पोषक मुख्यमंत्री
का कुपोषित प्रदेश
(सरिता अरगरे)
भोपाल (साई)।
मध्यप्रदेश की राजनीति में इस वक्त वो सब हो रहा है, जो कभी किसी ने
सपने में भी नहीं सोचा होगा। कल तक खुद को मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार मानकर
शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ़ खेमेबंदी का झंडा उठाकर चलने वाले कैलाश विजयवर्गीय आज
सरकार की झूठन समेट रहे हैं। चाहे वो मुरैना में हुई आईपीएस अधिकारी नरेन्द्र
कुमार की हत्या का मामला हो, महज़ सात सालों में अरबपति बने दिलीप
सूर्यवंशी से मुख्यमंत्री के सीधे ताल्लुकात का मुद्दा हो या कोल ब्लॉक आवंटन
मामले में शिवराज सिंह चौहान की भूमिका पर उठ रहे सवाल हों। मुख्यमंत्री मुँह में
दही जमा कर बैठे हैं और कैलाश विजयवर्गीय उनकी पैरवी करते घूम रहे हैं। गोया कि
सूबे के मुखिया बनने का ख्वाब हुआ हवा, अब तो आलम ये है कि कुर्सी बचाए रखने के लिए
चौहान की चरणोदक पीने में भी गुरेज़ नहीं रहा।
रही सही कसर
एमपीसीए के चुनाव में मिली करारी मात ने निकाल दी। धुआँधार बल्लेबाज़ी करते हुए
माधवराव सिंधिया ने क्लीन स्वीप कर दिया । कैलाश विजयवर्गीय ने चुनाव जीतने के लिए
लोकतंत्र के सभी हथकंडे अपनाए, मगर वो भूल गए कि गली-कूचों में “भिया और भिडु “ तैयार करके विधायकी
हासिल करना अलग बात है, भद्र और कुलीन समाज का खेल माने जाने वाले क्रिकेट की सत्ता
पर कब्ज़ा जमाना और बात।
इसी तरह देश के
इतिहास में शायद ये पहला ही मौका होगा, जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दो सौ से
ज़्यादा कार्यकर्ताओं के हुजूम ने इंदौर में भाजपा कार्यालय पर धावा बोल दिया। संघी
मनोज परमार मामले के जाँच अधिकारी के एकाएक तबादले से नाराज़ थे। सूबे के मुखिया के
खिलाफ़ जमकर नारेबाज़ी कर रहे इन कार्यकर्ताओं का आरोप था कि सरकार ईमानदारी से काम
करने वाले अधिकारियों को प्रताड़ित कर रही है। इंदौर इन दिनों गैंगवार और माफ़िया की
गिरफ़्त में फंसकर कराह रहा है। मगर इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं।
प्रदेश के मुखिया
हवाई सफ़र, विदेश
भ्रमण, तीर्थाटन, देवदर्शन या फ़िर
प्रदेश के रमणिक स्थलों पर परिवार के साथ सुस्ताने में व्यस्त रहते हैं। इन
गतिविधियों से कभी कुछ वक्त मिल जाता है, तो मीडिया का चोंगा थाम कर देश-विदेश की हर
छोटी-बड़ी घटना पर अपने “अनमोल वचन” प्रसारित करके उपस्थित दर्ज कराते रहते हैं।
मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा
थूकने की प्रवृत्ति के पोषक मुख्यमंत्री प्रदेश की हर बड़ी घटना पर मुँह सिलकर बैठ
जाते हैं । घ्से मौके पर नरोत्तम मिश्र या कैलाश विजयवर्गीय को आगे कर दिया जाता
है।
इसके अलावा यह भी
एक दिलचस्प खबर है कि सूबे के मुखिया औसत हर रोज़ दो घंटे हवाई यात्रा में बिताते
हैं। सब कुछ हवा में ही है, ज़ीन पर कुछ नहीं अगर है भी तो बस पोलपट्टी।
यही नतीजा है कि भाजपा के ज़िला पदाधिकारी भी अपना सिर पीट रहे हैं। वे कहते हैं कि
ज़िलों में ना सड़क है ना बिजली और ना ही पानी, बरसात में तो हालात बदतर हो चुके हैं, घ्से में जनता को
क्या जवाब दें? अधिकांश
पदाधिकारी मानते हैं कि इन मुद्दों को लेकर दिग्विजय सिंह को सत्ता से उखाड़ फ़ेंकने
वाली जनता अब भाजपा को सबक सिखाने का मूड बना रही है। मगर दिल्ली की चाँडाल दृ
चौकड़ी को हफ़्ता पहुँचाकर अपनी कुर्सी बचाए रखने वालों का जनता के सुख-दुख से क्या
सरोकार?
आरएसएस के
अनुषांगिक संगठन भारतीय किसान संघ के
पूर्व अध्यक्ष शिवकुमार शर्मा भी प्रदेश सरकार की कारगुज़ारियों पर अँगुली उठाते
रहे हैं। ये अलग बात है कि भाजपा सरकार की मुखालफ़त की उन्हें भारी कीमत चुकाना
पड़ी। सच बोलने की सज़ा के तौर पर उन्हें असंवैधानिक तरीके से पद से हटा दिया गया, करीब पंद्रह दिन
जेल की सलाखों के पीछे फ़ेंका गया सो अलग। हाल ही में अरविंद केजरीवाल के भोपाल में
आयोजित कार्यक्रम में पहुँचे श्री शर्मा ने प्रदेश सरकार को यूपीए सरकार से भी चार
गुना ज़्यादा भ्रष्ट करार देकर सबको सकते में डाल दिया ।
अपनी साफ़गोई के लिए
पहचाने जाने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद रघुनंदन शर्मा दिलीप
सूर्यवंशी और सुधीर शर्मा जैसे लोगों को सत्ता का रोग मानते हैं। अपने खून-पसीने
से पार्टी को सींच कर यहाँ तक पहुँचाने वालों की कतार में शामिल रहे श्री शर्मा का
कहना है कि संकट के समय ये लोग नहीं दिखेंगे, उस समय काम आयेंगे त्यागी और सिद्धांतनिष्ठ
कार्यकर्ता । मगर उनकी इस नसीहत की आखिर ज़रुरत किसे है? अपना तो क्या चाचा
के मामा के ताऊ के फ़ूफ़ा तक की पुश्तों का
इंतज़ाम कर चुके इन सत्ताधीशों को क्या लेना देश से ,यहाँ की जनता से, भारत के लोकतंत्र
से ।
दरअसल इस देश में
इस तरह के लोकतंत्र की कोई ज़रुरत ही नहीं है। देश में भ्रष्टाचार के मूल में
लोकतंत्र के नाम पर खड़े किये गये चूषक तंत्र ही हैं। आज तक समझ ही नहीं आया कि
आखिर इस देश में दिल्ली से लेकर गाँवों की गली-कूचों तक जनप्रतिनिधियों के नाम पर
खडे किए गये इन सत्ता के दलालों की ज़रुरत क्यों है? अगर देश के नेता
सिर्फ़ दलाली खाने के लिए ही हैं तो इनका खर्च जनता क्यों उठाए? रार्ष्ट्पति शासन
में भी तो सरकारी मशीनरी बिना मुख्यमंत्री और मंत्रियों के बेहतर और सुचारु ढंग से
काम करती है। गौर करने वाली बात यह भी है कि जब से नगर निगम और नगर पालिकाएँ बनीं
तबसे अव्यवस्थाएँ और गंदगी फ़ैली महापौर और
पार्षद रातोंरात करोड़पति बन गए, मगर शहरों की हालत बद से बदतर होती गई। यही
हाल ग्राम स्वराज के नाम पर खड़ी की गई पंचायती राज व्यवस्था का है। पंच-सरपंच
पजेरो में सैर कर रहे हैं लेकिन गरीब आदमी सूखे निवालों से भी महरुम है। यानी अब
सत्ता बदलने की नहीं, देश चलाने के लिए नया रास्ता तलाशने का वक्त है।