गुरुवार, 5 अगस्त 2010

नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित न हो यह विरोध

तारीफे काबिल है स्वप्रेरणा से किया अहिंसक विरोध
 
फोरलेन बचाने अभी भी सुलग रही है सिवनी वासियों के मन में आग
 
जिला कलेक्टर से मिलकर मामले को सुलटाने के होना चाहिए प्रयास
 
(लिमटी खरे)

केंद्र सरकार की महात्वाकांक्षी स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना के अंग उत्तर दक्षिण फोरलेन गलियारे के मानचित्र से सिवनी जिले का नामोनिशान मिटाने की साजिश से सिवनी वासियों के मानस पटल पर रोष और असंतोष की ज्वाला अभी शांत नहीं हुई है। सिवनी के निवासी इस कुत्सित प्रयास का विरोध करने का माद्दा आज भी रख रहे हैं। मंगलवार 3 अगस्त को जिला मुख्यालय के निवासियों ने स्वप्रेरणा से आधे दिन का बंद कर जता दिया है कि वे फोरलेन के लिए कितने आतुर हैं।
 
गौरतलब होगा इसके पहले जब परिसीमन और पुर्नारक्षण के चलते सिवनी लोकसभा का विलोपन करने की खबरें आम हुईं थीं तब भी सिवनी वासी सडकों पर उतर आए थे, उस समय भी भगवान शिव की सिवनी के भोले भाले नागरिकों ने शांति, संयम और धैर्य के साथ सिवनी में जिस तरह का जनता कर्फयू लगाया था, उसकी गूंज दिल्ली तक गई थी, जिसे सभी ने सराहा था। यह अलहदा मामला है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी सिवनी लोकसभा के अवसान को बचाया नहीं जा सका था।
 
इस बार जब फोरलेन बचाने वालों ने बंद का आव्हान किया तब तरह तरह के कायस लगाए जा रहे थे। सोमवार को बंद का आव्हान करने वालों ने भले ही बंद के लिए व्यापक स्तर पर अपील न की गई हो, किन्तु शहर के व्यवसाईयों ने स्वप्रेरणा से जिस तरह शांति पूर्वक बंद का आयोजन किया वह तारीफे काबिल ही कहा जा सकता है। किन्तु इस सफलता से अतिउत्साह में आने की आवश्यक्ता कतई नहीं है, क्योंकि अति उत्साह में आंदोलन पथ से भटकने की संभावनाएं बलवती हो जाती हैं।
 
हम आज पुनः अपनी उसी बात पर कायम हैं कि इस फोरलेन के अवसान के प्रयासों के मामले में एक बार फिर हमें सोचना होगा कि मामलें में कांटा कहां फंसा है। मामला माननीय सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु नगर पंचायत, लखनादौन के पूर्व अध्यक्ष दिनेश राय और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता राजकुमार खुराना के सार्वजनिक किए गए वक्तव्यों से साफ हो जाता है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न तो नागपुर रोड पर कुरई घाट और जबलपुर रोड पर बंजारी के पास का काम रोका है, और न ही इसे आरंभ करने में उन्हें कोई आपत्ति है।
 
अगर इन नेता द्वय की बात सच है तो फिर मामला तत्कालीन जिला कलेक्टर सिवनी पिरकीपण्डला नरहरि के 18 दिसंबर 2008 को जारी किन्तु 19 दिसंबर को पृष्ठांकित आदेश के तहत अवरूद्ध हुआ है। सवाल यह उठता है कि जब काम को सिवनी के जिला कलेक्टर द्वारा ही रोका गया है, तब फोरलेन बचाने आगे आने वाले संगठनों द्वारा जिला कलेक्टर सिवनी से अब तक इस मामले मंे चर्चा कर इसका निकाल निकालने का जतन क्यों नहीं किया गया है? माननीय सर्वोच्च न्यायालय में मामला लंबित है, इस मामले के दो विशेष पक्षों के रूप में वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश और भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ के नाम सामने आ रहे हैं जिन पर आरोप है कि उनके चलते इस सडक का निर्माण रूका हुआ है।
 
राजनैतिक प्रतिबद्धताओं के चलते एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप आम बात है, किन्तु जब मामला सार्वजनिक और विशेषकर सिवनी के हित का हो तो फिर हमारे विचार से इसमें राजनैतिक प्रतिबद्धताओं को गौड ही करना आवश्यक है, वरना यह पूरा मामला राजनीति की बली ही चढ जाएगा और मूल मुद्दा अंत तक कायम रहेगा। हमारी अपनी राय में इस मामले में चूंकि एक बार प्रथम दृृष्टया उभरकर सामने आ रही है कि मामले को जिला कलेक्टर द्वारा आदेश जारी कर रोका गया है, अतः जिला कलेक्टर से मिलकर मामले को सुलझाना पहली प्राथमिकता होना चाहिए, वस्तुतः एसा होता अब तक दिखा नहीं है। जब भी फोरलेन की बात सामने आ रही है, ले दे कर सभी इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय पर लाकर टिका दे रहे हैं।
 
इस पूरे मामले में जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा से भी हम सहमत नहीं हैं। वस्तुतः विधायक और सांसद जिन्हें सिवनी के मतदाताओं ने जनादेश देकर सदन में भेजा है, उन्हें भी इस मामले में स्वप्रेरणा से पहल करना चाहिए। अगर विधायक सांसद अपनी जवाबदारियों का निर्वहन करने में अपने आप को सक्षम नहीं पा रहे हैं तो आंदोलन का नेतृत्व करने वालों को चाहिए कि इन जनसेवकों से मिलकर उनको एक निश्चित समय सीमा तक का समय दें, और अगर समय सीमा में वे अपनी जवाबदारियों के निर्वहन में असफल हों तो उनका वह चेहरा भी उनको जनादेश देकर सदन में भेजने वाली जनता के समक्ष रखना चाहिए। वैसे यह काम आंदोलन के आरंभ होने के उपरांत कुछ माहों में हो जाना चाहिए था। हमारी अपनी निजी राय में अभी भी देर नहीं हुई है, विधायक सांसद को कम से कम तीस दिन का अल्टीमेटम दिया जाना आवश्यक है, जरूरी नहीं कि इससे आंदोलन का नेतृत्व करने वाले सहमत हांे।

इस मामले में आंदोलन का नेतृत्व करने वाले सम्मानीय बंधुवरों से हम विनम्र आग्रह करना चाहते हैं कि चूंकि मामला जिला कलेक्टर सिवनी द्वारा जारी आदेश के तहत रोका गया है, अतः इस मामले में जिले के विधायक सांसद और प्रभारी मंत्री के सहयोग से सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान सहित प्रदेश के मुख्य सचिव आदि को पहल के लिए बाध्य करना होगा, ताकि सिवनी से होकर गुजरने वाली शेरशाह सूरी के जमाने की एतिहासिक महत्व की इस सडक के अस्तित्व को बचाया जा सके। पिछले साल 21 अगस्त और आज जिला मुख्यालय की जनता ने यह जता दिया है कि वह फोरलेन के साथ छेडछाड बर्दाश्त करने की स्थिति में कतई नहीं है। साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि इस तरह के सफल आंदोलन अपने आप में एक उर्जा का काम अवश्य करते हैं, किन्तु कहीं इन आंदोलनों की गूंज दिल्ली और भोपाल में बज रहे नगाडों के बीच ‘‘नक्कारखाने में तूती की आवाज‘‘ न साबित हो जाएं।

क्या जहर ही खिलाने पिलाने का जिम्मा है सरकार के पास

बीमार करती हरी सब्जियां और बेबस सरकार
 
आक्सीटोन खा गया गिद्ध को
 
प्रतिबंध क्यों नहीं लगाती सरकार आक्सीटोन पर
 
शीतल पेय के बाद अब हरी सब्जियां हुईं घातक
 
कहीं बाबा रामदेव का बिजनेस प्रमोशन का अंग तो नहीं है यह प्रोपोगंडा
 
(लिमटी खरे)

बचपन से एक ही बात कानों में गूंजती आई है, चाहे दादा दादी हों, नाना नानी या फिर और कोई बुजुर्ग। हर किसी ने कहा है कि बेटा हरी सब्जियां खाया करो, इससे आंखों की रोशनी तेज होती है, शरीर स्वस्थ्य रहता है, बीमारियां पास नहीं फटक पाती हैं। इक्कसीवीं सदी में इलेक्ट्रानिक मीडिया के चलते कमोबेश भगवान का दर्जा पाने वाले स्वयंभू योग गुरू बाबा रामदेव ने भी लौकी को अमृत तुल्य की संज्ञा दे डाली। हरी सब्जियों के वे भी हिमायती रहे हैं। कालांतर में इन्हीं हरी सब्जियों में जहर की बात भी सामने आने लगी है।
 
पिछले कुछ दिनों से इलेक्ट्रानिक मीडिया चीख चीख कर आगाह कर रहा है कि हरी सब्जियां लेने जाएं या उनका सेवन करे तो पूरी पूरी सावधानी बरतें। इसमें जहर हो सकता है। यह जहर प्राकृतिक तौर पर तो नहीं था अब तक जाहिर है मानव द्वारा ही जल्दी और ज्यादा लाभ कमाने की प्रवृति ने उसे इस ओर धकेला है कि वह तो खुद ज्यादा लाभ कमाए पर बाकी लोगों की थाली में जहर परोसे।
 
मीडिया यह बात समाज के सामने ला रहा है कि हरी सब्जियों जैसे लौकी आदि में जहर है, विषाक्त लौकी खाने से एक व्यक्ति के काल के गाल में समाने तक की बात को कहा है मीडिया ने। मीडिया यह बात भी बता रहा है कि यह जहर एक विशेष प्रकार के ‘‘आक्सीटोन‘‘ नामक इंजेक्शन के सब्जियों में लगाने से पनपता है। यह वही आक्सीटोन का इंजेक्शन है, जिसे मवेशियों में लगाने से मवेशी अधिक मात्रा में दूध देते हैं।
 
यद्यपि यह बात अभी प्रमाणित नहीं हो सकी है कि इस आक्सीटोन का इंजेक्शन लागातार लगाने के उपरांत मरने वाले दुधारू मवेशी का मांस कितना भयानक जहर युक्त हो जाता है, किन्तु पिछले एक डेढ दशक में मरे पशुओं का मांस खाकर पर्यावरण की सफाई के पुरोधा माने जाने वाले गिद्ध का जिस तरह से अवसान हुआ है, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन मवेशियों के मृत शरीर में जहर ही होता होगा जो गिद्ध अचानक ही विलुप्त प्रजाति की श्रेणी में आ गए हैं। वरना और कोई कारण नहीं है कि पर्यावरण के रक्षक इन गिद्धों का अचानक ही गायब हो गए हैं। गिद्ध का मांस भी कोई नहीं खाता है कि समझ लिया जाए कि गिद्ध का शिकार हो रहा हो।
 
दुधारू पशुओं के उपरांत अब आक्सीटोन का कहर हरी विटामिन युक्त सब्जियों पर टूट पडा है। जब यह बात साफ तौर पर साबित होने लगी है कि इन सारी बातों की जड में आक्सीटोन इंजेक्शन ही है, तो भारत गणराज्य की सरकार का स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण महकमा आखिर इस जहर के प्रमुख स्त्रोत आक्सीटोन पर प्रतिबंध लगाने की कार्यवाही क्यों नहीं कर पा रहा है। जिस तरह नशे का इंजेक्शन सस्ता होने के साथ ही सहज सुलभ है, उसी तरह आक्सीटोन भी सहज सुलभ और सस्ता होने के चलते जहर का यह कारोबार बहुत ही तेजी से फल फूल रहा है। कहते हैं कि आक्सीटोन का इंजेक्शन लगाने से रातों रात में ही लौकी का साईज जीरो से फुल हो जाता है। भला कौन सा किसान या व्यवसायी न होगा जो रातों रात माल अंटी न करने की इच्छा रखता होगा।
 
वस्तुतः देश पर शासन करने वालों का प्रमुख दायित्व अपनी रियाया की जान माल की रक्षा करने का होता है, पर पिछले कुछ दशकों से एक बात साफ तौर पर उभरकर सामने आई है कि भारत गणराज्य पर राज करने वाले शासकों को इस बात से कोई लेना देना नहीं है कि भारत गणराज्य की उस जनता ने जिसने विशाल जनादेश देकर इन शासकों को कुर्सी पर बिठाया है उसकी कोई सुनवाई हो।
 
गौरतलब है कि शीलत पेय के मामले में भी भारत सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने पूरी तरह से घुटने ही टेके हुए है। शीतल पेय में कीटनाशक की मात्रा के अनुपात के मामले में आज भी भारत गणराज्य की सरकार द्वारा मानक तय नहीं किए जाना दुखद और आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। कुल मिलाकर सारी स्थिति परिस्थिति को देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि भारत गणराज्य की जनता को जहर खिलाना और पिलाना अब भारत सरकार का पहला दायित्व बनकर रह गया है।
 
इक्कीसवीं सदी के स्वयंभू योग गुरू बाबा रामदेव ने पहले लोगों को योगा सिखाने के उपरांत लौकी का जूस पीने का मशविरा दिया। इसके बाद बाबा के अनुयायी और योग के दीवानों ने लौकी के कच्चे या पके जूस को पीना आरंभ कर दिया। अब जबकि लौकी में ही आक्सीटोन के चलते जहर की बात प्रचारित कर दी गई है तो अब लोग लौकी का जूस निकालकर पीने के स्थान पर ‘‘बाबा रामदेव‘‘ के पतांजली योग प्रतिष्ठान के ‘‘शुद्ध‘‘ लौकी के जूस का सेवन न करें तो क्या करें। हालात देखकर एसा भी लगता है मानो बाबा रामदेव ने अपने पतांजली के प्रोडक्ट को बाजार में स्थापित करने की गरज से तो मीडिया के माध्यम से इस तरह का प्रोपोगंडा तो नहीं करवाया जा रहा है।

एक बात और यह भी उभरकर सामने आई है कि जबसे मीडिया में कार्पोरेट सेक्टर संस्कृति ने अपने पैर जमाए हैं और ‘‘घराना पत्रकारिता‘‘ का आगाज हुआ है, तबसे मीडिया की बात पर देश के शासकों ने बहुत ज्यादा ध्यान और तवज्जो देना बंद ही कर दिया है। हमंे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज मीडिया चाहे जितना भी चीख चिल्ला ले पर शासकों पर इसका बहुत ज्यादा असर नहीं होता है, इसका कारण भारत गणराज्य में प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ में धनकुबेरों की संेध को ही माना जा सकता है। बहरहाल भारत सरकार को चाहिए कि ‘‘आक्सीटोन‘‘ नामक जहर के इंजेक्शन को तत्काल प्रभाव से प्रतिबंधित दवा की श्रेणी में शामिल करे ताकि आवाम ए हिन्द मंहगाई और मिलावट के इस जमाने में कम से कम शुद्ध हरी सब्जियों और दूध का सेवन तो कर सके।

फोरलेन पर घडियाली आंसू

सीआरएफ की सडकों का बहिष्कार क्यांे नहीं करते जनसेवक
 
फोरलेन पर घडियाली आंसू पर जब केंद्रीय मदद की आती है बात तो भूल जाते हैं सिवनी के हक का मामला
 
(लिमटी खरे)

सिवनी। उत्तर दक्षिण गलियारे में पेंच नेशनल पार्क का पेंच फंसने के बाद जब भी जनाक्रोश भडकने की आशंका होती है, सिवनी जिले के सांसद विधायक घडियाली आंसू बहाना आरंभ कर देते हैं, किन्तु जब भी केंद्रीय सहायता से बनने वाली सीआरएफ (सेंट्रल रोड फंड) की सडकों की बात आती है, तो ये सारे सांसद विधायक उन्हें लपकने लालायित ही दिखते हैं। वस्तुतः अगर सिवनी के हितों की इतनी ही चिंता में ये जनसेवक दुबले हुए जा रहे हैं तो फोरलेन के अडंगे के हटने तक इन्हें केंद्रीय सहायता से बनने वाली सडकों का बहिष्कार करना चाहिए।
 
गौरतलब है कि मुगल शासक शेरशाह सूरी के जमाने के इस मार्ग जिसे अब उत्तर दक्षिण गलियारे की संज्ञा दे दी गई है, से होकर आदि शंकराचार्य ने भी गमन किया था। इस सडक में पेंच नेशनल पार्क के महज नौ किलोमीटर के हिस्से के कथित तौर पर विवादित होने के उपरांत इसके निर्माण का काम रोक दिया गया है। सडक निर्माण में फंसा पेंच मूलतः भूतल परिवहन मंत्रालय और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के बीच अहं की लडाई का एक हिस्सा बन गया बताया जा रहा है।
 
अप्रेल माह में एक समाचार पत्र को दिए साक्षात्कार में वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि सिवनी की जनता चाहती है कि यह मार्ग सिवनी से होकर जाए किन्तु उन्हें मौके पर जाकर (संभागीय मुख्यालय जबलपुर जाकर) देखा और पाया कि यह पेंच कारीडोर को काट रही है, इसलिए उन्होंने इस मार्ग को रेड लाईट दिखाकर रोक दिया है। मामला किसने और किसके आदेश से रूका है, यह अनसुलझी पहेली आज भी सिवनी जिले की भोली भाली जनता के मानस पटल में घूम रही है।
 
जितने मुंह उतनी बात की तर्ज पर जिसके मन में जो आ रहा है, वह वैसी कहानी गढकर जनता के समक्ष प्रस्तुत करने से नहीं चूक रहा है। वहीं दूसरी ओर एक और खुलासे से केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री के दावे की हवा निकल जाती है जिसमें इसी कारीडोर से होकर गुजरने वाले बालाघाट से जबलपुर नेरोगेज के अमान परिवर्तन को वन विभाग द्वारा हरी झंडी दे दी जाती है। मतलब साफ है कि जयराम रमेश की नजरों में सिवनी से होकर गुजरने वाला उत्तर दक्षिण फोरलेन गलियारा तो वन्य जीवों पर प्रतिकुल प्रभाव डाल रहा है पर इसी कारीडोर से होकर गुजरने वाली रेल लाईन से इन वन्य प्राणियों को कोई असर होने वाला नहीं। एक ही मामले में दो तरह का रवैया समझ से परे ही कहा जाएगा।
 
सिवनी जिले से ताल्लुक रखने वाले भाजपा के बालाघाट के सांसद के.डी.देशमुख, मण्डला के कांग्रेसी सांसद बसोरी मसराम द्वारा एक साल पूरा होने पर भी इस मामले में संसद में प्रश्न न लगाने से उनकी भूमिका जिलावासियों की नजरों में तो संदिग्ध हो ही चुकी है, साथ ही साथ भाजपा की सिवनी विधायक श्रीमति नीता पटेरिया, लखनादौन की शशि ठाकुर, बरघाट के कमल मस्कोले सहित केवलारी के इकलौते कांग्रेसी विधायक ठाकुर हरवंश सिंह ने भी विधानसभा का ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं कराया है, जिससे जनमानस में इनका जनादेश के प्रति सम्मान साफ परिलक्षित होने लगा है।
 
उल्लेखनीय होगा कि भूतल परिवहन मंत्रालय द्वारा जब भी इन जनसेवकों के सामने प्रलोभन के तौर पर सीआरएफ मद से सडक निर्माण की बात रखी जाती है, तो ये सभी फोरलेन विवाद को बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय की तर्ज पर फोरलेन को भूलकर अपने अपने क्षेत्र को समृद्ध करने की जुगत लगाने लग जाते हैं। ये सारे जनसेवक यह भूल जाते हैं कि यह मार्ग लखनादौन, केवलारी, सिवनी, बरघाट विधान सभा क्षेत्र के साथ ही साथ मण्डला और बालाघाट संसदीय क्षेत्र से होकर भी गुजर रही है, जिसकी रक्षा करना इन जनसेवकों की पहली प्राथमिकता होना चाहिए।

कहा जा रहा है कि फोरलेन मामले में जनसेवकों का ध्यान फोरलेन प्रकरण से भटकाने हेतु सांसद विधायकों के सामने जलेबी लटकाने के लिए कंेद्र में बैठे नुमाईंदों द्वारा केंद्रीय सडक निधी की सडकों को परोस दिया जाता है। जैसे ही इन सडकों की बात आती है, सांसद विधायकों द्वारा एतिहासिक महत्व के इस उत्तर दक्षिण गलियारे के पेंच नेशनल पार्क के प्रकरण को ठंडे बस्ते में डाल कर केंद्रीय सडक निधि का झुनझुना पकड लिया जाता है।

देश के 61 जिलों की नहीं है अपनी वेवसाईट

इक्कीसवीं सदी में नहीं पहुंच सका है भारत गणराज्य
 
सेट फारमेट के अभाव में विभिन्न तरह की हैं वेव साईट्स
 
वेव साईट तो हैं पर अपडेट नहीं होती
 
(लिमटी खरे)

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भविष्यदृष्टा की अघोषित उपाधि पाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सबसे पहले इक्कीसवीं सदी में जाने की परिकल्पना कर लोगों को अत्याधुनिक उपकरणों आदि के बारे में सपने दिखाए थे। आज वास्तव में उनकी कल्पनाएं साकार होती दिख रही हैं। विडम्बना यह है कि स्व.राजीव गांधी की अर्धांग्नी पिछले एक दशक से अधिक समय से कांग्रेस की कमान संभाले हुए हैं किन्तु कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ही आज इक्कीसवीं सदी में नहीं पहुंच सकी है।
 
आधुनिकता के इस युग में जब कम्पयूटर और तकनालाजी का जादू सर चढकर बोल रहा है, तब भारत गणराज्य भी इससे पीछे नहीं है। भारत में आज कंप्यूटर इंटरनेट का बोलबाला हर जगह दिखाई पड जाता है। जिला मुख्यालयों में भले ही बिजली कम ही घंटों के लिए आती हो पर हर एक जगह इंटरनेट पार्लर की धूम देखते ही बनती है। शनिवार, रविवार और अवकाश के दिनों में इंटरनेट पार्लर्स पर जो भीड उमडती है, वह जाहिर करती है कि देशवासी वास्तव में इंफरमेशन तकनालाजी से कितने रूबरू हो चुके हैं।
 
भारत गणराज्य की सरकार द्वारा जब भी ‘ई गवर्नंस‘ की बात की जाती है तो हमेशा एक ही ख्वाब दिखाया जाता है कि ‘‘अब हर जानकारी महज एक क्लिक पर‘‘, किन्तु इसकी जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। देश के कुल 626 जिलों में से 565 जिलों की अपनी वेव साईट है, आज भी 61 जिले एसे हैं जिनके पास उनकी आधिकारिक वेव साईट ही नहीं है। भारत में अगर किसी जिले के बारे में कोई जानकारी निकालना हो तो इंटरनेट पर खंगालते रहिए, जानकारी आपको मिलेगी, पर आधिकारिक तौर पर कतई नहीं, क्योंकि वेव साईट अपडेट ही नहीं होती है।
 
ई गवर्नंस के मामले में सबसे खराब स्थिति बिहार की है। बिहार के 38 जिलों में से महज 6 जिलों की ही आधिकारिक वेव साईट है, जबकि यहां के मुख्यमंत्री नितीश कुमार खुद ही अपने ब्लाग पर लोगो से रूबरू होते हैं। इसी तरह आंध्र प्रदेश के 23 में से 19, असम के 27 में से 24, छत्तीसगढ के 18 में से 16, झारखण्ड के 24 में से 20, कर्नाटक के 28 में से 27, मध्य प्रदेश के 50 में से 49, मिजोरम में 8 में पांच, पंजाब में 20 में 18 और तमिलनाडू के 31 में से 30 जिलों की अपनी वेव साईट है।
 
भारत गणराज्य के जिलों में आधिकारिक वेव साईट के मामले में सबसे दुखदायी पहलू यह है कि केंद्र सरकार के डंडे के कारण वेव साईट तो बना दी गई हैं, किन्तु इन्हें अद्यतन अर्थात अपडेट करने की फुर्सत किसी को नहीं है। जिलों में बैठे अप्रशिक्षित कर्मचारियों के हाथों में इन वेव साईट्स को अपडेट करने का काम सौंपा गया है, जिससे सब ओर अपनी ढपली अपना राग का मुहावरा ही चरितार्थ होता नजर आ रहा है।
 
वस्तुतः समूचा मामला ही केंद्रीय मंत्रालयों के बीच अहं की लडाई का है। अदूरदर्शिता के चलते सारा का सारा गडबडझाला सामने आने लगा है। जब नेशनल इंफरमैटिक संेटर (एनआईसी) का गठन ही कंप्यूटर इंटरनेट आधारित प्रशासन को चलाने के लिए किया गया है तब फिर इस तरह का घलमेल क्यों? एनआईसी का कहना है कि उसका काम मूलतः किसी मंत्रालय या जिले की अथारिटी के मशविरे के आधार पर ही वेव साईट डिजाईन करने का है। इसे अद्यतन करने की जवाबदारी एनआईसी की नहीं है।
 
देखा जाए तो एनआईसी के जिम्मे ही वेव साईट को अपडेट किया जाना चाहिए। जब देश के हर जिले में एनआईसी का एक कार्यालय स्थापित है तब जिले की वेव साईट पर ताजा तरीन जानकारियां एनआईसी ही करीने से अपडेट कर सकता है। चूंकि इंटरनेट  और कम्पयूटर के मामले में जिलों में बहुत ज्यादा प्रशिक्षित स्टाफ की तैनाती नहीं है इसलिए या तो ये अपनी अपनी वेव साईट अपडेट नहीं कर पाते हैं, या फिर तकनीक की जानकारी के अभाव के चलते करने से कतराते ही हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में गौतम बुद्ध नगर पूर्व में (नोएडा) में न्यू का एक साईन लिए टेंडर नोटिस लगा हुआ है, जिसमें 2008 का एक टेंडर जो 2009 में जारी कर दिया गया है आज भी विद्यमान है। इसी तरह अनेक जिलों की वेव साईट में भी सालों पुरानी जानकारियां आज भी लगी हुई हैं।
 
इसके अलावा एक और समस्या मुख्य तौर पर लोगों के सामने आ रही है। हर जिले की वेव साईट अलग अलग स्वरूप या फार्मेट में होने से भी लोगों को जानकारियां लेने में नाकों चने चबाने पड जाते हैं। फार्मेट अलग अलग होने से लोगों को जानकारियां जुटा पाना दुष्कर ही प्रतीत होता है। अगर शिक्षा पर ही जानकारियां जुटाना चाहा जाए तो अलग अलग जिलों में प्रदेश के शिक्षा बोर्ड और कंेद्रीय शिक्षा बोर्ड के अधीन कितने स्कूल संचालित हो रहे हैं, उनमें कितने शिक्षक हैं, कितने छात्र छात्राएं हैं, यह जानकारी ही पूरी तरीके से उपलब्ध नहीं हो पाती है।
 
दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू काश्मीर, केरल, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, उडीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल आदि सूबों में शत प्रति जिलों की अपनी वेव साईट हैं, पर यह कोई नहीं बात सकता है कि ये कब अद्यतन की गई हैं। लचर व्यवस्था के चलते सरकारी ढर्रे पर चलने वाली इन वेव साईट्स से मिलने वाली आधी अधूरी और पुरानी जानकारी के कारण लोगों में भ्रम की स्थिति निर्मित होना आम बात है।

देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस जिसने देश पर आधी सदी से अधिक तक राज किया है को चाहिए कि देश भर के समस्त जिलों, संभागों की आधिकारिक वेव साईट को एक सेट फार्मेट में बनाए, और इसको अपडेट करने की जवाबदारी एनआईसी के कांधों पर डालें क्योंकि इंफरमेशन टेक्नालाजी के मामले में एनआईसी के बंदे ही महारथ हासिल रखते हैं। इसके साथ ही साथ केंद्र सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि ये वेव साईट समय समय पर अपडेट अवश्य हों, इसके लिए जवाबदेही तय करना अत्यावश्यक ही है, वरना आने वाले समय में लोग कांग्रेस के भविष्य दृष्टा स्व.राजीव गांधी के बाद वाली नेहरू गांधी परिवार की पीढी को बहुत इज्जत, सम्मान और आदर की नजर से देखेंगे इस बात में संदेह ही है।

फोरलेन विवाद का सच ------------01

आखिर क्या है फोरलेन विवाद
 
सडक बचाने के ठेकेदार क्यों बच रहे हैं जनसामन्य को विवाद के बारे में विस्तार से बताने से!
 
आखिर हंगामा क्यों है बरपा, कोई क्यों नहीं जानता?
 
दलगत भावना से उपर उठकर जनसेवकों की भूमिकाओं को किया जाना चाहिए सार्वजनिक
 
(लिमटी खरे)
 
सिवनी। जून 2009 के उपरांत भगवान शिव की सिवनी नगरी में हर किसी की जुबान पर बस एक ही बात है, कि फोरलेन को सिवनी से छिंदवाडा ले जाने के षणयंत्र का ताना बाना बुना जा रहा है। आखिर क्या विवाद है फोरलेन का कि सारा का सारा जिला इससे व्यथित है। बार बार बंद का आव्हान किया जा रहा है। लोग अपनी भावनाएं प्रदर्शित कर रहे हैं, पर फोरलेन विवाद आखिर है क्या? इसको बचाने के बारे में अब तक क्या प्रयास किए गए हैं? इस बारे में सडक को बचाने हेतु आगे आए ठेकेदार बचते ही नजर आ रहे हैं। ले देकर इस मामले में एक ही राजनेता ‘‘भूतल परिहन मंत्री कमल नाथ‘‘ को दोषी ठहराने और बचाने के लिए ही विज्ञप्ति युद्ध लडा जाकर अपनी सारी उर्जा नष्ट की जा रही है।

बताते हैं कि मुगल शासक शेरशाह सूरी के शासनकाल में व्यापार एवं आवागमन के उद्देश्य से जिस सडक का निर्माण किया गया था, कालांतर में वह सडक देश का सबसे व्यस्ततम राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात में तब्दील हो गया। इस मार्ग पर यातायात का दवाब सर्वाधिक महसूस किया जाता रहा है।
 
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजयेयी के शासनकाल में दो परियोजनाओं का खाका प्रमुख तौर पर तैयार किया गया था। इसमें नदी जोडने और देश के चारों महानगरों को सडक मार्ग से जोडने की कार्ययोजना पर काम आरंभ हुआ था। नदी जोडना तो संभव नहीं हो पाया किन्तु दिल्ली, कोलकता, चेन्नई और मुंबई को आपस में जोडने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज मार्ग की कल्पना को साकार करना आरंभ कर दिया गया था।

समय गुजरने के साथ ही दिल्ली से चेन्नई और मुंबई सेे कोलकता जाने वाले लोगों को लंबे चक्कर से बचाने की बात भी सरकार के ध्यान में लाई गई, जिसके परिणाम स्वरूप उत्तर दक्षिण और पूर्व पश्चिम गलियारे की कल्पना हुई जिसे मूर्त रूप देना आरंभ किया गया। जैसे ही उत्तर दक्षिण गलियारे के मानचित्र पर मध्य प्रदेश उभरा वैसे ही मध्य प्रदेश के अनेक क्षत्रप इस दिशा में प्रयासरत हो गए कि यह गलियारा उनके कार्य क्षेत्र से होकर गुजरे। चूंकि मामला राष्ट्रीय स्तर पर था और इसमें मध्य प्रदेश के क्षत्रपांे की मंशा भी स्पष्ट होती जा रही थी, अतः देश के बाकी क्षत्रपों ने इस उत्तर दक्षिण गलियारे के एलाईनमंेट से छेडछाड करने का पुरजोर विरोध किया। यही कारण था कि मध्य प्रदेश के स्वयंभू क्षत्रपों की मंशा के बावजूद यह सिवनी जिले से होकर गुजरना प्रस्तावित किया गया।

केंद्र में डॉ.मनमोहन सिंह जब दूसरी मर्तबा प्रधानमंत्री बने तब भूतल परिवहन मंत्रालय की महती जवाबदारी सिवनी के पडोसी जिले छिंदवाडा के सांसद कमल नाथ को सौंपी गई। राज्य सभा में कमल नाथ ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी कि वे चाहते थे कि यह गलियारा उनके संसदीय क्षेत्र छिंदवाडा से होकर जाए, किन्तु जब उन्हें बताया गया कि नरसिंहपुर से बरास्ता ंिछंदवाडा, नागपुर चूंकि नेशनल हाईवे नहीं है, अतः इसे छिंदवाडा से होकर गुजारा नहीं जा सकता है, तब वे शांत हो गए।
 
इसी बीच मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार ने चंद सडकों को राज्य के मार्ग के स्थान पर नेशनल हाईवे में तब्दील करने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा। इन प्रस्तावों में नरसिंहपुर से छिंदवाडा होकर नागपुर मार्ग भी शामिल किया गया था। बताते हैं कि इस मार्ग पर वैसे तो इतना यातायात नहीं है कि इस मार्ग का उन्नयन कर इसे नेशनल हाईवे बनाया जाए, किन्तु किसी ‘‘खास रणनीति या जुगलबंदी‘‘ के तहत इसे प्रस्ताव में शामिल करवा दिया गया।

संयोग से यह नेशनल हाईवे भी फोरलेन में बनना प्रस्तावित किया गया। चूंकि उत्तर दक्षिण गलियारे को फोरलेन की संज्ञा दी जा चुकी थी अतः लोगों के मानस पटल पर यह बात घर कर गई कि यही गलियारा अब नेशनल हाईवे जो नरसिंहपुर से नागपुर प्रस्तावित है, में तब्दील हो जाएगा। यही कारण है कि सिवनी वासियों ने भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ को पानी पी पी कर कोसना आरंभ कर दिया। विडम्बना तो यह थी कि कमल नाथ के नाम पर देश प्रदेश में राजनीति करने वाले और उनका झंडा उठाकर ‘‘जय जय कमल नाथ‘‘ के नारे बुलंद करने वालों ने भी कमल नाथ की खाल बचाने की जहमत नहीं उठाई, और न ही वास्तविकता ही सामने लाने का प्रयास किया गया कि आखिर फोरलेन विवाद है क्या? और किसके कहने या रोकने अथवा अनुमति न देने के कारण इस गलियारे का काम रूका हुआ है।

वस्तुतः यह काम फोरलेन बचाने का ठेका लेने वाले गैरसरकारी संगठनों जिसे राजनैतिक रंग दिया जाने लगा है, का काम था कि जिले की जनता को यह बताए कि वास्तव में फोरलेन विवाद है क्या? और इसका काम आरंभ न हो पाने में भूतल परिहन मंत्री कमल नाथ, वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जिले के सांसद के.डी.देशमुख, बसोरी सिंह मसराम, पांच में से चार बचीं विधानसभा क्षेत्रों के विधायक ठाकुर हरवंश सिंह, श्रीमति नीता पटेरिया, श्रीमति शशि ठाकुर, कमल मस्कोले की क्या भूमिका है? यह सब होना चाहिए दलगत भावना से उपर उठकर, किन्तु दुख का विषय तो यह है कि इन सारी बातों को जनता जनार्दन के सामने रखने के बजाए हर बार माननीय सर्वोच्च न्यायालय का भय बताकर ही सभी ने अपने अपने कर्तव्यों की इतीश्री कर ली।
(क्रमशः जारी)