माना जाता रहा है कि पुरातनपंथी और लिंगभेदी मानसिकता के चलते देश के अनेक हिस्सों मंे लड़कियों को स्कूल पढ़ने नहीं भेजा जाता। एक गैर सरकारी संगठन द्वारा कराए गए सर्वे के अनुसार उत्तर भारत के अनेक गांवों में बेटियों को शाला इसलिए नहीं भेजा जाता, क्योंकि वे अपनी बेटी को शिक्षित नहीं करना चाहते। इसकी प्रमुख वजह गांवों मंे शौचालय का न होना है।
शौचालयों के लिए केंद्र सरकार द्वारा समग्र स्वच्छता अभियान चलाया है। इसके लिए अरबों रूपयों की राशि राज्यों के माध्यम  से शुष्क शोचालय बनाने में खर्च की जा रही है। सरकारी महकमों के भ्रष्ट तंत्र के चलते इसमें से अस्सी फीसदी राशि गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से सरकारी मुलाजिमों ने डकार ली होगी।
सदियों से यही माना जाता रहा है कि नारी घर की शोभा है। घर का कामकाज, पति, सास ससुर की सेवा, बच्चों की देखभाल उसके प्रमुख दायित्वों में शुमार माना जाता रहा है। अस्सी के दशक तक देश में महिलाओं की स्थिति कमोबेश यही रही है। 1982 में एशियाड के उपरांत टीवी की दस्तक से मानो सब कुछ बदल गया।
नब्बे के दशक के आरंभ में महानगरों में महिलाओं के प्रति समाज की सोच में खासा बदलाव देखा गया। इसके बाद तो मानो महिलाओं को प्रगति के पंख लग गए हों। आज देश में जिला मुख्यालयों में भी महिलाओं की सोच में बदलाव साफ देखा जा सकता है। कल तक चूल्हा चौका संभालने वाली महिला के हाथ आज कंप्यूटर पर जिस तेजी से थिरकते हैं, उसे देखकर प्रोढ़ हो रही पीढी आश्चर्य व्यक्त करती है।
कहने को तो आज महिलाएं हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर हैं, पर सिर्फ बड़े, मझौले शहरों की। गांवों की स्थिति आज भी दयनीय बनी हुई है। देश की अर्थव्यवस्था गावों से ही संचालित होती है। देश को अन्न देने वाले अधिकांश किसानों की बेटियां आज भी अशिक्षित ही हैं।
आधुनिकीकरण की दौड़ में बड़े शहरों में महिलाओ ने पुरूषों के साथ बराबरी अवश्य कर ली हो पर परिवर्तन के इस युग का खामियाजा भी जवान होती पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। मेट्रो में सरेआम शराब गटकती और धुंए के छल्ले उड़ाती युवतियों को देखकर लगने लगता है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति कितने घिनौने स्वरूप को ओढ़ने जा रही है।
पिछले सालों के रिकार्ड पर अगर नज़र डाली जाए तो शराब पीकर वाहन चलाने, पुलिस से दुर्व्यवहार करने के मामले में दिल्ली की महिलाओं ने बाजी मारी है। टीवी पर गंदे अश्लील गाने, सरेआम काकटेल पार्टियां किसी को अकर्षित करतीं हो न करती हों पर महानगरों की महिलाएं धीरे धीरे इनसे आकर्षित होकर इसमें रच बस गईं हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि महानगरों और गांव की संस्कृति के बीच खाई बहुत लंबी हो चुकी है, जिसे पाटना जरूरी है। अन्यथा एक ही देश में संस्कृति के दो चेहरे दिखाई देंगे।
बहरहाल सरकारों को चाहिए कि महिलाओं के हितों में बनाए गई योजनाओं को कानून में तब्दील करें, और इनके पालन में कड़ाई बरतें। वरना सरकारों की अच्छी सोच के बावजूद भी छोटे शहरों और गांव, मजरों टोलों की महिलाएं पिछड़ेपन को अंगीकार करने पर विवश होंगी।

(साई फीचर्स)