राजनैतिक इच्छा शक्ति का अभाव से उपजा एमपी का आद्योगिक पिछडापन
(लिमटी खरे)
देश के हृदय प्रदेश में उद्योग धंधों के लिए उपजाऊ जमीन और माहोल होने के बाद भी सूबे में उद्योग धंधों के नाम पर चंद फेक्टरियां ही हैं। आवागमन के साधन, खनिज संपदा, जल, भौगोलिक स्थिति आदि के बाद भी उद्योगपति मध्य प्रदेश की ओर आकर्षित ही नहीं हो पा रहे हैं। दरअसल मध्य प्रदेश में जनसेवकों और लोकसेवकों का अपना ‘निहित स्वार्थ टेक्स‘ इतना भारी भरकम है कि उद्योगपति चाह कर भी एमपी की ओर रूख नहीं कर पाते हैं, जो अपना निवेश कर चुके हैं उनके अनुभव इतने कसैले हैं कि वे दूसरों को इस सूबे से दूर रहने का ही मशविरा देते हैं। मध्य प्रदेश में छुटभैया राजनेता, मीडिया के दुकानदार, कथित समाज सेवी इन उद्योगपतियों के सूबे में कदम रखते ही उनका दम तोड़ देते हैं। कुछ अनजान बनकर लो प्रोफाईल मंे काम करने वाले कम ‘सेवा कर‘ में ही मलाई ले उड़ते हैं,, पर अनेक उद्योगपति इस काकस में फंसकर दम तोड़ ही देते हैं।
अपने आंचल में आकूत वन एवं खनिज सम्पदा, पर्याप्त जल स्त्रोत और उत्कृष्ट भौगोलिक स्थिति, आवागमन के बेहतरीन संसाधन के बावजूद मध्यप्रदेश राज्य जन प्रतिनिधियों की दुर्बल इच्छााशक्ति चलते औदयोगिक रुप से पिछडता जा रहा है। जबकि मध्यप्रदेश से हाल ही में अलग हुये समीपवर्ती नौनिहाल राज्य छत्तीसगढ खनिज आधारित उद्योगों के बल पर सबसे ज्यादा निवेशक आकर्षित करने में सफल रहा है। आज छत्तीसगढ राज्य गुजरात के बाद निवेषकों की पहली पसंद बना हुआ है जो निश्चित ही प्रतिनिधियों की सकारात्मक सोच और दृढ इच्छाशक्ति से संभव हो सका है।
राज्य सरकार भले ही प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर तथा राजनैतिक राजधानी भोपाल के इर्द गिर्द निवेशकों को आकर्षित करने में सफल हो रही हो पर आजादी के उपरांत मध्य प्रदेश औद्योगिक दृष्टि से पूरी तरह पिछड़ा माना जा सकता है। पीथमपुर, देवास, मंडीदीप आदि कस्बों में औद्योगिक विकास केंद्र (इंडस्ट्रीयल ग्रोथ सेंटर) बने हैं पर बावजूद इसके यह नहीं माना जा सकता है कि मध्य प्रदेश औद्योगिक रूप से समृद्ध हो गया है।
किसी भी उद्योग का आधार मूलतः आवश्यक कच्चा माल ही होता है। मध्यप्रदेश में मुख्यतः कोयला, बाक्साइट, मैग्नीज, हीरा, जिंक, लाइमस्टोन, डोलोमाहट, ग्रेनाइट और लौह अयस्क भरपूर मात्रा में उपलब्ध है किंतु इन खनिजों के खासतौर पर लौह अयस्क के पर्याप्त दोहन की कोई स्थायी नीति या कार्ययोजना आज तक उपलब्ध नहीं है, और इनका दोहन आज भी बंदरबॉट पर आधारित है। मेग्नीज ओर इंडिया लिमिटेड (मायल) के एकाधिकार के कारण सतपुड़ा में छिंदवाड़ा, सिवनी और बालाघाट में निजी कंपनियां कदम रखने से थर्राती हैं।
कुछ थोडे बहुत उद्योग लगे भी तो वे निवेशकों की कार्ययोजना का परिणाम है। प्रदेश में अधिकांश उद्योग आज बीमारू हालत में हैं। सरकारी छूट का लाभ उठाकर प्रदेश में उद्योगपतियों ने दस्तक तो दी किन्तु जैसे ही छूट की अवधि समाप्त हुई वैसे ही निवेशकों ने अपना बोरिया बिस्तर समेट लिया। अस्सी के दशक में राजाधिराज इंडस्ट्रीज ने सिवनी जिले में वनस्पिति घी का उत्पादन आरंभ किया था। सांसदों और विधायकों के असहयोग के चलते इसका कारखाना आज अनाज रखने के लिए वेयर हाउस का काम कर रहा है। इसे जयललिता के करीबी समझे जाने वाले अग्नि ग्रुप ने खरीदा था। बीमारू उद्योगों को पटरी पर लाने के लिए सरकारी इमदाद का फायदा उठाने के बाद अब इस कारखाने में महज शेड ही रह गया है।
जबकि आवश्यक्ता इस बात की थी कि छत्तीसगढ राज्य बनने के बाद राज्य सरकार प्रदेश के खनिज दोहन की कोई स्थायी नीति बनाती और उस पर आधारित उद्योगों को बढावा देती। वर्तमान सरकार का खनिज साधन मंत्रालय इस बात से भी अनभिज्ञ है कि राज्य में वास्तव में किस-किस तरह का कितना खनिज उपलब्ध है। सतपुड़ा की घनी वादियों में इतने प्रकार की औषधियां विद्यमान हैं जिनका उपयोग कर मानव के लिए जीवन रक्षक आयुर्वेदिक औषधियों का कारखाना खोलने उद्योगपतियों को अकर्षित किया जा सकता है। विडम्बना ही कही जाएगी कि सतपुड़ा में छिंदवाड़ा संसदीय क्षेत्र के सांसद कमल नाथ ने केंद्र में वाणिज्य और उद्योग मंत्री रहते हुए भी आदिवासी बाहुल्य अपने संसदीय क्षेत्र के आदिवासियों के लिए भी इस तरह का कोई प्रयास नहीं किया।
प्रदेश में बेलगाम दौड़ती अफसरशाही की एक बानगी यह भी है कि ‘‘डेस्टिनेशन मध्यप्रदेश‘‘ में खनिज साधन विभाग द्वारा जारी आंकडों में भी लौह अयस्क की उपलब्धता प्रदर्षित नहीं की गई है,। जो इस बात का घोतक है कि शासन इस दिशा में गंभीर नहीं है, जबकि इस पर आधारित बडे उद्योगों को लगाने के लिये लगभग 4 निवेशक अपनी मंशा जाहिर कर चुके हैं। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा जारी ‘‘मध्यप्रदेश का भू-विज्ञान एवं खनिज संसाधन‘‘ संख्या 30, भाग 11, द्वितीय परिशोधित संस्करण जो भारत सरकार के आदेश से प्रकाशित है के अनुसार राज्य के ग्वालियर और जबलपुर जिले में क्रमशः 132.25 मिलियन टन और 38.9 मिलियन टन लौह अयस्क भंडार उपलब्ध है।
इसी तरह सागर जिले में उपलब्ध लौह अयस्क में लौह प्रतिशत 67 तक है इसके अलावा बैतूल, देवास, खरगौन, मंदसौर, नरसिहपुर, रायसेन, राजगढ, शिवपुरी एवं सीधी जिलों में भी पुष्ट लौह भंडार उपलब्ध है जिनका दोहन इस पर आधारित उद्योग ना होने से नहीं किया जा सका है।
मध्य प्रदेश राज्य के कटनी एवं जबलपुर जिले मेें बांटे गये खनिपट्टो से बडी मात्रा में लौह अयस्क निर्यात हो रहा है जो निश्चित एवं निर्विवाद रूप से स्थापित करता है कि उपलब्ध खनिज आद्योगिक उपयोग का है। इन्ही जिलों में ‘‘बलू डस्ट‘‘ भी उपलब्ध है जिसका उपयोग विदेशों में ‘‘सिंटर प्लांट‘‘ के माध्यम से इस्पात बनाने में ही रहा है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा आदिवासी बाहुल्य सिवनी जिले की विशुद्ध आदिवासियों की जमात वाली कहानीपास (घंसौर) तहसील में उद्योग जगत के सिरमोर ‘थापर ग्रुप‘ के लिए एक पावर प्लांट की अनुमति दी गई है। रानी अवंती सागर परियोजना (बरगी बांध) के मुहाने पर बनने वाले इस प्लांस से उड़ने वाली राख निश्चित तौर पर बरगी बांध के जल भराव क्षेत्र में रोजाना 3416 टन राख तलहटी में समाती जाएगी जिसकी परवाह किसी को भी नहीं है। कुछ ही सालों में बरगी बांध एक उथले तालाब मे तब्दील हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
वैसे अगर यदि राज्य सरकार अन्य समीपवर्ती राज्यों की नीतियों के अनुरुप प्रयास करे और इसका निर्यात प्रलिबंधित करे तो उपलब्ध लौह अयस्क पर आधारित वृहद कारखाने 30 सालों तक निरंतर चल सकते है । इन पर आधारित उद्योेग लग जाने पर इस खनिज के छोटे-छोटे ‘‘पॉकेट्स‘‘ भी व्यवहारिक हो जाऐंगे और खनन और दोहन से राजस्व और रोजगार बढेगा। हो सकता है सरकार का मानना हो कि उपलब्ध लौह अयस्क भंडारों में अधिकांश में लौह प्रतिशत कम है किंतु आज उद्योगों के पास विकसित तकनीक उपलब्ध है जैसे बेनीफिशिएशन प्लांट लगाकर इसका प्रतिशत प्रयोगानुरुप किया जा सकता है एवं बेकार जाने वाली ‘‘फाइन्स‘‘ को सिंटर प्लांट लगाकर पुर्नउपयोग किया जा सकता है।
इन सभी संसाधनों को अंगीकार करने वाले उद्योगों को इसके उत्खनन की जिम्मेदारी सौपी जा सकती है। राज्य में महाकौशल का कटनी और बुंदेलखण्ड का छतरपुर जिला इन उद्योगों के लिये एक उपयुक्त स्थल हों सकता है जहां पानी, बिजली, सडक एवं कोयला 100 किमी. के दायरे में उपलब्ध है। इन पर आधारित संयंत्रो में कैप्टिव पावर प्लांट अनिवार्य करके सरकार अपनी विद्युत उपलब्ध कराने की बाध्यता से भी बच सकती है।
राज्य के लगभग 200 मिलियन टन लौह अयस्क भंडार को विधिवत ढंग से कार्ययोजना बनाकर इस पर आधारित उदयोगों को प्रश्रय देने से राज्य सरकार को अप्रत्याशित लाभ हो सकता है मजे की बात तो यह है कि इस संपदा के बारे में सरकार को जानकारी ही नहीं है।
राज्य में लौह अयस्क पर आधारित कोई भी वृहद संयंत्र कार्यरत नही है जबकि पडोसी राज्यो छत्तीसगढ, महाराष्ट्र और उडीसा में अनेक संयंत्र कार्यरत है। राज्य के शहडोल जिले में उत्कृष्ट दर्जे का कोकिंग कोल उपलब्ध है, संलग्न क्षेत्र मे लौह अयस्क भी उपलब्ध है, यदि जन प्रतिनिधि एक जुट हो जाए और दृढ इच्छााशक्ति प्रदर्शित कर सकें, तो इस क्षेत्र में इन खनिजों पर आधारित एक वृहद ‘‘पिग आयरन‘‘ संयत्र स्थापित हो सकता है।
हालात देखकर लगता तो है कि केंद्र सरकार की मंशा भी कमोबेश यही है। यदि सरकार इस क्षेत्र में सकारात्मक रवैया अपनाती है तो मध्यप्रदेश राज्य क्षेत्रीय असंतुलन से भी बचा रहेगा और विकास का सारा श्रेय वर्तमान नेतृत्व को ही प्राप्त होगा। आशा की जानी चाहिये राज्य शासन 200 मि.टन लौह अयस्क भंडार के दोहन से प्राप्त होने वाले राजस्व की दिशा में सुनियोजित और कारगर पहल करते हुऐ उस पर आधारित उदयोगों को बढावा देगी।
मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार चुनावों के आसपास निवेशकों को आकर्षित करने की गरज से कुछ बैठकों का आयोजन कर जबर्दस्त प्रपोगंडा करती है, किन्तु जब इन्हें अमली जामा पहनाने की बारी आती है तो शिव सरकार मौन साध लेती है। मध्य प्रदेश सरकार का जनसंपर्क महकमा इस बारे में खामोशी अख्तिायार कर लेता है कि शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में जितने एमओयू पर हस्ताक्षर हुए उनमें से कितने पर काम आरंभ हुआ और कितनों पर पूरा हो सका है? जाहिर है इसमें दस फीसदी भी लक्ष्य को नहीं पाया जा सका है इसलिए सरकार की उपलब्धियों के बखान हेतु पाबंद जनसंपर्क विभाग मुंह पर पट्टी ही बांधे हुए है।