गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

सत्ता सदा ही फिसली है गुरूजी के हाथ से

सत्ता सदा ही फिसली है गुरूजी के हाथ से

राजनैतिक अस्थिरता नियति बन गई है झारखण्ड की

विवाद और सोरेन का चोली दामन का साथ

(लिमटी खरे)

झारखण्ड के मुख्यन्त्री शिबू सोरेन कहीं रहें और वे विवादित और चर्चित न हों एसा कैसे हो सकता है। सोरेन और विवाद का तो चोली दामन का साथ है। केन्द्र हो या सूबाई सरकार। जब कभी भी सोरेन की ताजपोशी की गई उसके बाद से ही उनके पदच्युत होने की खबरें फिजां में तैरती रहीं हैं। चार माह पूर्व भाजपा की मदद से सोरेन तीसरी मर्तबा झारखण्ड के मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठे थे। चूंकि वे सदन (विधानसभा) के सदस्य नहीं थे, अत: नियमानुसार उन्हें छ: माह के भीतर विधायक बनना बहुत जरूरी था। सोरेन को विधायक बनने के लिए अपने ही दल के 18 सदस्यों में से एक का त्यागपत्र चाहिए था, जहां से उपचुनाव करवाकर वे सदन के सदस्य बनते। लोगों के आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा जब सोरेन संसद मेें अचानक सांसद की हैसियत से ही प्रकट हो गए। अपने ही दल में सोरेन को एक भी सीट खाली करने वाला नहीं मिला। वे जामा सीट पर किस्मत आजमाना चाहते थे, पर यहां से उनके बेटे स्वर्गीय दुगाZ की पित्न सीता विधायक हैं, और उन्होंने अपने ससुर को दो टूक शब्दों में जवाब दे दिया कि वे सीट खाली करने तैयार नहीं हैं। रही बात उनके पुत्र हेमन्त की तो दुमका सीट हेमन्त छोडने को तैयार हैं, पर सोरेन को लगता है कि अगर उन्होंने कुर्सी छोडी तो राजपाट सम्भालने के लिए हेमन्त से मुफीद और कोई नहीं होगा, सो पुत्रमोह में वे इस सीट से हेमन्त का त्यागपत्र नहीं दिलवाना चाहते हैं।

इतिहास साक्षी है कि सोरेन इसके पहले भी दो बार मुख्यमन्त्री बन चुके हैं पर निजाम की कुर्सी पर वे ज्यादा दिन काबिज नहीं रह पाए थे। 2005 में सोरेन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के सहयोग से मुख्यमन्त्री बन पाए थे, इस समय वे महज नौ दिन में ही टें बोल गए थे। इसके बाद एक बार फिर 2008 में यूपीए ने ही सहयोग कर उन्हें मुख्यमन्त्री बनाया इस बार भी महज चार महीनों का ही राजपाट उन्हें नसीब हुआ था। इस बार उन्होंने तमाड सीट से उपचुनाव लडा, पर हारने के कारण उन्हें कुर्सी त्यागनी पडी थी। सोरेन केन्द्र में कोयला मन्त्री रहे हैं, कोयला मन्त्री रहते हुए उन पर लदे प्रकरणों के चलते उनका आधा समय अदालत की दहलीज पर ही गुजर रहा है। इतना ही नहीं सोरेन पर हत्याओं के जघन्य आरोप भी हैं। उनके निजी सचिव शशिकान्त झा हत्याकाण्ड, कुडको हत्याकाण्ड, चीरूडीह नरसंहार जेसे मामलों से सोरेन उबर नहीं पाए हैं।

11 जनवरी 1944 में जन्मे सोरेन की राजनैतिक यात्रा 1971 से आरम्भ हुई। इस साल वे झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के महासचिव बने और 1980 में वे सातवीं लोकसभा के लिए चुने गए। इसके छ: साल बाद 1986 में वे झामुमो के अध्यक्ष बने और 1989, 1996, 2002, 2004 में लोकसभा सदस्य बने। मई 2004 में वे कोयला और खान मन्त्री बने और जुलाई 2004 में उन्होंने यह पद त्यागकर सूबाई राजनीति की ओर कदम बढा लिए। सोरेन 01 जनवरी से अपने 61 वें जन्म दिन 11 जनवरी 2005 तक झारखण्ड के सीएम बने। इसके बाद वे 29 जनवरी 06 से 28 नवंबर 2006 तक कोयला मन्त्री रहे। 2009 में एक बार फिर लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद गुरूजी 30 दिसम्बर 2009 को झारखण्ड के मुख्यमन्त्री बने।

गुरूजी की चालों को समझ पाना असान नहीं है। झारखण्ड में सोरेन भाजपा के पेरोल पर ही टिके हुए हैं। बावजूद इसके लोकसभा में कटौती के प्रस्ताव पर भाजपा के खिलाफ ही अपना वोट डालने के बाद सोरेन ने रात का भोजन भाजपा के निजाम नितिन गडकरी के घर पर ही किया। सोरेन के लिए मेजबानी करने वाले नितिन गडकरी को जब पता चला कि गुरूजी ने भाजपा की पीठ पर ही खंजर घोंप दिया है, तो उनके पैरों के नीचे से जमीन ही निकल गई।

गठबंधन धर्म से हटकर अपने निहित स्वार्थों की बलिवेदी पर शिबू सोरेन ने झारखण्ड जैसे छोटे राज्य में राजनैतिक अस्थिरता पैदा कर दी है। भाजपा के समर्थन वापस लेने से अब जेवीएम के बाबूलाल मराण्डी के साथ मिलकर सरकार बनाने के रास्ते साफ नहीं दिखाई पड रहे हैं। कांग्रेस के मैनेजरों ने अगर उन्हें तैयार भी कर लिया तो भी यह गठबंधन बहुत ज्यादा दिन टिक नहीं पाएगा। समूचा घटनाक्रम गुरूजी की राजनैतिक महात्वाकांक्षा की ओर ही इशारा कर रहा है। गुरूजी चाहते हैं कि वे अपनी राजनैतिक विरासत को अपने पुत्र हेमन्त के हाथों सौंप सकें। इसके लिए वे जमीन तैयार करने में जुटे हुए हैं। उन पर लदे मुकदमों के बोझ से उनकी कमर टूटने की कगार पर है। अगर वे संसद में कांग्रेस का साथ न देते तो जांच एजेंसियों की धार पैनी होना स्वाभाविक ही था। अब सोरेन को जांच में कुछ हद तक राहत मिलने की उम्मीद है। यह है भारत गणराज्य का इक्कीसवीं सदी का प्रजातन्त्र, जिसमें सरकारी एजेंसियों को देश के निजाम अपने नफा नुकसान के हिसाब से इस्तेमाल करने से नहीं चूकते हैं।

कितने आश्चर्य की बात है कि नए राज्य के अस्तित्व में आने के दस सालों बाद भी सूबे के मतदाता किसी भी एक दल को पूर्ण बहुमत देने को तैयार नहीं हैं। झारखण्ड में उपजी परिस्थितियों में अब राष्ट्रपति शासन एक विकल्प के तौर पर उभरकर सामने आया है। केन्द्र सरकार के लिए यह विकल्प काफी हद तक सरल होगा, क्योंकि इसमें परोक्ष तौर पर शासन की बागडोर कांग्रेस के हाथ में होगी। इसके अलावा कांग्रेस द्वारा मरांउी और सोरेन के साथ गठबंधन कर सरकार चलाई जा सकती है। इसमें सोरेन को केन्द्र में मन्त्रीपद तो मराण्डी को सीएम और हेमन्त सोरेन को उपमुख्यमन्त्री पद से नवाजना विकल्प है। कुल मिलाकर हर पहलू से देखने से यही प्रतीत होता है कि आने वाले दिनों में सोरेन की राह बहुत आसान तो प्रतीत नहीं होती है।

वजीरे आजम पेश करेंगे रिपोर्ट कार्ड


वजीरे आजम पेश करेंगे रिपोर्ट कार्ड

यूपीए 2 की पहली सालगिरह 22 को

पीएमओ कर रहा जोर शोर से तैयारियां

अंग्रेजी में होगा मन्त्रालयों का लेखा जोखा

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली 29 अप्रेल। गांधी नेहरू परिवार से इतर पहले कांग्रेसी प्रधानमन्त्री होने का खिताब पाने वाले डॉ.मनमोहन सिंह जिन्होंने लगातार दूसरी बार 7 रेसकोर्स रोड (प्रधानमन्त्री का सरकारी आवास) पर अपना कब्जा बरकरार रखा है, के द्वारा अब अपनी दूसरी पारी के पहले साल में कुछ नया करने की ठानी है। 22 मई को एक साल का कामकाज पूरा होने पर प्रधानमन्त्री कार्यालय (पीएमओ) द्वारा सरकार का रिपोर्ट कार्ड जनता के समक्ष रखा जा सकता है, ताकि जनता फैसला कर सके कि यह सरकार काम करने वाली सरकार है, न कि बतोले बाजी में वक्त जाया करने वाली।

पीएमओ के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि प्रधानमन्त्री के प्रमुख सचिव टी.के.ए.नायर द्वारा अनेक मन्त्रियों और मन्त्रालय को पत्र लिखकर समय सीमा (टाईम लिमिट) में उनके मन्त्रालयों की उपलब्धियां भेजने के लिए खत लिख चुके हैं। सूत्रों के अनुसार भारत गणराज्य की भाषा हिन्दी है, पर यह रिपोर्ट कार्ड अंग्रेजी में ``रिपोर्ट टू द प्यूपिल`` के नाम से जारी किया जाएगा। कहा जा रहा है कि जनता के बजाए इसे एलीट क्लास के लोगों को समझाने के लिए जारी की जा रही है। आखिर सरकार चलती भी तो उन्हीं के इशारों पर ही है।

भले ही मन्त्रालयों पर काबिज मन्त्री भ्रष्टाचार के तराने गा रहे हों, आसमान छूती मंहगाई के चलते जनता की कमर टूटी हो, शशि थुरूर के कारण कांग्रेस की भद्द पिट रही हो पर प्रधानमन्त्री चाहते हैं कि उनकी सरकार का उजला पक्ष जनता के सामने आए। वैसे इस प्रतिवेदन में महिला आरक्षण बिल, शिक्षा का अधिकार, फुड सिक्यूरिटी बिल को प्रमुखता के साथ शामिल किए जाने की खबर है। गौरतलब है कि प्रधानमन्त्री ने शिक्षा के अधिकार के लागू होने वाले दिन प्रधानमन्त्री ने लीक से हटकर राष्ट्र को संबोधित किया था।

प्रधानमन्त्री की मंशा के चलते अनेक मन्त्रियों की सांसे थम गई हैं। दूसरी पारी में नए विभागों से सजे धजे मन्त्रियों द्वारा अपना पूरा समय मौज मस्ती और पुरानी रंजिशें निकालने में गंवा दिया है, अत: उनके पास अब नया करने को कुछ खास नहीं है, जिसे वे अपनी उपलब्धि के बतौर बता सकें। कहा जा रहा है कि विभाग की सूरत और सीरत को रंग रोगन कर संवारने के लिए मन्त्रियों ने कुछ प्रोफेशनल्स की मदद भी ली जा रही है, ताकि पुरानी उपलब्धियों को नए मन्त्रियों के खाते में डालकर अपनी जान छुडाई जा सके।

आडवाणी की ओर से आंखें फेरी संघ ने

आडवाणी की ओर से आंखें फेरी संघ ने
 
गडकरी भी नहीं दे रहे आडवाणी को ज्यादा भाव
 
सिंघल भी दिखा चुके हैं तीखे तेवर
 
संघ चाहता है कमल एक बार फिर देश में छा जाए
 
(लिमटी खरे)

नई दिल्ली 29 अप्रेल। मुरझाए कमल के फूल की पंखुडियों को एक बार फिर नई उर्जा देकर खडा करने की कोशिश में लगे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अब अपना रोड मेप तय कर लिया है। पिछले कुछ सालों में हुई गिल्तयों पर मनन करने के बाद संघ ने अब आत्मकेन्द्रित घाघ नेताओं के पर कतरने की कार्ययोजना बना ली है। लगता है कि इस मुहिम में सबसे पहले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवाणी की लाटरी लगी है, वे आजकल संघ के निशाने पर बताए जा रहे हैं।
 
संघ के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि अटल बिहारी बाजपेयी के सक्रिय राजनीति से सन्यास लेते ही पार्टी के स्वयंभू नए खिवैया बनकर उभरे एल.के.आडवाणी ने खुद को प्रधानमन्त्री बनवाने के लिए पार्टी का बंटाधार करने में कोई कोर कसर नहीं रख छोडी थी। आडवाणी की कीर्तन मण्डली ने उन्हीं को उपकृत किया था, जो आडवाणी की चरण वन्दना में विश्वास रखते थे, एसी परिस्थितियों में पार्टी के अनेक कुशल नेताओं ने अपने आप को एक दायरे में समेटकर रख लिया था।
 
संघ ने आडवाणी के पर करतने के उपक्रम में उन नेताओं को एक छतरी के नीचे लाना आरम्भ कर दिया है, जो कभी आडवाणी के कट्टर विरोधी रहे हैं। सूत्रों की माने तो संघ का शीर्ष नेतृत्व इन दिनों उमा भारती, गोविन्दाचार्य, सुब्रहामण्यम स्वामी, अशोक सिंघल, मदन लाल खुराना, कल्याण सिंह, यशवन्त सिन्हा जैसे वरिष्ठ नेताओं से सतत संपर्क बनाए हुए है। इन्ही के साथ रायशुमारी कर संघ अपने अगले कदम तय कर रहा है। संघ के नेतृत्व की इच्छा है कि कालराज मिश्र जैसे सीजन्ड नेताओं को देश में कमल को खिलाने के लिए एक बार फिर जवाबदारी दी जा सकती है। सूत्रों का तो यहां तक कहना है कि मोहन भागवत सहित भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने आडवाणी को हाशिए में ढकेलने के अभियान की कमान सम्भाल रखी है।
 
भाजपा से बिछुडे कल्याण सिंह और उमा भारती अब गोविन्दाचार्य के अगले कदम की बाट जोह रहे हैं। कल्याण सिंह की घर वापसी के लिए भाजपा के नए निजाम नितिन गडकरी ने कल्याण पुत्र राजवीर को दाना डाला हुआ है। हरिद्वार में सन्तों के बीच विहिप के वरिष्ठ नेता अशोक सिंघल भी आडवाणी के खिलाफ जहर बुझे तीर चला चुके हैं। बकौल सिंघल आडवाणी की रथ यात्रा के कारण मन्दिर नहीं बन पाया था। सिंघल ने तो आडवाणी को आडे हाथों लेते हुए यह तक कह दिया कि उनकी रथयात्रा वोट बैंक के लिए थी। कहा जा रहा है कि गडकरी और संघ का शीर्ष नेतृत्व मिलकर कुछ नए एक्सपेरीमेंट करने की तैयारी में हैं। इस तरह के प्रयोग एल.के.आडवाणी, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू, अरूण जेतली आदि को शायद ही रास आएं।