(लिमटी खरे)
सोयाबीन की तबाह फसल के सदमे से किसान उबर ही नहीं सका कि उस पर फरवरी माह में बेमौसम पड़े ओलों का कहर आन पड़ा। महंगाई आसमान छू रही है। गांव-गांव में जिंसों (वस्तुओं) के भाव किसी से छिपे नहीं है। देश के प्रधानमंत्री ने पहले सौ दिन में मंहगाई पर काबू पाने की बात कही फिर तारीख पर तारीख. . ., के बाद लोकसभा चुनाव की मुनादी पिट गई पर मंहगाई ने अपना सुरसा जैसा मुंह दिखाकर सभी को चिढ़ा दिया है। आज आम आदमी हलाकान है। शहरों में रहने वाले तो किसी तरह अपनी गुजर-बसर कर ले रहे हैं पर गरीब गुरबे किसानों पर जो बीत रही है, उसका एहसास शायद ही किसी सियासतदार को हो।
आज देश के अन्नदाता किसान की देश के ही हृदय प्रदेश में कमर टूटी पड़ी है। पिछले साल सोयाबीन की फसल का नुकसान हुआ, मुआवजे के लिए किसान अब तक दर-दर भटक रहा है। इस साल जब फसल पक गई, उसी वक्त इंद्रदेव का कोप किसानों पर भारी पड़ा। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का भोगमान आखिर किसानों को ही सबसे पहले भोगना होता है। किसान की खड़ी फसल ओलों ने तबाह कर दी। सियासी दल इसके लिए एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहे और आचार संहिता का बिगुल बज गया। अब किसानों को फौरी राहत भला कहां से मिल पाएगी!
आज चुनावों की घोषणा के साथ ही आचार संहिता लग गई है। आचार संहिता में अब किसानों को शायद ही मुआवजा मिलने की बात पर चुनाव आयोग अपनी हरी झंडी दे। इसके पीछे यह वजह हो सकती है कि कहीं प्रदेशों में सत्तारूढ़ दल, मुआवजे की आड़ में मतदाताओं को लुभाने की कोशिश न लग जाए। अगर ऐसा होता है तो किसानों को मुआवजा 16 मई के बाद ही मिल पाएगा। इस मामले में भी किसानों की किस्मत शायद दगा दे गई है। सिवनी सहित प्रदेश के अनेक जिलों में आज अनेक किसान ऐसे भी होंगे जिनके घरों में चूल्हे भी न जल पा रहे होंगे। किसान खुद और अपने परिवार की क्षुदा किस तरह बुझाएगा, इस यक्ष प्रश्न का उत्तर शायद ही किसी के पास हो।
किसान, उनकी बेवाएं आज फूट-फूट कर रो रही हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि जब भी कोई प्राकृतिक आपदा में किसान तबाह हुआ है, और सरकारी स्तर पर मुआवजा बांटा गया है, उसमें रसूखदार बड़े और संपन्न किसान ही ज्यादा लाभान्वित हुए हैं। गरीब गुरबे किसानों को तो सरकारी नुमाईंदे फटकार कर भगा देते हैं। इसके पहले भी अनेक बार किसानों के मुआवजे में दबंगई की शिकायतें आम हो चुकी हैं।
इस बार कहा जा रहा है कि सोयाबीन का मुआवजा बांटा जा रहा है उसमें भी विसंगतियां हैं। जिन किसानों को बड़ी रकम के धनादेश दिए गए हैं, उसमें ओव्हर राईटिंग की शिकायतें मिल रही हैं। इस तरह की कांट-छांट से बैंक भी उनको भुगतान करने से कतरा रहा है। अब किसान आखिर जाए तो जाए कहां और रोए तो किसके पास। नीली छतरी वाला जादूगर भी प्रकृति से छेड़छाड़ के कारण नाराज ही दिख रहा है, वरना क्या कारण है कि फाल्गुन के मौसम में सावन का मौसम बना हुआ है।
आज तक प्रशासनिक स्तर पर आनावारी तय नहीं हो पाई है। अब कोई बताए कि किसानों को तत्काल राहत कैसे मिल पाएगी। किसी की बेटी की शादी है, तो किसी के बच्चे की स्कूल की फीस जमा होनी है। किसी के घर मांगलिक कार्य हैं, तो किसी के घर मातम पसरा हुआ है। होली का त्यौहार सिर पर है। हालात वाकई बेहद गंभीर और संगीन नजर आ रहे हैं। इन परिस्थितियों में किसानों के घरों में खर्चे लगे ही हुए हैं। किसान अपने खर्चे कहां से और किस तरह पूरे कर पाएगा?
जाहिर है सरकारी इमदाद के अभाव में किसान अब सूदखोरों की चौखट चूमने पर मजबूर हो जाएगा। सियासतदार तो आचार संहिता है-नौ सप्ताह बाद यानि 16 मई के बाद ही कुछ हो पाएगा, कहकर अपनी जान छुड़ा लेंगे पर इससे किसानों के रिसते घावों पर मरहम नहीं लगाया जा सकेगा। यक्ष प्रश्न यही खड़ा हो रहा है कि देश का अन्नदाता किसान ही अन्न से महरूम रहेगा। लोकसभा चुनावों के मद्देनजर किसानों को लुभाने के लिए सियासतदार भी अब ‘टुकड़ों‘ के रूप में किसान के सामने कुछ इमदाद रखने का प्रयास अवश्य ही करेंगे।
प्रदेश के निजाम शिवराज सिंह चौहान को पता नहीं किसने सलाह दी कि वे शहर की सीमा से सटे ग्राम कंडीपार के एक खेत में जाकर नुकसानी का जायजा लें और फिर उड़न खटोले से फुर्र हो जाएं। सिवनी में फसलों की तबाही कंडीपार के अलावा सुदूर ग्रामीण अंचलों में भी हुई है। माना कि प्रदेश के निजाम के पास और भी कई काम रहे होंगे, पर वे हेलीकॉप्टर से आए थे। जिले के नेता अगर चाहते तो जिले में कम से कम चार-पांच स्थानों पर शिवराज सिंह चौहान का उड़न खटोला उतारने का मशविरा दे सकते थे। इस तरह वे महज आधे घंटे के अतिरिक्त समय में ही सिवनी के अनेक क्षेत्रों में जाकर तबाही का जायजा ले सकते थे, वस्तुतः ऐसा कुछ हुआ नहीं। हेलीकॉप्टर सरकारी था अतः शिवराज सिंह चौहान की जेब से अतिरिक्त कुछ नहीं जा रहा था, इसका भोगमान प्रदेश की जनता के गाढ़े पसीने से संचित राजस्व से ही भुगतना था।
लगता है कि किसानों के रिसते घावों पर मरहम लगाने के बजाए सियासतदारों द्वारा प्रदेश और केंद्र सरकार पर तोहमत लगाने का काम ज्यादा किया गया है। केंद्र सरकार चाहती तो इसके लिए पहले ही पैकेज का ऐलान कर देती और राज्य सरकार चाहती तो समय-सीमा में ही किसानों को मुआवजा बांटना आरंभ कर देती। न नौ मन तेल आया न राधा नाची। असली मरण किसान की ही रही। जो आज भी बदस्तूर ही जारी है।
अभी लोगों की स्मृति से यह बात विस्मृत नहीं हुई होगी कि तत्कालीन पुलिस अधीक्षक डॉ.रमन सिंह सिकरवार द्वारा सूदखोरों के खिलाफ जमकर अभियान चलाया गया था। इस अभियान में अनेक सूदखोरों के पास से न जाने कितने एटीएम और लोगों की हस्ताक्षरित चैक बुक भी मिली थी। आज भी वह क्रम बदस्तूर जारी हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उस वक्त पकड़े गए सभी सूदखोर, अवैध रूप से सूद का धंधा कर रहे थे। ऐसा नहीं है कि पुलिस के संज्ञान में यह बात नहीं है, पर ‘गंदा है पर धंधा है‘ की तर्ज पर यह चल ही रहा है।
किसान मझधार में है। सोयाबीन का मुआवजा उसे मिला नहीं है और अभी की उसकी फसल चौपट हो चुकी है। देश दुनिया की क्षुदा मिटाने वाला किसान, आज दाने-दाने को मोहताज है। 20 फरवरी के बाद मौसम ने करवट ली और दो-तीन दिन में ही किसानों की खड़ी फसल तबाह हो गई। इसके लगभग 13 दिन बाद आचार संहिता की घोषणा हुई। तेरह दिनों तक सियासतदार महज बयानबाजी ही करते रहे। सियासतदारों की बयानबाजी से किसानों का ध्यान कुछ समय तो भटका होगा, किन्तु जब उनके भोजन का समय हुआ होगा और खाने की थाली रीती रही होगी तब वे जरूर . . .।